श्री महाप्रभु जी – श्री दीपनारायण महाप्रभु जी और योग वेदांत समाज Naeem Ahmad, May 18, 2022March 11, 2023 भारत में राजस्थान की मिट्टी ने केवल वीर योद्धा और महान सम्राट ही उत्पन्न नहीं किये, उसने साधुओं, संतों, सिद्धों और गुरुओं को भी जन्म दिया। ऐसे ही एक महान दिव्य पुरुष श्री दीपनारायण जी थे, जिनको उनके शिष्य महाप्रभु जी कहकर संबोधित करते थे। श्री महाप्रभु जी का जन्म स्थान, शिक्षा और माता पिता श्री दीपनारायण जी का जन्म नागौर जिले के हरिवासिनी गांव में हुआ था और उनका बचपन का नाम दीपपुरी था। दीपपुरी के पिता श्री उदयपुरी भगवान शंकराचार्य की परंपरा में चले आ रहे एक मठ के महंत और अपने क्षेत्र के जाने-माने एवं आध्यात्मिक नेता थे। उनकी मां चंदना देवी अपने साधु-प्रकृति पति के चरण-चिह्नों पर चलती थीं और भगवान राम, भगवान कृष्ण और भगवान शिव की परम भगत थीं। वे गाय, अतिथि और विशेषत: साधुओं की सच्चे मन से सेवा करती थीं। एक दिन जिस समय वे भगवान शिव का ध्यान कर रही थीं, उनको ऐसी अनुभूति हुई कि भगवान शिव ने उनकी कोख से एक दिव्य बालक के जन्म का वरदान दिया है। उनकी यह अनुभूति सही सिद्ध हुई। ठीक नौ महीने पश्चात 5 नवंबर, 1828 को दीपावली के दिन प्रात: 4 बजे ब्रह्म मुहूर्त में उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। बालक का जन्म होने पर उसके पिता ने प्रसिद्ध ज्योतिषी पं. प्रेमशंकर से उनकी जन्म-कुंडली तैयार करायी। पंडितजी ने गृह-दशा का अध्ययन करने के पश्चात् भविष्यवाणी की कि बालक वैदिक धर्मग्रंथों का महान विद्वान तो होगा ही, महान संत और दिव्य पुरुष भी होगा। बालक का नाम दीपपुरी रखा गया। ज्योतिषी ने यह भविष्यवाणी भी की कि दीपपुरी को अपनी दैवी और यौगिक शक्तियों के कारण समूचे विश्व में ख्याति प्राप्त होगी और उसके शिष्य योग और वेदांत का उसका संदेश पश्चिमी जगत के निरीश्वरवादियों तक पहुंचायेंगे। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इस भविष्यवाणी पर आसानी से विश्वास नहीं किया जा सकता था कि राजस्थान की मरूभूमि पर बसे एक अज्ञात गांव में जन्म लेने वाला एक बालक उस पश्चिमी जगत में आध्यात्मिक गुरु के रूप में ख्याति प्राप्त करेगा, जिसने भारत सहित समूचे संसार पर अपना आधिपत्य जमा रखा था। दीपपुरी बचपन से ही ज्ञानी पुरुष थे और जब उनको गुरुओं ने धर्मशास्त्रोंके पाठ पढ़ायें तो उन्होंने उन पाठों को तो बहुत जल्दी समझ ही लिया, उनके गहरे और छिपे हुए अर्थ भी जान लिये। श्री दीपनारायण महाप्रभु जी बचपन में वे अपनी गायों के झुंड को लेकर उन्हें चराने के लिए दूर जंगल में जाया करते थे। एक बार उनकी मुठभेड़ एक डाकू से हो गयी, जो उनकी गई चुराने की चेष्टा कर रहा था। दीपपुरी ने अपने चुंबकीय व्यक्तित्व और अपनी आध्यात्मिक शिक्षाओं के द्वारा उस डाकू का हृदय-परिवर्तत कर दिया। इसी प्रकार एक बार उनकी मुठभेड़ एक मुसलमान शिकारी से हो गई। उन्होंने उसे जीव हत्या न करने का उपदेश दिया। दीपपुरी ने उसे ते समझाया कि अल्लाह सभी जीवों की आत्मा में निवास करता है और यदि उसे अल्लाह से प्यार है तो उसे जीवों की हत्या नहीं करनी चाहिए। शिकारी लाल खां ने उसी दिन से पशु-पक्षियों का शिकार करना और मांस खाना छोड़ दिया। श्री महाप्रभु जी की गुरु से भेंट उन दिनों उत्तर भारत में एक महान आध्यात्मिक गुरु अलखपुरी जी थे, जो प्राय: हिमालय में ही रहा करते थे। श्री अलखपुरी जी के शिष्य श्री देवपुरी जी अपने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके राजस्थान में मांउट आबू पर रहने चले आये। वे शीघ्र ही अपनी यौगिक शक्तियों के कारण चारों ओर प्रसिद्ध हो गये। माउंट आबू पर रहने वाले अंग्रेज अधिकारी भी उनकी शक्तियों से प्रभावित थे तथा उनका बहुत आदर करते थे। श्री देवपुरी जी गांव के लोगों को आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करने के लिए घूमा करते थे। उन्होंने बालक दीपपुरी के गांव हरिवासिनी के निकट कैलाश नामक गांव में एक आश्रम बनवाया। बालक दीपपुरी अपने माता-पिता की छाया में बड़े हो रहे थे। इसी बीच श्री देवपुरी जी बडी खाटू के सामंत सरदार ठाकुर मोहन सिंह के निमंत्रण पर उनके यहां गये। वह एक पहाड़ी क्षेत्र है। देवपुरी जी कुछ समय के लिए वहीं बस गये। एक दिन बालक दीपपुरी अपनी गायों के झुंड के पीछे-पीछे उस स्थान पर जा निकले, जहां देवपुरी जी समाधि लगाये बैठे थे। बालक ने देवपुरी जी के सामने जाकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। देवपुरी जी की समाधि ठीक उसी समय खुली और उन्होंने अपने सामने उस बालक को देखा। यह गुरु और शिष्य की प्रथम भेंट थी। गुरु की पहली दृष्टि पड़ते ही बालक दीपपुरी के भीतर दैवी चेतना जाग उठी और बालक ने तुरंत यह महसूस किया कि देवपुरी जी को ईश्वर ने ही उसका आध्यात्मिक गुरु बनाकर वहां भेजा हैं। गुरु ने शिष्य को योग के रहस्य सिखाये और जब वे उस विद्या में पूर्ण हो गये तो गुरु ने शिष्य के ज्ञान और उसकी निष्ठा की परीक्षा लेकर उसे योगी घोषित कर दिया। अब वे दीपपुरी से स्वामी दीपनारायण बन गये। गुरु के आदेश पर स्वामी दीपनारायण ने अपना घर छोड़ दिया और मरघट की भूमि पर संन्यास आश्रम की स्थापना की। यह आश्रम आज भी देवडूंगरी संन्यास आश्रम के नाम से प्रसिद्ध है। श्री महाप्रभु जी के चमत्कार श्री दीपनारायण महाप्रभु जी ईश्वर के अनन्य प्रेमी थे। चमत्कारों में उनकी तनिक आस्था न थी परंतु यौगिक शक्तियों के कारण उनसे अनेक चमत्कार हो जाते थे। अंधे की आंखों की रोशनी आ जाती और स्वामी दीपनारायण जी के पुकारने पर मुर्दे उठ खड़े होते, परंतु इसके कारण उनके मन में किसी प्रकार का अहंकार नहीं जग पाया। वे हिन्दू और मुसलमान में किसी प्रकार का भेद नहीं करते थे और उनकी कृपा सब लोगों पर समान रूप से बरसती रहती थी। सभी धर्मों के लोग उनका समान आदर करते थे। मुसलमान उन्हें अपना पीर मानते थे और हिन्दू एक महान योगी। गांधी जी का प्रेम 20वीं शताब्दी के दूसरे दशक के अंत में भारत के स्वतंत्रता संग्राम की बागडोर महात्मा गांधी ने अपने हाथों में संभाली। दक्षिणी अफ्रीका से भारत लौटने पर गांधी जी ने अहमदाबाद के समीप साबरमती में अपना आश्रम स्थापित किया था। महाप्रभु जी एक आध्यात्मिक गुरु थे। महात्मा गांधी के प्रति उनका आकर्षण विशेषतः इस कारण था कि गांधी जी सत्य और अहिंसा पर बल देते थे। एक बार महाप्रभु जी अपने अनुयायियों सहित माउंट आबू पर ठहरे हुए थे। अचानक उन्होंने अपने साथ के लोगों से कहा कि सब लोग साबरमती आश्रम चलेंगे और वहां के लिए निकल पड़े। गांधी जी को जब महाप्रभु जी के आगमन का समाचार मिला तो वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने आश्रम के द्वार पर जाकर महाप्रभु जी का स्वागत किया। भारत के इन महान संतों का मिलन एक स्वर्णिम और दिव्य अनुभूति बन गया। गांधी जी ने शाम की प्रार्थना के समय महाप्रभु जी से भजन गाने और आश्रमवासियों के सम्मुख प्रवचन करने का अनुरोध किया। यह भी अपने आप में एक दिव्य अनुभूति थी। महाप्रभु जी अत्यंत भावपूर्वक संकीर्तन करने लगे, जिससे वहां उपस्थित सब लोग आनंदविभोर हो उठे। संकीर्तन के बाद महाप्रभु जी ने गांधी जी से कहा कि “आप ईश्वर के अवतार हैं और इस अवतार का प्रयोजन भारत को बुराई की शक्तियों से मुक्त कराना है। आप अपने लक्ष्य में अवश्य सफल होंगे। भारत के लिए आपकी सेवाएं हमेशा याद की जायेंगी। आपकी जीवन गाथा अमर हो जायेगी और वह आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती रहेगी। महाप्रभु जी ने अपने प्रवचन में सर्वव्याप्त परमात्मा की सर्वोच्चता, मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता और जीवन-कर्म में सत्य के पालन पर बल दिया। महाप्रभु जी दृष्टा थे। योगाभ्यास से उन्हें भूतकाल और भविष्यकाल की घटनाओं को देखने की शक्ति प्राप्त हो गयी थी। आश्रम में बैठे-बैठे ही महाप्रभु जी ने आंखें बंद की और वे अतीत में खो गये। चेतना लौटने पर उन्होंने श्रोताओं से कहा बहुत समय पहले महात्मा गांधी अजयपाल नामक राजा थे, वे बहुत सादगी से रहते थे, अपने लिए राजकोष से एक कौड़ी भी नहीं लेते थे और अपने निर्वाह के लिए बकरियां पालते थे। वे बहुत दयालु और सत्यानुरागी राजा थे। एक बार लंका के राजा रावण के साथ उनका संघर्ष हो गया, किंतु अंत में रावण ने उनके राज्य पर उनकी प्रभुता को स्वीकार कर लिया। वे सच्चे अर्थों में एक आध्यात्मिक गुरु थे तथा धर्मों और संप्रदायों में भेदभाव नहीं रखते थे। एक बार वे हिन्दुओं के पवित्र तीर्थ पुष्कर में ठहरे हुए थे। पुष्कर से थोड़ी ही दूर अजमेर में उन्हीं दिनों हिन्दू-मुस्लिम तनाव उत्पन्न हो गया। महाप्रभु जी ने दोनों धर्मों के लोगों को समझाया। उनकी बात दोनों पक्षों की समझ में आ गयी और तनाव समाप्त हो गया। स्वामी माधवानंद महाप्रभु जी के शिष्यों की संख्या बहुत बड़ी थी, उनमें स्वामी माधवानंद उनके सबसे अधिक निकट थे। स्वामी माधवानंद दिन-रात पुरी निष्ठा और श्रद्धा से महाप्रभु जी की सेवा करते थे। महाप्रभु जी के गुरु ने भविष्यवाणी की थी कि महाप्रभु जी का अध्यात्म, वेदांत और योग का संदेश समूचे विश्व में फैलेगा और उस संदेश की फैलाने की जिम्मेदारी महाप्रभु जी की शिष्य परंपरा में एक योगी उठायेगा। महाप्रभुजी ने अपनी समस्त योग-शक्तियां अपने परम शिष्य स्वामी माधवानंद को प्रदान कर दीं तथा यह भविष्यवाणी भी कर दी कि उनका प्रेम अध्यात्म और योग का संदेश पश्चिमी देशों में स्वामी माधवानंद का एक शिष्य फैलायेगा। स्वामी माधवानंद के यही शिष्य बाद में महेश्वरानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। स्वामी माधवानंद को अपने गुरु पर बहुत श्रद्धा भी थी और वे उनके महासमाधि लेने तक उनकी सेवा मनोयोग पूर्वक करते रहे। सीमोल्लंघन मार्च, 1963 में स्वामी माधवानंद साबरमती आश्रम में थे। अचानक एक दिन उन्हें महाप्रभुजी का संदेश मिला कि खादी की एक सफेद चादर लेकर तुरंत लौट आओ। माधवानंद जी ने गुरु के आदेश का तुरंत पालन किया और वे उनके समीप पहुंच गये। अगले दिन महाप्रभु जी ने स्वामी माधवानंद से कहा कि पौष मास की कृष्णा चतुर्थी के दिन वे शरीर त्याग देंगे। माधवानंद ने महाप्रभु जी के कथन पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया और वह बात उनकी स्मृति से निकल गयी। अंततः निश्चित दिन आ पहुंचा। आश्रम की गतिविधियां सामान्य तौर पर चल रही थीं। शाम को 5 बजे से कुछ पहले महाप्रभू जी ने अपने शिष्यों को अपने पास बुलाकर उनसे कहा, ”तममें से किसी को मुझसे कुछ कहना या पूछना हो तो कह डालो अथवा पूछ लो। मेरे लिए संसार छोड़ने का समय आ गया है, परंतु याद रखना कि मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगा। ठीक 5 बजते ही महाप्रभु जी पदमासन लगाकर और कमर सीधी करके बैठ गये। उन्होंने अपना प्राण ब्ह्मरंध में चढ़ाया और शरीर छोड़ दिया। उस समय वे 35 वर्ष के थे। अगले दिन महाप्रभुजी को देवडूंगरी संन्यास आश्रम में ही समाधि दे दी गयी। स्वामी महेश्वरानंद महाप्रभुजी द्वारा महासमाधि लेने के बाद उनके शिष्यों और अनुयायियों की दृष्टि महाप्रभु जी के उत्तराधिकारी स्वामी माधवानंद पर टिकी। स्वामी माधवानंद ने कालांतर में जयपुर तथा पाली जिलों के पीपल गांव में आश्रमों की स्थापना की। इसी बीच 5 अगस्त, 1955 को राजस्थान के एक गांव रूपावास में पं कृष्णराम गर्ग की धर्मपत्नी फूलकंवरी देवी की कोख से एक बालक का जन्म हुआ। पं. कृष्णराम एक विद्वान ज्योतिषी, ईश्वर भक्त और धर्मग्रंथों के कुशल ज्ञाता थे। बालक का नाम रखा गया मांगीलाल। मांगीलाल केवल 2 वर्ष का था, तभी उसके पिता का देहांत हो गया। उसकी मां स्वामी माधवानंद की बहन थी, अतः बालक को शिक्षा प्राप्त करने के लिए स्वामी जी के आश्रम में पीपल भेज दिया गया। आश्रम में भर्ती होने के कुछ समय बाद ही मांगीलाल ने स्वामी माधवानंद से यह आग्रह शरू कर दिया कि उसे संन्यास की दीक्षा दी जाये। स्वामी जी ने सोचा कि यह अभी बालक है और संन्यास का अर्थ भी नहीं जानता, अतः उन्होंने मांगीलाल को दुनियादारी में उलझाने की कोशिश की, पहले छोटा-सा व्यापार कराया और बाद में नौकरी दिलवा दी। अब मांगीलाल संन्यास लेने के लिए अधीर हो उठा और एक दिन उसने स्वामी माधवानंद को लिखा कि यदि उसे संन्यास नहीं दिया गया तो वह आत्मघात कर लेगा। यह पत्र पाकर स्वामी माधवानंद को विश्वास हो गया कि मांगीलाल एक सच्चा साधक है और उसकी आत्मा उन्नत है। उन्होंने मांगीलाल को अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया और कुछ समय बाद उसे संन्यास दे दिया। अब वे मांगीलाल से स्वामी महेश्वरानंद हो गये। योग-वेदांत-समाज सन 1972 में स्वामी महेश्वरानंद भारत से यूरोप की यात्रा पर निकले। उसी वर्ष उन्होंने ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में अपना मुख्य केन्द्र स्थापित करके महाप्रभु जी के योग और वेदांत के संदेश का प्रचार शुरू कर दिया। शीघ्र ही युरोप के लोग उनके चारों ओर इकट्ठे हो गये और वियना में श्री दीप माधवाश्रम की स्थापना हुई, जहां अध्यात्म विद्या के व्यापक प्रशिक्षण का कार्यक्रम शुरू किया गया। वह कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय रहा और स्वामी महेश्वरानंद ने शीघ्र ही योग संबंधी अपने ग्रंथों का यूरोपीय भाषाओं में प्रकाशन शरू कर दिया। यह वह समय था जब सोवियत रूस और पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देश पूरी तरह बंद समाज बने हुए थे। निरीश्वरवाद के इस दुर्ग में स्वामी महेश्वरानंद निर्भीकता पूर्वक जा घुसे। उन्होंने साम्यवादी देशों की यह समझाने में सफलता प्राप्त कर ली कि योग का धर्म से तनिक भी संबंध नहीं है। इसका सद परिणाम यह हुआ कि उन्हें पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों पूर्वी जर्मनी, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया और युगोस्लाविया आदि में योग तथा वेदांत के आध्यात्मिक सिद्धांतों की शिक्षा देने की अनुमति प्राप्त हो गयी। उन देशों में स्वामी महेश्वरानंद की गतिविधियों का सबसे आश्चर्यजनक पक्ष यह रहा कि उनके कार्यक्रमों का आयोजन राज्य सरकारों की ओर से किया गया और उनकी पुस्तकें सरकारी प्रकाशन गृहों से प्रकाशित हुई। स्वामी महेश्वरानंद ने लंबी-लंबी यात्राएं की और पश्चिमी जर्मनी, इंग्लैंड, कनाडा, अमेरीका तथा आस्ट्रेलिया आदि अनेक देशों में योग वेदांत केन्द्र स्थापित किये। वे नियमित रूप से प्रतिवर्ष अपने विदेशी शिष्यों के साथ भारत आते हैं तथा अपने गुरु स्वामी माधवानंद के चरणों में बैठकर वेदांत के पाठ दोहराते हैं। उन्होंने कई बार स्वामी माधवानंद को यूरोप में आमंत्रित किया। अपनी इन यात्राओं के दौरान स्वामी माधवानंद ने चिकित्सा-विज्ञानियों के सामने अपनी यौगिक शक्तियों का प्रदर्शन किया। चिकित्सा विज्ञानियों ने उनके मस्तिष्क की तरंगों को उस समय ग्राफ पर उतारा, जिस समय स्वामी जी समाधि में थे और उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि समाधि-अवस्था में स्वामी जी का मन और मस्तिष्कपूर्णतया शांत तथा निष्क्रिय हो जाता है। ज्योतिपंज अपने शिष्य स्वामी माधवानंद तथा पट॒ट-शिष्य स्वामी महेश्वरानंद के माध्यम से श्री दीपनारायण महाप्रभु जी ही संसार भर में अध्यात्म और योग की ज्योति प्रज्जलित कर रहे हैं। इसी भाव को मिशीगन (अमेरीका) की एक साधिका श्रीमती डेबोराह पाम्र शोबर ने इन शब्दों में व्यक्त किया है, ” श्री दीपनारायण महाप्रभु जी नि:संदेह ईश्वर का अवतार हैं। उनका जीवन यह प्रमाणित करता है कि सत्य का सजीव प्रकाश विश्व से लुप्त नहीं हुआ, वरन् हम सही स्थान पर खोजें और ऊपरी सतह के नीचे उस अनुभूति के स्तर तक उतरते चले जाये, जो भौतिक अस्तित्व से परे है तो हम अपने भीतर उस प्रकाश को अनुभव कर सकते हैं। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- [post_grid id=’9109′]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new 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