रावल जैत्रसिंह का इतिहास और जीवन परिचय Naeem Ahmad, November 17, 2022February 21, 2023 रावल जैत्रसिंह मेवाड़ के राजा मंथनसिंह के पौत्र और पद्मसिंह के पुत्र थे। प्राचीन शिलालेखों में जैत्रसिंह के स्थान पर जयतल, जयसल, जयसिंह और जयतसिंह आदि इनके नाम भी मिलते हैं। भाटों की ख्यातों में उनका नाम जैतसी या जैतसिंह मिलता है। वे बड़े प्रतापी राजा हुए। उन्होंने अपने आस-पास के हिन्दू राजाओं तथा मुसलमानों से कई युद्ध किये। उनके समय के वि० सं० 1270 से 1309 तक के कई शिलालेख मिले हैं। उनसे पाया जाता है कि इस महान पराक्रमी नृपति ने कम से कम 40 वर्ष राज्य किया। इस प्रबल पराक्रमी राजा के गौरवशाली कार्यों का उल्लेख कई शिलालेखों में किया गया है। जैत्रसिंह के पुत्र तेजसिंह के समय के घाघसा गाँव से जो चित्तौड़ से 6 मील पर है, वि० सं० 1322 का एक शिलालेख मिला है। इसमें जैत्रसिंह के गौरव पर दो श्लोक हैं। जिनका भाव यह है– “उस (पद्मसिंह) का पुत्र जैत्रसिंह हुआ जो शत्रु राजाओं के लिये प्रलयकाल के पवन के समान था। उसके सवत्र प्रकाशित होने से किनके हृदय नहीं काँपे। गुजेर (गुजरात) मालव, तुरुष्क (देहली के मुसलमान सुलतान) और शाकंभरी के राजा (जालौर के चौहान) आदि आदि उसका मान मर्दन न कर सके। रावल जैत्रसिंह का इतिहास और जीवन परिचय रावल जैत्रसिंह के पौत्र रावल समरसिंह के समय का वि० सं० 1330 का एक शिलालेख मेवाड़ के चिरवा गाँव में मिला है। उसमें जैत्रसिंह का गौरव इस प्रकार वर्णन किया गया है–“’मालव, गुजरात, मारव ( मारवाड़ ) तथा जांगल देश के स्वामी तथा म्लेच्छों के अधिपति (देहली के सुल्तान) भी उस राजा (जैत्रसिंह ) का मान मर्दन न कर सके”। इसी प्रकार रावल समरसिंह के वि० सं० 1342 मार्गशीर्ष सुदी 1 के आबू के शिलालेख में लिखा है– पद्मसिंह का स्वर्गवास होने पर जैत्रसिंह ने पृथ्वी का पालन किया । उसकी भुजलक्ष्मी ने नडूल ( नाडौल ) को निर्मूल किया। तुरुष्क सैन्य ( सुल्तान की सेना ) के लिये वह अगस्त्य के समान था । सिंघुकों ( सिंधवालों ) की सेना का रुधिर पीकर मतवाली पिशाचियों के आलिंगन के आनन्द से मग्न हुए पिशाच रणक्षेत्र में अब तक श्री जैत्रसिंह के बाहुबल की प्रशंसा करते हैं ”। ऊपर उद्धृत किये हुए तीनों शिलालेखों के अवतरणों से पाया जाता है कि जैत्रसिंह तीन लड़ाइयाँ मुसलमानों से और तीन हिन्दू राजाओं से लड़े थे। अर्थात् वे देहली के सुल्तान, सिन्ध की सेना ओर जांगल के मुसलमानों से, तथा मालवा, गुजरात के शासक और जालौर के चौहानों से लड़कर विजयी हुए थे। परन्तु इन अवतरणों से यह नहीं पाया जाता कि वे लड़ाइयाँ किस किस के साथ और कब कब हुई। इसी पर यहाँ कुछ प्रकाश डालना आवश्यक है। सुल्तान के साथ की लड़ाई उपरोक्त शिलालेखों में रावल जैत्रसिंह का सब से पहले दिल्ली के सुल्तान के साथ युद्ध कर विजय पाना लिखा है। अब यह देखना है कि यह सुल्तान कौन था ? मेवाड़ के राजाओं के शिलालेखों में जैत्रसिंह के समय मेवाड़ पर चढ़ाई करने वाले सुल्तान का नाम नहीं दिया है। उसका परिचय ‘म्लेच्छा- धिनाथ’ ओर सुरत्राण (सुल्तान) आदि शब्दों से दिया है। ‘हसारी मद- मर्दन! में उसको कहीं तुरुष्क ( तुर्क ), कहीं हमीर ( अमीर सुलतान ), कहीं सुरत्राण, कहीं म्लेच्छ चक्रवर्ती और कहीं ‘मीलछीकार’ कहा है। इनमें से पहले चार नाम तो उसके पद् के सूचक हैं और अंतिम नाम उसके पहले के खिताब “अमीर शिकार! का संस्कृत शैली का रूप प्रतीत होता है। “अमीर शिकार’ का खिताब देहली के गुलाम सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने गुलाम अलतमश को दिया था। कुतबुद्दीन ऐबक के पीछे उसका पुत्र आरामशाह देहली के तख्त पर बैठा, जिसको निकाल कर अलतमश वहाँ का सुल्तान बन बैठा और उसने शमसुद्दीन खिताब धारण कर हिजरी सन् 607 से 633 ( वि० सं० 1267 से 1293 ) तक देहली पर राज्य किया। ऊपर हम बतला चुके हैं कि जैत्रसिंह और सुलतान के बीच की लड़ाई बि० सं० 1279 और 1286 के बीच किसी वर्ष हुईं और उस समय दिल्ली का सुल्तान शमसुद्दीन अलतमश ही था। इसलिये निश्चित है कि जैत्रसिंह ने उसी को हराया था। रावल जैत्रसिंह कर्नल जेम्स टाड ने अपने ‘राजस्थान’ में लिखा है कि राहप ने संवत् 1257 ( सन् 1201 ) में चित्तौड़ का राज्य पाया और थोड़े ही समय के बाद उस पर शमसुद्दीन का हमला हुआ जिसको उस ( राहप ) ने नागोर के पास की लड़ाई में हराया। कर्नल टॉड ने राहप को रावल समरसिंह का पौत्र और करण का पुत्र मान कर उसका चित्तौड़ के राज्य-सिंहासन पर बैठना लिखा है। परन्तु न तो वह रावल समरसिंह का ( जिसके कई शिलालेख वि० संवत् 1330 से 1357 तक के मिले हैं ) पौत्र था, और न वह कभी चित्तौड़ का राजा हुआ। वह तो सिसोदे की जागीर का स्वामी था। वह समरसिंह से बहुत पहले हुआ था। अतएव शमसुद्दीन को हराने वाला राहप नहीं, किन्तु जैत्रसिंह था, और उस ( शमसुदीन ) के साथ की लड़ाई सागौर के पास नहीं, किन्तु नागदा के पास हुईं थी जैसा कि ऊपर चिरवा के शिलालेख से बतलाया जा चुका है। सिंध की सेना के साथ लड़ाई रावल समरसिंह के समय के आबू के शिलालेख में रावल जैत्रसिंह का तुरुष्क (सुलतान शमसुद्दीन अल्तमश ) की सेना को नष्ट करने के पीछे सिंधुको ( सिंध वालों ) की सेना को नष्ट करना लिखा है जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है। अब यह जानना आवश्यक है कि वह सेना किसकी थी और यह मेवाड़ की ओर कब आई थी फारसी तवारीखों से पाया जाता है कि शहाबुद्दीन गौरी का गुलाम नसिरुद्दीन कुवाच, जो कुतुबुद्दीन ऐबक का दामाद था, उस ( कुतबुद्दीन ऐबक ) के मरने पर सिंध को दबा बैठा। मुगल चंगेजखान ने खर्वाजम के सुल्तान मुहम्मद ( कुतुबुद्दीन ) पर चढ़ाई कर उसके मुल्क को बर्बाद किया। मुहम्मद के पीछे उसका बेटा जलालुद्दीन ( मंगवर्नी ) ख्वार्जिमी चंगेजखान से लड़ा और हारने पर सिंध को चला गया। उसने नसिरुद्दीन कुवाच को कच्छ की लड़ाई में हरा कर ठट्ठानगर ( देवल ) पर अपना अधिकार कर लिया, जिससे वहाँ का राय, जो सुमरा जाति का था, ओर जिसका नाम जेयसी ( जयसिंह ) था, भाग कर सिंध के एक टापू में जा रहा। जलालुद्दीन ने वहाँ के मंदिरों का तोड़ा और उनके स्थान पर मस्जिदें बनवाई। उसने हि० सन् 620 ( वि० सं० 1279 ) में ख़ासखाँ की मातहती में नहरवाले ( अनहिलवाड़ा, गुजरात की राजधानी ) पर फ़ौज भेजी, जो बड़ी लूट के साथ लौटी। सिंध से गुजरात पर चढ़ाई करने वाली सेना का मार्ग मेवाड़ में होकर था, इसलिये संभव है कि जैत्रसिंह ने उस सेना को अनहिलवाड़ा जाते या वहाँ से लौटते समय परास्त किया हो। जांगल के मुसलमानों से लड़ाई जांगल देश की पुरानी राजधानी नागोर (अहिछत्रपुर) थी। चौहान पृथ्वीराज के मारे जाने के बाद अजमेर, नागौर आदि पर, जहाँ पहले चौहानों का राज्य रहा, मुसलमानों का अधिकार हो गया। देहली के सुल्तान नासिरुद्वीन महमूद के वक्त में नागौर का इलाका गुलाम उलूगखाँ ( बलबन ) को जागीर में मिला था। ‘तबक़ाते नासिरी’ से पाया जाता है कि हि० स-651 ( वि० संवत् 1310 ) में उलूगखाँ अपने कुटुम्ब आदि सहित हाँसी में जा रहा था। सुल्तान के देहली में पहुँचने पर उलूगखाँ के शत्रुओं ने सुल्तान को यह सलाह दी कि हांसी का इलाक़ा तो किसी शाहज़ादे को दिया जावे और उलूग खां नागौर भेजा जावे। इस पर सुल्तान ने उसको नागोर भेज दिया। यह घटना जमादिउल-आखिर हि० स० 651 ( भाद्रपद वि० सं० 1310 ) में हुई। उलूगखां ने नागोर पहुँचने पर रणथंभौर, चित्तौड़ आदि पर फौज भेजी। तबक़ाते नासिरी में चित्तौड़ पर गई हुई फौज ने क्या किया, इस विषय में कुछ भी नहीं लिखा। इससे अनुमान होता है कि वह फौज हार कर लौट गई हो जैसा कि घाघसा तथा चिरवा के शिलालेखों से पाया जाता है कि जांगल वाले राजा, रावल जैत्रसिंह का मान-मर्दन न कर सके। उलूगखाँ की उक्त चढ़ाई के समय चित्तौड़ में राजा जैत्रसिंह का ही होना पाया जाता है। मालवा के राजा से रावल जैत्रसिंह की लड़ाई मेवाड़ से मिला हुआ बागड़ का इलाका रावल जैत्रसिंह के समय मालवा के परमार राजाओं के अधीन था और उस पर मालवा के परमारों की छोटी शाखा वाले सामंतों का अधिकार था। जैतसिंह के समय मालवे के राजा परमार देवपाल और उसका पुत्र जयतुगिदेव ( जिसको जयसिंह भी लिखा है)था। चिरवा के लेख से पाया जाता है कि राजा जेत्रसिंह ने तलारक्ष ( कोतवाल ) योगराज के चौथे पुत्र क्षेम को चित्तौड़ की तलरक्षता ( कोतवाल का स्थान, कोतवाली ) दी। उसको स्त्री हीरू से रत्न का जन्म हुआ। रत्न का छोटा भाई मदन हुआ जिसने अर्धृणा ( अर्धृणा, बाँसवाड़ा राज्य में ) के रणक्षेत्र में जैत्रसिंह के लिये लड़कर अपना बल प्रगट किया। अर्धृणा मालवा के परमारों के राज्य के अंतर्गत था और उनकी छोटी शाखा के सामन्तों की जागीर का मुख्य स्थान था। जैत्रकर्ण मालवा का परमार राजा जयतुगिदेव ( जयसिंह ) होना चाहिये जिसका मेवाड़ के रावल जैत्रसिंह का समकालीन होना ऊपर बतलाया गया है। अनुमान होता है कि जैतसिंह ने अपना राज्य बढ़ाने के लिये अपने पडोसी मालवा के परमारों के राज्य पर हमला किया हो और वह जयतुगिदेव ( जयसिंह ) जैत्रकर्ण से लड़ा हो। इसी समय के आसपास बागड पर से मालवा के परमारों का अधिकार उठ जाना पाया जाता है। गुजरात के राजा से लड़ाई चिरवा के उक्त लेख में यह लिखा है कि नागदा के तलारक्ष (कोतवाल) योगराज के दूसरे पुत्र महेन्द्र का बेटा बालक कोट्टडक ( कोटडा ) लेने में राणक ( राणा ) त्रिभुवन के साथ की लड़ाई में राजा रावल जैत्रसिंह के सामने लड़कर मारा गया और उसकी स्त्री भोली उसके साथ सती हुईं। त्रिभुवन ( त्रिभुवनपाल ) गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव दूसरे ( भोला भीम ) का उत्तराधिकारी था। भीमदेव ( दूसरे ) का देहान्त वि० सं० 1298 में हुआ। त्रिभुवन पाल ने प्रवचन परीक्षा के लेखानुसार चार वर्ष राज्य किया। इसके पीछे उक्त धोलका के राणा वीरधवल का उत्तराधिकारी बीसलदेव गुजरात का राजा बना। इसलिये गुजरात के राजा त्रिभुवनपाल से रावल जैत्रसिंह की लड़ाई वि० सं० 1298 और 1302 के बीच किसी वर्ष हुई होगी। चिरवा तथा घाघसा के शिलालेखों में गुजरात के राजा से लड़ने का जो उल्लेख मिलता है, वह इसी लड़ाई का सूचक है। मारवाड़ के राजा से रावल जैत्रसिंह की लड़ाई रावल जैत्रसिंह के समय मारवाड़ के बड़े हिस्से पर नाडौल के चौहानों का राज्य था। नाडौल के चौहान साँभर के चौहान राजा वाक्यतिराज (वप्पयराज) के दूसरे पुत्र लक्ष्मण ( लाखणसी ) के वंशधर थे। उक्त वंश के राजा आल्हण के तीसरे पुत्र कीर्तिपाल ( कीतु ) ने अपने भुजबल से जालौर का किला परमारों से छीन कर जालौर पर अपना अलग राज्य स्थिर किया। कीर्तिपाल के पौत्र और समर सिंह के पुत्र उदयसिंह के समय नाडौल का राज्य भी जालौर के अंतर्गत हो गया। इतना ही नहीं, किन्तु मारवाड़ के बड़े हिस्से अर्थात् नड्डूल ( नाडौल ) जवालिपुर (जालोर) माडव्यपुर [ मंडौर ] वाग्भट- मेरु [ बाहडमेर ] सूराचन्द, राटहद, खेड, रामसेन्य [ रामसेण ] श्रीमाल [ भीनमाल ] रत्नपुर [ रतनपुर | सत्यपुर [ साचौर ] आदि उसके राज्य के अंतर्गत हो गये थे। समर सिंह के समय के शिलालेख वि० सं० 1239 से 1242 तक के और उसके पुत्र उदयसिंह के समय के वि० सं० 1262 से 1306 तक के मिले हैं। उनसे पाया जाता है कि वि० सं० 1262 के पहले से लगाकर 1306 के पीछे तक मारवाड़ का राजा चौहान उदयसिंह ही था और वह मेवाड़ के राजा रावल जैत्रसिंह का समकालीन था। घाघसा के उपयुक्त शिलालेख में लिखा है कि शाकंभरीश्वर ( चौहान राजा ) उसका ( जैतसिंह का ) मान-मर्दन न कर सका। यह जैत्रसिह का जालौर के चौहान राजा उदयसिंह से लड़ना सूचित करता है। चिरवा के शिललेख में रावल जैत्रसिंह का मारव (मारवाड़ ) के राजा से लड़ना पाया जाता है और आबू के शिलालेख में स्पष्ट लिखा है कि “उस ( जेत्रसिंह ) की भुजलक्ष्मी ने नाइूल ( नाडौल ) को निमूल ( नष्ट ) किया था। कहने का मतलब यह है कि मेवाड़ के इतिहास में रावल जैत्रसिंह एक महा पराक्रमी राणा हो गये थे, जिन्होंने कई प्रबल और महान शत्रुओं को परास्त कर विजय लक्ष्मी प्राप्त की थी। इन महाराणा के महान पराक्रमों पर प्रकाश डालने का श्रेय हमारे परम पूज्य इतिहास-गुरु रायबहादुर पंडित गौरी शंकर ओझा को है। महाराणा जैत्रसिंह के बाद महाराणा रावल जैत्रसिंह जी के बाद उनके पुत्र महाराणा तेजसिह जी राज्य सिंहासन पर विराजे । विक्रम संवत 1317 से 1324 तक के इनके समय के बहुत से लेखादि मिले हैं। महाराणा तेजसिंह जी के बाद उनके कुंवर महाराणा समरसिंह जी राज्यासीन हुए। विक्रम संवत 1330 से लगाकर 1345 तक के इनके समय के कई लेख मिले हैं। तीर्थकल्प नामक प्रख्यात् जैन ग्रन्थ के क॒र्ता इनके समकालीन थे वे लिखते हैं कि “विक्रम संवत् 1356 में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के भाई उल्लूखा ने चितौड़ के स्वामी समरसिंह के समय मेवाड पर चढाई की, पर समरसिंह ने बड़ी बहादुरी के साथ चितौड़ की रक्षा की। पृथ्वीराज रासों में इनका जो वर्णन किया है, वह ऐतिहासिक दृष्टि से भूल भरा हुआ है। समरसिंह जी के बाद रत्नसिह जी मेवाड़ के राज्य-सिंहासन पर आरूढ़ हुए। इनके समय में अलाउद्दीन खिलजी ने चितौड़ पर चढ़ाई की। युद्ध हुआ और रत्नसिंह जी काम आये। इसी हमले में शिसोदिया वीर लक्ष्मण सिंह जी अपने सातों पुत्रों सहित मारे गये। चितौड़ पर अलाउद्दीन का अधिकार हो गया। मेवाड़ की ख्यातों में लिखा है कि लक्ष्मण सिंह के ज्येष्ठ पुत्र अरिसिंह भी इसी लड़ाई में मारे गये और छोटे पुत्र अजय सिंह घायल होकर बच गये थे। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:– [post_grid id=’13140′]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत के महान पुरूष उदयपुर का राजपरिवारउदयपुर के शासकमेवाड़ का राजवंशराजस्थान के वीर सपूतराजस्थान के शासक