लखनऊ की बोली अदब और तहजीब की मिसाल Naeem Ahmad, July 20, 2022February 27, 2024 उमराव जान को किसी कस्बे में एक औरत मिलती है जिसकी दो बातें सुनकर ही उमराव कह देती है, “आप भी तो लखनऊ की हैं। इस पर वो औरत पूछती है, “तुमने क्यूं कर जाना” तो उमराव ने यही जबाब दिया “कहीं बातचीत का करीना छुपा रहता है।” बात सच है लखनऊ वाला अपनी जबान से दूर देश में भी पहचान लिया जाता है। वास्तविकता भी यही है कि इन्सान की पहचान उसकी जबान है क्योंकि आदमी की जिन्दगी में बात की बहुत बड़ी औकात है। बात करने का सलीका है जिन्दगी वरना आदमी चन्द मुलाकात में मर जाता हैं। लखनऊ की बोली अपनी अदब तहजीब और एहतराम के लिए जानी जाती हैं।लखनऊ की बोली अदब और तहजीबहिन्दू शास्त्र कहते हैं मनुष्य के पास मन, वचन और कर्म यही तीन चेष्टाएँ है और इनसे ही कोई अच्छाई या बुराई की जा सकती है तो उसमें भी वाणी की मिठास निश्चय ही मनुष्य का बहुत बड़ा आचरण है जिसके लिये कबीर ने जनता के लिये जनता की आवाज़ में कहा था : ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय औरन को सीतल करे, आपहु सीतल होय और इसमें कई शक नहीं कि भली बोली ही भलाई का बीज है।लखनऊ के क्रांतिकारी और 1857 की क्रांति में अवधमनुष्य की बोली सिर्फ एक ध्वनि नहीं है उसके विचार संस्कार और व्यवहार का दर्पण भी है। यह बोली उसके आस-पास की दुनिया की सभी हदों तक पहुंचती है, कहावत है- “हलक से निकली, फलक तक पहुंची”लखनऊ में 1857 की क्रांति का इतिहासहिन्दुस्तान एक ऐसा देश है जहां भाषा-भूषा के अनेक भेद तो हैं ही पानी और वानी की भी तमाम किसमें हैं फिर भी जिस जबान को देश और विदेश के सभी लोग आसानी से समझ लेते हैं उसे हिन्दुस्तानी कहते हैं। यह हिन्दी-उर्दू की वो गंगा जमुनी भाषा है जिसका अपना अलग ही आकर्षण है। और इस हिन्दुस्तानी का सबसे शुद्ध सुसंस्कृत और सरल स्वरूप लखनऊ की बोली में मिलता है।शम्सुन्निसा बेगम लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला की बेगमलखनऊ अवध का सांस्कृतिक केन्द्र है, जहां की प्राचीन भाषा अवधी है। अवधी वो रसभीनी भाषा है जिसमें “राम चरित मानस” जैसे “पंचम वेद” की रचना की गई है और जो तमाम मुस्लिम कवियों को प्रेमाख्यानों के लिये प्यारी रही है। आज भी हिन्दी फिल्मों में जब खड़ी बोली के अलावा आंचलिक प्रभाव के लिये या मधुर लोक-गीतों के लिये किसी दूसरी बोली की दरकार होती है, तो वह हमेशा अवधी ही होती है।लखनऊ की बोलीलखनऊ की बोली का अपना अलग रंगलखनऊ वालों ने अपनी जबान लखनऊ की बोली को इस बुलन्दी तक संवारा है कि सारी दुनिया तक उसकी गूंज पहुंच गयी। लखनऊ वालों में बातचीत की तमीज बेजोड़ है। यहां के लोगों का बोलने का तरीका और उच्चारण लाजबाब है जिसमें लफ्जों की अदायगी और जबान की मिठास प्रशंसा के काबिल होती है, वो हिन्दी जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, उसे निर्दोष ढंग से जितना अच्छा सुसभ्य अवध वाले पढ़ते है देश के और क्षेत्रों के लोग अपनी वाक पद्धति के कारण नहीं पढ़ सकते जबतक कि वो यहां के तरीके को पूरी तरह अंगीकार नहीं कर लेते। उदाहरण के तौर पर “कहना” शब्द को ही ले लें, पश्चिम प्रभाव में इसी शब्द को “कैना” कहा जायेगा तो पूरब की तरफ “कोहना” कहा जाता है लेकिन लखनऊ में “कहना” को “कहना” ही कहा जायेगा। इसका असर यह हुआ कि फिल्म वाले यहां वालों को बुलाते रहे या इधर दौड़-दौड़ कर आते रहे सिर्फ यह कहते हुए कि आपके पास वही जबान है जिसकी हमें जरुरत है और जो हमारे माध्यम की जान है, जिंदगी है।लखनऊ की बोली अदब और तहजीब की मिसालउर्दू के दो घराने दिल्ली और लखनऊ के बीच अच्छी खासी कशमकश रही है। दिल्ली की उर्दू जबान सिपाहियाना है जिसका “रफटफ” तरीका अपना अलग है जबकि लखनऊ की बोली में दिल्ली का अदबी तकाजा है तो पूरब की मिठास भी मौजूद है। यहां वाले किसी की बात सुनते हुए हांजी, हांजी कहने के बजाए जी हां, जी अच्छा, दुरुस्त कहते हैं, आपकी मरजी जैसे खूबसूरत कसीदे इस्तेमाल करते हैं। और आखिरकार ये पाया गया कि लखनऊ की उर्दू दिल्ली के मुकाबले कहीं अधिक साफ सुथरी और सलील है।गोमती नदी का उद्गम स्थल और गोमती नदी लखनऊ के बारे मेंपिछली सदी की बात है– नवाब रामपुर के दरबार में लखनऊ के सुप्रसिद्ध शायर अमीर मीनाई साहब को एक मुशायरे के सिलसिले में बुलाया गया था। लखनऊ से रामपुर तक का सफर था और वो भी दो घोड़ों की बग्घी से, गरज कि रास्ते में कई दिन लग गये। अब वो थे और एक पछैंया कोचवान था। इतने लम्बे सफर में भी अमीर साहब या तो शेर गुनगुनाते रहे या कोई किताब पढ़ते रहे या फिर खामोश ही रहे। उन्होंने गाड़ीवान से जरुरत भर बात की, ज्यादा बात करने का कोई हौसला नहीं किया। जाहिर है कि उनकी ये चुप्पी उस गरीब को गरां गुज़री | वजह पूछने पर अमीर मीनाई ने जबाव दिया “मुझे डर है कि तुमसे कई दिन तक बराबर बात चीत करते रहने से कहीं मेरी जबान, मेरे लहजे में फर्क न आ जाये और मेरे करीब यही वो सिफ्ज है जिसके लिये मुझे रामपुर और दिल्ली वालों में इज्जत बख्शी जाती है अगर वहीं बात न रही तो मैं तो कहीं का न रहूंगा।अदीबों की बेटीनवाबी का जमाना लखनवी तहजीब के दिन ब दिन संवरने का जमाना था। इसी जमाने में लखनऊ की बोली को भी संवारा गया जिसका सेहरा कुछ हद तक यहां के मशहूर रचनाकार “नासिख” और उनके शागिर्दों को पहुँचता है। मिर्जा रजब अली बेग “सुरूर” के “फसानएं अजायब”, और पं. रतननाथ “सरशार” के फसानए आजाद” में लखनवी जबान के दिलकश मंजर मिलते हैं। अब्दुल अलीम “शरर” ने अपनी पत्रिका “दिलगुदाज” के हाथों भी इस बोली की परवरिश की थी। उन लोगों ने लफजों की मुनासबत को परखा, पहचाना, उसके गलत अन्दाज को काट छांट की और बातचीत में मुहावरों का बेहतरीन इस्तेमाल किया। इस तरह जबान की इस चाशनी में गैर को भी अपना बना लेने या फिर मनचलों पर आहिस्ता से फब्ती कस देने की तरकीब भी थी। लखनऊ में इसी हुनर को लफ्ज-लगामी और चाबुक दस्ती कहते है।लखनऊ की चाट कचौरी ऐसा स्वाद रहें हमेशा यादनयाज़ फतहपुरी ने “लखनऊ की फकब्तियां” में जिक्र किया है– “एक बार चौक बाज़ार के मेवा फरोशों में एक कूजड़ा टोकरे में संतरे लिये बैठा था। इसी बीच एक लम्बा चौड़ा आदमी आया और खड़े-खड़े सौदा करने लगा। संतरे की कीमत सुनकर खरीदार बोला “तुम ज़्यादा बताते हो संतरे तो छोटे है” तो कुंजड़े ने हौले से जबाब दिया “हुजूर बैठ के देखिये तो मालूम हों” अब्दुल अलीम शरर ने भी “गुजिश्ता लखनऊ” में लिखा है कि लखनऊ के मनचले लड़के, बाज़ारु औरतें, अनपढ़ दुकानदार और जाहिल दस्तकार तक ऐसी फब्तियां कस जाते है कि बाहरवालों को आश्चर्य होता है। एक साहब कर्बला की जियारत करके वापस आये और बिल्कुल सफेद कपड़े पहन कर दोस्तों में आकर बैठे ही थे कि एक लौंडे ने कहा “ऐ यह फुरात का बगुला कहा से आ गया।”मूसा बाग लखनऊ जहां स्थित है एक चूहे का मकबरालखनऊ की बोली में मुहब्बत के साथ मुरव्वत भी महसूस की जाती है। यहां के लोग अगर किसी से हाल चाल भी पूछते हैं तो ये नहीं कहना पसन्द करते कि “सुना है आपकी तबियत खराब है” जैसे आपकी खैरियत में ये बात कहते हुए भी उन्हें बड़ी तकलीफ होती है। वो यही कहेंगे “सुना है आपके दुश्मनों की तबियत नासाज है।” मीर अनीस ने अपने मरसियों में कर्बला की मिट्टी की चादर ओढ़ कर सो जाने वालों का कुछ ऐसा दुखद वर्णन किया है कि एक जमाने में लखनऊ वालें “सो जाना” भी उसके सही माने में समझने से कतराते थे। वो कभी नहीं कहते थे कि चराग “जला देना” ये तो अपने आप में बदशगुनी है। वो यही कहते “चराग रोशनकर दीजियें” या “शमां रोशन कर दीजिये” इस तरह की बातचीत अब भी पुराने लखनऊ में बरकरार है।मूसा बाग लखनऊ जहां स्थित है एक चूहे का मकबराकिसी का बच्चा मर गया है तो उसका जिक्र करते हुए भी लखनऊ वाले “बच्चा मर गया” कहना नहीं पसंद करते वो लोग कहेंगे “जाता रहा” या “नहीं रहा” किसी औरत के बेवा हो जाने पर “विधवा हो गयी” न कह कर सिर्फ “बिगड़ गया” मुहावरा बोला जाता है। औरतों के रजस्वला होने की बात कहना तो यहां की औरतों के लिये बेहद शर्म की बात समझी जाती थी इसके लिये लखनऊ की क्या हिन्दू और क्या मुसलमान औरतें इतना भी नहीं कहती हैं कि “सिर धोने को है” सिर्फ अपने बालों की एक लट चुटकी से रगड़ कर इशारे से ही आपस में समझा लेती हैं और समझ लेती है। लेकिन याद रहे ये अन्दाज खास शहर की बहू बेटियों में ही बाकी है। अदब लिहाज की इन्तहा तो ये भी हैं कि यहां गर्भवती स्त्रियों के लिये “पेट से है” या “पांव भारी है, जैसे शब्द न कहकर यही कहना पसन्द किया जाता है “उम्मीद से है। इनर या अंगिया को छोटा कपड़ा कहा जाता था।लखनऊ की मस्जिदें – लखनऊ की ऐतिहासिक मस्जिदलखनऊ की बोली में दुआं असीस का जो तर्ज है वो भी निराला है पुराने लोग घरों में पांव छूने पर ‘बने रहो’ का आशीर्वाद देते थे। “दुनिया में लम्बी अवधि तक, कायम रहना और आदमी बन के रहना बड़ी बात है ‘बने रहो” इसी भावना की शुभकामना है। आमतौर से आज भी जो लखनऊ वाले है वो छोटों को यही आशीर्वाद देते है” “जियो, जागो, खुश रहो आबाद रहो” मेरे ख्याल से वो इस तरह प्रबुद्धता के साथ मानवीय जीवन जीने का इशारा करते है और हर हाल में खुश रहने का साहस सौंपते है ये अपने आप में एक बड़ी बात है। इस नामुराद नाशवान क्षण भंगुर दुनिया में खुशी सब से अनमोल चीज है और वो खुशी उसी को नसीब है जो मुश्किलों में भी खुश रहना जानता है और ये भी सच है कि बिना खुशी के खुश रहना ही सबसे बड़ी इबादत है।राज्य संग्रहालय लखनऊ का इतिहास हिन्दी मेंघर से चलने वाले को पान तम्बाकू देते समय चूने के लिये “चूना” न कहकर “सफेदा” कहा जाता है या फिर ‘तेल’ का नाम न लेकर उसे “वो” से ही सम्बोधित किया जाता है। इसी तरह कोई बात यूं नहीं कही जायेगी कि ऐसा हमारे यहां “नहीं होता है” यही कहा जायेगा “ऐ बीबी जमीजम होता है” लेकिन ये मुहावरा मुस्लिम घरानों की ही पहचान है।लखनऊ की बोली में दोष भी हैलखनऊ की बोली में कुछ विशेषता भी है, जो साधारण हिन्दी से कहीं-कहीं कुछ हट कर है। नमूने के तौर पर बोलचाल में यहां के कुछ लोग चावल को “चांवल”, आटा को “आंटा” पूजा को “पूंजा” या फिर चादर को “चद्दर”, दरवाजे को “दरवज्जे”, चाकू को “चक्कू” सादी डोर को “सद्दी”, चाची को “चच्ची” चाचा को “चच्चा”, कहते हुए पाये जाते हैं। ये जबान यहां फड़ की जुबान कही जाती है। फड़ बोलने वाले सलाम को “बन्दंगी” “हमारे यहाँ को” हमारे खियां या नहीं को “नह” कहते हैं। कुछ ऐसे शब्द जो अपने सीधे मतलब के अलावा दूसरे मतलब में भी इस्तेमाल होते हैं यहां कसरत से बोले जाते हैं नमूने के तौर पर “दमे की शिकायत है (दमे का रोग है), इसी मारे कहते हैं (इसीलिए कहते हैं), हम जायेंगे थोड़ी (हम नहीं जायेगें) या “चाय ना दीजिये (चाय ढाल दीजिये) वगैरा-वगैरा।क्राइस्ट चर्च लखनऊ का इतिहास हिन्दी मेंयहां के उच्च मुस्लिम वर्ग में जो भाषा दोष पाये जाते हैं, उसमें कैसे को “क्यूंकर”, या “उन्होंने” के लिए “उन्हीं ने” जैसे शब्द खूब इस्तेमाल किये जाते हैं जबकि निम्न स्तर के मुसलमानों में “लखनऊ” को “नखलऊ“, “ले आयेंगे” को “लिआयेंगे”, “मुहल्ले” को महल्ले”, “तब” को “जब”, “तब ही” को “तभी”, न कहकर “अभी”, शब्दों का प्रचलन है और उनमें ही दरद, सुरख, सुफैद, सुबेरे जैसे शब्द भी कम नहीं बोले जाते। ठीक इसी तरह एक वर्ग के हिन्दुओं में “मना करने को “मिनहां”, “नहीं” को “नहिंना”, “निकट” को “नगीचे”, “जगह” को “जिंगा”, “नीचे” को “खाले”, आगे को “आगू” पीछे को “पीछ” जैसे शब्द प्रयोग किये जाते हैं। कुछ मन्दिरों के लिए अवधी में सिद्धनाथों, कोनेसुरों और चांदकों कहा जाता है। अशुद्ध उच्चारण और भाषा दोष के अनुसार भी यहां की हिन्दी में उसका प्रतिशत नहीं के बराबर पाया जाता है।टकसाली बोलीअवध में एक टकसाल शेरशाह सूरी के वक्त में कायम हुई थी और आज भी टकसाल मुहल्ला चौक में बाकी है। जिस तरह लखनऊ का सिक्का “जर्ब लखनऊ” और “”मछलीदार” मशहूर है, उसी तरह यहां की टकसाली जबान भी कम मशहूर नहीं है। टकसाली ने बोली के वो वो सिक्के ढाले हैं कि जिनका कोई जवाब नहीं है। इसी जबान ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को “कम्पनी बहादुर” कोर्ट ला को कोरट साहब का नाम दिया। मार्टिन साहब की कोठी को “कोठी मारकीन साहब“, गार्ड फार बेली को “बेलीगारद”, क्वीन ‘विक्टोरिया को “मलका टूड़िया” विक्टोरियागंज को “टूड़ियागंज” और फिर केैन्ट में रेजीमेंट मार्केट को “रजमन बाज़ार” कहा। यहाँ के लोगों ने हमेशा कर्नल के मज़ार’ को “कल्लन की लाट“, “महिला सेना” को “जनानी गारद”, “मार्शल ला” को “मारछल्ला“, “सी.डी.आर.आई.” को “कारखाना जहर” और “सैटेलाइट” को “झूठा तारा” पुकारा है। टकसाली ज़बान अपने आप में एक अच्छी खासी भाषा शैली है, जिसे बाग विलास के लिये भलीभांति प्रयोग किया गया। लखनऊ के रिक्शे वाले कान्वेन्ट स्कूल को भक्तिनियां स्कूल ही कहते है ओर इसी नाम से सही पते पर पहुंचा देते है।बेगमाती जबानलखनऊ की बोली की नरमी के आधार पर दिल्ली वालों ने इसे “बेगमाती” का नाम दिया था। दरअसल “बेगमाती” अवध के महलों में पली हुई उस जबान का नाम है जिसकी परवरिश “अवध की बेगमों” द्वारा ही हुई। ये जबान हुस्न बाग की दौलत सरा ए सुल्तानी में जवान हुई थी। ख़ास बेगमों की तहरीर में इसका एक उदाहण पेश है।“जाने आलम एक साल हो गया, सब चहीतियों को नवाज़ा। मुझ निगोड़ी को कभी भूल के भी पुर्जए कागज से न किया खुशआफजा। यहां दिन रात आतिशे फिराक में घुल रही हूं, वहां बेखवरी वो है जो जान रही हूँ।चारबाग रेलवे स्टेशन का इतिहास – मुस्कुराइए आप लखनऊ में हैइस जबान की तैय्यारी और तराश में बेशक बेगमात का हाथ रहा है लेकिन ये वो जबान थी जो अवध के हाकिम हुक्कामों, दीवानों दरबारियों तक को बराबर से प्यारी थी क्योंकि ये कानों में रस घोलने वाली बांसुरी जैसी मधुर थी। “गरीब परवर की दुहाई है”, “फिर भला क्यूँ न हम आपके हुंजूर में हाजिर हों”, कहने वाले मर्द भी अपनी अरज़ी को मखमली बना के सरकारे सल्तनत तक पहुंचा देते थे और इसका बड़ा असर होता था जिससे इनकार नहीं। चुटकी लेने वाले इसी ज़बान के सहारे अपनी पेश दिमागी से न सिर्फ मौलिक बल्कि निराले सदाबहार साहित्य का सृजन करते रहे हैं और उनके व्यंग्य, प्रसिद्ध व्यंगकार वाल्तेयर और मैडम जफरी से किसी कदर कम नहीं पाये गये।कबूतर बाजी जिसके शौकीन थे लखनऊ के नवाबयहां तवायफें भी कहेंगी तो यूं कहेंगी “ऐ लोगों देखो, इस तोते चश्म का तर्जे वफा। क्या-क्या सब्जबाग दिखाये थे मुझे इसने और अब मुझे फूटी कौड़ी करार दे के जलती रेत में छोड़े जाता है।” बांके कहेंगे तो ये न कहेंगे कि “ऐसा मारुंगा कि जबड़ा तोड़ दूंगा” बल्कि “जनाब, ‘एक ही हाथ में दनदाने मुबारक शहीद हो जायेंगे” कहेंगे कहीं मर्द अपनी बीबियों की बात का जिक्र करेंगे तो यूँ करेंगे “वो हमसे कहा कीं कि हम वहां न जायें, लेकिन हम थे कि गये और गये, आखिर न माने तो नहीं माने।”लखनऊ की तवायफें जिनसे रहते थे कोठे हमेशा गुलजारद लखनऊ में हिन्दू घरों की औरतें रतजगों की रात अब अपने परिवार वालों के बीच नाचने गाने खड़ी होती थीं तो किसी तालीम के बिना भी उनके गानों के बोल बड़े अलबेले पाये जाते थे और जिनसे कानों को इश्क रहता है. “अरे मैं आरसी का नगीना, बलम काहे बिछड़े, बलम काहे बिछडे” कोई लड़की अगर अपने महबूब को मेहमान पायेगी तो यही कहती पायी जायेगी “जहे नसीब जो आपने नाचीज की नजर को नजारे से नवाजा, अब बैठ भी जाहए क्या खड़े पीर का रोजा रखा है।”ये जबान किसी महल, ड्योढ़ी, हवेंली वालों की विरासत नहीं है। भाँड, मिरासियों के पल्लू से भी बंधी है। भाँड़ भी अपनी नकल को न समझने वाले को धीरे से यही कह देते हैं। “क्या करे अक्ल से पैदल है” इसी बेगमाती जबान को महल की लौण्डी, कनीजें, अपने तरीके से बोलती रही हैं जिसमें, “उई अम्मां, हाय अल्लाह, ऐ नौज, मैं वारी” जैसे लटकों की भरमार रहती थी। जिसका एक नमूना है- लखनऊ की बोली जबान नवाबी के बाद भी महलों और हवेलियों के भीतर बखूबी पलती रही। गदर के सवा सौ साल बाद भी शीश महल के इलाके में या पुराने शहर की ऐतिहासिक डयोढ़ियों में ये जबान वैसी की वैसी ही याने उसी खालिस और बेहतरीन तरीके से बोली जाती है। उस दायरे की बेगमों की तो बात ही क्या खादिमाये, नौकरानियाँ ऐसे प्यारे ढंग से कलाम करती हैं कि सुनने वाले के होश दफा होते हैं। वो आज भी जो कुछ बोल देती हैं या बात-बात में कह जाती हैं, वो अपने आप में एक अनूठा साहित्य होता है। इस ज़बान के वहां बचे रहने की वजह यही है कि वो औरतें तमाम बाहरी लोगों से बातचीत करने से बचती रहीं और पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी गुफ्तार की क्यारियां फूलती फलती रहीं।कबूतर बाजी जिसके शौकीन थे लखनऊ के नवाबनवाबी के बाद ये जबान लखनऊ के कोठों पर आम अवाम की पहुँच में थी और वहाँ तमीज की तालीम और बातचीत का तरीका सीखने के लिये ऊँचे घराने के लड़के और लाट साहब के बच्चे भेजे जाते थे। आजादी के बाद कोठे आबादी में बिखर गये तो इस जबान ने अदीबों के घरो में उनकी किताबों में डेरा किया। जिससे कभी-कभी कोई न कोई रोशनी की लकीर ‘फूटती रही। अदब के मामले में यहाँ घर-घर आज भी कहा जाता है। “बाअदब बा नसीब, वे अदब, बेनसीब।” “माँ” के लिए “अम्मां” जैसा सरस, सुबोध और प्यारा सम्बोध ने इसी इलाके की देन है। लखनऊ ने प्यार, मुहब्बत का जो संदेश आपस में मिलजुल कर चलने की जो रीति अपनी जबान के “हम” से दी है वो बात “मैं” में कहां है। “मैं” में अगर घमंड है, अकड और अकेलापन है तो “हम” में सबके साथ होने की सशक्त प्रस्तुति है, विनम्रता है और प्रीति की सुगन्ध है। यहाँ वाले हमेशा “हम” कह कर ही बात करते हैं और ये आज के समाज के लिये किसी उपहार से कम नहीं यहां के “पहले आप” में भी, जो सौहार्द और परस्वार्थ की भावना है, उसका मज़ाक उड़ाना चांद पर थूकना ही होगा। ओछी अक्ल के लोग जो कमतरी के शिकार होते हैं वही ऐसे सामाजिक मूल्यों से इनकार करते हैं।मुर्गा की लड़ाई कभी लखनऊ का मुख्य मनोरंजन थासच तो यह है कि लखनऊ की बोली लखनऊ वालों के दिली चैन और बेफिक्री का आईना रही है। इसमें किसी के लिये कहीं से कोई उलझन नहीं है। ये बातें सुनने वाले के लिये ही ताव-तनाव से रहित नहीं हैं, बोलने वाले के स्वभाव और सेहत के लिये भी अच्छी हैं। बीसवीं सदी का मध्याहन हिन्दी सिनेमा संसार के सुमघुर संगीत का स्वार्णिम युग था। उन कर्णाप्रिय गीतों की धुन ही नहीं बोल भी बड़े सुहाने होते थे और उन की आड़ में थी लखनऊ की जबान, शकील बदायूनी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी या और दूसरे शायर लखनऊ स्कूल के ही हिमायती रहे हैं। यहां बोली की एहतियात ही उन गानों को कीमती बनाती है नमूने के तौर पर लखनऊ में रात की महफिल को ‘रतजगा’ कहा जाता हैं जगराता कभी नहीं कहा जाता। फिल्म साहब बीबी गुलाम में’ आशा भोंसले और सखियों ने गया है एक गाना “सुना है तेरी महफिल में रतजगा है” ये शकील की कलम थी इस रतजगे की जगह अगर जगराता होता, तो क्या होता, समझने वाले समझ सकते हैं।लखनऊ में दुपट्टा शब्द या चुनरी शब्द का ही इस्तेमाल होता हैं ‘चुन्नी का हरगिज नहीं। आज भी अमीनाबाद लखनऊ के दुकानदार “दुपट्टा महल”, “दुपट्टा कार्नर” नाम से दुकाने करते है और विज्ञापन में लहंगा चुनरी लिखते हैं फिल्म ‘तीन देवियां’ के एक खूबसूरत गीत में आशा जी ने गाया है: “जब मेरी चुनरिया मलमल की फिर क्यूं न फिरू ढलकी ढलकी” इस बन्दिश में अगर मजरूह साहब “चुन्नी’ कह देते तो शायद गाने की जान ही निकल जाती। बरसात के गीत “हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का” में अगर दुपट्टा की जगह “मेरी लाल चुन्नी मलमल की “कहा जाता तो गीत का सारा हुस्न ही ठण्डा पड़ जाता। ये कलम के धनी लोग लखनऊ का सलीका सीख कर ही कलम चलाते रहें हैं इसी में उनकी शान थी।चारबाग रेलवे स्टेशन का इतिहास – मुस्कुराइए आप लखनऊ में हैलखनऊ सभ्यता का केन्द्र होने के साथ-साथ गंगा-जमुना के आंगन में से होकर गुजरने वालों के लिये सरे रहगुजर भी था, इसलिए यहां सदियों से तमाम कौम के देशी-विदेशी लोगों का आना-जाना रहा और अवसर इस जमीन के खिंचाव ने उनको यहां रोक भी लिया। इन सब लोगों ने लखनवी की बोली को बखूबी अपना लिया और यहां की तहजीब का एक हिस्सा बनकर रहे और इस गुण ने उनकी इज्जत में भी इजाफा किया क्योंकि लखनऊ की संस्कृति किसी एक धर्म, जाति, सम्प्रदाय या सल्तनत का नाम नहीं था, यह स्वयं ही एक मिलीजुली जीवन शैली है। लेकिन वर्तमान सदी की दोपहर के बाद लखनऊ की बाहों में इस तेज़ी से एक भीड़ समाती जा रही है, जिसने यहां की जिंदगी को बिल्कुल बेतरतीब कर दिया है।हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—[post_grid id=’9530′]Share this:ShareClick to 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Uncategorized लखनऊ पर्यटन