1857 की क्रांति – 1857 स्वतंत्रता संग्राम के बारे में Naeem Ahmad, April 17, 2022March 25, 2024 भारत में अंग्रेजों को भगाने के लिए विद्रोह की शुरुआत बहुत पहले से हो चुकी थी। धीरे धीरे वह चिंगारी शोला बन गयी और यह शोला 1857 की क्रांति या 1857 का स्वतंत्रता संग्राम के नाम से भारतीय इतिहास में आज भी स्वर्णिम अक्षरों अंकित है। जिसमें हजारों शहीदों ने अपने प्राणों की आहुति देकर भारतवर्ष की धरती से अंग्रेजों को खदेड़ने की अलख जगाई। अपने इस लेख में हम भारत के सबसे प्रसिद्ध युद्ध 1857 की क्रांति का उल्लेख करेंगे और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से जानेंगे:— 1857 की क्रांति की शुरुआत कहाँ से हुई थी? 1857 की क्रांति क्यों हुई? 1857 में कौन सी क्रांति हुई थी? 1857 की ऐतिहासिक क्रांति के बारे में आप क्या जानते हैं? 1857 की क्रांति के कारण और परिणाम? 1857 की क्रांति के नायक? 1857 स्वतंत्रता संग्राम में कौन शहीद हुये? 1857 का स्वतंत्रता संग्राम कहाँ से शुरू हुआ था? 1857 के संग्राम का प्रथम शहीद कौन था? 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का तात्कालिक कारण क्या था? 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किसने किया था? ईस्ट इंडिया कंपनी का शासनसन् 1856 ईसवी के मार्च महीने तक लार्ड डलहोजी भारत का गर्वनर जनरल रहा था। उस समय तक अंग्रेजों का भारतीय साम्राज्यपूरे तौर पर विस्तार पा चुका था। झांसी के युद्ध के पहले से ही अंग्रेजों ने जिस प्रकार के षड़यंत्रों से काम लिया था, उनके फलस्वरूप इस देश के निवासियों हिन्दुओं और मुसलमानों के हृदयों में असंतोष और क्रोध की भावनायें उत्पन्न हुई थीं। क्लाइव के समय से लेकर लार्ड डलहोजी के समय तक कम्पनी के अधिकारियों ने जिस कूटनीति का सहारा लिया था, उसने भारतीयों के मनोभावों में उनके प्रति घृणा उत्पन्न कर दी थी। जो वादे कम्पनी की तरफ से किये जाते थे, वें, झूठे होते थे, जो संधियाँ होती थी, उनका कोई भी अस्तित्व न होता था। भारत के राज परिवारों का विनाश किया गया था, भयानक पड़यंत्रों और लज्जापूर्ण उपायों के द्वारा उनकी रियासतें लेकर अंग्रेजी राज्य में शामिल की गयी थीं। देश के प्राचीन व्यवसायों को नष्ट करके करके उसके निवासियों की जीविका नष्ट की गयी थी। राजमहलों में आक्रमण करके रातनियों और बेगमों को लूटा गया था। जमींदारियां नष्ट करके जमीदारों को बरबाद किया गया था। किसानों के अधिकारों को छीनकर उनको मिटाया गया था। इन सभी बातों ने मिलकर भारतीयों के दिलों में अंग्रेजों के प्रति आग उत्पन्न कर दी थी।इसके बाद डलहोजी का शासन आरम्भ हुआ। महाराजा रणजीत सिंह के साथ बेईमानी करके उसने पंजाब को मिट्टी में मिलाया। लाहौर के अधिकारियों में उसने फूट पैदा की। दलीपसिंह और उसकी विधवा माता को उसने देश से निकाल दिया और पंजाब का उपजाऊ प्रान्त उसने अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। बिना किसी कारण के उसने बर्मा पर आक्रमण किया। भारत के राजाओं में गोद लेने की प्रथा को नष्ट करके उसने सतारा, झांसी, नागपुर के राज्यों को अपने अधिकार में कर लिया। अवध के नवाब को अयोग्य कहकर उसने उसके राज्य पर कब्जा किया। नवाब वाजिद अली शाह को कैद करके कलकत्ता भेज दिया। इस प्रकार एक एक करके उसने भारत की समस्त रियासतों को लेकर अंग्रेजी राज्य का विस्तार किया। साधारण प्रजा के साथ भी जो अत्याचार किये गये वे भयानक क्रूरता और निर्दयता से भरे हुए थे। तरह-तरह के अन्यायों से देश तबाह और बरबाद किया गया। प्रत्येक मनुष्य असंतोष की आहें ले रहा था। प्रजा से लेकर राजाओं औरर नवाबों तक सब के सब असंतुष्ट और दुखी थे। इस अवस्था में कम्पनी का शासन देश में चल रहा था।देश में युद्ध की शक्तियांसंगठन और सहानुभूति की बुद्धि इस देश के निवासियों को कदाचितु भगवान ने न दी थी। अत्यन्त प्राचीन काल से इस देश के निवासी सभी प्रकार समर्थ और सुखी थे, लैकिन विपदाओं में एक दूसरे के साथ मिलकर और एकता की शक्ति को मजबूत बनाकर वे विपदाओं का सामना करना न जानते थे। इसका लाभ विदेशियों ने सदा उठाया ओर अंग्रेंजों ने उसी का लाभ उठाकर इस देश में अपना साम्राज्य कायम किया। देश में युद्ध करने की शक्तियां न थीं। जो थीं, उनको अंग्रेजों ने अपनी भीषण कूटनीति के द्वारा नष्ट कर दिया। राजाओं की शक्तियां इस देश में अलग अलग काम करतीं थीं। कोई एक बड़ी शक्ति न थी। बाबर ने आकर मुग़ल राज्य की स्थापना की थी और अकबर ने उसे सुदृढ़ तथा अजेय बनाया था। लेकिन ईस्ट इंडिया कम्पनी के आने के समय उस साम्राज्य की इमारत पुरानी और धीरे-धीरे निर्बल होती जा रही थी। उसकी निर्बलता के दिनों में बहुत से राजा और नवाब स्वतंत्र हो गये थे और देश की एक शक्ति सैकड़ों भागों में फिर विभाजित हो चुकी थी। इस प्रक्रार उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक देश में जो छोटे और बड़े राज्य थे, वे आपस में खूब लड़ रहे थे और एक दूसरे को मिटाने में लगे थे। देश के इन्हीं दुर्दिनों में विदेशी व्यापारियों ने इस देश में प्रवेश किया था और उनमें इंग्लैंड की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अवसर का लाभ उठाकर अपनी दूषित कुटनीति के बल पर उसने अपना राज्य कायम किया था। प्रजा से लेकर राजाओं औरर नवाबों तक सब के सब निर्बल,अनाथ और असहाय हो चुके थे। कम्पनी के अत्याचारों की भयानक आंधियों के कारण किसी को कुछ दिखायी न पड़ता था। युद्ध की शक्तियां नष्ट-भ्रष्ट हो चुकी थीं। उस असहाय अवस्था में कम्पनी के अधिकारी जैसा चाहते थे, देश के हिन्दुओं और मुसलमानों को वही करना पड़ता था। वे सभी मिलकर एक अटूट शक्ति का निर्माण न कर सकते थे। अपनी अपनी शक्तियों को एक, दूसरे से अलग रखकर वे अपना जीवन बिता रहे थे। देश में युद्ध करने की कोई शक्ति न रह गयी थी। युद्ध के रूप में क्रान्तिकम्पनी के अधिकारियों ने देश में जो अन्याय और अत्याचार किये, उनके कारण अशान्ति ओर असन्तोष को उत्पत्ति हुईं। यह असंतोष चिंगारियों के रूप में बदला और कुछ समय के बाद उसने धुआं देना आरम्भ किया। उस धुंए से स्वतंत्रता संग्राम की लपटें उठती हुई दिखायी देने लगीं। जिन लोगों की रियासतें जब्त हुई थीं और जिनके अधिकार छीने गये थे, उनके दिलों में क्रान्ति की आग सुलगने लगी और उन्हीं में से कुछ लोग होने वाली क्रान्ति के संचालक बन गये। कम्पनी ने सम्पूर्ण देश का विनाश किया था। एक सौ वर्ष तक अंग्रेजी आधिपत्य में रहने के कारण बंगाल अपनी जीवन शक्ति को खो चुका था। मद्रास और बम्बई की भी कुछ यही अवस्था हो गयी थी। लेकिन पूर्वी प्रान्तों में जीवन बाकी था। इसलिए क्रान्ति की आग वहीं पर सुलगी और प्रज्वलित हुई। कम्पनी के शासन में मराठा शक्तियों का विनाश अन्त में हुआ था। पेशवा का राज्य छीना गया था। उसका दत्तक, पुत्र नाना साहब अपने न्यायपूर्ण अधिकारों से वंचित किया गया था। सतारा, नागपुर और झांसी की रियासतें अंग्रेजी राज्य में मिला ली गयी थीं। संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध के मुसलमानों ने दिल्ली ओर लखनऊ के शाही खानदानों को लुटते मिटते और विध्वंस होते हुए अपने नेत्रों से देखा था। इसलिए उनके दिलों में जो आग लगी हुई थी, उसने सन् 1857 ईसवी का भयानक विप्लव उत्पन्न किया। देश में युद्ध की शक्तियां मिट चुकी थीं, फिर भी देश की स्वाधीनता के लिए युद्ध का आविर्भाव हुआ। उसने क्रान्ति के रूप में युद्ध का काम किया। इसीलिए सन् 1857 ईसवी के स्वाधीनता के युद्ध को क्रान्ति का नाम दिया गया। 1857 क्रान्ति की तैयारियांदेश में अंग्रेजों के प्रति राजनीतिक असंतोष था। लेकिन राजनीति के स्थान पर धार्मिक भावना ने अधिकार कर रखा था। इस धार्मिकता के प्रवाह की दिशा कोई एक न थी। हिन्दू, सिख और मुसलमान तीनों धर्म के नाम पर एक दूसरे के विपरीत मार्गों पर चलते थे। हिन्दुओं और सिखों के मतभेद का कारण यह हुआ कि इस क्रान्ति में हिन्दू और मुसलमान एक साथ एक होकर चले और सिख, मुसलमानों के साथ एक मार्ग पर चलना नहीं चाहते थे। इसलिए वे इस क्रान्ति में शामिल न हो सके और कम्पनी के अंग्रेजों ने इसका तुरन्त लाभ उठाया। प्रत्येक अवस्था में देश में क्रान्ति की आग सुलग रही थी। लेकिन किसी एक शक्ति की आवश्यकता थी, जो इस सुलगती हुईं आग को प्रवजलित कर सके। समय आ जाने पर आवश्कता की पूर्ति होती है। सन् 1851 ईसवी में अन्तिम पेशवा बाजीराव की मृत्यु हो गयी थी। मृत्यु के पहले ही, सन् 1827 ईसवी में पेशवा बाजीराव ने नाना धुन्ध पन्त को गोद लिया था। नाना की अवस्था उस समय तीन वर्ष की थी। सन् 1818 ईसवी में राज्य के छीने जाने पर बाजीराव कानपुर के निकट विठूर में चला गया था और वहीं पर वह रहा करता था। पेशवा के साथ उस समय लगभग आठ हजार स्त्री, पुरुष और बच्चे थे, जो उसके साथ रहते थे। बाजीराव के राज्य के बदले में कम्पनी ने उसको और उसके उत्तराधिकारियों को पेन्शन में आठ लाख रुपये वार्षिक देते रहने का लिखकर वादा किया था। बाजीराव के मरते ही लार्ड डलहोजी ने इस पेंशन को बन्द कर दिया था और इस पेंशन के सिलसिले में ही बाजीराव के जो 62 हजार रुपये बाकी थे, उनके अदा करने से भी डलहोजी ने इनकार कर दिया। इसके साथ-साथ नाना साहब को नोटिस दे दिया कि बाजीराव की जागीर विठूर पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। वह तुमसे छीन ली जायगी।लखनऊ के क्रांतिकारी और 1857 की क्रांति में अवधनाना साहब स्वयं अंग्रेजों का शुभचिंतक था। बिठूर में आने वाले अंग्रेजों और उनके परिवार के लोगों के आतित्थ्य सत्कार में वह जिस प्रकार सम्पत्ति को पानी की तरह बहाता था, उससे कोई भी अंग्रेंज अपरिचित न था। इतना सब होने पर भी लार्ड डलहोजी ने उसके साथ जिस प्रकार का अन्याय आरम्भ किया, उस पर नाना साहब ने डलहौजी से बहुत कुछ पत्र व्यवहार किया और किसी प्रकार की सफलता न मिलने पर उसने अपनी अपील के लिए अज़ीमुल्ला खाँ को इंग्लैंड भेजा। लेकिन वहां पर भी उसे कोई सफलता न मिली। अज़ीमुल्ला खाँ इंग्लैंड से लौटकर आ गया और नाना साहब के साथ बैठकर उसने परामर्श किया। उसी समय से क्रान्ति की रूप रेखा तैयार होने लगी। 1857 की क्रान्ति की जो योजना तैयार की गयी, उसका एक साधारण रूप यह था कि देश के समस्त हिन्दू और मुसलमान वृद्ध मुग़ल सम्राट बहादुरशाह को अपना नेता स्वीकार करें और एक होकर मुल्क से अंग्रेजों को निकाल कर बाहर करने का सफल विद्रोह करें। इसके संगठन और प्रचार के लिए नाना साहब ने अजीमुल्ला खाँ और दूसरे सहयोगियों के साथ देश का भ्रमण किया और बड़े बड़े स्थानों की यात्रा करके उसने समस्त भारत में क्रान्ति की लहर पैदा की। इसके साथ-साथ समस्त देश में विप्लव करने के लिए 31 मई सन् 1857 का दिन निर्धारित किया गया।1857 क्रांति का प्रारंम्भ और विस्तारसन् 1853 ईसवी में कारतूस तैयार करने के लिए भारत में कारखाने खोले गये थे। इन दिनों में जो कारतूस यहां तैयार होते थे, वे पहले के कारतूसों से कुछ भिन्न थे। पहले जो कारतूस चलते थे, वे हाथों से तोड़े जाते थे। लेकिन नये कारतूसों को दाँतों से काटना पड़ता था। बैरकपुर के कारतूसों के कारखाने से एकाएक अफवाह उड़ी कि इन नये कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी डाली जाती है। इस अफवाह ने हिन्दू-मुस्लिम सिपाहियों में एक सनसनी पैदा कर दी। अधिकारियों ने इस सनसनी को दूर करने की कोशिश की और बताया कि यह अफवाह बिल्कुल झूठी है, लेकिन लोगों ने अधिकारियों का विश्वास न किया।भारत के हिन्दू मुस्लिम सिपाहियों में चर्बी के कारण पैदा होने वाली सनसनी बढ़ती गयी। विद्रोह का प्रचार भारतीय पलटनों में पहले से ही चल रहा था। उसके लिए यह एक अच्छा अवसर मिला। विद्रोह के लिए 31 मार्च पहले से निश्चित थी। लेकिन चर्बी के कारण विद्रोह की आग भड़कती हुई मालूम हुई। 1857 की क्रान्ति के अधिकारियों ने निश्चित तारीख तक विद्रोह को रोकने की कोशिश की। लेकिन परिस्थितियां रोजाना बदलने लगीं। बैरकपुर की छावनी में 19 नम्बर की पलटन को नये कारतूस प्रयोग करने के लिए दिये गये। पलटन ने कारतूसों को प्रयोग करने से इनकार कर दिया इस पर उस पलटन के हथियार रखा लेने के लिए अंग्रेज़ी पलटन बुलायी गयी और 29 मार्च सन् 1857 ईसवी को परेड करने के लिये उस पलटन को आज्ञा दी गयी। परेड के समय एक भारतीय सिपाही ने कारतूसों को धर्म विरोधी कहकर नारा लगाया। अंग्रेज अधिकारी ने उसको कैद करने का आदेश दिया। लेकिन किसी भारतीय सिपाही ने उसको कैद नहीं किया। उस समय उस अंग्रेज अधिकारी पर गोली चलायी गयी वह तुरन्त मर गया। यही से अंग्रेज अधिकारियों और भारतीय सिपाहियों के बीच में संघर्ष उत्पन्न हुआ। विरोधी नारा लगाने वाले भारतीय सिपाही को फाँसी दी गयी, मई महीने के आरम्भ में दूसरी पटलनों को भी नये कारतूस दिये गये। उन्होंने भी उसके प्रयोग से इनकार किया। इंकार करने वालों को लंबी सजाएं दी गयी। भारतीय सिपाही बड़े धैर्य के साथ 31 मई का रास्ता देखते रहे। छावनी के बाहर गावों में क्रान्ति की पूरी तैयारियां थीं। 10 मई के दिन मेरठ में विद्रोह की आग भड़क उठी। जेलखानों की दीवारें गिरायी गयीं। कैदी निकाले गये। मेरठ में रहने वाले अंग्रेजों का सर्वनाश किया। छावनी के भीतर से लेकर बाहर गावों तक विद्रोह आरंभ हो गया। हिन्दू और मुसलमान अंग्रेजों का विनाश करने में जुट गये। क्रान्ति की जो योजना तैयार की गयी थी, विद्रोह उसी के आधार पर आरम्भ हुआ। विद्रोही हिन्दू मुसलमान 31 मई का इन्तजार न कर सके।दिल्ली में क्रांतिकारीमेरठ से दो हजार सिपाही अपने हथियारों के साथ दिल्ली के लिए रवाना हुए। 1 मई को वे सवेरे वहां पहुँच गये दिल्ली की छावनी में जितने अंग्रेज अफसर थे, मार डाले गये और वहां के किले पर क्रान्तिकारियों ने कब्जा कर विद्रोही सिपाहियों ने लाल किले में प्रवेश करके सम्राट बहादुर शाह को तोपों की सलामी दी। दिल्ली शहर के निवासियों ने क्रान्तिकारियों का स्वागत किया और ये अधिक संख्या में उन्हीं के साथ मिल गये। अंग्रेजों का विध्वंस और विनाश जारी हो गया। दिल्ली के बाद विद्रोह की आग चारों ओर फैलने लगी। 31 मई तक उत्तरी भारत में सर्वत्र क्रान्ति की आग फैल गयी। विद्रोही सिपाहियों के गिरोह अलीगढ़, मैनपुरी, इटावा और बुलन्दशहर तक पहुँच गये। अजमेर के निकट नसीराबाद की छावनी में भारतीय और अंग्रेजी दोनों फौजें रहा करती थीं। 28 मई को गोरों की फौज के साथ हिन्दुस्तानी फौज की लड़ाई हुई। अंग्रेजों की पराजय हुई। रुहेलखंड की राजधानी बरेली में 31 मई के दिन विद्रोह शुरू हो गया। अंग्रेज मारे गये, उनके बंगलों में आग लगायी गयी। शाहजहाँपुर, मुरादाबाद, बदायूं, आजमगढ़ और गोरखपुर में भी क्रान्ति शुरू हो गयी। 31 मई को बनारस में भीषण रूप से विद्रोह आरम्भ हुआ। अंग्रेजों की एक विशाल सेना जनरल नील के साथ बनारस भेजी गयी। उसने वहां जाकर विद्रोहियों का सामना किया। बनारस के निवासी विद्रोहियों का साथ दे रहे थे। लेकिन वहां के राजा चेतसिंह और उसके साथियों ने अंग्रेजों का साथ दिया।1857 की क्रांतिबनारस, इलाहाबाद और कानपुर में स्वतंत्रता संग्रामजनरल नील के साथ एक अंग्रेजों की सेना बनारस भेजी गयी थी। उसने रास्ते में मिलने वाले गावों, कस्बों और नगरों का विनाश किया और बनारस पहुँच कर अंग्रेजी सेना ने वहां के निवासियों पर भयानक गोलियों की वर्षा की। बहुत बड़ी संख्या में लोगों को कैद किया गया और उन कैदियों को पेड़ों पर लटका कर उनका कत्ल किया गया। उसके बाद जनरल नील अपनी सेना के साथ इलाहाबाद की ओर चला। इलाहाबाद पहुँच कर अंग्रेजी सेना ने भीषण अत्याचार किये। 18 जून को उस सेना ने नगर में प्रवेश किया और जो लोग मिले, उनको गोलियों से उड़ा दिया। छोटे छोटे लड़कों को पकड़कर फांसियां दी गयी। बनारस की तरह जनरल नील ने इलाहाबाद में भी कई दिनों तक भयानक मार काट की और स्त्री, बच्चों तथा पुरुषों का संहार किया। इलाहाबाद के खुसरोबाग में अंग्रेजी सेना के साथ भारतीय विद्रोही सैनिकों ने जमकर युद्ध किया और उसके बाद वे अपने साथ तीस लाख रुपये का खजाना लेकर कानपुर की तरफ चले गये। नाना साहब उसके दो भाई बाला साहब और बाबा साहब, भतीजा राव साहब ओर अज़ीमुल्ला खाँ कानपुर की क्रान्ति के नेता थे। मराठा सेनापति तात्या टोपे कानपुर में नाना साहब का मददगार हो गया था। उन दिनों में वह बिहार में रहा करता था। कानपुर की छावनी में 4 जून को रात के 12 बजे तीन फायर हुई। विद्रोह आरंभ करने की यह सूचना थी।इसके साथ ही कानपुर में क्रान्ति शुरू हो गयी। अंग्रेजों के बंगलों पर आक़्रमण किये गये और उनको मारा गया। 5 जून को कानपुर का खजाना और मैगज़ीन वहां के क्रान्तिकारियों के हाथों में आ गया। कानपुर के किले में शहर के अंग्रेजों और उनके परिवार के लोग बन्द थे। 6 जून को कानपुर के क्रान्तिकारियों ने किले को घेर लिया और उनकी तोपें उस किले पर गोलों की वर्षा करने लगीं। 18 जून और 23 जून को कानपुर के क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजी सेना के साथ युद्ध किया। अन्त में युद्ध को रोक कर नाना साहब ने अंग्रेज़ों और उनके परिवारों को कानपुर छोड़ कर इलाहाबाद चले जाने का मौका दे दिया।झांसी की क्रान्तिझांसी का राज्य छीन कर अंग्रेजों ने अपने राज्य में मिला लिया था। वहां की विधवा रानी लक्ष्मीबाई की अवस्था उस समय बीस वर्ष की थी। कम्पनी ने रानी को राज्य के बदले में पाँच हजार रुपये वार्षिक देने का वादा किया था। लेकिन रानी ने नामंजूर कर दिया था। 4 जून को झांसी में क्रान्ति आरम्भ हुई। वहां के मैगजीन और खजाने पर विद्रोहियों ने कब्जा कर लिया। लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने झांसी के किले पर आक्रमण किया। उसके भीतर जो अंग्रेज थे वे सब मारे गये।1857 की क्रान्ति को दबाने की चेष्टासन् 1857 की इस महान क्रान्ति में बहादुर शाह को सम्राट माना गया था और उसी के नाम पर इस क्रान्ति का संगठन और आरंभ हुआ था। इसीलिए विद्रोहियों की अधिक संख्या दिल्ली में आकर एकत्रित हुईं थी। इस क्रान्ति को दबाने के लिए गवर्नर जनरल लार्ड केनिंग ने बड़ी राजनीति से काम लिया था। उसने मद्रास, रंगून और बंगाल की सेनाओं को मिलाकर एक विशाल सेना का आयोजन किया था। जनरल नील की सेना आगरा और अवध के सूबे में क्रान्ति को दबाने का काम कर रही थी। दिल्ली के विद्रोहियों को परास्त करने के लिए लार्ड केर्निग ने एक दूसरी सेना रवाना की। 1857 के क्रान्तिकारियों को मिटाने और उनका संहार करने के लिए कैर्निग ने दो प्रकार की नीति से काम लिया था। एक ओर वह अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत बना कर विद्रोहियों को परास्त करने का काम कर रहा था ओर दूसरी ओर वह भारतीयों के साथ साजिश करके उनको तोड़ने और अपने साथ मिलाने में लगा हुआ था। फूट डालने और मिलाने की नीति में अंग्रेज सदा सफल होते रहे थे। क्रान्ति में भी उनके इसी अस्त्र से अधिक सफलता मिली उनकी इस नीति का प्रभाव जादू की तरह पंजाबी फौजों पर पड़ा और उन्होंने अंग्रेजों का पक्ष लेकर अन्त तक विद्रोहियों के साथ युद्ध किया।वियतनाम की क्रांति कब हुई थी – वियतनाम क्रांति के कारण और परिणामअंग्रेजों को अपनी तोड़ फोड़ वाली कुटनीति का बहुत बड़ा विश्वास था। भारत में आकर उन्होंने अपने इसी अस्त्र का आश्रय लिया था और सफलता पाई थी। विद्रोह को मिटाने के लिए भी उन्होंने उसी का उपयोग किया। हिन्दू और मुसलमान एक होकर न रह सके, इसके लिए बडे बड़े उपायों के आविष्कार किये गये। जो उपाय काम में लाये गये, उनका प्रभाव सब से पहले सिखों और पंजाबियों पर पड़ा। सिखों और पंजाबी रियासतों ने अंग्रेजों के जादू में आकर क्रान्तिकारियों के विरुद्ध उनका साथ दिया और देश में बढ़ते हुए विद्रोह को छिन्न-भिन्न किया। कम्पनी की ओर से पंडितों और मौलवियों को लम्बी लम्बी तनख्वाहें देकर हिन्दुओं को मुसलमानों के खिलाफ और मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध करने का प्रयत्न किया गया। सम्पत्ति के नाम पर बिके हुए इन लोगों ने अंग्रेजों के पक्ष में प्रचार का भी काम किया।अंग्रेजी सेनाओं के अत्याचारएक ओर अंग्रेजों की कूटनीति चल रही थी और दूसरी ओर अंग्रेज़ी फौजें क्रान्तिकारियों पर आक्रमण कर रही थीं। कुछ भारतीय पलटने ऐसी भी थीं, जो अभी तक दुविधा में थीं। उनको मिला लेने के लिए अंग्रेजों को मौका मिला। जो सिपाही न मिल सके उनको कैद कर लिया गया और उनको तोप के सामने लाकर उड़ा दिया गया। कुछ पंजाबी पलटने ऐसी भी थीं, जो विद्रोह करना चाहती थीं। उनको परास्त करने के लिए अंग्रेज़ी सेना के साथ सिखों की सेना और नाभा नरेश की फौज भेजी गयी। उन फौजों ने सतलुज नदी पर जाकर विद्रोही सिपाहियों पर गोलों की वर्षा की। दोनों ओर से डटकर युद्ध हुआ। विद्रोही सैनिकों की संख्या बहुत थोड़ी थी, उनके पास तोपें न थीं। युद्ध की सामग्री भी काफी न थी। फिर भी वे अन्त तक लड़े और अंग्रेजों तथा सिखों की सेना को पराजित होकर भागना पड़ा। अंग्रेजी सेनाओं के साथ पंजाब में विद्रोही सेनाओं ने अनेक स्थानों पर युद्ध किये और उनकी जीत हुईं। लेकिन पंजाब की देशी रियासतों ने अंग्रेजों का ही साथ दिया। पटियाला, नाभा और जींद के राजाओं ने अंग्रेजों की सहायता के लिए धन के साथ अपने सैनिक भी भेजे थे। इसलिए पंजाब में अंग्रेजों की ताकत बढ़ गई और उसकी एक विशाल सेना दिल्ली की ओर रवाना हुई। 12 जुन को दिल्ली में अंग्रेजी सेनाओं के साथ क्रान्तिकारियों का घमासान युद्ध हुआ। उसके बाद दिल्ली के कई स्थानों पर लड़ाइयाँ हुईं, लेकिन उनमें 27, 20 और 30 जुन के युद्ध अधिक भयानक थे। दिल्ली में गोरखा पलटन भी अंग्रेजों के पक्ष में आ गयी थी।दिल्ली का सर्वनाशदिल्ली में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का केन्द्र था। इसीलिए अंग्रेजी सेनाओं ने उस केन्द्र को मिटाने में कुछ उठा न रखा। भीतर से बाहर तक दोनों ओर से खूब मार-काट हुई और 1857 के क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजी सेनाओं के छक्के छुड़ा दिये। सम्राट बहादुरशाह 1857 क्रान्ति का सब से बड़ा नेता माना गया था और वह बूढ़ा था। दिल्ली में क्रान्तिकारियों की शक्तियां निर्बल न थीं, लेकिन कोई नेता अथवा अधिकारी उनको व्यवस्था देने वाला न था। लार्ड कैर्निग ने क्रान्ति का नाश करने के लिए अपनी कूटनीति, बहकाने, तोड़ने और मिलाने को अधिक महत्व दिया था और इस कार्य के लिए उसने धन को पानी को तरह बहाया था। उसने हिन्दुओं और मुसलमानों को गुप्तचर बनाकर उनकी संख्या बहुत बढ़ा दी थी और उसका नतीजा यह हुआ था कि सम्राट बहादुर शाह की कोई बातमहलों से लेकर शहर तक अंग्रेजों से छिपी न थी। दिल्ली में मार काट के साथ-साथ अंग्रेजों ने कोई अत्याचार बाकी नहीं रखा। बूढ़ा सम्राट बहादुर शाह कैद किया गया और उसके तीनों शाहजादों को कत्ल करके और उनके सिर काटकर अंग्रेजों के गुप्त विभाग के प्रधान अधिकारी हडसन ने लाल किले में सम्राट और उसकी बेग़म के सामने जहां वे दोनों कैद थे रखते हुए कहा– “कम्पनी ने बहुत दिनों से आपका नजराना नहीं दिया था। उसी को अदा करने के लिए मैं नजराने में इनको लाया हूँ।” यह कहकर हडसन ने शाहजादों के कटे हुए सिरों को बादशाह के सामने रख दिया। बादशाह ने उन कटे हुए सिरों की तरफ देखा और कहा — “अलहम्दुलिल्लाह, तैमूर की औलाद इसी खुबी के साथ हमेशा अपने मुल्क पर कुर्बान होकर अपने बुजुर्गो के सामने आवे।” दिल्ली शहर को उजाड़ कर बाहशाह बहादुर शाह ओर उसकी बेगम जीनत महल को कैदी हालत में दिल्ली के लाल किले से निकालकर रंगून भेजा गया और वहां पर सन् 1863 ईसवी में बहादुर शाह की मृत्यु हो गयी।लखनऊ में 1857 की क्रान्तिलखनऊ में विद्रोहियों ने 20 जूलाई सन् 1857 से रेजीडेन्सी पर आक्रमण आरम्भ कर दिये थे। वहाँ का चीफ कमिश्नर हेनरी लारेन्स मारा गया था। उसके स्थान पर मेजर बेंक्स वहां पहुँचा लेकिन वह भी मार दिया गया। यह सुनकर सेनापति हैवलॉक कानपुर से 21 जुलाई को लखनऊ के लिए रवाना हुआ। रास्ते में उसे अनेक स्थानों पर क्रान्तिकारियों के साथ युद्ध करने पड़े।लखनऊ पहुँच कर अंग्रेजी सेना ने कई स्थानों पर विद्रोहियों के साथ युद्ध किया। जनरल नील भी कानपुर से अपनी सेना के साथ लखनऊ आ गया था। सेनापति नील युद्ध करते हुए मारा गया। लखनऊ की हालत लगातार भयानक होती जा रही थी। इसलिए अंग्रेजी सेनाओं का कमांडर-इन-चीफ सर कार्लिन केम्पवेल कलकत्ता से अपनी एक बड़ी अंग्रेजी सेना से साथ लखनऊ में पहुँच गया। लखनऊ में इस समय अनेक अंग्रेज सेनापति अपनी अपनी सेनाओं के साथ मौजूद थे और उनके साथ में पंजाबी और सिखों की पलटनें भी थीं।क्यूबा की क्रांति कब हुई थी – क्यूबा की क्रांति के नेता कौन थेलखनऊ के सिकन्दर बाग, दिखखुश बाग, आलम बाग, शाहनफज और मोतीमहल में अंग्रेजी सेनाओं के साथ विद्रोही सैनिकों के भयानक युद्ध हुए। उसके बाद सर कार्लिन कैम्पबेल कानपुर अपनी सेना के साथ चला गया। वहां पर मराठा सेनापति तात्या टोपे ने अपनी क्रान्तिकारी सेना साथ उसका मुकाबला किया। इन दोनों में इटावा, फरुखाबाद और फतहगढ़ में भी विद्रोहियों के युद्ध हो रहे थे। कानपुर से केम्पबैल की सेना फिर से लखनऊ पहुँच गयी। उसके साथ सत्रह हजार पैदल और पाँच हजार सवार थे और 134 तोपें थीं। लखनऊ के विद्रोहियों को परास्त करने के लिए अनेक अंग्रेजी सेनाओं के साथ एक गोरखा पलटन भी पहुँच गयी थी। लखनऊ में अंग्रेजी सेनाओं के साथ लगातार क्रान्तिकारियों की भयानक मार-काट हुई। सम्राट बहादुर शाह को कैद करने वाला और उसके शहजादों को कत्ल करने वाला हडसन युद्ध करते हुए यहां पर मारा गया।बिहार में विद्रोह की आगदिल्ली में क्रान्तिकारियों के शिकस्त हो जाने पर लखनऊ में विद्रोही कई महीने तक अंग्रेजी सेनाओं के साथ युद्ध करते रहे और लखनऊ में क्रान्ति के कमजोर पड़ जाने के बाद बिहार स्वाधीनता का युद्ध करता रहा। बिहार के करीब-करीब सभी बडे नगरों में स्वाधीनता के युद्ध हो रहे थे। 3 जूलाई का पटना में विद्रोह आरम्भ हुआ था। दानापुर की छावनी में गोरों और देशी पलटनें थीं। भारतीय सैनिकों ने विद्रोह की घोषणा कर दी थी। बिहार के कई एक नेताओं में कँवरसिह ने अंग्रेजों के साथ भयानक युद्ध किये थे और कई स्थानों पर उसने अंग्रेजी सेना को परास्त किया। उसके बाद उसने आरा शहर में कब्जा कर लिया उसके पश्चात बीबीगंज में दोनों ओर की सेनाओं का भयानक युद्ध हुआ। अतरौलिया के मैदान में कुँवरसिंह ने अंग्रेजी सेना को भीषण रूप में पराजित किया और आजमगढ़ के पास उसने फिर अंग्रेजी सेना को परास्त किया। बिहार के अनेक स्थानों में अंग्रेजी सेनाओं के साथ कुँवरसिह ने युद्ध किये और अधिकाश युद्धों में अंग्रेजी सेनाओं की पराजय हुई।उसके कटे हुए दाहिने हाथ के सेहत न हो सकने पर 26 अप्रैल सन् 1858 ईसवी को कँँवरसिंह की मृत्यु हो गयी। शाहजहांपुर और बरेली में भी क्रान्तिकारियों के साथ अंग्रेजी सेना के युद्ध हुए थे, लेकिन वहां पर विद्रोहियों की हार हुई।1857 स्वाधीनता के युद्ध में लक्ष्मीबाईअंग्रेजी सेनापति सर हयू रोज अपनी एक विशाल सेना को लेकर अर्से से क्रान्ति को दबाने और नॉर्मल करने के लिए घूम रहा था। उसके अधिकार में अंग्रेंजी सेना के साथ हैदराबाद, भोपाल और दूसरी रियासतों की सेनायें भी थीं। रायगढ़, सागर, चंदेरी और बानापुर आदि शहरों में विद्रोहियों को परास्त करते हुए सर ह्य रोज 20 मार्च सन् 1858 को झाँसी के निकट पहुँचा। अपने आस-पास के इलाकों में झांसी का शहर विद्रोहियों का एक केन्द्र था। वहाँ की क्रान्ति का महारानी लक्ष्मी बाई के हाथ में था और बानापुर के राजा मरदान सिंह तथा दूसरे नरेश भी वहाँ की क्रान्ति में शामिल थे। 24 मार्च को अंग्रेजी सेना के साथ वहां केविद्रोहियों का सामना हुआ। क्रान्तिकारियों का युद्ध लक्ष्मी बाई के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ और एक सप्ताह चलता रहा। इन्हीं दिनों में तात्या टोपे चरखारी के राजा को शिकस्त देकर वहां पे विजयी होकर लौटा था लक्ष्मीबाई के सहायता माँगने पर टोपे अपनी सेना के साथ कालपी से झांसी के लिए रवाना हुआ। वहां पहुँचने पर अंग्रेजी सेना के मुकाबले में टोपे को सफलता न मिली और वह कालपी लौट गया। झांसी के युद्ध में अंग्रेजी सेनाओं का जोर बढ़ता जा रहा था। 3 अप्रैल से वहां पर भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ । कई दिनों के युद्ध में लक्ष्मीबाई ने जिस प्रकार युद्ध किया, वह आश्चर्यजनक था। अंग्रेजी सेनाओं के मुकाबले में वहां पर क्रान्तिकारी सेना बहुत कम थी और युद्ध के साधनों का भी उसके पास अभाव। था इसलिए विद्रोहियों की अन्त में वहां पराजय हुई लक्ष्मीबाई झांसी से कालपी चली गयी। वहां पर तात्या टोपे, राक साहब, बाँदा का नवाब, शाहंगढ़ और बानापुर के राजा उपस्थित थे। झांसी पर अधिकार करके अंग्रेंजी सेना कालपी पहुँची कालपी की विद्रोही सेना लेकर लक्ष्मीबाई ने कच गाँव में सर ह्यरोज की सेना का मुकाबला किया। कालपी की सेना की हार हुई।ग्वालियर का स्वतंत्रता संग्राम1857 में क्रान्तिकारियों की संख्या दिन पर दिन घटती जा रही थी। युद्ध के हथियारों और उनकी सामग्री का बिलकुल अभाव हो गया था। इस निर्बलता और निराशा को देखकर तात्या टोपे कालपी छोड़कर ग्वालियर की तरफ चला गया। ग्वालियर रियासत की पलटनों और विद्रोहियों ने टोपे का साथ दिया। वहां पहुँच कर अरब, रहेला, राजपुत और मराठापलटनों को मिलाकर तात्या टोपे ने एक बड़ी सेना तैयार की। सर ह्यरोज यह सुनकर अपनी सेनाओं के साथ ग्वालियर की तरफचला और वहां पर उसने आक्रमण किया। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ ग्वालियर के युद्ध में कई दिनों तक लक्ष्मीबाई ने भयानक मारकाट की ओर अंग्रेज सेनापति स्मिथ लक्ष्मीबाई के मुकाबले में एक बार हार कर लौट गया। उसके बाद अंग्रेजों की समस्त सेनायें लक्ष्मी बाई के मुकाबलें में पहुँच गयी और सभी ने मिलकर लक्ष्मी बाई को परास्त करने का प्रयत्न किया उस दिन की भयंकर मार-काट में क्रान्तिकारियों का संहार हुआ ओर उनकी संख्या बहुत कम रह गयी। अंत में युद्ध करते हुए लक्ष्मीबाई मारी गयी। कोल्हापुर और बेल गाँव में भी क्रान्ति आरम्भ हुई। लेकिन अंग्रेजों के भयंकर दमन के कारण कुछ ही समय के बाद वह दब गयी। बम्बई और नागपुर की क्रान्ति भी भयंकर दमन के कारण अधिक समय तक ठहर न सकी। जबलपुर में भी क्रान्ति का उभार हुआ। वहां की एक देशी पलटन विद्रोही हो गयी और क्रान्तिकारियों में जाकर मिल गयी। हैदराबाद में भी विद्रोह शुरू हुआ था। लेकिन वहां के निजाम और वजीरों ने अंग्रेजों का साथ दिया। बहुत से आदमी कैद किये गये और उन्हें फांसियाँ दी गयी।विक्टोरिया की घोषणाअठारह महीने तक देश में क्रान्ति बराबर चलती अंग्रेजों के दमन, अत्याचार और युद्ध से उसका अन्त नहीं हुआ यह देखकर इंग्लैंड की महारानी विकटोरिया ने भारतीय राजाओं और देश की प्रजा के नाम एक घोषणा प्रकाशित की और उसके अनुसार, उसने भारत में कम्पनी का राज्य समाप्त कर दिया। जिन अन्यायों और अत्याचारों के कारण भारत में विलाव हुआ था, उनको मिटाकर घोषणा में विश्वास दिलाया गया कि भविष्य में सरकार ऐसा अवसर न देगी जिससे असन्तोष पैदा हो सके। उस घोषणा के बाद भी अवध में विद्रोह चलता रहा और शंकरपुर, दूढ़िया खेरा रायबरेली और सीतापुर में क्रान्तिकारी घटनाएं होती रहीं। घोषणा के बाद छः महीने और बीत गये।1857 स्वतंत्रता संग्राम के अन्तिम दिन1857 विद्रोह के अन्तिम दिनो में केवल एक तात्या टोपे दिखायी देता था।उसके दो सहायक थे, लक्ष्मीबाई और नाना साहब। लक्ष्मीबाई मारी गयी थी और नाना साहब नेपाल के भयानक जंगलों में पहुँच कर विलीन हो गया था। तात्या टोपे के साथ विद्रोहियों की एक सेना थी। उसको साथ में लेकर उसने नर्मदा की तरफ का रास्ता पकड़ा। एक स्थान पर अंग्रेजी सेना ने उसको घेरना चाहा लेकिन वह निकल गया। अंग्रेजी सेनाओं ने उसका पीछा किया। वह जहां कहीं भी जाता प्रत्येक, रास्ते में उसे अंग्रेजी सेना का सामना करना पड़ता। तात्या टोपे को कैद करने के लिए अंग्रेज़ी सेनाओं का अदभुत जाल बिछा दिया गया था। अंग्रेज उसको कैद करने की कोशिश में थे। लेकिन उसका कोई एक स्थान न था। भरतपुर, जयपुर, बूंदी, नीमच, नसीराबाद, भीलबाड़ा, उदयपुर, कोटरा, फालरापटन,नागपुर प्रतापगढ़, बाँसबाड़ा’ और अलवर के रास्ते में चलकर मारता हुआ अन्त तक सुरक्षित बना रहा। अनेक स्थानों पर अंग्रेजी सेनाओं ने उसे घेर लिया लेकिन युद्ध करता हुआ वह अपने विद्रोही सैनिकों के साथ निकल कर चला गया। अंग्रेजी सेनायें उसको रोक न सकीं। अंग्रेजों का जब कोई बस न चला तो उन्होंने हिन्दुस्तानियों को मिलाने की कोशिश की, इसमे उनको सफलता मिली और मानसिंह के विश्वासघात करने पर 17 अप्रैल सन् 1859 ईसवी की रात की तात्या टोपे अंग्रेजों के हाथ में कैद हो गया और 18 अप्रैल सन् 1859 ईसवी को उसे फाँसी दी गयी। सन् 1857 की भारतीय क्रान्ति का यह अन्तिम दृश्य था। इसके साथ-साथ क्रान्ति का अन्त हो गया और भयानक रक्त पात एवंम नर संहार के बाद देश की स्वाधीनता के लिए होने वाली एक महान और व्यापक क्रान्ति देश के शत्रुओं के द्वारा असफल क्रान्ति के नाम से पुकारी गयी।हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—-[post_grid id=”7736″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... विश्व प्रसिद्ध जन क्रांति विश्व की प्रमुख क्रांतियां