लखनऊ में 1857 की क्रांति का इतिहास Naeem Ahmad, July 21, 2022March 25, 2024 लखनऊ में 1857 की क्रांति में जो आग भड़की उसकी पृष्ठभूमि अंग्रेजों ने स्वयं ही तैयार की थी। मेजर बर्ड के अनुसार कम्पनी सरकार के अधिकारी और कर्मचारी दोनों ही झूठे आरोप लगाकर लोगों की जमीनें हड़प लेते थे। सेना के गोरे सिपाही भारतीय औरतों के साथ बलात्कार करते, डाके डलवाते, हिन्दु-मुस्लिम दोनों को लड़वाते । सन् 1853 में इलाहाबाद और 1855 ई० में मुहर्रम के अवसर पर मुरादाबाद में दंगा करवाया गया। इससे पहले अवध में ऐसा कभी न हुआ था। कम्पनी सरकार डाकुओं, अराजक तत्वों को आश्रय देती थी। अवध में नवाबों के शासन काल में 8,000 आदमी बाहर से आकर बसे थे। मगर कम्पनी की हुकुमत शुरू होते ही 4000 लोग भूख प्यास से परेशान होकर लखनऊ छोड़कर चले गये। अवध की 50 लाख की जनसंख्या में सन् 1848 से 1884 के बीच तकरीबन हर साल 16,000 ह॒त्याएं और 200 डाके पड़ते थे। नवाबों का खूब शोषण हुआ। फैजाबाद में मोलवी अहमद उल्लाशाह को हिरासत में ले लिया गया। इस घटना से अवध और सुलग उठा। इसी बीच 18 अप्रेल 1857 ई० को अज्जीम उल्ला खाँ व पेशवा नाना साहब न लखनऊ का दौरा किया। लखनऊ में उनका भव्य स्वागत हुआ। भारत में अंग्रेजी राज्य पुस्तक के अनुसार स्वागतार्थ चौक में सर्राफों ने सोने के आभूषणों से सजे द्वार बनाये थे। उसी दिन चीफ कमिश्नर सर हेनरी लारेंस जब आलीशान बग्घी पर सवार होकर शाम को सेर करने निकले तो किसी शहरी ने उन पर कीचड़ उछाला था। लखनऊ में 1857 की क्रांति का इतिहास यह चर्चा भी जोरों पर थी कि सेना को जो कारतूस दिए जाते हैं उनमें चर्बी लगी है। 2 मई 1857 को मूसाबाग के सेनिक प्रशिक्षण केन्द्र में 7 वीं अवध इरेगुलर सेना के सामने जब कारतूस आये तो हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने इन कारतूसों का इस्तेमाल करने से मना कर दिया। इनमें सिपाही गुलजार खाँ, भेरव सिह, शिवदीन, मुगल बेग, सूबेदार सरनाम सिह मुख्य रहे । 3 मई सन् 1857 के दिन मौका ताड़ कर इन लोगों ने अंग्रेजी फौजी अधिकारियों पर धावा बोल दिया। कारतूसों के कारण सुलगी आग का जिक्र 1273 हिजारी में नवाब वाजिद अली को लिखे गये एक पत्र में फरखन्दा महल ने भी किया । गुप्त रूप से एक खत मडियाँव छावनी की 32 नं० की पलटन के भारतीय सैनिकों के पास भेजा गया। दुर्भाग्य रहा खत अंग्रेजों के हाथ लगा। खत पढ़ते ही अंग्रेज फौजी अधिकारियों के पैरों तले जमीन खिसक गयी। तुरन्त ही जिन सिपाहियों पर शक हुआ बन्दी बना लिया गया। शस्त्रागार और बारूद खाने पर अंग्रेजों ने सुरक्षा कड़ी कर दी। 4 मई लखनऊ में 1857 ई० को मूसाबाग अंग्रेजों ने चारों ओर से घेर लिया। विद्रोही सिपाही अचानक हुई इस घेराबन्दी से घबरा गये। भगदड़ मच गयी। तमाम विद्रोही मारे गये। घायलों के सीनों पर घोड़े दौड़ा दिये गये। विद्रोहियों को पकड़ पकड़ कर फांसियाँ दी जाने लगीं। फांसियां लक्ष्मण टीले के करीब मच्छी भवन पर खुले आम दी गयीं। लाशें दिन भर फन्दे में लटकती रहीं। जिन्हें चील, और गिद्ध नोच-नोच कर खाते रहे। शाम को दूसरा कैदी लटकाया जाता।लखनऊ में 1857 की क्रांतिगुप्त रूप से सभायें होती रहीं धीरे-धीरे आजादी के दीवाने एकजुट होते गये। क्रान्तिकारियों के एक संगठन का सर्वेसर्वा एक फकीर कादिर अली शाह था। उन्होंने काबुल में रह रहे अपने मित्र दोस्त मोहम्मद खाँ को एक खत लिखा जिसमें लखनऊ के इस संगठन की तैयारियों का जिक्र था। दोस्त मोहम्मद खाँ भी अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए उतावला था। खत अंग्रेजों के हाथ लगा। गुप्तचर इस संगठन की खोज में लगा दिये गये। इस गुप्त संगठन के अगुवा महमूद हुसैन खाँ, कमीदान और नवाब मुहसिनउद्दोला थे। संगठन में इनके प्रयासों से तकरीबन 20 हजार सैनिक भर्ती हो चुके थे। खुफिया सूचना पर महमूद हुसैन खाँ के घर की तलाशी ली गयी। तमाम हथियार मिले लेकिन फकीर कादिर अली हाथ न लगा। हुसैन ने कबूल किया कि हाँ ऐसा कोई एक संगठन है। इस संगठन द्वारा मुहर्रम की 10 वीं तारीख को अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ने की तैयारी थी इसी बीच यह सब गड़बड़ी हो गयी। 30 मई लखनऊ में 1857 को मड़ियाँव छावनी के भारतीय सेनिकों ने विद्रोह कर दिया। हेवरी लारेन्स भारी सेन्यबल के साथ मड़ियाँव पहुँचा साथ ही उसने अपनी सेना का कुछ भाग बेलीगारद और मच्छी भवन पर तैनात कर दिया। मगर मड़ियाँव छावनी के विद्रोही सिपाही मुदकीपुर की विद्रोही सेना से मिल चुके थे। इसी बीच गोंडा और बहराइच को विद्रोहियों ने आजाद करा लिया था। उधर 8 जून, सन् 1857 ई० को मौलवी मुहमद उल्लाशाह को फैजाबाद में भड़काये गये विद्रोह के आरोप में फाँसी की सजा सुना दी गयी। सरकार के इस निर्णय से शहर की जनता भड़क गयी। सूबेदार दिलीप सिंह सहित फैजाबाद में मौजूद अंग्रेजी सेना के देशी सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। तमाम अंग्रेज अफसर कैद कर लिये गये। अपार जन समूह ने जेल की दीवारे तोड़ डालीं। मौलवी साहब आजाद करा लिये गये। फैजाबाद पर अब विद्रोहियों का अधिकार हो गया। मौलवी साहब ने अंग्रेज अधिकारियों और उनके परिवार की स्त्रियों तथा बच्चों को सुरक्षित स्थान पर जाने के लिए रुपयों के साथ-साथ नावों का भी बन्दोबस्त कर दिया। 15 जून 1857 के बाद समूचे अवध से अंग्रेजी सत्ता खत्म हो गयी। अब बचा था लखनऊ। क्रान्तिकारियों की टोलियाँ आकर नवाबगंज में एकत्र होने लगी। कानपुर की विद्रोही सेना भी विजय श्री का वरण कर लखनऊ आ गयी थी। सारी सेनायें चिनह॒ट में आकर रुक गयी। जब यह समाचार हेनरी लारेन्स को मिला तो उसने सोचा कि विद्रोहियों का शहर में घुसने से पहले ही सफाया कर दिया जाए। उसने अंग्रेजी सेना को मच्छी भवन पर बुला लिया और युद्ध की तैयारी शुरू हो गयी। 30 जून, लखनऊ में 1857 ई० को हेनरी लारेन्स और ब्रिगेडियर ईगलिस अपनी सेनायें तथा तोपों के साथ स्माइलगंज पहुँचे ही थे कि आम के बाग में दोनों तरफ छुपी भारतीय फौज ने भीषण गोलाबारी की । अंग्रेजों के पैर उखड गये। इस ऐतिहासिक जीत का सेहरा बख्त अहमद, सुबेदार शहाबुद्दीन और सूबेदार घमंडी सिंह के सिर पर बंधा। विद्रोह सेना भी अग्रेजी फौजों का पीछा करती शहर में प्रविष्ट हो गई और बेलीगारद को घेर लिया। चिन्हट विजय की खबर पाते ही दोलत खाना की इरेंगुलर पलटनों तथा इमामबाडे की सेना ने भी विद्रोह कर दिया। गोरे अफसरों को लूट लिया गया, अंग्रेज सिपाहियों को देखते ही गोली मार दी जाती थी। विद्रोही सेना का बादशाह बाग, कोठी फरहत बख्श, हजरत गंज, दिलकुशा, आसफी इमामबाड़े पर मजबूती से कब्जा हो चुका था। मच्छी भवन पर फंसी अंग्रेजी-फौज के कमान्डर कर्नल पामर को बेलीगारद से हेनरी लारेन्स ने झंडियों द्वारा इशारा कि वह रात में ही मच्छी भवन खाली कर दें। इसे खाली करते ही बारूद से उड़ा दिया जाय। रात 2 बजे अंग्रेजी फौजें गुप्त रास्ते से बेलीगारद आ गई । लेफ्टीनेंट टामस ने मच्छी भवन में बारूदी सुरंगें बिछा दीं। एक जोरदार धमाका हुआ और हमेशा-हमेशा के लिए शेखों के इस अजेय गढ़ की कहानी ही खत्म हो गई। 1 जुलाई लखनऊ में 1857 को विद्रोही सैनिकों ने सेय्यद बरकत अली की देख-रेख में बेलीगारद पर धावा बोल दिया। 2 जुलाई को लारेन्स गोली लगने से घायल हुआ और 3 जुलाई को उसकी मृत्यु हो गई । मौलवी अहमद उल्ला शाह भी फैजाबाद से लखनऊ अपनी सेना के साथ आ गये। वह चक्कर वाली कोठी में ठहरे। बेगम हजरत महल विरजीत कदर के साथ मौलवी साहब के पास आई और उनसे शाही फोज का सेनापति बनने का आग्रह किया। मगर मौलवी साहब ने यह कहकर इनकार कर दिया कि वह एक सिपाही की तरह ही अवध को आजाद कराना चाहते हैं। 20 जुलाई लखनऊ में 1857 को बेलीगारद पर फिर आक्रमण हुआ। तमाम अंग्रेज सिपाहियों सहित लेफ्टीनेन्ट डी० सी० एलेक्जेंन्डर, कैप्टन ए० पी० साइमन भी मारे गये। मौलवी साहब ने बेलीगारद पर भीषण आक्रमण करने के लिए गोलागंज से कैसरबाग के बीच मिट॒टी के ऊँचे टीलों पर तोपें चढ़वा दीं। जनरल हैवलाक जो कानपुर से अपनी सेना लेकर चल पड़ा था लखनऊ पहुँचने तक उसे उन्नाव, फतेहपुर, चोरासी, वशीरतगंज में जबरदस्त टक्कर लेनी पड़ी। अंग्रेजी सेनायें पीछे हटने लगीं मगर 3 अगस्त 1857 को और कुमुक आ जाने पर हैवलाक बशीरतगंज में विद्रोहियों को हराकर आगे बढ़ा। इस युद्ध में उसे इतनी हानि हो चुकी थी कि लखनऊ पहुँचना अपने आपको मौत के मुंह में ढकेलना था। वह चुपचाप कानपुर लोट गया। 10 अगस्त लखनऊ में 1857 को विद्रोही सेना ने सुरंग उड़ाने में सफलता हासिल की। बेलीगारद की दीवार नष्ट हो गयी। विद्रोही सेना अन्दर प्रविष्ठ हो गयी, परन्तु 12 वीं बंगाली पलटन और फिरोजपुर छावनी की पलटनों की तोपों ने हिन्दुस्तानियों को पीछे हटा दिया। 8 सितम्बर 857 को पुनः बेलीगारद पर हमला हुआ। इस बार भी यह हमला नाकाम हो गया। 20 सितम्बर सन् 1857 को हैवलाक पुनः कानपुर से लखनऊ के लिए रवाना हो गया। हैवलाक और आउट्रम ने कानपुर से लखनऊ के बीच में हैवानियत का नंगा नाच किया। घरों से आग लगा दी गयी। फसलें चौपट कर दी गयी, बच्चों को कत्ल कर दिया गया। 23 सितम्बर को आलमबाग में भयानक युद्ध हुआ। 25 सितम्बर को हैवलाक ओर आउट्रम आलमबाग का मोर्चा छोड़कर नहर गाज़ीउद्दीन को पार कर नाका हिंडोला होते हुए कैसरबाग़ की ओर बढ़ने लगे। क्रान्तिकारियों ने आलमबाग़ और मुख्य शहर के बीच बने पुल को ध्वस्त कर दिया। अंग्रेजों की आधी सेना आलम-बाग में ही रह गई और जितनी सेना पार आ गयी थी वह कैसरबाग के उत्तरी पूर्वी क्षेत्र में प्रविष्ट हो गयी। कैसरबाग में घमासान युद्ध हुआ। खुर्शीद मंजिल मोती महल और कैसरबाग की इमारतों पर चढ़ी तोपों ने ऐसा भीषण प्रलय किया कि चक्कर वाली कोठी से लेकर लाल बारादरी तक का क्षेत्र अंग्रेजी सेना के सेनिकों की लाशों से पट गया। शेर दरवाजे के करीब जनरल नील मारा गया। इसके साथ ही करीब 722 सिपाहियों की कब्र हिन्दुस्तानी विद्रोहियों ने बना दी । दो दिन तक जंग चलती रही। कैसरबाग बारूदी धुंए से भर गया था। बची-खुची अंग्रेजी फौजें बेलीगारद व छतर मंजिल में पहुंच कर छिप गयीं। इस भागा-भाग में तमाम अंग्रेज सेनिक मारे गये। इधर बुरी फंसी थीं आलमबाग में बच रही अंग्रेजी फौजें। इनका तो हाल त्रिशंकु की तरह था। पुल टूटने की वजह से वह न तो कैसरबाग की तरफ आ सकते थे और न ही आलमबाग से किसी तरफ जा सकते थे। मजबूरी में विद्रोहियों से टक्कर लेते रहे। 7 अक्टूबर सन् 1857 को मौलवी साहब ने आलमबाग पर जोरदार आक्रमण किया। इसी बीच आलमबाग में और अंग्रेजी सेना आ पहुंची। तोपों की मार के आगे ‘डकाशाह’ उर्फ अहमद उत्ला शाह का बस न चला। 21 अक्टूबर को ब्रिगेडियर होपग्रांट कानपुर से एक विशाल सेना लेकर बंथरा होता हुआ अपनी फौज से आ मिला। उधर कैंम्पबेल भी कर्तन हीरोज के साथ भारी सैन्यबल लेकर इंग्लेंड से भारत पहुँच गया था। 9 नवम्बर 1857 को वह लखनऊ पहुँचा, मगर सेना सहित शहर के बाहर ही रुक गया , जनरल आउट्रम ने दो देशद्रोहियों अंगद तिवारी और कन्नौजी लाल की सहायता से आयरलैण्ड के कुआनानांग को भेष बदलकर बेलीगारद से कैम्पवेल के पास भेजा। इस शख्स के पास लखनऊ शहर में जगह-जगह पर मोर्चा बन्दी किये विद्रोही सेनिकों के ठिकानों का नक्शा था। केम्पबेल ने जब नक्शा देखा तो उसके होश फाख्ता हो गये। क्योंकि लखनऊ को विद्रोही सेना ने पुरी तरह से घेर रखा था। फतह अली के तालाब से नाका हिंडोला, तालकटोरा की करबला, दिलकुशा से शाह नजफ तक विद्रोहियों ने अपने मजबूत मोर्चे बना रखे थे। केम्पबेल को एक ही मोर्चा कमजोर नज़र आया आलमबाग। 14 नवम्बर लखनऊ में 1857 को कैम्पबेल आलमबाग की ओर बढ़ा। आलमबाग पर कब्जा कर दिलकुशा आ गया। दिलकुशा में विद्रोही सैनिकों द्वारा धुआधार की जा रही गोलाबारी के कारण वह आगे न बढ़ सका। इधर कैम्पवेल को मोती महल आकर हैब्लक और आउट्रम से मिलना भी था। मोती महल तक पहुँचना कठिन था। बेगम कोठी होते हुए उसने 16 नवम्बर को सिकन्दर बाग पर धावा बोल दिया। सिकन्दर बाग पर बहादुर शाह जफर और वाजिद अली शाह के झण्डे फहरा रहे थे। दो हजार सिपाहियों ने गंगाजली और कुरानेपाक उठाकर आजादी के लिए मर मिटने की कसमें खायीं थीं। यहाँ एकत्र सेना का नेतृत्व रिसालदार सैय्यद बरकत अहमद कर रहे थे। विद्रोहियों ने दीवारों में बन्दूकों व तोपों की नाल के बराबर सुराख बना रखे थे। बाग में घुसने के लिए एक ही दरवाजा था। अग्रेजी फौज पर सिकन्दर बाग से लगातार गोले बरसाये जा रहे थे। कॉर्लिंग केम्पबेल को इसी बीच एक गोली लगी। खुदा का शुक्र था कि वह उसकी सेना के एक तोपची को सुलाकर आयी थी। कैम्पबेल चोट खाकर ही रह गया। फिरंगी हर हालत में सिकन्दर बाग की दक्षिणी -पूर्वी दीवार गिराना चाहते थे। दीवार गिरने के चक्कर में 4 गोरे सिपाही व तोपखाने का कैप्टन हार्डी मारा गया। आधे घण्टे बाद जान पर खेल कर दीवार में तीन फुट चौड़ी दरार बन पायी। सबसे पहले स्कॉटलैंड का एक सिपाही अन्दर घुसा लेकिन मारा गया। इसी बीच किसी सैनिक ने सिकन्दर बाग का मुख्य द्वार खोल दिया। फिर तो जो जंग शुरू हुई कि दिल दहल गये।सिकन्दर बाग के एक ओर से इवार्ट नाम का एक फौजी आफीसर सेना लेकर बढ़ रहा था। भारतीय सेनिकों ने पहले तो गोलाबारी न की जैसे ही पास आया गोलियों को बोछार शुरू कर दी। कई सैनिक मारे गये मैलीसन के अनुसार अंग्रेजी सेना भीतर तो घुस आयी थी लेकिन हर जगह हर कोने व कमरे पर अधिकार करने के लिए उन्हें जूझना पड़ा। गफ के अनुसार 1700 भारतीय सैनिक शहीद हो गये। 17 नवम्बर लखनऊ में 1857 को शाहनजफ, कदम रसूल और मोती बाग में भयानक युद्ध हुए। शाह नजफ के आस-पास जंगल थे। जब अंग्रेजी सेना इस ओर बढ़ रही थी, तभी अचानक पेड़ों के पीछे से उन पर आक्रमण हो गया। तमाम सैनिक मारे गये। मेजर बोन्स्टन तोप दस्ते को लिए आगे बढ़ रहा था, मगर अपने ही दस्ते की तोप का गोला लगने से बुरी तरह घायल हो गया और कुछ दिनों बाद उसकी मृत्यु हो गयी। अंग्रेजी फौजें पीछे हटने लगीं। पैदल सेना की अतिरिक्त कुमुक आ जाने से अंग्रेजी फौजों के हौसले पुनः बुलन्द हो गये। फौजें आगे बढ़ने लगीं। भारतीय सैनिकों द्वारा गोलाबारी की बाढ़ जारी थी। मजबूर होकर फिर पीछे हटना पड़ना।अपने पैसे को सही जगह इन्वेस्ट करें अधिक लाभ पाएं गोमती नदी के उस पार से कोई आजादी का दीवाना एक तोप लिये गोले बरसा रहे था। पहला गोला ही अंग्रेजों की गोले बारूद से भरी गाड़ी पर गिरा। एक भयानक विस्फोट हुआ। तमाम सेनिकों की घज्जियाँ उड़ गयीं। कॉर्लिग केम्बेल ने विवश होकर सेना को आगे बढ़ने के आदेश दिये। अंग्रेजी फौजें आगे बढ़ने लगीं, मगर जिस रास्ते सेना आगे बढ़ रही थी वह उनकी लाशों से पटता जा रहा था। कोई चारा न देखकर राकेटों से हमला किया गया। राकेट हमले ने रंग दिखाया। अंग्रेजी फौजों को शाह नजफ के भीतर घुसने का रास्ता मिल गया, मगर विजय अधूरी रही। विद्रोही सेनिक पहले ही वहाँ से निकल कर भाग चुके थे। शाह नजफ छोड़कर भागे विद्रोही सैनिकों ने दूसरी ओर से हमला कर दिया। इस हमले से भी अंग्रेजों को बड़ा नुकसान हुआ, पर शाह नजफ हाथ से न गया। शाह नजफ और कदम रसूल के बीच क्रान्तिकारियों ने एक बारूदी सुरंग बिछा रखी थी। एक सैनिक को इसका पता लगा फौरन कमाण्डर को सूचित किया गया सुरंग हटा दी गयी। सुरंग का हटाना ही था कि एक गोला वहीं आकर गिरा। यदि यह सुरंग न हटी होती तो आधे से ज्यादा अंग्रेजी फौज दफन हो जाती ।मोती बाग में भी घोर संघर्ष हुआ। हैवलाक, सिटवेल, रसेल जब कैम्पबेल से मिलने मोती महल जा रहे थे तो केसरबाग के करीब अपने कई सैनिकों सहित मारे गये। कैसरबाग पर फतह करना अब अंग्रेजों के लिए निहायत जरूरी था। मगर अधिकार करना आसान न था। यहां प्रवेश करने के लिए अंग्रेजी फौजों को कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। 18 नवम्बर 1857 को मौलवी अहमद उल्ला शाह बेलीगारद के मोर्चे पर डटे थे। दिन भर दोनों तरफ से गोला गोलाबारी होती रही। केम्पबेल 130 फौजी अफसर, 700 भारतीय सिपाही, 740 अंग्रेजी सिपाही, 237 अंग्रेज औरतें, 50 लामार्टीनियर के छात्र, 260 बच्चे, 700 असेनिक तथा 27 अन्य अंग्रेजों को जो कि 2 मास से विद्रोहियों के घेरे में घिरे भूखों मरने की कगार पर थे उन्हें लेकर वह सिकन्दर बाग और दिलकुशा के रास्ते से लखनऊ शहर के बाहर निकल गया। कैम्पबेल बेलीगराद छोड़कर जलालाबाद में आ रुका था। आलमबाग में आउट्रम मोर्चा जमाये था। 2 दिसम्बर लखनऊ में 1857 को डंकाशाह के नेतृत्व में विद्रोहियो ने गोली” व बारूद’ में अपने मोर्चा बाँध लिये। 22 दिसम्बर को जब यह खबर आउट्रम को मिली तो वह नो पौंड के गोले फेकने वाली 6 तोपे, 190 घुड़सवार, 1247 पैदल सैनिकों को लेकर सुबह वहाँ पहुँच गया। घमासान युद्ध हुआ। विद्रोहियों को पीछे हटना पड़ा। 12 जनवरी 1858 को आलम बाग में शाम चार बजे तक जंग हुई। यहां भी विद्रोही पराजित हुए। कर्नल मालसेन ने लिखा है कि लखनऊ के पंडितों ने यह भविष्य वाणी की थी कि अगर अंग्रेजी फौजें 12 जनवरी 1858 से 8 दिन के अन्दर याने कि 20 जनवरी 1858 तक अवध से बाहर नहीं कर दी गयीं तो यह प्रान्त कई सालों के लिए दोबारा गुलाम हो जाएगा। 13, 14 और 15 जनवरी को कोई युद्ध न हुआ। 16 जनवरी को अहमद उल्ला शाह ने कानपुर से आने वाली रसद पर छापा मारने की एक योजना तैयार की। मालसेन के अनुसार खुफिया सूत्रों से आउट्रम को यह जानकारी मिल गयी। लूट की योजना पर पानी फिर गया। विद्रोहियों की शक्ति क्षीण हो गयी थी। 22 जनवरी 1858 को मौलवी साहब व बेगम हजरत महल के सैनिकों में झड़प हो गयी। सौ से अधिक सिपाही इस झड़प में मारे गये। मौलवी साहब को बन्दी बना लिया गया। बाद में आदर के साथ उन्हें छोड़ दिया गया। 15 फरवरी 1858 को मौलवी साहब और अंग्रेजी सेना में फिर लड़ाई हुई। 16 फरवरी को पुनः मौलवी जी ने आलमबाग पर धावा बोला। अंग्रेजी सेना को भारी क्षति उठानी पड़ी। लेकिन अन्त में विजय अंग्रेजों की हुई। 21 फरवरी दिन रविवार को अंग्रेजी फौज जब एक गिरजे में प्रार्थंना कर रही थी। विद्रोहियों ने अचानक आक्रमण कर दिया। एकाएक हुए इस हमले से तमाम अंग्रेज सिपाही मारे गये। 25 फरवरी 1858 को मूसा बाग में लड़ाई हुई। 29 जनवरी को कानपुर गया कैम्पबेल। एक मार्च 1858 को पुनः: लखनऊ लौटा। 3 मार्च 1858 को लामार्टीनियर कालेज में उसे विद्रोहियों से लोहा लेना पड़ा। 6 मार्च से 15 मार्च सन् 1858 तक घमासान लड़ाई जारी रही। जनरल बख्श खाँ चक्कर वाली कोठी में मोर्चा सम्भाले थे। मोहम्मद इब्राहीम खाँ व मोलवी साहब अपने-अपने मोर्चो पर 15 मार्च तक जूझते रहे। अन्त में अंग्रेजों ने पूरी तरह से लखनऊ पर अधिकार कर लिया। इसके बाद इस कदर लूट-पाट, आगजनी, हत्याएँ, बलात्कार हुए कि लोगों की रूह तक काँप गई। कैसरबाग बुरी तरह से लूटा गया। विद्रोहियों को सरे आम फाँसी पर लटका दिया गया। बच्चों को गोली मार दी गई। देशद्रोही कुत्तों को इनाम मिले। विद्रोह में कूदने वाले या उनका साथ देने वाले जमीदारों और ताल्लुकेदारों की जागीरें छीन ली गई। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:— [post_grid id=’9530′]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to 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