विदिशा के पर्यटन स्थल – विदिशा के दर्शनीय स्थल Naeem Ahmad, April 7, 2023March 24, 2024 विदिशा मध्य प्रदेश के सम्पन्न जिलों नें गिना जाता है । इसके उत्तर में गुना, पूर्व में सागर, दक्षिण में रायसेन तथा पश्चिम में राजगढ़ जिले हैं। यह दिल्ली-बम्बई लाईन पर सेन्ट्रल रेलवे का एक स्टेशन हैं, जहां पर सभी गाड़ियां रुकती हैं। यहां से भोपाल, इन्दौर, अशोक नगर, गुना, सागर, खजुराहो आदि शहरों को वें जाती हैं। जिले का हेडक्वार्टर होने के कारण यहां पर एक विश्वाम भवन और एक विश्राम गृह भी हैं। दस किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पश्चिम मे सांची हैं। जहाँ विश्वाम भवन, विश्वाम गृह तथा पर्यटक भवन के अतिरिक्त एक बौद्ध धर्मशाला है, जिसका प्रवन्ध श्रीलंका के बौद्ध भिक्षु करते हैं। उदयगिरि की गुफायें, हेलियोडोरस स्तम्भ, विजय मंदिर (मस्जिद), लोहांगी पहाड़ी आदि प्राचीन स्मारकों को देखने के लिए देश-विदेश से पर्यटक आते रहते हैं। लगभग पचास वर्ष पूर्व किये गये पुरातात्विक उत्खनन से उपलब्ध सामग्री को एक संग्रहालय में रखा गया है, जो मध्य प्रदेश सरकार द्वारा संचालित है। किसी अन्य प्रकार की सुविधा न होने के कारण पर्यंटक रिक्शा, टैक्सी का प्रयोग करते हैं, जो एक बार में ही सभी दर्शनीय स्थलों का यथोचित दाम लेकर भ्रमण करा देते हैं। ऐसे ही कुछ विदिशा के प्रमुख दर्शनीय स्थलों के बारे में नीचे विस्तार से जानगें। विदिशा के दर्शनीय स्थल विदिशा के दर्शनीय स्थल – विदिशा के पर्यटन स्थल हेलियोडोरस स्तंभ विदिशाहेलियोडोरस स्तंभ जिसकी संसार के सर्व प्रसिद्ध स्मारकों में इस स्तम्भ की गणना की जाती है क्योंकि यह ने केवल वैष्णव धर्म का प्राचीनतम एक अक्षुण्य स्मारक है अपितु एक यवन राजदूत द्वारा वैष्णव धर्म स्वीकार करने का उदाहरण भी है।विदिशा-अशोकनगर मार्ग पर विदिशा से तीन किलोमीटर की दूरी पर प्राचीन विदिशा नगर के बाहर, बेस नदी के तट पर तथा टिला नामक छोटे गाँव के निकट तथा आधुनिक बेसनगर के पास यह स्तम्भ अपने मूल स्थान पर स्थित है। इसे यहां के निवासी खामबाबा के नाम से जानते है तथा इसकी पूजा भी करते हैं। यदाकदा कुछ लोग बकरे की बलि भी चढ़ाते हैं।मार्शल के समय में हेलिओडोरस स्तम्भ के निकटवर्ती टीले पर खामबावा का पुजारी प्रतापपुरी गोसाई था, जो यहां के पुजारी हीरापुरी की तीसरी पीढी का था। हीरापुरी सन्यासी था, जो खामबाबा को मदिरा समर्पित करता था। भण्डारकर ने इस हेलियोडोरस स्तंभ की पूजा प्रारम्भ होने के विषय में लिखा है कि एक बार एक महत्वशाली व्यक्ति अपनी सेना के साथ सन्यासी हीरापुरी के स्थान पर आया, सन्यासी ने उस व्यक्ति से सदैव के लिये अपने साथ रहने की प्रार्थना की। आगंतुक हीरापुरी के आतिथ्य से इतना प्रसन्न हुआ कि उसने हीरापुरी की प्रार्थना स्वीकार कर ली तथा स्वयं को खामबाबा में परिवर्तित कर लिया। स्तम्भ की पूजा प्रायः भोई अथवा ढीमर जाति के लोग करते है क्योंकि उनका विश्वास है कि खामबाबा मौलिक रूप से उन्हीं की जाति का था। इसके प्रमाण में वह मकर स्तम्भ शीर्ष को, जो उस समय यही पर था, खामवाबा का रूप धारण करने के पूर्व ढीमर द्वारा पकड़ी हुई मछली समझते हैं। ढीमर ने जब खामबाबा का रूप धारण किया, मकर ने भी स्वयं को पत्थर में परिवर्तित कर लिया। यही कारण हैं कि इस स्तंभ पर उस समय तेल मिश्रित गेंहू आदि का गहरा लेप था। वस्तुतः यह खंभ (स्तंभ) बाबा आधुनिक शब्द है।ग्वालियर राज्य के समय में इस स्तम्भ के चारों ओर एक चबूतरा बना दिया गया था क्योंकि इसकी नींव के एक चतुर्थ भाग के उत्खनन से यह स्पष्ट हो गया था कि स्तम्भ एक ओर को थोड़ा सा झुका है। चबूतरे के ऊपर का भाग 5 मीटर ऊंचा है। यह भूरे गुलाबी स्फटिक बालुकाश्म का बना है तथा ऊपर की ओर शुण्डाकार है, जहां गरूड़ स्तम्भ शीर्ष शोभित था। स्तम्भ तथा क्षीर्ष अलग-अलग एकाश्म है। इसके अष्टाभुजी भाग पर द्वितीय शताब्दी ई० पू० के दो अभिलेख हैं। इसका ऊपरी भाग क्रमशः सोडप तथा बत्तीस भुजी है व सर्वोपरि भाग गोल है। इसी प्रकार के एक अन्य गरुड़ध्वज की स्थापना सम्बन्धी अभिलेख वर्तमान विदिशा की एक गली से प्राप्त हुआ था। सम्भवतः यह अभिलेख भी हेलियोडोरस स्तंभ के समकालीन अन्य सात स्तम्भों का एक भाग रहा हो।हेलियोडोरस स्तंभ के पार्श्व में जिस टीले पर पुजारी का मकान था, उसके नीचे अनगढ़ पत्थरों की चार दीवारें 33 मी० वर्ग की अनावृत की गई थीं, जो मिट्टी के बने चबूतरे की रक्षा हेतु निमित की गई थी। इस चबूतरे पर हेलियोडोरस स्तंभ का समकालीन वायुदेव का मंदिर था। इस मंदिर के उत्तर की ओर अनगढ़ पत्थर की दीवार के समान्तर सात स्तम्भों के अवशेप प्राप्त हुये थे। सात स्तम्भों की इस पंक्ति के मध्यस्थ स्तम्भ के सम्मुख आठवां स्तम्भ था। हेलियोडोरस स्तंभ इस पंक्ति के एक कोने पर था। हेलियोडोरस स्तंभ बेसनगरइस स्थान से गरूड़ स्तम्भ-शीर्ष के अतिरिक्त, केल्प वृक्ष, मकर ताम्रपत्र, वेदिका आदि स्तम्भ शीर्ष भी एकत्र किये गये थे, जो उपर्युक्त स्तम्भों को सुशोभित करते रहे होंगे।अनगढ़ पत्थर की दीवारों के नीचे तथा कोरी मिट्टी के ऊपर एक वृत्तायत मंदिर की नींव अनावृत की गई थी। इस मंदिर में वृत्तायत गर्भग्रह वृत्तायत प्रदक्षिणापथ, अंतराल व मंडप थे। ई० पूृ० चौथी-तृतीय शताब्दी का विष्णु मंदिर काष्ठ का बनाया गया था, जो बाढ़ग्रस्त हुआ। इस समय इस स्थल पर खामबाबा के अतिरिक्त केवल अनगढ़ पत्थरों की धारक दीवार ही हैं। शेष भाग बालू तथा अलकाथीन से ढक दिया गया है। लोहांगी पहाड़ीविदिशा रेलवे स्टेशन के निकट 200 फीट ऊँची एक छोटी सी पहाड़ी है, जिसका ऊपरी आधा भाग सीधी कतार है किन्तु उसके ऊपर समतल है। यही कारण है कि यहां लगभग 100 मीटर के व्यास के भीतर मंदिर, मस्जिद आदि स्मारक है। इनके अतिरिक्त शुगकालीन स्तम्भ शीर्ष भी किसी अन्य स्थान से लाकर यहां रख दिया गया है।एक कथानक के अनुसार राजा रुकमनगढ़़ के प्रसिद्ध श्वेत अश्व का जिसके काले कान थे, लोहांगी पहाड़ पर ही अस्तबल था। घण्टाकृति स्तम्भ शीर्ष को, जिसे पानी की कुण्डी कहते हैं, श्वेत अश्व के पानी पीने का द्रोण समझा जाता है। इस पहाड़ी का वर्तमान नाम लगभग 600 वर्ष पूर्व लोहांगी पीर के नाम के कारण प्रचलित हुआ है। लोहांगी पीर, शेख जलाल चिश्ती की उपाधि थी। आषाढ़ की पूर्णिमा को यहां एक मेला लगता है, जो सम्भवतः बुद्ध पूर्णिमा से सम्बन्धित हो सकता है।लोहांगी पहाड़ी पर जाने के लिये अनेक सीढ़ियां बनी हुई हैं, जिनका जीर्णोद्वार विदिशा नगरपालिका की ओर से किया जा रहा है। पहाड़ी के शिखर पर प्रवेश द्वार की कुछ सीढ़ियां पार करने के पश्चात बाई ओर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का संरक्षण पट्ट लगा है। वहीं एक चौरस स्थान पर एक स्तम्भ शीर्ष कुछ वर्ष पूर्व निर्मित चबूतरे पर रखा है। इसकी ऊंचाई 3 फुट तथा व्यास 3 फुट 8.1/4 इंच है। इस पर शुंगकालीन शैली में उत्कीर्ण हंस आकृतियां विशेष उल्लेखनीय हैं। लोहांगी पहाड़ी विदिशालुहांगी पहाड़ी के पश्चिमी भाग में एक मस्जिद है, जिसमें मालवा के महमूद प्रथम खिलजी तथा अकबर के क्रमणः 864 तथा 987 हिजरी के अभिलेख है। इस मस्जिद के सामने एक मंदिर है, जो पहाड़ी की वर्तमान सतह से नीचे है। इसके सभा मण्डप में विभिन्न स्तम्भ है, जिनमे से कुछ आधुनिक हैं। आजकल यहां पुलिस विभाग की ओर से पूजा की व्यवस्था की जा रही है।वर्तमान विदिशा शहर (प्राचीन भेलसा) के चारों ओर पत्थर की दीवारों का परकोटा है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसमे प्रयुक्त पत्थर प्राचीन स्मारकों के अंश हैं, जो परकोटा निर्माण के समय एकत्र किये गये होंगे, इस परकोटे में तीन द्वार है। पश्चिमी तथा दक्षिणी द्वार बेस व रायसेन द्वार कहलाते हैं । परकोटे का अधिकांश भाग धीरे धीरे विनष्ट होता जा रहा है।विदिशा नगर के एक कोने में पुलिस स्टेशन से दो किलो मीटर की दूरी पर एक स्मारक है जों विजय मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर का निर्माण विजयरानी ने करवाया था। एक स्तम्भ पर पाये गये अभिलेख से ज्ञात होता है कि आरम्भिक मंदिर चर्चिका देवी का था। औरंगज़ेब के राज्यकाल में इस मंदिर का विध्वंस किया गया था तथा उसके ऊपर एक मस्जिद खड़ी कर दी गई थी, जिसमें विजय मंदिर के ही अधिकांश पत्थर प्रयोग में लाये गये।औरंगज़ेब ते इस नगर का नाम आलमगीरपुर तथा इस मस्जिद का आलमगीरी मस्जिद रखा था। इसकी लम्बाई 78 फीट तथा चौड़ाई 26 फुट है। प्राचीन मंदिर की नींव पर निर्मित होने के कारण इसमें प्रवेश करने के लिए सीढ़ियां बनी हैं। प्रवेश द्वार एक छोटे से आयताकार कमरे में खुलता हैं जहां से एक भीतरी द्वार आंगन में जाने के लिये हैं। आँगन के पीछे के भाग मे चार पंक्तियों के स्तम्भों का एक प्रार्थना मण्डप है, जिसमें 13 द्वार हैं।सन् 196-65 में इस स्मारक के दहिनी तथा बांई ओर एकत्रित मलवा हटाया गया था, जिसके फलस्वरूप मस्जिद के दाहिनी ओर विजय मंदिर का मुख्य द्वार अनावृत किया गया था। इस द्वार के निकट मलवे से अनेक मूर्तियां प्राप्त की गई। पिछले कुछ वर्ष पहले यहां एक गणेश मूर्ति भी मिली थी, जिस पर दसवीं- ग्यारहवीं शताब्दी का एक लेख भी है। इस स्मारक के निकट एक बावली है, जो स्थापत्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, किन्तु अब विनष्ट होती जा रही है। गुम्बज का मकबराप्राचीन परकोटे के एक भाग में एक छोटा सा मकबरा है, जिसमें दो समाधियां हैं। इसकी छत पर गुम्बद होने के कारण ही इसका नाम गुम्बद का मकबरा हो गया। एक समाधि पर 1487 ई० स० का एक फारसी लेख है, जिससे ज्ञात होता हैं कि यह एक धनी व्यवसायी की कब्र थी। बड़ोह-पठारी विदिशाबड़ोह और पठारी ग्रामों के बीच में एक तालाब है अन्यथा ये एक दूसरे के निकट हैं। प्राचीन समय में यह दोनों स्थान एक ही नगर के अंग थे। यहां के भग्नावशेष प्राचीन बड़नगर अथवा बारो की समृद्धि के परिचायक हैं। विदिशा से 50 मील उत्तर-पूर्व, एरण से 3 मील दक्षिण पूर्व तथा कुल्हार रेलवे स्टेशन से 12 मील की दूरी पर बड़ोह ग्राम है, जिसके दक्षिण में एक विशाल तालाब है। इसके पूर्व में गड़ोरी पहाड़ी तथा दक्षिण में ज्ञाननाथ पहाड़ी हैं, जिसके पूर्व में अन्होरा पहाड़ी है। इसके भी आगे पूर्व में लपा- सपा पहाड़ी है। यह सभी पहाड़ियां एक अर्धवृत्त बनाती हैं जो केवल पूर्व दिशा में खुला हुआ क्षेत्र है। पश्चिम दिशा मे एक पर्वत श्रेणी गड़ोरी तथा ज्ञाननाथ पहाड़ियों को, जो लगभग 500 फीट ऊंची हैं, जोड़ती है। इस जोड़ने वाली पर्वत श्रेणी पर पठारी स्थित है। इस एक वर्ग मील के क्षेत्र में अनेक जलश्रोत भी हैं। प्राचीन काल में इस प्रकार की आदर्श स्थिति विशाल नगरों के लिए उपयुक्त समझी जाती थी। बड़ोह के प्रमुख प्राचीन अवशेष गड़रमल मन्दिर, सोलह खम्भी मंडप, दशावतार सतमढ़ी तथा जैन मन्दिर है। गड़रमल मन्दिरइस मन्दिर से सम्बन्धित अनेक कथानकों के विवरण बेग्लर ने दिये हैं। कर्निघम के द्वारा दी गई कथा निम्नलिखित है:– गड़़रमल मंदिर का निर्माण एक गड़रिये द्वारा हुआ था। एक बार जब यह गड़रिया अपनी बकरियां ज्ञाननाथ पर चराने के लिए लेकर गया था, उसने सन्त ज्ञाननाथ की बकरियों को बिना रखवाले के वहां विचरण करते पाया। अतः दिनभर उनकी देखभाल करने के पश्चात् उसने बकरियों को सन्त के पास पहुँचा दिया। सन्त ने प्रसन्न होकर गड़रिये को एक मुट्ठी भर जौ के दाने दिये किन्तु उसने उन दानों को संत के निवास के बाहर की चट्टान पर गुस्से में फेक दिया। जब गड़रिये की पत्नी, ने यह वृतान्त सुना, वह तुरन्त ही गड़रिये के कम्बल को उठाकर चलने को तत्पर हुई, किन्तु आश्चर्य चकित स्त्री ने कम्बल से ढके उपलों को स्वर्ण रूप में पाया। उन दोनों को यह समझने में विलंब नही हुआ कि यह आश्चर्य संत की अनुकम्पा से ही हुआ है क्योंकि उसके दिये हुये जौ के कुछ दाने कम्बल में ही चिपक गये थे। गड़रिये ने फेके हुए दानों के पास जाकर देखा कि सम्पूर्ण चट्टान जिस पर उसने वह दाने फंके थे स्वर्ण की हो गई। इस प्रकार धन सम्पन्न गड़रिये ने संत की कृतज्ञता प्रकट करने के लिये एक विशाल मंदिर तथा तालाब का निर्माण करवाया। किन्तु तालाब में पानी न रहने के कारण उसने अपने दो पुत्रों, पुत्रवधू तथा पौत्र को बलि देकर तालाब को जलपूर्ण कर लिया।यहां के मंदिरों में गड़रमल मंदिर सबसे विशाल है। मूल रूप में यह हिंदू मंदिर था, जिसे इसके भग्न होने पर जैन मतावलंबियों ने इसका पुनरुद्धार किया। यही कारण है कि इसका निचला भाग, जो लगभग नवीं शताब्दी में निर्मित हुआ था, 10-12 फीट की ऊँचाई से शिखर वाले भाग से भिन्न है। पुनरुद्धार करते समय हिन्दू तथा जैन प्रतिमाओं को अलग-अलग करने का प्रयास नहीं किया गया। यहां तक कि आमलक को भी विभिन्न छोटे-छोटे आमलकों के अंशों से मिलाकर बनाया है। प्रमुख सभामंडप की बनावट ग्वालियर के तैली के मंदिर के सदृश है। गड़रमल मंदिर का सर्वश्रेष्ठ भाग इसका अलंकृत तोरण द्वार था। अभाग्यवश, इसका अधिकांश भाग विनष्ट हो चुका है। इस मंदिर का पूर्ण रूप बहुत ही सुन्दर है। गडरमल मंदिर विदिशागड़रमल मन्दिर सात अन्य छोटे मंदिरों के मध्यस्थ था, जिनके कुछ अवशेष मात्र ही दृष्टिगोचर होते हैं। इन छोटे मंदिरों में एक गणेश मंदिर था, जैसा कर्निघम द्वारा देखी गई आले में स्थापित एक गणेश मूर्ति से अनुमान लगाया जा सकता है। यहां से प्राप्त अन्य मूर्तियों में नवग्रह तथा सप्तमातृकायें हैं। आखेट के दृश्यों में मनुष्य व श्वान, मनुष्य व मृग तथा शूकर पर आक्रमण करते हुये मनुष्य विशेष उल्लेखनीय हैं। सोलह खम्भीतालाब के उत्तरी तट पर चार पंक्तियों में सोलह स्तम्भों पर खड़ा हुआ मण्डप है, जो नवी शताब्दी का प्रतीत होता है। इसकी छत सपाट है किन्तु 5 फुट ऊंची कुर्सी गढ़ी हुई है। सम्पूर्ण मण्डप 25 फीट वर्ग है। इसके स्तम्भ एक फुट 3 इंच वर्ग हैं जिनकी ऊंचाई 7 फुट 3 इंच है। स्तम्भों की प्रत्येक भुजा एक पूर्ण तथा एक अर्ध कमल से अलंकृत है। ग्रीष्म ऋतु में शीतल पवन का आनन्द प्राप्त करने हेतु यह मंडप निर्मित किया गया प्रतीत होता है।दशावतार मंदिर के अब खण्डहर ही शेष रह गये हैं। इसमें विष्णु के दस अवतारों में से कर्म, वाराह, नृसिंह, चतुर्भूज, परशुराम, राम तथा कल्की की प्रतिमायें यहां से उपलव्ध हुई हैं। कर्निघंम ने यहां डोल नामक यात्री का नाम उत्कीर्ण किया हुआ पढ़ा था।तालाब के उत्तर में दशावतार मंदिर के अतिरिक्त सात छोटी मढ़ियाँ हैं । कर्निघंम ने इनका वर्णन इस प्रकार किया है : इन मढ़ियों की पंक्ति में दाहिनी ओर की प्रथम मढिया के द्वार पर गरुड़ासीन विष्णु की प्रतिमा है। दूसरी में 5 फुट लम्बी, 2 फीट चौड़ी तथा 4 फीट ऊंची वाराह प्रतिमा है। तीसरी में कोई प्रतिमा नहीं है। चौथी में चतुर्भुज विष्णु हैं। पाँचवी प्रतिमा रहित है। छठी में गरुड़ासीन विष्णु हैं। सातवीं भी प्रतिमा रहीम है। जैन मंदिरगडरमल मंदिर के पश्चिम में जैन धर्म के छोटे मंदिरों का एक समूह है, जिसमें 25 देव मंदिर एक चबूतरे के चारों ओर हैं। कर्निघम के समय यह चबूतरा खुला हुआ मण्डप था। उन्होंने इन देव मंदिरों द्वारा बनाये गये बाड़े के बाहर एक अभिलेख देखा था, जो संवत 933 में उत्कीर्ण किया गया था। इसमें एक नये बाजार के संस्थापन का उल्लेख है। अब इन मंदिरों के अवशेष ही दृष्टिगोचर हो रहे हैं। यहां से एकत्रित जैन मूर्तियां इसी अहाते में रखी है। संवत् 1113 तथा 1134 के अन्य दो अभिलेखों का उल्लेख द्विवेदी ने किया है जो जैन मंदिर में उत्कीर्ण पाये गये है। पठारीयहां की पहाडी में कृत सप्तमातृकाओं की पट्टिका है, जिसमें राजा जयत्सेन के समय का एक शिलालेख है। यह गुप्तकालीन लिपि में है। अभाग्यवश इसमें वर्ष तथा मास अस्पष्ट हैं। भीमगदा स्तम्भ, एकाश्म है जिसका शीर्ष घण्टाकृत है जो 8 फुट 3 इंच ऊँचे तथा 2 फुट 9 इंच वर्ग के चबूतरे पर स्थित है। इस पर एक बड़ा अभिलेख है, जो लक्ष्मीनारायण की प्रार्थना से प्रारम्भ है। इसमें गरुड ध्वज के निर्माण का उल्लेख है तथा संवत् 917 में उत्कीर्ण किया गया था।एकाश्म स्तम्भ के निकट एक छोटा मंदिर है जिसके द्वार के ऊपर गरुड़ासीन विष्णु की मूर्ति है। इस मंदिर के भीतर शिवलिंग प्रतिष्ठापित है। अतः यह कोटकेश्वर महादेव का मंदिर कहलाता है। यहां से अनेक मृर्तियां एकत्र की गई हैं, जिनमें कुछ सतीस्तम्भ भी हैं।यहां से एक मील पूर्व मे गडोरी पहाड़ी के नीचे एक अन्य शिव मंदिर है, जो कोटेश्वर महादेव को समर्पित है। गर्भगृह 12×8 फुट है, जिसके सम्मुख दो स्तम्भों का एक मण्डप है। द्वार पर नटराज की प्रतिमा है। गर्भगृह में शिवलिंग है। यहां भी अनेक मूर्तियां पाई जाती है। इस मंदिर की योजना (प्लान) गुप्तकालीन मंदिरों के सदृश है, किन्तु इसमें एक शिखर भी है जो मंदिर की चौड़ाई से दुगना ऊंचा है। कर्निघम ने इसे आठवी-नवी शताव्दी का अनुमाना है। यहाँ की एक वावड़ी में संवत् 1733 का एक लेख है जिसमे राजा महाराजाधिराज पिरथीराज देवजू तथा उनके भाई श्री कुमार सिंह देवजू के काल में बावड़ी निर्माण का उल्लेख है। बड़ोह में एक स्थानीय संग्रहालय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से बनाया गया है, जिसमें यहाँ से एकत्रित मूर्तियों को प्रदर्शित किया जाता है। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:— [post_grid id=’15879′] Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत के पर्यटन स्थल मध्य प्रदेश पर्यटन