राव मालदेव का इतिहास और जीवन परिचय Naeem Ahmad, December 11, 2022March 24, 2024 राव मालदेव राठौड़ का जन्म 5 दिसंबर सन् 1511 को जोधपुर में हुआ था। 9 भी सन् 1532 को यह जोधपुर राज्य की गद्दी पर विराजे। इनके पिता राव गांगाजी थे उन के स्वर्गवासी होने के पश्चात् उनके पुत्र राव मालदेव जी राज्यगद्दी पर आसीन हुए। ये बढ़े शक्तिशाली नरेश हो गये है। इन के पास 80000 सेना थी । इनके समय में जोधपुर राज्य का विस्तार बहुत विस्तृत हो गया था। जिस समय राव मालदेव जी गद्दी पर बेठे, उस समय उनके अधिकार में सिर्फ जोधपुर और सोजत जिला रह गया था। नागोर, जालोर, सांभर, डीडवाना और अजमेर पर मुसलमानों का राज्य था। मल्लानी पर मल्लिनाथजी के वंशज राज्य करते थे। गोड़वाड़ मेवाड़ के राणाजी के हाथों में था। सांचोर में चौहानों का अधिकार था। मेड़ता वीरमजी के आधिपत्य में था। पर कुछ ही समय में उक्त सब परगने मालदेव जी द्वारा हस्तगत कर लिये गये। इतना ही नहीं वरन चाटसू , नरेना लालसोत, बोनली, फतेहपुर, झूमनूँ आदि आदि स्थानों पर भी इन्होंने अपना अधिकार कर लिया था। राव मालदेव राठौड़ का इतिहास और जीवन परिचय आपने अपने राज्य के पश्चिम की ओर से छोहटन और पारकर परमारों से, और उमरकोट, सोढ़ाओं से जीतकर अपने राज्य में मिला लिये। दक्षिण में राधनपुर आदि पर भी आपने अधिकार कर लिया। बदनूर, मदारिया और कोसीथल नामक स्थान भी मेवाडवालों से छीन लिये। पुरमंडल, केकड़ी, मालपुरा, अमरसर, टोंक और टोड़ा नामक स्थानों को आपने जीतकर अपने राज्य में मिला लिये। इन्होंने सिरोही पर भी अपना अधिकार कर लिया था, पर वहाँ के शासक उनके रिस्तेदार थे, अतएव सिरोही उन्हें वापस लौटा दी गई। राव मालदेव जी ने बीकानेर नरेश को वहाँ से हटाकर वह राज्य भी अपने राज्य में मिला लिया था। इस प्रकार सब मिलाकर 52 जिलों और 84 किलों पर मालदेव जी ने अधिकार कर लिया था। राव मालदेव राठौड़ चित्तौड़ के राणा उदयसिंह जी को भी मालदेवजी ने कई वक्त सहायता दी थी। राणा विक्रमादित्य जी की मृत्यु के बाद राणा सांगा का अवेध पुत्र बनवीर राज्य का अधिकारी बन बैठा। राणा सांगा के पुत्र उदयसिंह कुम्भलमेर भाग गये। वहाँ से उन्होंने राव मालदेव जी को सहायता के लिये लिखा। मालदेव जी ने तुरन्त अपने जेता और कुंपा नामक दो बहादुर सेनापतियों को सहायतार्थ भेज दिये। सन् 1540 में उन्होंने बनवीर को चित्तौड़ की गद्दी पर से उतारकर उसके स्थान पर उदयसिंह जी को बिठा दिया। इस सहायता के उपलक्ष में राणाजी ने 40000 फिरोज़ी सिक्के और एक हाथी मालदेव जी को भेंट किया। सन् 1542 में मुगल सम्राट हमायूँ, के शेरशाह द्वारा तख्त से उतार दिये जाने पर वह मालवदेव जी की शरण में आया। तीन चार माह तक वह मन्डोर में रहा। किसी के समझा देने पर, कि मालदेव जी उसका खजाना लूटना चाहते हैं, वह मारवाड़ से चला गया। हम ऊपर कह चुके है कि मेड़ता के सरदार वीरमजी और राव मालदेवजी के बीच अनबन हो गई थी। अतएव मालदेवजी ने मेडता से बीरमजी को निकाल दिया। वीरमजी शेरशाह के आश्रय में चले गये। वहाँ जाकर वे उसे मालदेव जी पर चढ़ाई करने के लिये उडकसाने लगे। शेरशाह वीरमजी की बातों में आकर मालदेव जी पर चढ़ आया। अजमेर के सुमेला नामक स्थान पर उसने अपनी छावनी डाल दी। मालदेव जी भी शत्रु का मुकाबला करने के लिये अपनी सेना सहित गिरी नामक स्थान पर आ धमके। मालदेव जी की सना को देख कर शेरशाह का धेर्य जाता रहा। वह भागने का विचार करने लगा। पर उस समय उसकी स्थिति ऐसी हो गई थी कि वह भाग भी नहीं सकता था। यदि वह भागता तो मालदेव जी की सेना द्वारा तहस नहस कर दिया जाता। डर के मारे उसने बालू के बोरे भरवा कर अपनी सेना के चारों ओर रखवा दिये। इस प्रकार दोनों ही ओर एक माह तक सेना पड़ी रही। फरिश्ता का कहना है कि “यदि शेरशाह को कुछ भी मौका मिल जाता तो वह अवश्य भाग जाता।” पर हम ऊपर कह चुके हैं कि उसकी स्थिति बड़ी खराब थी। सुरक्षितता से वह भाग भी नहीं सकता था। ऐसे समय में वीरमजी ने उसे बहुत कुछ ढांढस बँधवाया। इतना ही नहीं, उन्होंने एक चाल भी चली। उन्होंने मालदेव जी के सरदारों की ढालों में सम्राट की सही करवा कर कुछ पत्र रखवा दिये। यह तो इधर किया और उधर मालदेव जी के पास कुछ दूत भेजे गये। इन दूतों ने मालदेव जी से जाकर कहा कि “आपके सरदार सम्राट से मिल गये हैं। यदि आप को हमारा विश्वास न हो तो उनकी ढाल मंगवाकर आप स्वयं देख लें उनमें सम्राट के हस्ताक्षर युक्त पत्र मौजूद हैं। राव मालदेव जी ने ऐसा ही किया। जब उन्होंने समस्त सरदारों की ढालें मंगवा कर देखा तो सचमुच उन्हें उसमें सम्राट द्वारा भेज गये पत्र मिले। अब तो राव मालदेव जी हताश हो गये। विजय की आशा छोड़ कर वापस जालोर लौट आये। उनके सरदारों ने उन्हें बहुत कुछ समझाया पर सब व्यर्थ हुआ। अन्त में जेता और कुंपा नामक सरदार युद्ध-क्षेत्र में डटे ही रहे। सिर्फ 12000 राजपूत सैनिकों के साथ इन्होंने 80000 मुसलमानों का सामना बड़ी ही वीरता के साथ किया। मुकाबला ही क्यों, यदि मुसलमानों की सहायतार्थ और सेना न आ गई होती तो इन्होंने उन्हें हरा ही दिया था। सहायता पा जाने से शेरशाह ने दूने उत्साह से राजपूतों पर हमला कर दिया। जेता और कुंपा अपने तमाम सैनिकों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए। शेरशाह की विजय हुई। इस युद्ध के लिये शेरशाह ने कहा था कि, “एक मुठ्ठी भर बाजरे के लिये मेंने हिन्दुस्तान का साम्राज्य खो दिया होता। इस लड़ाई के बाद ही से मालदेव जी का सितारा कुछ फीका पड़ गया। सन 1548 में यद्यपि रावजी ने अजमेर और बागोर पर पुनः अधिकार कर लिया था तथापि यह अधिकार बहुत दिनों तक नहीं रह सका। सन् 1556 में हाजी खाँ नामक एक पठान ने मालदेव जी से अजमेर छीन लिया। इसी बीच सन् 1556 में सम्राट अकबर दिल्ली के तख्त पर आसीन हो गया था। उसने आंबेर नरेश भारमलजी को अपनी ओर मिला कर राजपूताने के कुछ जिले हस्तगत कर लिये थे। सन् 1557 में अकबर ने शाहकुली खाँ साशक जनरल को भेजकर हाजीखाँ को भगा दिया और अजमेर प्रान्त शाही सल्तनत मे मिला लिया। इस युद्ध के द्वारा अजमेर, जेतारण और नागोर के जिले अकबर की अधीनता में गये। धीरे धीरे मारवाड़ के पूर्वीय भाग पर भी सम्राट का अधिकार हो गया। राव मालदेव जी के अधिकार में बहुत थोड़ा सा प्रान्त रह गया। सन् 1562 में अजमेर के सूबेदार शर्फुद्दीन हुसेन मिर्जा ओर राठोड़ देवीदासजी तथा जयमलजी के बीच मेड़ता में युद्ध हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि मालदेव जी को मेड़ता प्रान्त से भी हाथ धोना पड़ा। इस प्रान्त में सम्राट की ओर से वीरमजी के पुत्र जयमल जी सूबेदार नियुक्त किये गये। इसी साल राव मालवदेव जी ने जोधपुर नगर में अपनी इहलोक यात्रा संवरण की। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- [post_grid id=”13251″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new 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