वट सावित्री व्रत की कथा – वट सावित्री की पूजा कैसे करते है Naeem Ahmad, August 14, 2021March 10, 2023 ज्येष्ठ बदी तेरस को प्रातःकाल स्वच्छ दातून से दन्तधोवन कर उसी दिन दोपहर के बाद नदी या तालाब के विमल जल में तिल और आंवले के कल्क से केशों को शुद्ध करके स्नान करे ओर जल से वट के मूल का सेचन करे। सूत-रोगिणी और ऋतु-मती स्त्री ब्राह्मण के द्वारा भी समग्र व्रत को यथा-विधि कराने से उसी फल की प्राप्ति होती है। वट सावित्री व्रत कब करना चाहिए? वट सावित्री व्रत त्रयोदशी से पूर्णिमा अथवा अमावस्या तक करना चाहिये। वट सावित्री का व्रत कैसे करना चाहिए – वट सावित्री का व्रत कब करते है वट वृक्ष के समीप में जाकर जल का आचमन लेकर कहे— *ज्येष्ट मास कृष्ण पक्ष त्रयादशी असुक बार में मेरे पुत्र और पति की आरोग्यता के लिये एवं जन्म-जन्मान्तर में भी विधवा ‘न होऊँ इसलिये सावित्री का व्रत करती हूँ। वट के मूल में ब्रह्मा, मध्य मे जनार्दन, अग्र-भाग मे शिव और समग्र मे सावित्री हैं। हे वट ! अमृत के समान जल से में तुमको सींचती हूँ ऐसा कहकर भक्ति-पूर्वक एक सूत के डोरे से वट को बाँधे और गन्ध, पुष्प तथा अज्ञतों से पूजन करके वट वृक्ष एवं सावित्री को नमस्कार कर प्रदक्षिणा करे और घर पर आकर हल्दी तथा चन्दन से घर की भीत पर वट का वृक्ष लिखे। हस्तलिखित वट को सन्निध में बैठकर पूजन करे और संकल्पपूर्वक प्रार्थना करे। तीन रात्रि तक लड्डन करके चौथे दिन चन्द्रमा को अर्ध देकर तथा सावित्री का पूजन कर, यथाशक्ति मिष्ठान से ब्राह्मणों को भोजन कराकर पुनः भोजन करूँगी। अतः हे साविन्नी ! तू मेरे इस नियम को निर्वित्र समाप्त करना। वट वृक्ष तथा सावित्री का पूजन करने के बाद सिन्दूर, कुमकुम और ताम्बूल आदि से प्रतिदिन सुवासिनी स्त्री का भी पूजन करे। पूजा के समाप्त हो जाने पर व्रत की सिद्धि के लिये ब्राह्मण को फल, वस्त्र और सोभाग्यत्रद द्रव्यों को बाँस के पात्र से रखकर दे और प्रार्थना करे। वट सावित्री व्रत वट सावित्री की कथा – वट सावित्री की कहानी मद्रदेश में परम धार्मिक वेद-वेदानों का पारगामा और ज्ञानी एक अश्वपति नामक राजा था। समग्र वैभव होने पर भी राजा को पुत्र नहीं था। इस कारण दम्पति ने पुत्र के लिये सरस्वती का जाप किया। उस जाप-यज्ञ के प्रभाव से स्वयं सरस्वती ने शरीर धारण कर राजा और रानी को दर्शन दिया और कहा– “राजन! वर मांगो! राजा ने अर्चना की कि — आपकी कृपा से सब कुछ है सब प्रकार का आनन्द है। केवल एक पुत्र ही की कमी है। आशा है कि अब वह पूर्ण हो जायगी। सावित्री ने कहा — राजन ! तुम्हारे भाग्य मे पुत्र तो नही है। पर दोनों कुलों की कीर्ति-पताका फहराने वाली एक कन्या अवश्य होगी। उसका नाम मेरे नाम पर रखना। यह कहकर सावित्री अंतर्ध्यान हो गई। कुछ काल के उपरान्त रानी के गर्भ से साक्षात सावित्री का जन्म हुआ और नाम भी उसका सावित्री ही रखा गया। जब सावित्री युवती हुईं, तब राजा ने सावित्री से कहा–“बेटी! अब तुम विवाह के याग्य हो गई हो। अपने योग्य वर तुम स्वयं खोज लो। मे तुम्हारे साथ अपने वृद्ध सचिव को भेजता हूँ। जब सावित्री वृद्ध सचिव के साथ वर खोजने गई हुईं थी, तब एक दिन मद्राधिपति के पास अचानक नारदजी आये। इतने ही में वर पसन्द कर के सावित्री भी आ गई और नारदजी को देखकर प्रणाम करने लगी। कन्या को देखकर नारदजी कहने लगे– राजन! सावित्री के लिये अभी तक वर ढूँढ़ा या नहीं ? राजा बोला — वर के लिये मैने स्वयं सावित्री ही को भेजा था और वह वर को पसन्द करके इसी समय आई है। तब तो नारदजी ने सावित्री ही से पूछा — बेटी ! तुमने किस वर को विवाहने का निश्चय किया है? सावित्री हाथ जोड़कर अति नम्रता से बोली — द्युमत्सेन का राज्य रुक्मणी ने हरण कर लिया है। और वह अन्धा होकर रानी के सहित वन में रहता है। उसके इकलोते पुत्र सत्यवान ही को मैने अपना पति स्वीकार किया है। सावित्री के वचन सुनकर अश्वपति से नारदजी बोले– राजन ! आपकी कन्या ने बड़ा परिश्रम किया है। सत्यवान वास्तव मे बड़ा गुणवान और धर्मात्मा है। वह स्वयं सत्य बोलने वाला है और उसके माता-पिता भी सत्य ही बोलते हैं। इसी कारण उसका नाम सत्यवान् रखा गया है। रूपवान, धनवान, गुणवात और सब शास्त्रों में विशारद है। विशेष क्या कहूँ, उसके तुल्य संसार में दूसरा कोई मनुष्य नहीं है। जिस प्रकार रत्नाकर रत्नों का कोश है, उसी प्रकार सत्यवान् सदगुणों का कोश है। परन्तु दुख से कहना पड़ता है कि उसमे एक दोष भी बड़ा भारी है। अर्थात वह एक वर्ष की समाप्ति के बाद मर जायेगा। सत्यवान अल्पायु है, यह सुनते ही अश्वपति के सब विचार बालू की भीत की तरह नष्ट है गये। उसने सावित्री से कहा — बेटी! तुमको और वर ढूँढना चाहिए। क्षीणायु के साथ विवाह करना कदापि श्रेयस्कर नहीं। पिता के इस कथन को सुनकर सावित्री बोली — अब में शारीरिक सम्बन्ध के लिये तो क्या, मन से भी अन्य पति की अभिलाषा नहीं करती। जिसको मैने मन से स्वीकार कर लिया है, मेरा पति वही होगा, अन्य नहीं। कोई भी संकल्प प्रथम मन में आता है और फिर वाणी में। वाणी के प्रश्चात करना ही शेष रहता है, चाहे वह शुभ हो या अशुभ। इसलिये अब मे दूसरे को कैसे वरण कर सकती हूँ, यह आप ही कहें। राजा एक ही बार कहता है। पंडितजन एक ही बार प्रतिज्ञा करते हैं, जिसको आजीवन निभाते हैं। और यह कन्या तुमको दी, यह भी एक ही बार कहा जाता है,– अर्थात् यह तीनों बाते एक ही बार कही जाती हैं। सगुण हो या निगुण, मूर्ख हो या पंडित, जिसको मैने एकबार भत्ता कह दिया, फिर मेरी बुद्धि विचलित न हो, परमात्मा से प्रार्थना है। चाहे वह दीर्घायु हो, चाहे अल्पायु, वही मेरा पति है। अब से अन्य पुरुष को तो क्या, तैतीस कोटि देवताओं के अधिपति इन्द्र को भी अंगीकार न करूँगी। सावित्री के इस निश्चय का देखकर नारदजी ने अश्वपति से कहा– अब तुमको सावित्री का विवाह सत्यवान ही के साथ कर देना चाहिये। नारदजी अपने स्थान को चले गये और राजा अश्वपति विवाह का समस्त सामान तथा कन्या को लेकर वृद्ध सचिव समेत उसी वन मे गया, जहाँ राजश्री से नष्ट अपनी रानी और राजकुमार समेत एक वृक्ष के नीचे राजा द्युमत्सेन निवास करते थे। सावित्री सहित अश्वपति ने राजा द्युमत्सेन के चरणों को छूकर अपना नाम बताया। द्युमत्सेन ने आगमन का कारण पूछा। तब अश्वपति बाले– मेरी पुत्री सावित्री का आपके राजकुमार सत्यवान के साथ विवाह करने का विचार है। इसमे मेरी भी सम्मति है। इस कारण विवाहोचित सम्पूर्ण सामग्री लेकर आप की सेवा मे आया हूँ। इस पर द्युमत्सेन कुछ उदास होकर बोले –आप तो राज्यासीन राजा है और मे राज्यश्रष्ट हूँ –जिसपर भी रानी और हम दोनो अन्धे हैं। वन मे रहते है। और सर्वथा निर्धन भी है। तुम्हारी कन्या वनवास के दुखों को न जानकर ही ऐसा कहती है। अश्वपति बाले — मेरी कन्या सावित्री ने इन सब बातों पर प्रथम ही विचार कर लिया है। वह स्पष्ट कहती है कि जहाँ मेरे ससुर और पतिदेव निवास करते हैं, वही मेरे लिये बैंकुंठ है। सावित्री का इस प्रकार दृढ़ संकल्प सुनकर द्युमत्सेन ने भी उस सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया। शास्र-विहित विधि से सावित्री का विवाह करके अश्वपति तो अपनी राजधानी को चले गये और उधर सावित्री सत्यवान को पाकर सुखपूर्वक ससुर गृह में रहने लगी। नारदजी ने जो भविष्य कहा था, सावित्री उससे बेखबर नहीं थी। उनके कथनानुसार एक-एक दिन गिनती जाती थी। उसने जब पति का मरण-काल समीप आते देखा तब तीन दिन प्रथम ही से वह उपवास करने लगी। तीसरे ही दिन उसने पितृ देवों का पूजन किया। वही दिन नारदजी का बतलाया हुआ दिन था। जब सत्यवान नित्य-नियमानुसार कुल्हाड़ी और टोकरी हाथ में लेकर वन को जाने के लिए तैयार हुआ, तब सावित्री ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की — प्राणनाथ ! आपकी सेवा में रहते हुए मुझको एक वर्ष हो गया। परन्तु मैने इस समीपवर्ती वन को कभी नहीं देखा। आज तो मे भी आपके साथ अवश्य चलूँगी। यह सुनकर सत्यवान बोला — प्रिये! तुम जानती ही हो कि में स्वतंत्र नहीं हूँ। यदि मेरे साथ चलना है तो अपने सास-श्वसुर से आज्ञा ले आओ। इस पर सावित्री ने सास के पास जाकर आज्ञा ली और वह पति के साथ वन के चली गई। वन सें जाकर प्रथम तो सत्यवान ने फल तोड़े। पुनः वह लकड़ी काटने के लिये एक वृक्ष पर चढ़ गया। वृक्ष के ऊपर हिन्दुओ के ही सत्यवान के मस्तक में पीड़ा होने लगी। वह वृक्ष से उतरकर और सावित्री की जाँघ पर सिर रखकर लेट गया। थोड़ी देर के बाद सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ से पाश लिये हुए यमराज सामने खड़े है। प्रथम तो यमराज ने सावित्री को इश्वरीय नियम यथावत कहकर सुनाया। तद्नन्तर वह सत्यवान की आत्मा को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चले गये। यमराज के पोछे-पीछे जब सावित्री बहुत दूर तक चली गई, तब यमराज ने उससे कहा– हे पति-परायणी ! जहाँ तक मनुष्य मनुष्य का साथ दे सकता है, वहाँ तक तुमने पति का साथ दिया। अब मनुष्य के कर्तव्य से आगे की बात है। अतः तुम को पीछे लौट जाना चाहिए। यह सुनकर सावित्री बोली –यमराज ! जहाँ मेरा पति ले जाया जायगा, वही मुझे जाना चाहिए। यही सनातन धर्म है। पतिव्रत के प्रभाव के कारण आप के अनुग्रह से कोई भी मेरी गति को रोक नहीं सकता। सावित्री की धर्म और उपदेशमयी वाणी सुनकर यमराज बाले— हे सावित्री ! स्वर और व्यंजन आदि से ठीक तथा हेतुयुक्त तेरी इस वाणी से में बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। इस कारण तू यही ठहर और सत्यवान के जीवन का छोड़कर अन्य चाहे सो वर माँग ले। तू जो माँगेगी, वही दूँगा। यमराज के वाक्यो को झुनकर सावित्री ने विचार किया– संसार में धर्म-परायणा स्त्री का यही कर्तव्य हो सकता है कि पहले तो वह अपने श्वसुर-कुल का, फिर पितृ-कुल का कल्याण करे। तदनन्तर आत्म-हित साधन में तत्पर हो। इसी भाव के हृदय में रखकर सावित्रो बोली– मेरे श्वसुर वन में रहते है और वे दोनों आँखों से अन्धे हैं। अत: आपकी कृपा से उनको दिखाई देने लगे, यह वरदान चाहती हूँ। इस पर यमराज ने सावित्री से कहा– हे ‘अनिन्दिते ! जो कुछ तूने माँगा, वह सब तुझको दिया गया। परन्तु तुमको जो मार्ग का कष्ट हो रहा है, उसे देखकर मुझको ग्लानि होती है। अतः तू यहीं ठहर जा। यमराज के इस कृपायू आशय का समझकर सावित्री बोली — भगवान ! जहाँ मेरे पतिदेव जाते हों, वहाँ उनके पीछे- पीछे चलने में मुझको कोई कष्ट या श्रम नहीं हो सकता। एक तो पति-परायणा होना मेरा कर्तव्य है। दूसरे आप धर्मराज हैं, परम सज्जन हैं। अत: सत्पुरुषों का समागम भी थोड़े पुण्य का फल नहीं है। सावित्री के ऐसे धर्म तथा श्रद्धा-युक्त वचन सुनकर यमराज ने पुनः कहा– सावित्री ! तुम्हारे वचनों को सुनकर मुझको बड़ी प्रसन्नता हुई। इसलिए तुम चाहो तो एक वरदान मुझ से और भी माँग सकती हो। यह सुनकर सावित्री बाली — बुद्धिमान द्युमत्सेन ( मेरे ससुर) का राजपाट चला गया है। वह उनको पुनः मिल जाये और उनको सदैव धर्म में प्रीति रहे। यही मेरी प्राथेना है। यमराज ने कहा — तुमने जो। कुछ कहा है, वह अवश्य होगा। परन्तु अब तुम आगे न चलकर यहीं ठहर जाओ। यह सुनकर सावित्री ने दीन स्वर से कहा — प्राणिमात्र मे अद्रोह तथा मन, वाणी और कर्म से सब पर अनुग्रह, यही सज्जन पुरुषों का मुख्य धर्म है। फिर न जाने क्यों आप अद्रोह, अनुग्रह को भूल मुझे पीछे लौटने के कहते है। मेरी समझ मे यह सज्जनों के योग्य कर्तव्य नहीं है। सावित्री के इस पारिडत्यपूर्ण भाषण को सुनकर और अत्यन्त प्रसन्न होकर यम ने उसे तीसरा वर देने की इच्छा प्रकट की। उस समय सावित्री ने पितृ-कुल की भलाई को लक्ष्य मे रखते हुए कहा — मेरी यही कामना है कि मेरे पिता को सौ पुत्र मिले। यमराज ने इस पर भी तथास्त! कहकर सावित्री को समझाया — तुम जो इस कंटकमय मार्ग से बहुत दूर तक आ गई हो इसका मुझको बहुत दुःख है। तुमने जो तीसरा वर माँगा है, वह भी मैने तुमको दिया। किन्तु अब तुम पीछे लौट जाओ। सावित्री ने कहा– प्रभु ! निकट और दूर ये दोनों बातें अपेक्षाकृत है। मेरा तो वही घर है, जहाँ मेरे पतिदेव हैं। फिर मे दूर किससे हूँ ? यह मेरी समझ मे नही आया। आप सन्त हैं। अतः सन्त न कभी दुखी होते है, न सुखी। वे तो अपने सत्य के बल से सूर्य को भी जीतते हैं, तपाबल से पृथ्वी को धारण करते है और शरीर को क्षण-भंगुर समझ कर प्राणियों पर दयाभाव रखते है। सावित्री की ऐसी युक्ति-प्रत्युक्तियों ने यमराज के अत:करण में एक अद्भुत भाव उत्पन्न कर दिया। वे द्रवीभूत होकर बोले — हे पतिव्रते! तुम ज्यों-ज्यों मनोनुकूल धर्मयुक्त अच्छे पदों से अलंकृत और गम्भीर-युक्तिपूर्ण भाषण करती हो, त्यो-त्यों तुम में मेरी उत्तम प्रीति बढ़ती जाती है। अत: तुम सत्यवान के जीवन को छोड़कर एक वर और भी मुमसे माँग सकती हो। श्वसुर-कुल और पतृ-कुल का कल्याण हो चुकने के बाद अब अपनी भलाई का प्रश्न शेष था। परन्तु पति-परायणा स्त्री को अपने पति की आयु-वृद्धि के अतिरिक्त और क्या माँगने की इच्छा हो सकती है। यह सोचकर सावित्री ने चौथे वरदान को इस प्रकार से माँगा — मुझको पति के बिना न तो सुख की इच्छा है, न स्वर्ग की। न गत वैभव की ओर न बिना पति के इस तुच्छ जीवन की। तथापि आपकी आज्ञा की अवहेलना करना एक अपराध समझकर एक प्रार्थना करती हूँ, सो पूर्ण कीजिए। वह यह कि सत्यवान से मुझको सौ सन्तान प्राप्त हों। इस अन्तिस वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान को अपने पाश से मुक्त करके सावित्री से कहा– सत्यवान से तुमको अवश्य सौ पुत्र होगे। यह कहकर यमराज अदृश्य हो गये। इधर वट वृक्ष के नीचे जो सत्यवान का शरीर पड़ा था, उससे जीव का संचार होते हो वह उठकर बैठ गया। सावित्री ने उसे सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया और वे दोनों आश्रम का चले गये। उधर सत्यवान के माता-पिता पुत्र ओर पुत्रवधू के वियोग से विहल हो रहे थे कि दैवयोग उन दोनों की आखें खुल गई। इतने में सावित्री ओर सत्यवान भी आ पहुँचे। समस्त देश मे सावित्री के अनुपम व्रत की बात फैल गई। राज्य के लोगों ने महाराज द्युमत्सेन के लेजाकर राज-सिहासन पर बिठाया। सावित्री के पिता राजा अश्रपति को भी यमराज के वरदान के अनुसार सौ पुत्र प्राप्त हुए। सावित्री और सत्यवान ने सौ पुत्र-युक्त होकर वर्षों तक राज किया अऔर तब वे बैकुंठवासी हुए। प्रत्येक सोभाग्यवती स्त्री को वट सावित्री का यह व्रत अवश्य करना चाहिए। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:—– [post_grid id=”6671″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत के प्रमुख त्यौहार त्यौहारहमारे प्रमुख व्रतहिन्दू धर्म के प्रमुख व्रत