रानी भवानी की जीवनी – रानी भवानी का जीवन परिचय Naeem Ahmad, March 19, 2018February 26, 2023 रानी भवानी अहिंसा मानवता और शांति की प्रतिमूर्ति थी। वे स्वर्ग के वैभवका परित्याग करने के लिए हमेशा तैयार रहती थी। परंतु अहिसा और मानवता को छोडना उन्हे गवारा नही था। रानी भवानी का जन्म सन् 1716 में बोगरा में हुआ था जो वर्तमान में बंगलादेश का हिस्सा है। भवानी के पिता का नाम आत्माराम चौधरी था जो एक गरीब गरीब ब्राह्मण थे। भवानी का विवाह आठ वर्ष की उम्र में ही रामाकांत के साथ हो गया था। रामाकांत नाटौर के उतराधिकारी थे। नाटौर के राजा ने उन्हे दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया था। रानी भवानी को पत्नी के रूप में पाकर रामाकांत का जीवन सफल हो गया था। उन दिनो नवाब और ईस्ट इंडिया कंपनी, दोनो बंगाल की हरी भरी धरती को उजाड रहे थे। नवाब के पद पर अलीवर्दी खां था। उसने मुगल शासन की कमजोरी का लाभ उठाकर सारे बंगाल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। मुर्शीदाबाद उसकी राजधानी थी। ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से वारेन हेस्टिंगस गवर्नर जनरल के पद पर प्रतिष्ठित था। वह बडी चालाकी से नवाब को अपने साथ मिलाकर बंगाल में अपने पैरो को मजबुत बनाता जा रहा था।बंगाल में बहुत सी छोटी छोटी हिंदू जमीदारियां और कई राज्य थे। जो अपनी अपनी आय के अनुसार नवाब को टैक्स दिया करते थे। उन्ही राज्यो में एक नाटौर नाम का राज्य भी था। नाटौर में रामाकांत का राज्य था। वह विलासी किस्म का व्यक्ति था और बुरे लोगो की संगत में पडकर बुरे कामो में लगा रहता था। राज्य की देखभाल उसकी पत्नी रानी भवानी मंत्री दयाराम की सहायता से किया करती थी। दयाराम बडा बुद्धिमान और स्वामीभक्त था। वह बडी ही सूझबुझ के साथ रानी की सहायता करता था।उस समय नाटौर राज्य की वार्षिक आय डेढ करोड थी। राज्य अपनी इसी आय से नवाब को टैक्स दिया करता था। एक बार जब टैक्स का धन लेकर राज्य कर्मचारी नवाब के पास जा रहे थे। तो मार्ग में डाकूओ ने उनसे धन लूट लिया।परंतु नवाब को तो टैक्स चाहिए था। टैक्स न मिलने पर उसके क्रोधित हो जाने का डर था। इधर राज्य के कोष मे धन नही था। रामांकांत की अय्याशियो और जुए की लत के कारण कोष का धन खत्म होता जा रहा था। अत: मंत्री दयाराम चिंतित हो उठे। रानी भवानी ने मंत्री की चिंता को दूर करते हुए कहा– चिंता की कोई बात नही। मै अपने बहुमूल्य आभूषणो को बेचकर नवाब का टैक्स चुका दुंगी। और रानी ने यही किया। उन्होने टैक्स चुकाने के लिए अपने सारे आभूषण बेच दिए।रानी भवानी की जीवनी मंत्री दयाराम के रहते हुए दुष्टो और चापलूसो की चल नही पाती थी। अत: दयाराम उनकी आखों में चुभता रहता था। वे उसे मंत्री पद से हटाने के लिए समय समय पर रामकांत के कान भरा करते थे। आखिरकार रामकांत उनकी बातो में आ ही गया। रानी के न चाहने पर भी उसने हितैषी दयाराम को मंत्री पद से हटा दिया। रानी ने रामकांत से बहुत कहा कि दयाराम को न हटाए परंतु उसने रानी की एक न सुनी। इधर चापलूसो ने दयाराम को मंत्री पद से हटवाया और उधर उन्होने नवाब के पास जाकर रामकांत के विरूद्ध नवाब के कान भर दिए। उन्होने नवाब से कहा– नाटौर राज्य की आय डेढ करोड से बहुत अधिक है। रामकांत टैक्स बचाने के लिए आय को छुपाता है। परिणाम यह हुआ की नवाब क्रोधित हो उठा। उसने टैक्स का धन वसूल करने के लिए नाटौर में अपनी सेना भेज दी। रामकांत को जब यह मालूम हुआ तो उसके हाथ पाव फूल गए। उसने रानी के साथ राजभवन का परित्याग कर दिया। उसके स्थान पर उसका चचेरा भाई नवाब की इच्छा से राजसिंहासन पर बैठा। रानी भवानी ने जिस दिन राजभवन का परित्याग किया। उस दिन देवी व्रत की तिथि थी। वे काली की अनन्य भक्त थी। वे उस दिन प्रतिवर्ष राज्य की सभी स्त्रियो को लाल रंग की साडिया और चूडियां प्रदान करती थी। पर उस वर्ष उन्हे राजभवन छोडकर जाना पड रहा था। उन्हे राजभवन छोडने की जरा भी चिंता नही थी। उन्हे चिंता थी तो अपने व्रत की। उनकी आंखे रह रह कर इस बात से गीली हो रही थी कि इस वर्ष उनका व्रत पूरा नही हो रहा। उनके साथ ही राज्य की सभी स्त्रियों की आंखे भी इस बात से भर भर आती थी। कि उनकी रानी को राज्य छोडकर जाना पड रहा है। रानी भवानी अपने पति के साथ राजभवन छोडकर वन में चली गई। वे भूखी प्यासी वन में इधर उधर भटकने लगी। वन में पेट भरने को न तो अन्न मिलता और न ही तन ढकने को वस्त्र। भाग्य की विडंबना ने रानी को दुखो की आग में झोंक दिया। तब भी वह धर्म और सत्य की रक्षा कर रही थी। संयोगवश एक दिन वन में ही रानी की भेंट आआनंदमठ के संन्यासियो से हुई। उन दिनो नवाब और अंग्रेजो के अत्याचारो से बंगाल की धरती को मुक्त कराने के लिए बंगाल के युवको ने संन्यासियो के वेश में वन में एक मठ स्थापित किया था–आनंदमठ। उनके हाथो में शास्त्र नही बल्कि शस्त्र थे। वे नवाब और अंग्रेजो की सेना पर छापे मारते थे। वे दोनो को बंगाल से भगा देना चाहते थे। वे गुरिल्ला युद्ध करने में बडे माहिर थे।संन्यासियो को रानी के राज्य छोडने की बात पहले ही मालूम हो चुकी थी। उनके मन में रानी के प्रति बडी सहानुभूति थी। रानी ने जब अपना परिचय संन्यासियो को दिया तो उन्होने रानी का बडा आदर किया। संन्यासियो ने उनसे कहा– संन्यासियो की सेना आपकी सहायता करने के लिए तैयार है। हम आपको पुन: आपका राज्यधिकार दिलाने के लिए तैयार है।बेगम हजरत महलझांसी की रानी का जीवन परिचयपरंतु रानी भवानी ने संन्यासियो की सहायता स्वीकार नही की। उन्होने कहा– नाटौर का राज्य क्या, यदि मुझे सारे संसार का राज्य भी मिले तो मै युद्ध नही चाहती।संन्यासियो ने रानी को बहुत समझाया, क्योकि बंगाल में नवाब और अंग्रेजो के अत्याचारो का अंत करने के लिए यह आवश्यक था कि नाटौर के राज्य पर पुन: रानी का अधिकार स्थापित हो। रानी ने जब संन्यासियो की बात नही मानी तो वे क्रुद्ध हो उठे। वे रानी और उसके पति को बंदी बनाने के लिए तैयार हो गए। रानी भवानी आवेश में आ गयी वे सिंह गर्जना करती हुई बोली– तुम सब संख्या में अधिक हो और मै हूं अपने पति के साथ अकेली, पर मेरा नाम भवानी है। मै सचमुच भवानी हूँ। भवानी की तरह प्रचंड हूँ। तुम सब में साहस हो, तो आगे बढो और हमे गिरफतार करो। तुम सब धर्मभ्रष्ट हो। तुम सब संयासी होकर भी शस्त्र धारण करते हो जबकि आपको धर्म प्रचार करना चाहिए। तुम्हे मानव कल्याण के लिए कार्य करने चाहिए। जबकि तुम सब इसके विपरित खून खराबा करते हो।संयासी रानी भवानी का रूद्र रूप देखकर भयभित हो उठे। उनके मन में रानी के प्रतिपहले से ही आदर था। ऊपर से रानी के रोद्र रूप व आत्मतेज ने उनके मन में रानी के प्रति आदर ओर बढ गया। संयासी विनती करते हुए बोले– हे रानी हम तो आपकी भलाई करना चाहते है। यदि आप नही चाहती तो हम नाटौरपर आक्रमण नही करेगें। हम वास्तविक संयासी नही है। हमने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए ही यह संयासी रूप धारण किया है। नवाब और अंग्रेज दोनो मिलकर हमारी मातृभूमि को अपना गुलाम बना रहे। हमारी ताकत इतनी नही है कि हम सिधे युद्ध में उनका मुकाबला कर सके। इसलिए हम संयासी के वेश में नवाब और अंग्रेजो के साथ गोरिल्ला युद्ध करके उन्हे नुकसान पहुचाते है। हमारा उद्देश्य पवित्र है। हमने सिर्फ अपनी मातृभूमि के लिए शस्त्र धारण किए है।संयासियो की बात सुनकर रानी भवानी मौन हो गई। वह फिर वहा से चली गई वन में कांटो भरे पथ पर चलने लगी। उनके कष्टों को देखकर रामाकांत के मन में रानी के प्रति सहानुभूति उत्पन्न होने लगी। एक दिन उसने सहानुभूति स्वर में कहा– तुम राजभवन में दास दासियो के बीच में रहती थी। परंतु आज मेरे कारण तुम्हे इस पथरीले वन में भटकना पड रहा है। मै तुम्हारा दोषी हूँ।इस पर रानी ने कहा- माता सीता ने भी तो श्रीराम के साथ वन में जाकर कष्ट सहन किया था। जिस लिए सीता ने श्रीराम के साथ वन में जाकर कष्ट सहन किए थे उसी लिए में भी तुम्हारे साथ वन में घूम रही हूँ। जिसे आप मेरे लिए कष्ट कहते है वह मेरे लिए परम सुख है।रानी और रामाकांत दोनो कई वर्षो तक वन में भटकते रहे। एक दिन दोनो भटकते भटकते मुर्शिदाबाद जा पहुंचे और मसताब राय के आश्रम में रहने लगे।ऊधर दयाराम को इस बात का बहुत दुख हुआ कि रानी और रामाकांत राजभवन छोडकर चले गए। रामांकात के स्थान पर उनके चाचा का पुत्र देवीप्रसाद राजसिहांसन पर बैठ गया था। दयाराम राज्य की भलाई के लिए प्रयत्न करने लगा। उसने मुर्शिदाबाद जाकर नवाब अलीवर्दी खां को समझाया परंतु इसका कुछ परिणाम नही निकला। अलीवर्दी खां की मृत्यु के बाद उसका पोता उतराधिकारी बना। दयाराम ने उससे मिलकर उसे रामाकांत के पक्ष में करने का प्रयत्न किया परंतु इस बार भी बात नही बनी। सिराजुद्दौला के बाद मीर जाफर बंगाल का नवाब बना। दयाराम ने एक बार फिर कोशिश की इस बार दयाराम अपनी कोशिश में कामयाब हुआ। वह मीर जाफर को रामाकांत के पक्ष में करने में कामयाब है गया। देवीप्रसाद को नाटौर के राजसिंहासन से उतार दिया गया। अब नाटौर का खाली राजसिंहासन रानी और रामांकात की प्रतिक्षा करने लगा।दयाराम रानी और रामाकांत की खोज करने लगा। आखिर उसकी यह खोज कामयाब हुई महताब राय के आश्रम में वह दोनो उसे मिल गए। दयाराम बडे ही सम्मान के साथ उन दोनो को नाटौर ले आया और राजसिंहासन पर बिठाया। नाटौर की जनता रानी भवानी की वापसी पर बहुत खुश हुई। वहा की जनता रानी भवानी को सचमुच भवानी मानकर श्रद्धा पूर्वक उनकी पूजा करती थी। कुछ दिनो बाद मराठो ने बंगाल पर आक्रमण किया। युद्ध में युद्ध में रामाकांत मारा गया। रानी विधवा हो गई। एक लडकी को छोडकर उनके और कोई संतान न थी। लडकी भी विवाह होने के बाद विधवा हो गई थी। रानी का जीवन पुनः दुखो से घिर गया था। वृद्ध मंत्री दयाराम बडी चतुराई और सूझबूझ से राजकार्यो की देखभाल किया करता था।रानी भविष्य में राज्य का उतराधिकारी कौन होगा? इस बात को लेकर ज्यादा चिंतित रहती थी। उन्होने दयाराम की सलाह से रामकृष्ण नामक एक लडके को गोद ले लिया। रामकृष्ण बडा सुयोग्य और होनहार था। जब वस बडा हुआ तो रानी उसे राज्य सौपकर काशी चली गई।काशी विश्वनाथ की यात्रारानी लगभग तीस सालो तक काशी में रही। उन्होने काशी में मंदिर और कुएं बनवाए। मंदिरो में अन्नपूर्णा और गोपालराय मंदिर उन्ही के बनवाए हुए है। उन्होने काशी में जगह जगह वृक्ष भी लगवाए जिनमे से कुछ वृक्ष आज भी काशी में मौजूद है। और अपनीई शीतल छाया से लोगो को लाभ पहुंचाते है।नाटौर की जनता रानी के बिना बडी दुखी थी। वह रानी के दर्शन के लिए लयलित हो उठी थी। जनता के आग्रह पर रानी वृद्धावस्था में वापस नाटौर चली आई। उन्होने नाटौर में ही 1795 में अपना शरीर छोड दिया।Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to 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