मोती बाग गुरुद्वारा हिस्ट्री इन हिन्दी – गुरुद्वारा मोती बाग साहिब का इतिहास Naeem Ahmad, June 20, 2021March 11, 2023 मोती बाग गुरुद्वारा दिल्ली के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। गुरुद्वारा मोती बाग दिल्ली के प्रमुख गुरुद्वारों में से भी एक है। यह गुरुद्वारा आऊटर रिंग रोग पर धौला कुआं के पास स्थित हैं। गुरुदारे की खुबसूरत ऐतिहासिक सफेद इमारत दूर से ही दिखाई पड़ती है। बड़ी संख्या में पर्यटक और श्रृद्धालु यहां दर्शन के लिए आते है। मोती बाग गुरुद्वारा कि अपनी एक हिस्ट्री है। मोती बाग गुरुद्वारे के इतिहास पर नजर डालें तो पता चला है कि—- मोती बाग गुरुद्वारा हिस्ट्री इन हिन्दी जब सिख धर्म के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज ने जब 21 अक्टूबर 1706 में दक्षिण भारत यात्रा के लिए पंजाब से प्रस्थान किया। मार्च 1707 में राजपूताना के राज्य में पहुंचे, उसी स्थान पर उनको औरंगजेब की मृत्यु का समाचार मिला। उन्हें एक समाचार शहजादा बहादुर शाह जफर से गुरु जी को यह मिला कि उनको नैतिक सहयोग प्रदान करे।शहजादा बहादुर शाह जफर औरंगजेब का तीसरा पुत्र था जो औरंगजेब का राज्य हासिल करने का प्रयत्न कर रहा था। 10 जून 1707 को गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने रेजिमेंट के कमांडर कुलदीप सिंह के नेतृत्व में सेना को बहादुर शाह की मदद के लिए भेजा। जब बहादुर शाह और शाह आलम की लड़ाई निणार्यक दौर में थी, उसी समय गुरु गोबिंद सिंह जी उस लड़ाई में शामिल हो गये। बहादुर शाह ने इस लड़ाई में विजय प्राप्त की तथा युद्ध में सहयोग करने वाले कुलदीप सिंह को सम्मानित किया और उनको 60 लाख रूपये के हीरे भेंट किए। बहादुर शाह से गुरु गोबिंद सिंह की मित्रता और प्रगाढ़ हो गई। गुरु गोबिंद सिंह जी पुनः दिल्ली आये और बरसात के चार महिने वहीं गुजारे दिल्ली में बहादुर शाह के साथ कई बैठक गुरु गोबिंद सिंह जी की। आज जहां मोती बाग गुरुद्वारा स्थापित है गुरु गोबिंद सिंह जी यही रूके थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख धर्म को मजबूत करने के लिए अपना काफी समय यहां बिताया। गुरुद्वारा मोती बाग साहिब गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज की तीरंदाजी की कुशलता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी सेना के साथ इस स्थान पर डेरा डाला था। पहले इसे मोची बाग के नाम से जाना जाता था और बाद में इसका नाम बदलकर मोती बाग कर दिया गया। जब गुरु गोबिंद सिंह, एक कुशल धनुर्धर, दिल्ली पहुंचे, तो गुरु साहिब ने एक संदेश के साथ लाल किले की ओर तीर चलाकर अपने आगमन की घोषणा की। राजकुमार मुअज्जम (बाद में बहादुर शाह) लाल किले पर अपने सिंहासन पर बैठे थे। गुरु गोबिंद सिंह का तीर उस सिंहासन के पैर में लगा, जिस पर वे बैठे थे। बहादुर शाह ने तीर के प्रहार की दूरी और सटीकता को चमत्कार माना। अचानक एक दूसरा तीर सिंहासन के दूसरे पैर से टकराता हुआ आया। उसके साथ एक पत्र भी था, जिसमें लिखा था, “यह कोई चमत्कार नहीं है, बल्कि तीरंदाजी का कौशल है!” कहा जाता है कि बादशाह इससे इतना प्रभावित हुआ कि उसने तुरंत गुरु साहिब की सर्वोच्चता को स्वीकार कर लिया।देवहरी जहां से गुरु गोबिंद सिंह ने तीर चलाए थे, उसे संरक्षित किया गया है और गुरु गोविंद सिंह के शानदार तीरंदाजी के सम्मान में गुरु ग्रंथ साहिब को वहां स्थापित किया गया है। अब भी देवहरी (द्वार) के ऊपर से दिल्ली के क्षितिज और लाल किले को लगभग 6.5 मील की दूरी से देखा जा सकता है। सिख समर्थनगुरु गोबिंद सिंह को पहले से ही राजकुमार के बारे में अच्छी प्रवत्ति का जानते थे, जिसने आनंदपुर साहिब में हमले में भाग लेने से इनकार करके अपने पिता की नाराजगी अर्जित की थी। पंजाब में गुरु की गतिविधियों को दबाने के लिए राजकुमार को मुगल सम्राट द्वारा प्रतिनियुक्त किया गया था। राजकुमार मुअज्जम को दक्कन में शिवालिक पहाड़ियों के प्रमुखों से गुरु के खिलाफ चौंकाने वाली रिपोर्ट मिली थी। लेकिन राजकुमार ने पहाड़ी प्रमुखों द्वारा भेजी गई झूठी रिपोर्टों की निष्पक्ष जांच करने के बाद सम्राट को लिखा था कि गुरु गोबिंद सिंह एक दरवेश (पवित्र व्यक्ति) है और असली संकट पहाड़ी राजा थे। अपने पिता की आज्ञा के विरोध में राजकुमार को कुछ समय जेल में बिताना पड़ा। औरंगजेब शत्रुतापूर्ण बना रहा औरंगजेब ने अपने बेटे की लिखी बातों पर विश्वास नहीं किया और सच्चाई का पता लगाने के लिए अपने चार सर्वश्रेष्ठ सेनापतियों को भेजा था। इन सेनापतियों ने यह भी बताया कि गुरु ने किसी के खिलाफ कुछ नहीं किया और अपने शहर राज्य में एक संत जीवन व्यतीत किया। वास्तव में उन्होंने कुछ उपद्रव करने वालों को भी दंडित किया जो गुरु के लिए समस्याएँ पैदा कर रहे थे। हालाँकि, 1704 में, आनंदपुर साहिब को राजपूत पहाड़ी प्रमुखों की संयुक्त सेना और मुगल सेना ने पूरी ताकत से घेर लिया गया था, जब औरंगजेब ने पहाड़ी शासकों और मुगल राज्यपालों के विचार पर गुरु को उनके गढ़ से हटाने का फैसला किया। एक भीषण युद्ध हुआ, तमाम कोशिशों के बाद भी हिन्दू और मुगल की संयुक्त सेना गुरु गोबिंद सिंह जी के किले में प्रवेश न कर पायी। किले को फतह करता देख दुश्मन सेना ने एक समझौता किया। हिन्दू राजाओं और मुगलों ने समझौता तोड़ा गुरु गोबिंद सिंह और हिन्दू राजाओं तथा मुगल सेना के बीच समझौता हुआ था कि गुरु गोबिंद सिंह अपना किला छोड़ने को तैयार है। इसके बदले उन्हें और उनके सिखों को सुरक्षित किले से बाहर जाने का मार्ग दिया जाये। तथा दुश्मन सेना ने अपने अपने मजहब की शपथ लेकर गुरु और उनके सिखों को सुरक्षित निकलने का मार्ग देना तय हुआ। किंतु दुश्मन सेना ने ‘पवित्र शपथ’ को नजरअंदाज करते हुए, चालबाजी से घेराबंदी कर गुरु गोबिंद सिंह पर हमला कर दिया, भीषण युद्ध हुआ जिसमें गुरु ने अपने चार बेटों, उनकी मां और अपने कई सिखों को खो दिया, लेकिन हमलावर दुश्मन सेना को भी बहुत भारी नुकसान हुआ। हालाँकि, गुरु गोबिंद सिंह की मुगल सम्राट के सबसे बड़े बेटे के प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी और वह उत्तराधिकार की लड़ाई में उनकी मदद करने के लिए सहमत हो गए। दिल्ली के सिखों ने एक नया गुरुद्वारा भवन बनाया है। वह पुराना भवन जहां से दसवें गुरु ने लाल किले पर दो बाण चलाए थे, वह आज भी बरकरार है। हर साल, श्री गुरु ग्रंथ साहिब की गुरु के रूप में पहली स्थापना की वर्षगांठ पर गुरुद्वारा मोती बाग साहिब में हजारों हिंदुओं और सिखों द्वारा बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। वे गुरु ग्रंथ साहिब और गुरु गोबिंद सिंह को श्रद्धा के साथ याद करते है। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:—– [post_grid id=”6818″] Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत के प्रमुख धार्मिक स्थल ऐतिहासिक 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