लुम्बिनी पर्यटन स्थल – हिस्ट्री ऑफ लुम्बिनी – लुम्बिनी का प्राचीन इतिहास Naeem Ahmad, July 18, 2019March 19, 2024 लुम्बिनी को भगवान बुद्ध के जन्म स्थान होने का गौरव प्राप्त है। हालांकि यह उससे पहले कोई ऐतिहासिक स्थान नहीं था। महात्मा गौतम बुद्ध के जन्म के कारण ही यह बौद्ध धर्मावलंबियों का सर्वश्रेष्ठ तीर्थ स्थान बन गया। लुम्बिनी का महत्व महान अशोक सम्राट के समय से विदित है।बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के बाद महान अशोक सम्राट ने गौतम बुद्ध के जन्म स्थान की यात्रा की थी। और यहां अनेक स्तूपों एवं विहारों का निर्माण कराया था। अपनी लुम्बिनी की यात्रा की स्मृति में उसने यहां एक अशोक स्तंभ भी स्थापित करवाया था। वर्तमान में ये सब स्मारक प्रकृति की हरितिमा से आवृत होकर भग्नावस्था में अतीत का गौरव छिपाये, हर साल अनेक बौद्ध भिक्षुओं, उपासकों, इतिहासकारों, पुरातात्विक विशेषज्ञों तथा पर्यटकों को खूब आकर्षित करते है।संकिसा का प्राचीन इतिहास – संकिसा बौद्ध तीर्थ स्थल लुम्बिनी कहाँ है? यह ऐतिहासिक, धार्मिक भग्नावशेष जिस स्थल पर उपलब्ध है। वह पदारिया गांव के नाम से पुकारा जाता है। और नेपाल की भगवानपुर तहसील के उत्तर में दो मील की दूरी पर स्थित है। यह भारत – नेपाल सीमांत क्षेत्र में पडता है इस भग्नावशेष स्थल को लुम्बिनी सांस्कृतिक के नाम से वर्तमान में जाना जाता है। लुम्बिनी सांस्कृतिक का क्षेत्र आयताकार है। लुम्बिनी गार्डन 2.56 वर्ग किमी या 1 x 3 वर्ग मील के क्षेत्र को कवर करता है और इसमें तीन जोन शामिल हैं जिनमें से प्रत्येक में पैदल पथवे है जो एक नहर से जुड़ा एक वर्ग का मील है। लुम्बिनी वाटिका के इस आयताकार क्षेत्र के भीतर आज आप वियतनाम से फ्रांस तक विभिन्न देशों द्वारा निर्मित 25 से अधिक बौद्ध मठों का दौरा कर सकते हैं, बौद्ध धर्म का अध्ययन कर सकते हैं, ध्यान कर सकते हैं और पवित्र मायादेवी गार्डन के भीतर जन्मस्थान का दौरा कर सकते हैं। भारत से लुम्बिनी पहुंचने के लिए दो मुख्य मार्ग है। एक मार्ग गोरखपुर जिले में स्थित नौतनवां स्टेशन से तथा दूसरा बस्ती जिले के नौगढ़ स्टेशन से जाता है। दोनों ही उत्तर-पूर्वी रेलवे के स्टेशन है। नौगढ़ से लुम्बिनी लगभग 36 मील की दूरी पर है, तथा यह मार्ग लुम्बिनी वाटिका पहुंचने के लिए सुगम है। लुम्बिनी का इतिहास – हिस्ट्री ऑफ लुम्बिनी – लुम्बिनी वन का इतिहास,लुम्बिनी का प्राचीन इतिहास भगवान गौतमबुद्ध का जन्म स्थान होने के कारण लुम्बिनी का ऐतिहासिक महत्व स्वयं ही हो जाता है। पाली ग्रंथों के अनुसार लुम्बिनी में एक परम सुंदर वन था, जो कौशल नरेश सुद्धोधन की राजधानी कपिलवस्तु तथा मायादेवी के पिता की राजधानी देवदह के बीच में स्थित था। इन दोनों राज्यों की सीमा के बीच से रोहिणी नदी बहती थी। जिसके जल का उपयोग कृषि के लिए दोनों राज्यों द्वारा किए जाने के कारण, दोनों राज्यों में कभी कभी पानी के लिए विवाद उठ खडा होता था। परंतु कोलीयवंश की दो कन्याओं महामाया और महा प्रजापति गौतमी का विवाह शाक्य वंशी राजा सुद्धोधन के साथ होने के कारण, यह झगडें कुछ काल के लिए शांत हो गये थे। तथा लुम्बिनी का उद्यान दोनों राज्यों का प्रमुख आमोद स्थल बन गया था। लुम्बिनी की कहानी, लुम्बिनी की कथा, स्टोरी ऑफ लुंंबिनीबौद्ध ग्रंथो में लुम्बिनी की स्टोरी इस प्रकार मिलती हैकि– जब प्रसव काल अत्यंत निकट आ गया तो मायादेवी ने भारतीय परम्परा के अनुसार अपने पिता के घर जाने की इच्छा प्रकट की। तदनुसार महाराज सुद्धोधन ने उन्हें सोने की पालकी में बैठा कर भेजा। मार्ग में साल के वृक्षों से युक्त लुंबिनी का अनुपम वन पड़ता था। जिसकी प्राकृतिक छटा ने महामाया को अनायस ही अपनी ओर आकर्षित किया। वे विश्राम की इच्छा से थोडी देर के लिए वहां ठहर गई। वन के प्राकृतिक सौंदर्य का निरक्षण करते करते वे एक साल वृक्ष की शाखा का सहारा लेकर खडी हो गई। उसी समय उन्हें प्रसव पीड़ा होने लगी। जल्द ही सेवकों ने उनके चारों ओर परदे डाल दिये और महामाया ने तत्काल ही इसी वृक्ष के नीचे एक बालक को जन्म दिया जो आगे चलकर विश्व का एक महान धर्म निर्देशक हुआ। और जिसके चरण चिन्हों पर चलकर आज भी आधा एशिया गौरव का अनुभव कर रहा है। कहा जाता है कि बालक के जन्म के समय समस्त देवगण उनके दर्शन के लिए आये, और नवजात शिशु तथा माता को अमुल्य उपहार भेंट किये। बालक को स्नान कराने हेतु नंद तथा उपनंद नामक दो नागराज मंगल कलश भर कर जल लाये। बालक को आशीर्वाद देने के लिए देव इंद्र तथा ब्रह्मा जी भी उस समय वहां आये। इसके पश्चात माता एवं शिशु कपिलवस्तु ले जाये गये जहाँ उत्साह एवं आनंद की अपूर्व धारा उमड़ पडी। बालक की प्राप्ति होने के कारण महाराज सुद्धोधन की चिरवांछित अभिलाषा पूर्ण हुई। अतः उन्होंने बालक का नाम सिद्धार्थ रखा।क्रिप्टो करंसी में इंवेस्ट करें और अधिक लाभ पाएं लुंबिनी का महत्व स्वयं महात्मा गौतम बुद्ध ने ज्योति ज्योत में समाते समय अपने शिष्यों को महा परिनिर्वाण सूत्र में व्यक्त किया था। उस समय अपने चारों ओर खडे भिक्षु समुदाय को संबोधित कर उन्होंने चार स्थानों का उल्लेख किया। और वहां आते जाते रहने का उन्हें आदेश दिया। ये चार स्थान निम्न है:–1. लुम्बिनी, जहां भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था।2. बोध गया, जहां गौतम बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था।3. सारनाथ, जहाँ महात्मा गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश दिया था।4. कुशीनगर, जहाँ गौतमबुद्ध ने अपना शरीर त्यागा था।बौद्ध धर्म के उत्थान काल में इन स्थानों का महत्व अत्यधिक रहा है। परंतु उसकी अवनति के साथ साथ इनका महत्व कम हो गया था, और कलांतर में जब बौद्ध धर्म का भारत से लोप हो गया तो ये स्थान भी भुला दिये गये थे।लुम्बिनी की खोज किसने की थी?लुम्बिनी वाटिका का पता सन् 1896 ई° में डॉक्टर फूहर ने लगाया था। उत्तर प्रदेश के प्राचीन स्थानों की खोज के सिलसिले में इस विद्वान ने इस स्थान पर थोड़ी सी खुदाई कराई। उसे वहां सम्राट अशोक द्वारा स्थापित एक स्तंभ भग्नावस्था में प्राप्त हुआ, और इस स्तंभ पर उत्कीर्ण लेख से इस स्थान का लुंबिनी होना सिद्ध हुआ। यह स्तंभ 1866 में खुदाई के दौरान प्राप्त हुआ था। तथा इस पर गहन शोध के बाद 1896 मे इसके लुंबिनी होने की पुष्टि की गई थी। महान अशोक सम्राट ने बौद्ध धर्म अपनाने के बाद एक बार अपने धार्मिक गुरू उपगुप्त से उन स्थलो को देखने की इच्छा प्रकट की जिन्हें महात्मा गौतम बुद्ध ने अपनी चरण रज से विशेष रूप से पवित्र किया था।कौशांबी का इतिहास – हिस्ट्री ऑफ कौशांबी बौद्ध तीर्थ स्थलमहान अशोक की इच्छानुसार आचार्य उन्हें सर्वप्रथम लुंबिनी ले गये। लुंबिनी वन के निकट पहुंच कर अपनी दांई भुजा से उद्यान की ओर संकेत करते हुए, उन्होंने सम्राट अशोक से कहा- महाराज यह वहीं महा स्थल है जहाँ महात्मा बुद्ध ने जन्म लिया था। अतः यहां सबसे पहले एक महत्वपूर्ण स्मारक की स्थापना होनी चाहिए। तदनुसार सम्राट अशोक ने एक लाख स्वर्ण मुद्रा की लागत से वहां एक भव्य स्तूप बनाने की आज्ञा दी, और साथ ही साथ एक स्तंभ की भी स्थापना करायी। और उस स्तंभ पर अपनी इस यात्रा का उल्लेख कराया। चीनी यात्री फाह्यान तथा हवेनसांग की लुंंबिनी यात्रा लुंबिनी का वर्णन प्रसिद्ध चीनी यात्री फाह्यान तथा हवेनसांग के भ्रमण उल्लेखों में भी आया है। फाह्यान के अनुसार कपिलवस्तु के पूर्व में 50 ली अर्थात लगभग पौने नौ मील की दूरी पर एक वाटिका थी, जिसका नाम लुंबिनी था। इस वाटिका के तालाब में महामाया स्नान करने गई थी। स्नान करने के बाद उन्होंने अपना हाथ उठाया और एक झुकी हुई शाखा को सहारे के लिए पकड़ा और अवस्था में पूर्वाभिमुख होकर उन्होंने कुमार को जन्म दिया। कुमार जब भूमि पर आये तो वे उठकर सात पग आगे चले। उसके बाद दो नागराजों ने प्रकट होकर उनको स्नान कराया। जिस स्थान पर उन्होंने नवजात शिशु को स्नान कराया था। वहा तुरन्त एक कूप बन गया। गया दर्शन बौद्ध गया तीर्थ – बौद्ध गया दर्शनीय स्थलहवेनसांग का वर्णन फाह्यान से अधिक विस्तृत है। उसने लिखा है कि इस स्थान पर एक तालाब था। जिसे शाक्यों ने बनवाया था। जिस स्थान पर दोनो नागराजों ने नवजात शिशु को स्नान करवाया था। वहां बाद में एक स्तूप बनवाया गया था। इसके अतिरिक्त जहां से ये दोनो प्रकट हुए थे, वहां भी दो स्तूप बने थे, इन स्तूपों के समीप एक विशाल स्तंभ था, जिसका शीर्ष भाग घोडें से अलंकृत था। संम्भवतः यही वह अशोक स्तंभ है जो खुदाई में डॉक्टर फूहरर को प्राप्त हुआ था। इसके बाद लुंबिनी वाटिका का कोई ऐसा विवरण नहीं मिलता जिसको ऐतिहासिक महत्व दिया जा सके। संम्भवतः आक्रमणों के कारण यह स्थान नष्ट भ्रष्ट होकर अंधकार गृह में विलीन हो गया था और कभी न पनपा।नाथ पंथ, सम्प्रदाय की विशेषता, परिचय और इतिहास सन् 1866 ई° में अपनी पुरातात्विक खोज के सिलसिले में डॉक्टर फूहर ने इस स्थान का पुनः पता लगाकर इसके प्राचीन महत्व एवं गौरव को फिर से प्रकाश मे लाये, और तब से बौद्ध जगत में यह स्थान पुनः प्रख्यात हुआ। प्रकृति की सुरम्य सुंदरता मे यहां इतिहास एवं संस्कृति के जिज्ञासुओं को अब भी आकर्षण वस्तुएं देखने को मिलती है।लुम्बिनी सांस्कृतिक उद्यान के सुंदर दृश्यलुम्बिनी पर्यटन स्थल, लुम्बिनी के दर्शनीय स्थल, लुंबिनी मे देखने लायक जगह, लुम्बिनी आकर्षक स्थान, लुंबिनी दर्शन योग्य स्थान, लुंबिनी टूरिस्ट प्लेसअशोक स्तंभ लुम्बिनीलुम्बिनी की यात्रा का सबसे बडा आकर्षण का केंद्र अभिलिखित अशोक स्तंभ है। जिसे उसने अपने राज्यभिषेक के 20 वे वर्ष अर्थात लगभग 257 ईसा पूर्व में भगवान बुद्ध के जन्म स्थान की स्मृति में स्थापित कराया था। यह स्तंभ देखने में भूमि से केवल 10 फुट ऊंचा था। लेकिन खुदाई करने पर इसकी वास्तविक ऊंचाई 22 फुट 6 इंच प्रमाणित हुई। मूल भाग में इस स्तंभ की परिधि 8 फुट 3 इंच है जो क्रमशः ऊपर की ओर कम होती जाती है। अन्य अशोक स्तंभों की भांति यह स्तंभ भी प्रारंभ में लगभग 60-70 फुट ऊंचा रहा होगा और कालांतर में किसी दुर्घटना के कारण टूट गया होगा। स्तंभ का शीर्ष भाग अब तक प्राप्त नहीं हुआ है। संम्भवतः यह घोड़े की आकृति से सुसज्जित था। जिसका वर्णन हवेनसांग ने अपने लेख में किया है। इस स्तंभ पर आधार से साढ़े नौ फुट ऊपर वाह्य लिपि एवं पाली में लेख उत्तर्कीण है।माया देवी का मंदिरअशोक स्तंभ की पूर्व दिशा मे एक छोटा सा आधुनिक मंदिर है। जिसमें प्रवेश करने के लिए सीढी से होकर जाना पड़ता है। मंदिर की देखरेख पुजारी करता है। इसमें एक शिलापट स्थापित है। जिस पर भगवान बुद्ध के जन्म की कथा अंकित है। मूर्ति में बुद्ध जननी महामाया अपने दांये हाथ से साल वृक्ष की झुकी हुई शाखा को पकडे हुई खड़ी है। उनके निकट उनकी भागिनी प्रजापति गौतमी तथा परिचारिकाएँ खड़ी दर्शायी गई हैं। समीप ही इंद्र देव का चित्रण भी किया गया है। जो कथा के अनुसार बुद्ध जन्म के समय आये थे। सबसे नीचे कमल पर खडे बालक बुद्ध को दिखाया गया है। कहा जाता हैं कि पैदा होते ही बुद्ध जी उठकर खड़े हो गए थे, और भूमि पर सात कदम चले थे। मूर्ति का शिल्प गुप्तकाल का है, और कला की सजीवता से ओतप्रोत है। यह मूर्ति खुदाई से प्राप्त हुई थी। और उसे निकालकर मंदिर में स्थापित किया गया था। मंदिर की रचना एक भग्न स्तूप के ऊपर की गई है। जिसके चारों ओर एक पक्का चबूतरा बांधा गया है। चबूतरे के चारों ओर लोहे का बाडा बना है। यह चबूतरा मंदिर के बाद बनवाया गया था जिसके कारण मंदिर के फर्श से ऊंचा है।स्तूप एवं विहार के भग्नावशेषमंदिर से नीचे उतर कर आगे चलने पर अनेक इमारतों के भग्नावशेष देखने को मिलते है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण एक बहुत बड़े स्तूप के भग्नावशेष है। इस स्तूप की रचना प्रारंभ में सम्राट अशोक ने करवाई थी, जैसा कि इसकी ईंटों से ज्ञात होता है। दुर्भाग्य से अब इसकी केवल नीव ही बच रही है। इस स्तूप के समीप एक आयताकार बड़े विहार के भी अवशेष देखने को मिलते है। खुदाई करते समय इसमे बहुत सी वस्तुएं प्राप्त हुई थी। जिनमें से बुद्ध मूर्तियां, मिटटी की मुहरें तथा मुंडमूर्तियां विशेष उल्लेखनीय हैं। कुछ तांबे की मूर्तियां भी प्राप्त हुई थी। जिसमे गणेश की एक मूर्ति देखने योग्य है। यह सभी वस्तुएं अब यहां स्थापित लुम्बिनी संग्रहालय में संग्रह है।प्राचीन कूपमंदिर के चबूतरे के पूर्वी भाग में सीढी से उतरते ही एक कूप मिलता है। जिसका संबंध भगवान बुद्ध के जन्म से है। चीनी यात्री फहियान ने इस की चर्चा करते हुए लिखा है कि ज्यों ही कुमार ने जन्म लिया वे खड़े होकर सात पग चले तब दो नागराज प्रकट हुए और उन्होंने कुमार तथा उनकी माता को स्नान कराया। जहां यह कार्य संपन्न हुआ था वहां उसी समय एक कूप बन गया। जिसका जल भिक्षु लोग अत्यंत श्रद्धा के साथ ग्रहण करते हैं।लुम्बिनी तालाबकूप के आगे भग्नावशेषों से कुछ दूर एक चकौर तालाब है। जिसकी लम्बाई चौडाई 50×50 है तालाब के चारो ओर पानी तक पहुंचने के लिए सीढियां बनी है। इस सरोवर में भगवान बुद्ध के जन्म के पूर्व माया देवी ने स्नान किया था। स्नान करने के पश्चात वे 20 कदम ही आगे चली थी तभी उन्हें प्रसव पीड़ा का अनुभव होने लगा था। इस सरोवर के आगे लिलार नदी बहती है जिसके पानी में तेल की मिलावट आज भी मालूम पड़ती है।मठो के दर्शनलुम्बिनी सांस्कृतिक उद्यान के क्षेत्र के अंदर लगभग 25 से अधिक सुंदर मठ बने है जो विभिन्न देशो का प्रतिनिधित्व करते है। जिसमें लोकमणि कुला पगोडा, 1996 में बना अंतर्राष्ट्रीय मठ क्षेत्र में एक विशाल सोने का स्तूप है यह मठ क्षेत्र के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। यह म्यांमार का प्रतिनिधित्व करता इसी तरह जर्मनी, जापान , नेपाल आदि अनेक देशो के सुंदर मठ यहा पर्यटकों को खूब आकर्षित करते है। हमारे यह लेख भी जरुर पढ़े:—[post_grid id=”9109″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... 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