संत नामदेव महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत Naeem Ahmad, January 8, 2021March 11, 2023 मानव में जब चेतना नहीं रहती तो परिक्रमा करती हुई कोई आवाज जागती है। धरा जब जगमगाने लगती है, तो दिव्य ज्योति सम्भूत कोई न कोई शक्ति प्रकट होती है। परिस्थितियां जब प्रतिकूल हो जाती है, तो किसी न किसी अनूकूल शक्ति के दर्शन होते है। भौतिकता जब भटक उठती है, तो अध्यात्मिकता जन्म लेती हैं। नश्वरता जब वीभत्स नृत्य करती है, तो शाश्वत सत्यों से अभिभूत किसी न किसी आशा का आगमन होता है। भारतीय संत परम्परा में संत नामदेव कथित आदित्यों के ही मूर्त रूप है। प्रेम, अहिंसा, सत्य, शांति, त्याग, भक्ति, ज्ञान और नैतिकता के स्वरूप सन्त नामदेव भारत के स्वनामधन्य संत है। नामदेव के प्रभाव से तत्कालीन कितने ही यशस्वी संत हुए, एक प्रकार से वे भारतीय सन्त परम्परा के स्त्रोत है। उनके कीर्तनों से ही उन संतों का उदय हुआ जो मृत्यु में जीवन है। नामदेव से ही वह संत समागम शुरू होता है, जो भारत का सबसे उज्जवल धन है। जिस समय इनकी वीणा बजी वह समय भारतीय संस्कृति और धर्म पर आघातों का समय था। न कोई धर्म का स्थिर रूप था, न समाज किसी सुव्यवस्था में था, न राजनीतिक शांति थी न मानसिक आनंद था। विदेशी संस्कृति के आक्रमणों से मंदिरों में मूर्तियों की गर्दनें कटी पड़ी थी, बलात् धर्म परिवर्तन शुरू हो गये थे। ईश्वर को मतमतान्तरों से मिटाया जा रहा था। तलवार के बल से भारत माता की कोख फोड़ कर उसके हर उत्थान की हत्या के लिए खूनी तलवार का नंगा नाच था। साधना के तीन अंग है:— कर्म, ज्ञान और भक्ति । ये तीनों ही अंग विकृत हो चले थे। कर्म का अर्थ शून्य विधि विधानों से निकम्मा होने लगा था। ज्ञान रहस्य की विडम्बनाओं से पाखंड पूर्ण हो चला था, और भक्ति इंद्रियों व भोग की वासना से कलुपित की जाती थी। भक्ति का जन्म श्रृद्धा और प्रेम से है। जहाँ उपासना में श्रृद्धा का भाव पूज्य भावनाष्ट हो केवल प्रेम रहा वहां भक्ति कोरी वासना रह जाती है। अतः जब आपस की फूट से राजपूतों की तलवार देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा करती कुन्द हो गई और कामिनियों की निगाहों में डूबकर टकराती हुई सो गई तो भारत को उन महान संतों ने ही बचाया जो आपत्ति काल में सदेव बचाते रहे है। संत नामदेव प्रतिमा संत नामदेव का आविर्भाव भी ऐसे ही आपत्ति काल में हुआ। नामदेव भक्ति का श्रेष्ठ एवं सरल स्वरूप लेकर खड़े हुए। एकेश्वरवाद के अनिश्चित स्वरूप को, जो कभी ब्रह्मवाद की ओर जाता था और कभी पैगम्बरी खुदावाद की ओर ढुलकता था, संत नामदेव ने एक सर्वग्राह्य सुव्यवस्थित स्वरूप दिया जाति पाति, भेदभाव का त्याग और ईश्वर भक्ति के लिए मनुष्य मात्र को समान अधिकार दिलाने का सूत्रपात नामदेव से ही शुरू हुआ। Contents1 संत नामदेव का जन्म, मृत्यु, माता पिता व गुरु1.1 गुरू की शिक्षा1.1.1 संत नामदेव के चमत्कार1.2 Share this:1.3 Like this:संत नामदेव का जन्म, मृत्यु, माता पिता व गुरु महाराष्ट्र के संतों में नामदेव का नाम सबसे पहले लिया जाता है। संत नामदेव का जन्म वि. सम्वत् 1327 कार्तिक शुक्ला 11रविवार ( ईसवीं सन् 26 अक्टूबर 1270) को ग्राम नरूसी वमनी सतारा महाराष्ट्र में हुआ। ये जाति के छिपी थे, पिता का नाम श्री दामा सेठ और माता का नाम गोणाई था, इनके गुरू सिद्ध यशस्वी सन्त खेचरनाथ नाथपंथी योगमार्ग प्रेरक श्री ज्ञानदेव जी महाराज रहे। संत नामदेव की मृत्यु ईसवीं 3 जुलाई 1350 को पंढरपुर में हुई। गुरू की शिक्षा काल परिस्थितियों के अनुसार ये सगुणोपासक भी रहे और निर्गुणोपासक भी। पहले ये साकार पूजा करते थे, पर बाद में गुरू ज्ञानदेव इनको समझाते थे कि भगवान केवल एक ही जगह नहीं है, वह तो हर जगह है, वे तो सर्वत्र है सर्वव्यापक है। यह मोह छोड़ो। तुम्हारी भक्ति अभी कच्ची है। जब तक तुम्हें निर्गुण पक्ष की अनूभूति नहीं होगी तब तक तुम पकोगें नहीं। ज्ञानदेव समझा ही रहे थे कि परीक्षा भी शुरू हो गई। सिर मुंडाते ही ओले बरसने लगे। घूमते हुए जब ये एक गांव में पहुंचे तो सन्तमंडली पर एक कुम्हार घड़ा पीटने का पिटना लेकर पिल पड़ा और खूब प्रेम से साधूओं के सिरों की मरम्मत शुरू कर दी। जब तक संत ज्ञानदेव, उनकी साधु बहिन मुक्ताबाई और उनके दो अन्य साधु भाइयों के सिर पर डंडे पड़ते रहे, तब तक वे तो शांति से सहते रहे। पर जब संत नामदेव की खोपडी पर डंडा पड़ा तो वे अकड़ कर सामने खड़े हो गये और डंडा छीन लिया। कुम्हार ने हंस कर कहा:— ” सब साधु पक्के, नामदेव कच्चे”। मानो यही संत ज्ञानदेव का अपने शिष्य को गुरूमंत्र था। उस मंत्र को पाकर नामदेव कच्चे संत से पक्के संत हो गये। संत नामदेव के चमत्कार सन्त नामदेव के बचपन से ही चमत्कार प्रसिद्ध है। एक बार इनके दामा सेठ घर से कही बाहर गये। वे विठ्ठल भगवान की पूजा का भार नामदेव को सौंप गये। नामदेव ने बड़े प्रेम से पूजा की और भगवान के भोग को दूध का कटोरा भर कर मूर्ति के सामने रखा एवं अपने नेत्र बंद कर लिए। जब नेत्र खोले तो देखा दूध वैसा ही कटोरा भरा रखा था। बालक ने सोचा कि भगवान नाराज है, जो दूध नहीं पीते। अतः उसने हठ करते हुए रोकर कहा:– हे भगवान! दूध पियो, शीघ्र पियो। नही तो मैं जीवन भर कभी दूध नहीं पीऊंगा। बच्चे की प्रतिज्ञा सुनते ही मूर्ति मुखर हो उठी और गटगट दूध पी गई एवं फिर रोज नामदेव के हाथ से भगवान दूध पीतें रहें। एक बार संत नामदेव की कुटिया में एक ओर आग लग गई। आपने प्रेम विभोर होकर दूसरी ओर की वस्तुएं भी अग्नि अर्पण करनी शुरू कर दी और मस्त होकर बोलें— स्वामी! आज तो आप लाल लाल लपटों का रूप बनायें बड़े अच्छे पधारे, किन्तु एक ही ओर क्यों? दूसरी ओर की इन वस्तुओं ने क्या अपराध किया है, जो इन पर आपकी कृपा नहीं हुई? आप इन्हें भी स्वीकार करे। नामदेव का यह कहना था कि अग्नि भगवान को ठंड़ा पसीना आ गया वे संत की आर्तवाणी सुनते ही शांत हो गये। जो कुटिया जल गई थी, वह भगवान स्वयं मजदूर बनकर बना गये। एक बार नामदेव जी महाराज किसी गांव के वर्षों से बंद पड़े सूने मकान में ठहरने लगे। लोगों ने मना किया और कहा– इसमें एक भयंकर भूत है, वह इस घर में ठहरने वाले कितने ही लोगों को खा चुका है। वह ब्रह्म राक्षस बड़ा खूनी है। इस पर नामदेव जी महाराज ने कहा— मेरे विठ्ठल ही तो भूत भी बने होगें। और फिर उस मकान में अकेले ठहर गए। आधी रात को वह भयंकर भूत आया उसका शरीर बड़ा भारी था। वह लम्बी चौड़ी विकराल प्रेतात्मा देख नामदेव जी भाव मग्न होकर नृत्य करने और गाने लगे— भले पधारे लम्बक नाथ। धरनी पांव, स्वर्ग लौ माथा, जोजन भरके लांबे हाथ। शिव सनकादिक पार न पावैं, अनगित साज सजायै साथ।। नामदेव के तुम ही स्वामी, की जै प्रभु जी मोहि सनाथ।।भगवान की भक्ति केसामने भला कही प्रेत का प्रेतत्व ठहर सकता है। वह भयावनी आकृति शंख, चक्र, गदा पद्यधारी श्री पांडुरंग जी में बदल गई। उस दिन से फिर उस घर में वह ब्रह्म राक्षस नहीं रहा। ऐसे ही एक बार नामदेव जी जंगल में रोटी बना रहे थे। रोटी बनाकर भोजन करने हेतू लघुशंका आदि से निवृत्त होने गये। जब लौटे तो देखते क्या है, कि एक कुत्ता मुंह में रोटी दबायें भागा जा रहा है। नामदेव जी घी की कटोरी लेकर उसके पीछे यह कहते हुए दौडे— प्रभु! ये रोटियां रूखी है, घी लगा लेने दीजिए। फिर भोग लगाना। इस भक्ति भावना से भगवान उस श्वान शरीर से ही प्रकट हुए और भक्त नामदेव उनके चरणों पर गिर पड़े। एक बार जब ये संत ज्ञानेश्वर के साथ तीर्थ यात्रा करके लौटे तो मार्ग में बीकानेर के पास कोलायत गांव में एक कुएँ पर इन्हें प्यास लगी। झांक कर देखा तो कुआं सूखा था। ज्ञानेश्वर जी सिद्ध योगी थे। वे लाहिमा सिद्धि से कुएँ भीतर पृथ्वी में गए एवं जल पी नामदेव जी के लिए जल ले आये। पर नामदेव जी ने वह जल पीना स्वीकार नहीं किया और कहा:– मेरे विठ्ठल को क्या मेरी चिंता नहीं है, जो इस प्रकार पानी पीऊं? सहसा कुएँ में पानी भर गया और जल ऊपर तक आ गया। इस प्रकार संत ने सूखा कुआं सबके लिए फिर जल से भरवाकर पानी पीया। इनकी भक्ति के और भी अनेक चमत्कार है जैसे :– नागनाथ के शिव मंदिर द्वार का इनकी ओर घूमना, गऊओं के थनों में सबकी पूर्ति के लिए दूध का होना आदि। इनकी भक्ति भेदभाव रहित, जाति पाति पूछै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई, स्वरूप की थी। ये सगुणोपासक भक्त भगवान के सगुण और निर्गुण दोनों रूप मानते है। किंतु भक्ति के लिए सगुण रूप ही स्वीकार करते है। सगुण मार्गी भगवान के प्रकट रूप के साथ उनके अव्यक्त रूप का भी निर्देश करते रहे है। आइये पहले नामदेव की सगुणोंपासना के पद्य गायें:—दशरथ-राय नंद राजा मेरा रामचंद्र। प्रणवे नामा तत्व रस अमृत पीजै।। * धनि धनि मेघा रोमावली, धनि धनि कृष्ण ओछे कावली। धनि धनि तू माता देवकी, जि गृह रमैया कवलाति।। धनि धनि बनखंड वृंदावना, जँह खेलै थी नारायना। वनु, वजले, गोधन चारै, नामे का स्वामि आनंद करै।। *और आगे उनकी निर्गुण वाणी पढ़िए:— * माइ न होती, बाप न होते, कर्म्म न होता काया। हम नहि होते, तुम नहि होते, कौन कहा ते आया।। चन्द न होता, सूर न होता, पानी पवन मिलाया। शास्त्र न होता, वेद न होता, करम कहा ते आया।। *पांडे तुम्हरी गायत्री लोधे का खेत खाती थी। लैकरि ढेगां टंगरी तोरी लंगत आती थी।। पांडे तुम्हरा महादेव धौल बलद चढा आवत देखा था। पांडे तुम्हरा रामचन्द्र सो भी आवत देखा था।। रावन सेंती सरवर होई, घर की जोय गँवाई थी। हिन्दू अन्धी तुरूकौ काना, दुवौ ते रानी सयाना।। हिन्दू पूजै देहरा, मुसलमान मसीद। नामा सोई सेविया, जैह देहरा न मसीद।। *सन्त नामदेव की वाणी के आधार पर यह कहा जा सकता है। कि निर्गुण पंथ के लिए मार्ग निकालने वाले नाथपंथ के योगी और भक्त नामदेव थे। हिन्दी साहित्य मे जो ज्ञान मार्ग के संत कवि हुए है, नका मूल नामदेव से ही आरंभ होता है। नामदेव ने भूली भटकी जनता को उपासना का एक निर्दिष्ट मार्ग सुझाया। उनके भजनों में, उनके पद्यों में ईश्वर की निराकार ज्योति और उपासना के अमर मंत्र है। संत नामदेव मोहक प्रतिमाएं यह प्रसन्नता की बात है कि जब भारतीय स्वतंत्रता और संस्कृति का सूर्य अस्त हो रहा था, जब मानव मानव के प्रति पिशाच बना हुआ था। जब हम लक्ष्यहीन होकर मझदार में गोते लगा रहे थे तब संत नामदेव ने हमारी डूबती हुई नाव को बचाया। यह महिमा भारतीय संतों की ही रही कि जिसके सामने विषमता और साम्प्रदायिकता की तलवार टूक टूक होकर गिर पडी। मतमतान्तरों के अंगारे धधक धधक कर बुझ गये। धर्मान्धों की आंधी उठ उठ कर शांत हो गई। फूट के लाल पीले बादल गरज गरज कर बरस न सके। शत्रुता की अंधरी मित्रता की रोशनी में बदल गई। आज हम न सतीत्व की रक्षा देखते है, न गौ ब्राह्मणों का सम्मान है, न मांस भक्षण रूक रहा है। वह भी एक समय था जब संतों के प्रभाव से मानव स्वेच्छा पूर्वक शांत था। वह स्त्री और बच्चों पर अत्याचार नहीं करता था, न इतनी सामप्रदायिकता घृणा थी, न हर चौराहे और बाजार में मांस की खुली दुकानें थी। अर्थात न इतने शराबी थे, न इतने कबाबी थे। चारों ओर धार्मिक एवं सांस्कृतिक शांति थी। ये धर्म संस्कृति और शांति के अग्रदूत भारतीय संत ही थे, जिनके आदर्श आज भी भारत से सारी धरती पर शांति का संदेश दे रहे है। महात्मा गांधी जिनकी आत्मा के स्वरूप हुए। भारतीय संत परंपरा विश्व की सबसे अधिक प्रकाशमान पूर्णिमा है। और संत नामदेव उस शरद पूर्णिमा की रात्रि में ज्योतिवत शीतल चंद्रमा है। इन्होंने अपने चरणों से धरती पर जो अमिट अक्षर लिख दिये वे न मिटेगें और न मानवता को मिटने देगें। सत्य के ये दीपक जले जलते रहे और दिवाकर की तरह तपता हुआ इनका तप प्रकाश देता ही रहेगा।Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत के प्रमुख संत जीवनीहिन्दू धर्म के प्रमुख संत