रवीन्द्रनाथ टैगोर की जीवनी – Rabindranath tagore biography Naeem Ahmad, August 29, 2018April 9, 2024 रवीन्द्रनाथ टैगोर, यह वो नाम है, जो भारतीय जनमानस के ह्रदयों में गुरूदेव के नाम से भी सम्मानित है। रवीन्द्रनाथ एक महान कवि साहित्यकार, शिक्षाविद, चित्रकार, संगीत विशारद, नाटककार और राष्ट्रवादी विचारों वाले थे। महाकवि गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को विश्व का एकमात्र ऐसा कवि माना जाता है, जिन्होंने अपनी रचनाओं में प्रकृति, जीवन और मनुष्य के बीच निर्मल, कोमल और अति संवेदनशील भावनाओं का ऐसा सामंजस्य स्थापित किया है। जिसकी तुलना विश्व के किसी भी कवि या उसकी रचनाओं से नही की जा सकती है।सन् 1913 का वह गौरवमयी दिन भला कौन भारतीय भुला सकता है, जब रवीन्द्रनाथ टैगोर को साहित्य के क्षेत्र में भारतीय इतिहास का पहला नोबेल पुरस्कार दिया गया। रवीन्द्रनाथ टैगोर भारत को पहले वो व्यक्ति थे जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था।रवीन्द्रनाथ टैगोर के पूर्वज माना जाता है कि रवीन्द्रनाथ टैगौर के पूर्वज बंगाल के मूल निवासी नहीं थे। वे पांच कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में से एक थे, जिन्हें प्राचीन राजा आदिशूर ने कन्नौज से बुलाकर बंगाल में पर्याप्त सम्मान और सम्पत्ति सहित प्रतिष्ठित कराया था। बंगाल में ब्राह्मणों को सम्मानपूर्वक ठाकुर कहा जाता था। अतः इन्हें भी ठाकुर कहकर पुकारा जाने लगा, जो आगे चलकर इनकी वंश परम्परा में उपनाम के रूप में प्रचलित हो गया। फिर अंग्रेजों के द्वारा भाषायी उच्चारण भेद के कारण ठाकुर को टैगोर कहा जाने लगा, और यह ठाकुर परिवार टैगोर के नाम से भी जाना जाने लगा।चक्रवर्ती विजयराघवाचार्य का जीवन परिचय हिन्दी मेंरवीन्द्र नाथ टैगोर के दादा द्वारकानाथ ठाकुर थे, जो अपने समय के बहुत जाने माने धनी, प्रतिष्ठित जमींदार और उद्योगपति थे। ब्रिटिश शासन द्वारा भी उनको बहुत सम्मान प्राप्त था। और उन्हें प्रिंस की उपाधि भी प्रदान की गई थी। वह पहले बंगाली थे, जिन्होंने यूरोपीय लोगों के साथ मिलकर वर्ष 1829 में यूनियन बैंक की स्थापना की थी।द्वारकानाथ ठाकुर के पुत्र देवेन्द्रनाथ ठाकुर थे। जो रवींद्रनाथ टैगोर के पिता थे। देवेन्द्रनाथ ठाकुर को भारत के पुनर्जागरण काल में बंगाली समाज का वह महान नेतृत्वकर्ता माना जाता है। जिन्होंने अपने दर्शन, अध्यात्म, मानवतावादी विचारों और महान समाजसेवी उद्देश्यों के माध्यम से तत्कालीन बंगाली समाज में व्याप्त अनेक कुरितियों व बुराइयों को दूर किया। उनके इन्हीं महान कार्यों के लिए उन्हें महर्षि की उपाधि से सम्मानित किया गया था।लाला लाजपत राय का जीवन परिचय हिन्दी मेंदेवेन्द्रनाथ ठाकुर जन कल्याण के विभिन्न कार्यों से जुडे हुए थे। वे निरंतर समाजिक और धार्मिक सुधारों के लिए प्रयत्नशील रहते थे। अपने इन्हीं उद्देश्यों के लिए वे निरंतर भ्रमण भी करते थे। ऐसे ही एक भ्रमण काल मे उन्होंने रायपुर स्टेट के अंतर्गत बोलपुर नामक एक निर्जन स्थान में सन् 1863 में जमीन का एक टुकडा खरीदा और वहां शांति निकेतन आश्रम की स्थापना की। यह वही शांति निकेतन आश्रम था, जिसे आगे चलकर रवींद्रनाथ टैगोर ने विश्वस्तरीय और विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय और विश्वभारती शिक्षा संस्थान के रूप में पुनस्र्थापित किया था। रवीन्द्रनाथ टैगोर रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 6 मई सन् 1861 को जोडासांको (कोलकाता) के उनके पैतृक भवन में हुआ था। रवींद्रनाथ टैगोर की माता का नाम शारदा देवी था। अपने माता-पिता की चौहदवीं संतान के रूप में जन्मे रवीन्द्रनाथ को उपलब्धियों और गुणों की जो महान विरासत अपने पिता से प्राप्त हुई थी, अपने बडे भाइयों और बहनों से भी उन्हें लगभग वही सब कुछ संस्कारों में प्राप्त हुआ था। रवीन्द्र नाथ के सबसे बडे भाई का नाम द्विजेन्द्र नाथ ठाकुर था। जो एक कवि और दार्शनिक थे। उनसे छोटे भाई का नाम सत्येन्द्रनाथ था, जो कि अत्यंत मेधावी थे, उन्होने इंग्लैंड से शिक्षा प्राप्त कर भारतीय सिविल सर्विस (आई.सी.एस) के प्रथम भारतीय सदस्य बनकर लौटे। उनके एक भाई ज्योतिरीन्द्रनाथ थे, जो संगीत विशारद और नाटककार थे। उनकी एक बहन स्वर्ण कुमारी अपने समय की प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित लेखिका थी। उनके अन्य भाई बहनो में से दो भाई और एक बहन बचपन में ही स्वर्गवासी हो गए थे।एनी बेसेंट का जीवन परिचय हिन्दी मेंरवीन्द्र नाथ टैगोर की मां शारदा देवी जो स्वयं बडे धार्मिक और शील विचारों वाली आदर्श गृहिणी थी। वो भी अपने बच्चों के लिए एक कुशल संरक्षिका सिद्ध हुई थी। देवेन्द्रनाथ ठाकुर हर प्रकार से सुविधा सम्पन्न और समृद्ध व्यक्ति थे, किंतु उन्होंने कभी अपने बच्चों पर इस समपन्नता और विलासिता की कुछाया नहीं पडने दी। यही कारण था कि रवीन्द्रनाथ टैगोर का पालन-पोषण भी एक समान्य बच्चे की भांति ही हुआ था।रवींद्र नाथ टैगोर की प्रारंभिक शिक्षा रवीन्द्र नाथ टैगोर की विद्वता, विलक्षण काव्य प्रतिभा और शिक्षा के क्षेत्र में दिए गए, उनके अविस्मरणीय योगदान को देखते हुए भला कौन कह सकता है कि प्रारम्भ से ही स्कूली शिक्षा और रवीन्द्र नाथ के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा था। स्वयं उनके संस्मरणों में उनकी प्रारंभिक शिक्षा के विषय में लिखी बातों से तो यही प्रतीत होता है। जब रवीन्द्र नाथ की आयु शिक्षा प्राप्त करने की हुई तो उनका दाखिला ओरियंटल सेमीनरी नामक बंगला भाषी स्कूल में करा दिया गया। इस स्कूल का माहौल, छात्र और अध्यापक तीनो ही रवीन्द्र नाथ को बुरे लगे। न तो अध्यापकों को पढाने मे ही कोई रूची थी और न ही छात्रो को पढ़ने में। इस स्कूल के अध्यापकों के साथ भी बालक रवींद्रनाथ को कुछ कडवे अनुभव हुए। जिन्होंने पहले से ही स्कूली शिक्षा के प्रति उदासीन रवीन्द्र नाथ को स्कूली शिक्षा से और भी विमुख कर दिया। तब एक दिन ऐसा भी आया जब रवींद्रनाथ ने स्कूल जाने से साफ मना कर दिया। कुछ समय के लिए उनके बडे भाई हेमेन्द्र नाथ ने ही घर पर उनकी शिक्षा दीक्षा का जिम्मा संभाला। इसके कुछ समय पश्चात उनका दाखिला बंगाल एकेडमी में करा दिया गया।रासबिहारी घोष का जीवन परिचय हिन्दी मेंबंगाल ऐकेडमी अंग्रेजी भाषा-संस्कृति पर आधारित एक एंग्लो-इंडियन स्कूल था। बंगला भाषा-संस्कृति के बिल्कुल विपरीत यह अंग्रेजी स्कूल भी बालक रवीन्द्रनाथ को शिक्षा के प्रति आकर्षित न कर सका। उस समय रवीन्द्रनाथ टैगोर की आयु लगभग 7 वर्ष की हो गई थी, जब उनको बंगाल ऐकेडमी से निकालकर नॉर्मल स्कूल में दाखिल करा दिया गया। यह पूर्ण रूप से भारतीय सभ्यता, संस्कृति और बंगाली भाषायी नॉर्मल स्कूल था। इसी स्कूल में पढतें समय रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने जीवन की पहली कविता की रचना की थी। मात्र 7वर्ष की आयु के बालक द्वारा रचित कविता को देखकर उनके शिक्षक और परिजन हैरान रह गए। यह कविता उन्होने बंगाली भाषा मे लिखी थी।रामानुज संप्रदाय की पीठ, परिचय, प्रवर्तक, नियम व इतिहासरवीन्द्रनाथ के पिता का यह सोचना था कि, रवींद्रनाथ को बंगला भाषा से अधिक जोर अपनी अंग्रेजी शिक्षा पर देना चाहिए। इसीलिए उन्होंने स्कूली शिक्षा के साथ साथ अब रवीन्द्रनाथ को घर पर ही एक अंग्रेजी अध्यापक द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था कर दी थी। यद्यपि बालक रवींद्रनाथ को यह सब बिल्कुल पसंद नही था, परंतु पिता की इच्छा और उनकी आज्ञा का तनिक भी विरोध करने की बात तो वे सपने में भी नही सोच सकते थे।एक तो नॉर्मल स्कूल की पढाई, दूसरा घर पर अंग्रेजी भाषा का अध्ययन और इस पर भी एक और नई मुसीबत आ खडी हुई। उस समय कोर्ट कचहरी का सभी काम फारसी भाषा में होता था, अतः रवीन्द्रनाथ भी अपनी जायदाद, व्यवसाय और उससे जुडे मामलो को समझ सके, इसलिए उनके पिता ने उनके लिए घर पर ही एक फारसी भाषा का अध्यापक भी नियुक्त कर दिया।कवि के रूप मे पहचान यह तो स्पष्ट ही हो चुका था कि रवीन्द्रनाथ को स्कूली शिक्षा में रूची नही थी। तब उनकी भावनाओं का ख्याल रखते हुए, उनकी शिक्षा का प्रबंध घर पर ही करा दिया गया था। ज्ञानचंद्र भट्टाचार्य, राम सर्वस्व भट्टाचार्य और ब्रजनाथ डे जैसे अपने जमाने के योग्यतम शिक्षकों के मार्गदर्शन में उन्होंने संस्कृत, बंगला और अंग्रेज़ी साहित्य के साथ साथ विज्ञान, इतिहास, कला आदि सभी विषयों में दक्षता प्राप्त कर ली थी।रामानुज संप्रदाय की पीठ, परिचय, प्रवर्तक, नियम व इतिहासइस सबके साथ साथ उनका कविता लेखन भी निरंतर प्रगति पर था। मात्र 15 वर्ष की आयु में ही उनकी सर्वप्रथम काव्य कृति “कवि कथा” के नाम से भारती पत्रिका में प्रकाशित हुई। हांलाकि कुछ लोगो का मानना है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रथम कविता “भारत भूमि” थी। जो सन् 1874 मे बंग दर्शन में प्रकाशित हुई थी। इसके तुरंत बाद ही उनहोंने प्रकृति खेद के नाम से लिखी कविता को विद्वानों की सभा में भी पढ़ा, जो प्रकाशित भी हुई थी। “वन फूल” नामक उनका काव्य संग्रह भी इन्ही दिनो प्रकाशित हुआ था। उस समय जब लेखन, सम्पादन और प्रकाशन बडे लोगों और विद्वानों का काम समझा जाता था। मात्र 15-16 वर्ष की आयु मे ही रवींद्रनाथ ने इन सभी विद्याओं में अपनी पहचान स्थापित कर दी थी। प्रथम विदेश यात्रा रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक गतिविधियाँ निरंतर बढ़ती ही जा रही थी, कि सन् 1877 में उनके बडे भाई उन्हें अपने साथ इंग्लैंड ले गए। सत्येन्द्रनाथ चाहते थे कि रवीन्द्र उच्च शिक्षा और वकालत की डिग्री प्राप्त करें।16 वर्ष की आयु मे यह रवींद्रनाथ की पहली विदेश यात्रा थी। इंग्लैंड मे रवीन्द्रनाथ का दाखिला पहले एक पब्लिक स्कूल और फिर यूनिवर्सिटी कालेज लंदन में कराया गया। पिता और बडे भाई की इच्छा का मान रखते हुए, रवीन्द्रनाथ ने लगभग डेढ़ वर्ष का समय इंग्लैंड में बिताया तो सही, परंतु उनका मन वहां भी अपनी काव्य रचना और विदेशी संस्कृति को परखने और समझने में ही लगा रहा।यही कारण था कि न तो उन्होंने वहां अपना कोई पाठ्यक्रम ही पूरा किया और न ही कोई व्यावसायिक योग्यता या डिग्री प्राप्त की।संत बुल्ला साहब का जीवन परिचय हिंदी मेंनवम्बर 1878 में रवीन्द्रनाथ टैगोर भारत लौटे। और बिना समय गवाएं वह तुरंत साहित्य साधना में जुट गए। और “भग्न ह्रदय” नामक एक अत्यंत भावमयी काव्य की रचना करके प्रकाशित कराई। सन् 1881 मे उन्होंने “वाल्मीकि प्रतिभा” नामक एक संगीत नाटिका लिखी। उसके बाद 1883 में “प्रभात संगीत लिखी। 1881 से 1883 तक के समय में रवींद्रनाथ की काव्य रचनाओ ने बंगला साहित्य में धूम मचा दी थी। रवींद्रनाथ टैगोर का विवाह दिसंबर 1884 को 23 वर्ष की अवस्था में रवीन्द्रनाथ टैगोर का विवाह मृणालिनी देवी नामक एक सुंदर सुशील कन्या से हुआ। विवाहोपरांत रवींद्रनाथ अपनी साहित्य साधना के साथ साथ अपने पिता की विशाल सम्पत्ति की देख रेख और उनके सामाजिक क्रियाकलापों में भी रूची लेने लगे थे। यह और बात है कि उनका लेखन कार्य तनिक भी न रूका। वर्ष 1887 मे रवींद्रनाथ गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) गए, और वहा के प्राकृतिक सौंदर्य के वशीभूत होकर अपनी रचना “मानसी” के अधिकांश पद्य वही लिखे थे। सन् 1890 से 1892 के बीच अपने पिता की दी हुई व्यावसायिक जिम्मेदारियों को कुशलता पूर्वक निभाते हुए, उन्होंने “राजा ओ रानी” नामक नाटक लिखा, जो उच्च कोटि के नाटको मे गिना जाता है। शांति निकेतन की स्थापना अब तक समूचे बंगाल में अपनी रचनाओं और लेखो के माध्यम से कला, साहित्य, दार्शनिक और राजनैतिक भावनाओं का केन्द्र सा बन चुके रवींद्रनाथ ने अपने पिता देवेन्द्रनाथ की सहमति से बोलपुर स्थित शांति निकेतन में एक आवासीय स्कूल स्थापित किया। शीघ्र ही यह उनकी समस्त गतिविधियों का केन्द्र भी बन गया। कलकत्ता विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राणाली से घृणा करके उन्होंने अपना यह शांति निकेतन पूर्ण रूप से भारतीय संस्कृति के अनूकूल स्थापित किया था। वास्तव मे यह भारत की प्राचीन और गौरवमयी परंपरा से जुडा “ब्रह्माचर्याश्रम” था। इस विद्यालय मे उनके मुख्य सहयोगी बने ” ब्रह्मा बांधव उपाध्याय” जो कि रोमन कैथोलिक वेदांत संन्यासी दोनों ही थे। इन्हीं ब्रह्मा बांधव ने ही सर्वप्रथम रवीन्द्रनाथ टैगोर को विश्व कवि की उपाधि से विभूषित किया था। रवींद्रनाथ टैगोर के विपदा के दिन सन् 1902 में जब रवीन्द्रनाथ शांति निकेतन को भारत का ही नही, बल्कि विश्व का श्रेष्ठतम शिक्षा केंद्र बनाने के साथ साथ उपन्यास लेखन के कार्य में भी जुटे थे, उनकी पत्नी मृणालिनी देवी उन्हे और तीन छोटे बच्चों को छोडकर रोगग्रस्त हो चल बसी। अब रवींद्रनाथ ही अपने दो पुत्रो रथीन्द्रनाथ और समीन्द्रनाथ तथा एक पुत्री मीरा के माता पिता दोनों बन गए। तीनों बच्चे अपने पिता के साथ शांति निकेतन में रहते थे। उनकी दो अन्य बेटियबेटियो माधुरीलता और रेणुका का विवाह पहले ही हो चुका था। सन् 1903 में उनका उपन्यास “दिरेक”अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ। यह वह समय था, जब रवीन्द्रनाथ अपनी पत्नी के वियोग से उभरते हुए, अपने लेखन और शैक्षणिक कार्यों के साथ साथ देश में तेजी से जोर पकड रहे राष्ट्रीय आंदोलन से भी सक्रिय रूप से जुडने लगे थे। वह ठीक से अपने पिछले सदमे से उभर भी न पाए थे कि, सन् 1904 मे उनकी विवाहित पुत्री रेणुका चल बसी। और सन् 1905 में उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर का भी देहांत हो गया। इन दोनो सदमो से ठीक से उभर भी न पाए थे की एक बार फिर उन पर दुखो का पहाड टूट पडा। सन् 1907 मे उनका पुत्र समीन्द्रनाथ असमय ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। एक के बाद एक इन दुखों ने रवीन्द्रनाथ टैगोर को झकझोर कर रख दिया था, लेकिन इस महाकवि ने इस दुखो के पहाड को अपनी लेखनी के माध्यम से बोना साबित कर दिया। “कथा” और “स्मरण” नामक रचना उनकी इसी समय रचित रचनाओं में से है। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:–इंदिरा गांधी की जीवनीकमला नेहरू की जीवनीरानी कर्णावती की जीवनी नोबेल पुरस्कार की प्राप्ति सन् 1912 मे रवीन्द्रनाथ टैगोर इंग्लैंड की यात्रा पर गए। और वहां अनेक विद्वानों, और बुद्धिजीवियों से मिले। जो उनकी प्रतभा के कायल हो गए। अपनी इंग्लैंड और वही से अमेरिका की इस यात्रा में रवीन्द्रनाथ की भेंट पाश्चात्य भाषा के अनेक विद्वानों से हुई, वही उन्होंने उनके आग्रह पर अनेक भाषण भी दिए।डब्ल्यू. वी. यीट्स जिन्होंने रवींद्रनाथ की महान काव्य रचना “गीतांजलि” का अंग्रेजी अनुवाद किया था। शायद उन्होंने भी यह नही सोचा होगा कि रवीन्द्रनाथ की यह रचना जो बंगाल की गीता के रूप में सामने आई, वैश्विक साहित्य के परिदृश्य पर इस प्रकार छा जाएगी कि विश्व की महानतम काव्य रचना के रूप में, यह रवीन्द्रनाथ टैगोर को विश्व के सर्वाधिक प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार का अधिकारी बनाएगी। अक्टूबर 1913 मे रवीन्द्रनाथ भारत लौटे, नवंबर 1913 में यह शुभ समाचार पूरे विश्व में प्रसारित हो गया कि, उस वर्ष का विश्व का सबसे बडा साहित्यिक पुरस्कार भारत के इस महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर को दिया गया है।नोबेल पुरस्कार के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब किसी भारतीय को किसी क्षेत्र में इस पुरस्कार के लिए चुना गया था। भारत जैसे देश के लिए जो कि, उस समय अपनी गुलामी के विरुद्ध, स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु संघर्षों से जूझ रहा था। यह एक ऐसी उपलब्धि थी जिसका वर्णन भी कर पाना कठिन है। रवीन्द्रनाथ टैगोर का स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान सन् 1917 में जब अपनी विदेश यात्रा से वे भारत लौटे, तो उन्हें लगा कि जिस दुनिया के आस-पास वे लगातार घूम रहे है। अपने देश को भी उन्हीं की पंक्ति में खडा किया जाना चाहिए।रवीन्द्रनाथ जानते थे कि इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सबसे पहले आवश्यक है कि भारत स्वतंत्रत हो। उस समय देश का राजनीतिक माहौल उथल पुथल से भरा था। देश का एक वर्ग जहां बातचीत के जरिए स्वतंत्रता प्राप्त करने की चेष्टा मे लगा था, वही एक वर्ग सशस्त्र क्रांति के द्वारा यह लक्ष्य प्राप्त करने में जुटा था। यही वह समय था जब सन् 1918 में हुए भयानक जलियांवाला कांड और ब्रिटिश शासन द्वारा जबरन रौलट एक्ट पास करने के विरोध स्वरूप रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस, और अरविंद घोष, जैसे राष्ट्रीय नेताओं के संपर्क में आएं। और अपने भाषणों और लेखो के माध्यम से ब्रिटिश शासन और उसकी दमनकारी नीतियों की घोर निंदा की। और ब्रिटिश शासन द्वारा उन्हें प्रदान की गई “नाइटहुड” और “सर” की पदवी को लौटा दिया। सन् 1921 में उन्होंने शांति निकेतन में विश्वभारती सोसायटी का गठन करके, इस संस्थान को एक विशिष्ट समारोह में राष्ट्र को समर्पित कर दिया। महात्मा गांधी पहले वह व्यक्ति थे जिन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर को “गुरूदेव” कहकर संबोधित किया था। जब सन् 1914 में गांधी जी पहली बार शांति निकेतन आकर रवीन्द्रनाथ से मिले थे, तो रवीन्द्रनाथ उनकी अनेक बातो से सहमत भी हुए थे। तभी से प्रत्येक वर्ष 10 मार्च का दिन आश्रम में “गांधी पुण्याह” के रूप में स्वयं सेवा करके मनाया जाता है। सन् 1931 में जब गांधी जी के आंदोलन के साथ साथ चटगांव (बंगाल) के क्रांतिकारी युवको के सशस्त्र विद्रोह से सारा देश आंदोलित था। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय जनता मे भेदभाव और मनमुटाव उत्पन्न करने के लिए “कम्यूनल अवार्ड” की घोषणा कर दी। इसके विरोध में गांधी जी यरवदा जेल में अनशन पर बैठ गए। गांधी जी के इस आत्मत्याग के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर तुरंत ही गांधी जी से मिलने गए।तब एक समझौते के अनुसार गांधी जी ने अपना अनशन समाप्त किया और रवीन्द्रनाथ ने उनके लिए एक मरमस्पर्शी गीत गाया। रवीन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु अपनी व्यस्त दिनचर्या में भी रवीन्द्रनाथ ने कभी भी अपनी बढती उम्र को अपने ऊपर हावी नही होने दिया। परंतु शरीर के भीतर ही भीतर पनपती कमजोरी का अनुभव उन्हें होने लगा था। सितंबर 1940 को वह कलिपांग घूमने गए। वही अचानक वे बीमार पड गए। यह बीमारी उनकी बढती उम्र , काम का दबाव और परिवारिक दुखो का परिणाम थी। जिसने अंत तक उनका पिछा नही छोडा। वे शांति निकेतन लौट आए। परंतु उनकी हालत निरंतर बिगडती जा रही थी। उनकी इच्छा के अनुसार उन्हे शांति निकेतन से कोलकाता उनके पैतृक घर (जोडासांको) लाया गया। वही 7 अगस्त सन् 1941 को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अंतिम सांस ली। और देश को राष्ट्र गीत ‘जन गण मन, देने वाले इस महाकवि के जयकारों से पूरा देश गूंज उठा।संत गुलाल साहब का जीवन परिचय हिंदी मेंदोस्तों रवीन्द्रनाथ टैगोर की जीवनी, रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय पर आधारित हमारा यह लेख आपको कैसा लगा हमें कमेंट करके जरूर बताएं। यह जानकारी आप अपने दोस्तों के साथ सोशल मिडिया पर भी शेयर कर सकते है। हमारा यह लेख रवींद्रनाथ टैगोर पर निबंध लिखने के लिए भी छात्रो के लिए मददगार है।Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत के महान पुरूष जीवनीनोबेल पुरस्कार