मल्हराराव होलकर का जीवन परिचय Naeem Ahmad, November 9, 2022 होल्कर राज्य के मूल संस्थापक मल्हारराव होलकर का उदय महाराष्ट्र साम्राज्य के प्रकाशमान दिनों में ही हुआ था। नवयुवक मल्हारराव होलकर ने महान पेशवा बाजीराव से महाराष्ट्र धर्म का पवित्र मन्त्र सीखा था। इसका यह प्रभाव था कि होल्कर राजवंश हमेशा से स्वतन्त्रता और आत्म-सम्मान आदि उच्च गुणों का पुजारी रहा है। अगर सूक्ष्म दृष्टि से होल्कर राज्य के सच्चे इतिहास का अवलोकन किया जाये तो यह प्रतीत हुए बिना न रहेगा कि भारत वर्ष के इतिहास में इस गौरवशाली राजवंश ने स्वतन्त्रता, स्वाधीनता ओर राष्ट्र सम्मान की रक्षा के लिये जो जो महान कार्य किये थे, वैसे कार्य बहुत कम राजवंशों ने किये होंगे। राष्ट्रीय दृष्टि से, साम्राज्य संगठन की दृष्टि से, तथा समय सूचकता और राजनीतिज्ञता की दृष्टि से, होल्कर राजवंश का इतिहास प्रायः अद्वितीय है। हम तो बड़े अभिमान के साथ यों कहगें कि मल्हारराव होलकर, तुकोजीराव प्रथम, प्रात:स्मरणीया अहिल्याबाई तथा तुकोजीराव द्वितीय-इनके नाम भारतवर्ष के इतिहास के पन्नों को तब तक शोभायमान करते रहेंगे जब तक कि संसार में हिन्दू वीरत्व, स्वदेश भक्ति, राज्य-संगठन का अद्भुत ससामर्थ्य तथा उच्च श्रेणी की राजनीतिज्ञता का आदर और पूजा होती रहेगी। मल्हराराव होल्कर का जीवन परिचय होलकर वंश बहुत पहले वीरकर-वंश के नाम स प्रसिद्ध था। होलकर वंश की उत्पत्ति के लिये भिन्न भिन्न इतिहासवेत्ताओं के भिन्न भिन्न मत हैं। कुछ लोग इन्हें प्रख्यात राठौड़ वंश से इनकी उत्पत्ति मानते हैं। पर इस संबंध में ओर अधिक ऐतिहासिक अनुसन्धान की अभी आवश्यकता है। अतएव हम इसके निर्णय का भार भावी इतिहास वेत्ताओं पर छोड़ कर आगे बढ़ते हैं।होल्कर राजघराने के पूर्वज गोकुल ( मथुरा ) के रहने वाले थे। उनकी जाति धनगर थी। मथुरा से आकर वे पहले पहल चित्तौड़ में बसे। चित्तौड़ से वे दक्षिण के औरंगाबाद जिले में जा बसे ओर कुछ अरसे तक वहाँ रहे। इसके बाद वे पूना से 40 मील पर पुल्टन परगने में, नीरा नदी के किनारे बसे हुए होलगाँव में रहने लगे। होलगाँव में बस जाने ही के कारण इस वंश का नाम होल्कर पड़ा । पहले इस वंश का नाम जैसा हम ऊपर कह चुके हैं वीरकर था। होल्कर राज्य को जन्म देने का यश मल्हारराव को है। मल्हराराव होल्कर जन्म 1694 के अक्तूबर मास में हुआ। इनके पिता का नाम खण्डूजी था। खण्डूजी होलगांव के चौगुले अर्थात् सहायक पटेल थे। वे खेती आदि से अपनी गृहस्थी चलाते थे। मल्हराराव उनके एकलौते बेटे थे। वे मल्हारराव को चार पाँच वर्ष की अनजान अवस्था में छोड़ परलोकवासी हुए। इसके बाद मल्हारराव की माता अपने भाई बन्धुओं के झगड़ों से तंग आकर अपने भाई भोजराज बारगल के यहाँ चली गई। भोजराज खानदेश के तल्लोदा नामक गाँव के जमींदार थे। जब मल्हारराव कुछ बड़े हुए तब उनके मामा ने उन्हें भेड़ें चराने का काम सौंपा। मल्हारराव कई दिन तक यह काम करते रहे। इसी बीच में एक चमत्कारिक घटना हुईं जिससे मल्हारराव के समुज्ज्वल भविष्य पर प्रकाश पड़ा। कहा जाता है कि एक समय सूर्य की कड़ी धूप से घबराकर मल्हारराव रास्ते में सो रहे थे। ऊपर से सूर्य भगवान अपनी सहसू किरणों से अग्नि बरसा रहे थे। इतने में एक भुजंग वहाँ आया और उसने मल्हारराव के मुखमण्डल पर अपने फन से छाया कर दी। जब मल्हारराव उठे तब उन्होंने देखा कि एक वृहदाकार भुजंग सूर्य की धूप से उनकी रक्षा कर रहा हैे। यह अनूठा हाल भोजराज के कानों तक पहुँचा। उन्होंने इन्हें भाग्यवान समझ इनसे भेड़ व बकरियाँ चराने का काम लेना बन्द कर दिया। उन्होंने अपनी 25 सवारों की सेना में, जो सरदार कदमबांड़े की सेवा में तैनात रहती थी, इनको भी भर्ती कर लिया। इन्होंने फौज में भर्ती होने पर बहुत जल्द अपने में सिपाहियों के गुण सिद्ध कर बताये। इन्होंने एक लड़ाई में निजाम-उल-मुल्क के एक सरदार का सिर बड़ी ही वीरता से काटा। इस वीरता से उनका नाम बहुत बढ़ गया। इनके मामा भोजराज ने प्रसन्न होकर अपनी लड़की गोतमाबाई का विवाह मल्हारराव होलकर साथ कर दिया। इसके कुछ समय बाद प्रथम बाजीराब पेशवा ने इनको सरदार कदमबांडे से माँगकर 500 घुड़सवारों का सेना-नायक नियुक्त किया। इसी समय निजाम उल मुल्क दिल्ली के बादशाह से स्वतन्त्र होकर अपने राज्य की स्थिति मजबूत करने में लगा हुआ था। दिल्ली के तत्कालीन मुगल सम्राट ने इससे भय खाकर मालवे का चार्ज राजा गिरधर को सौंप दिया था। इसी राजा गिरधर से मराठों का किस प्रकार मुकाबला हुआ और विजयी मराठों ने किस प्रकार मालवा पर अपनी राज-सत्ता कायम की इसका विस्तृत वर्णन आगे दिया जाता है। मल्हराराव होल्कर मल्हराराव होलकर का मालवा विजय हम ऊपर कह चुके है कि छत्रपति महाराज शिवाजी ने संसार में हिन्दू संस्कृति और हिन्दू धर्म का विजयी डंका बजाने के लिये भारत वर्ष में एक महान हिन्दू साम्राज्य की नींव रखी थी और उन्हीं के वीर वंशज इसका विस्तार करने में तन, मन, धन से लगे हुए थे। यहाँ यह दुहराने की आवश्यकता नहीं कि तत्कालीन मुगल शासन के वीभत्स अत्याचारों से लक्षावधि हिन्दू जनता में त्राहि त्राहि मची हुई थी। हिन्दू जनता बे तरह हैरान थी और वह मुगल शासन से अपना छुटकारा करना चाहती थी। मालवा की जनता भी मुगल शासन के अत्याचारों से बहुत दुखी थी। इससे वीर मराठों को हिन्दू साम्राज्य की कल्पना को मृत स्वरूप देने में विशेष सफलता हुई। अन्य प्रान्तों की तरह उन्होंने आर्य सभ्यता और आर्य संस्कृति के मुकुटमणि कहलाने वाले तथा महाराजा विक्रमादित्य और महाराजा भोज का वास स्थान मालव देश को मुगल शासन से छुड़ा कर महाराष्ट्र साम्राज्य में सम्मिलित करने का निश्चय किया। उन्होने मालवा के महत्वपूर्ण प्रवेशद्वारों पर सहज ही में अधिकार कर लिया। यह कार्य वीरवर मल्हारराव होल्कर तथा पँवार आदि सरदारों ने किया। सर जॉन माल्कम महोदय कहते हें कि औरंगजेब के साथ युद्ध शुरू होते ही उस तंग करन के उद्देश्य से मराठों ने मालवे पर आक्रमण करने शुरू कर दिये। सन् 1690 के एक पुराने पत्र से मालूम होता है कि मराठों के आक्रमण के कारण उस साल मालवे की पैदावार में बहुत कमी हो गई थी। औरंगजेब के अत्याचारों से तंग आकर कई राजपूत राजा उसके शत्रु को मदद करने लगे थे, और यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इन्हीं राजपूत राजाओं की सहायता और प्रेरणा से मराठों ने मालवे में प्रवेश किया था। सन् 1698 में ऊदाजी पवाँर ने मालवा में प्रवेश कर माण्डवगढ़ में मराठों का विजयी का झंडा फहराया था। पर उस समय वे वहाँ राज्य कायम न कर सके थे। जयपुर के तत्कालीन महाराजा सवाई जयसिंह का मुगल दरबार सें बड़ा प्रभाव था। पर उस समय हिन्दुओं पर जो अत्याचार होते थे उन्हें उनका अन्तः करण सहन नहीं कर सका था। वे भीतर ही भीतर बड़ी चतुराई के साथ मुगल शासन की नींव उखाड़ देने का पड़यन्त्र रच रहे थे। उनकी प्रेरणा से मालवे के जमींदार व बुन्देल राजपूत औरंगजेब के अत्याचारों को स्मरण कर मराठों के अनुकूल हो गये थे। बाजीराव का अतुलनीय पराक्रम देखकर लोग उन्हें अपना नेता मानने लगे थे और बाजीराव के प्रधान सहायक होल्कर, सिन्धिया और पवार की बहादुरी और राजनीतिज्ञता के कारण मालवा विजय में बड़ा सुभीता हुआ। दूसरे शब्दों में यों कह लीजिये कि मालवा विजय का श्रेय प्रधान रूप से मल्हारराव होल्कर, राणोजी सिन्धिया और ऊदाजी पँवार को था। मुगल बादशाही के पतन-काल में जुदा जुदा प्रान्तों के शासक किसी न किसी उपाय से स्वतन्त्र होने का प्रयत्न कर रहे थे। इस परिस्थिति का लाभ बाजीराव तथा मल्हारराव होलकर आादि महानुभावों ने बहुत ही अच्छी तरह उठाया। मालवे के तत्कालीन शासक गिरघर बहादुर व दया बहादुर का उद्देश भी स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने का था, पर इसमें वे सफल न हो सके। इसका कारण यह था कि वे बड़े अत्याचारी थे। प्रजा उनसे बहुत तंग थी। राजजपूत और मराठों से उनकी तनिक भी नहीं पटती थी। उनकी ओर जनता का मनोबल( Moral force ) बिलकुल नहीं था और यह एक राजनीति का सर्वमान्य सिद्धान्त है कि जिस शासन के खिलाफ संगठित जनमत है वह एक न एक दिन बालू की दीवाल की तरह गिर पड़ता है। महाराज जयसिंह जी भी इनसे बड़े नाराज थे और उन्हें यह बात बहुत बुरी लगी थी कि ये लोग हिन्दू होकर हिन्दुओं पर अत्याचार कर रहे हैं। इसलिये उन्होंने खास तौर से मराठों को मालवा में निमन्त्रित किया। मालवे के प्रधान जमीदार नन्दलाल मण्डलोई दया बहादुर के अत्याचारों से तंग आ गये थे। इसलिये उन्होंने भी मराठों को खुले हाथ से सहायता दी। सुप्रख्यात इतिहास लेखक श्रीयुत देसाई का मत है कि नन्दलाल को वश करने का काम मल्हारराव होल्कर ने प्रधान रूप से किया था। नन्दलाल के साथ जयपुर के महाराज जयसिंह जी का भी अच्छा स्नेह था। सन् 1720 के बाद मल्हारराव होलकर और नन्दलाल के बीच जो पत्र-व्यवहार हुआ था उससे प्रतीत होता है कि होल्कर ने मालवा विजय करने का प्रयत्न बालाजी विश्वनाथ की मौजूदगी में शुरू कर दिया था। वे इसके लिये अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न कर रहे थे। मुगल शासन तथा मुगल सम्राट के हाकिमों के खिलाफ़ जितनी शक्तियाँ थी उनका उन्होंने बड़ी अच्छी तरह संगठन कर लिया था। इन शक्तियों से मल्हारराव ने मैत्री का सम्बन्ध स्थापित कर लिया था। इस समय मल्हारराव तथा उनके अन्य कुछ सहयोगियों ने जिस नीति का अवलम्बन किया था उससे यह स्पष्ट प्रकट होता था कि वह न केवल ऊँचे दर्जे के वीर ही थे पर राजनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने प्राप्त अवसर से बड़ी ही स्फूर्ति के साथ लाभ उठाया जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं। जयपुर के महाराज सवाई जयसिंह जी तथा इन्दौर के तत्कालीन प्रभावशाली व्यक्ति नन्दलाल जी मण्डलोई तो इनकी ओर थे ही पर इनके द्वारा उन्होंने मालवा के अन्य छोटे मोटे जागीरदारों को भी अपने पक्ष में मिला लिया था। इससे मालवा-विजय में उन्हें सफलता हुईं। अब हम उन युद्धों का थोड़ा सा वर्णन करते है जो मालवा विजय के लिये मराठों को करने पड़े थे। सारंगपुर का युद्ध ( सन् 1724 ) मालवा विजय के लिये मराठों को जो सब से पहला युद्ध करना पड़ा वह सारंगपुर का युद्ध था। यह युद्ध मालवा के तत्कालीन मुगल प्रतिनिधि राजा गिरधर के साथ हुआ था। यहाँ पर राजा गिरधर के विषय में दो शब्द लिख देना अनुचित न होगा। तत्कालीन मुगल सम्राट के दरबार में स्वपराक्रम से जिन थोड़े से हिन्दू मुसद्दियों ने प्रख्याति प्राप्त की थी उनमें से राजा गिरधर भी एक था। यह अलाहाबाद का निवासी था। इसने मुगल सम्राट की बड़ी बड़ी सेवाएँ की थीं। जब सम्राट ने यह देखा कि निज़ाम-उल मुल्क की लोभी दृष्टि मालवा पर गिरना चाहती है तब उन्होंने राजा गिरधर को मालवे का सूबेदार नियुक्त कर दिया। इस नियुक्ति में पहले पहल जयपुर के महाराज सवाई जयसिंहजी तथा जोधपुर कि महाराज अजीत सिंह जी का भी हाथ था। अव्र्हिन लिखता है कि “वास्तविक रूप से तो सम्राट ने मालवा और आगरा प्रान्त की व्यवस्था जयसिंह के ही सिपुर्द की थी पर आगरा प्रान्त जयपुर के पास होने से वहाँ की शासन-व्यवस्था तो स्वयं महाराज जयसिंह जी देखने लगे ओर मालवा की शासन-व्यवस्था के लिये उन्होंने राजा गिरधर को भिजवाया। पर गिरधर जयसिंह जी की मंशा के खिलाफ आचरण करने लगा। जयसिंहजी को पहले पहल यह आशा थी कि गिरधर हिन्दू होने से हिन्दुओं पर अत्याचार न करेगा, पर उनकी यह आशा निराशा में परिणत हो गई। राजा गिरधर ने हिन्दुओं पर जुल्म करना शुरू किया। उसके जुल्मों से हिन्दू प्रजा और हिन्दू जागीरदार सब के सब तंग आ गये। यह बात हिन्दू-धर्म प्रेमी महाराजा जयसिंह जी को अच्छी न लगी। उन्होंने नन्दलाल मण्डलोई की माफ़त बातचीत कर मराठों को मालवा में निमन्त्रित किया। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि महाराष्ट्र फौजों ने मालवे पर कूच किया। सन् 1724 में राजा गिरधर और मराठों के बीच सारंगपुर मुकाम पर एक भीषण युद्ध हो गया। इसमें मल्हारराव होलकर और चिमाजी आपा का प्रधान हाथ था। इसमें राजा गिरधर मारा गया, मराठों की विजय हुईं ओर मालवा-विजय का प्रथम दृश्य समाप्त होकर दूसरे दृश्य का आरम्भ हुआ। तिरला की लड़ाईराजा गिरधर के पतन के बाद अगले दो वर्ष तक बाजीराव पेशवा तथा मल्हारराव होलकर प्रभृति महानुभावों का ध्यान निजाम की ओर झुका। पेशवा ने मालवा से अपनी सेना वापस बुला ली। दिल्ली के तत्कालीन मुगल सम्राट ने दया बहादुर को गिरधर के स्थान पर मालवा का शासक नियुक्त किया। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सब युद्धों में नवयुवक मल्हारराव ने असाधारण वीरता और अलौकिक चतुरता का परिचय दिया। उन्होंने अपनी अद्भुत कारगुजारी से पेशवा को बहुत ही प्रसन्न कर लिया। पेशवा ने खुश होकर सन् 1728 में इन्हें मालवा के 12 जिले जागीर में दिये। सन 1731 में पेशवा की इन पर और भी कृपा हुईं और अबकी बार उन्होंने इन्हें मालवे का बहुत सा मुल्क दे डाला। इस समय मल्हारराव मालवे में 82 जिलों के मालिक हो गये। सारंगपुर के युद्ध के तीन वर्ष बाद पेशवा ने अपने भाई चिमाजी और मल्हारराव के संचालन में फिर मालवे में सेना भेजी। इस समय मुगल सम्राट की ओर से दया बहादुर मालवा का शासन करता था। यह भी बड़ा जुल्मी था। मालवे के लोग इससे भी बड़े अप्रसन्न थे। सर जॉन माल्कम साहब को नन्दलाल मण्डलोई के किसी वंशज से दया बहादुर के शासन समय की जो जानकारी प्राप्त हुई थी उसके आधार से उन्होंने अपने Memories of central India part 2 में लिखा है:— “सम्राट मुहम्मदशाह के शासन काल में जब मुगल साम्राज्य के टुकड़े टुकड़े हो रहे थे और दिल्ली सम्राट की शक्ति बड़ी शीघ्रता से क्षीण हो रही थी उस समय मालवे में दया बहादुर नाम का एक ब्राह्मण सूबेदार था। उस समय मुगल साम्राज्य में जो महान अन्धाधुन्धी और भ्रष्टता फेल रही थी, उसका शान्तिमय किसानों और मजदूरों पर बड़ा ही बुरा प्रभाव हो रहा था। वे हर एक छोटे छोटे अधिकारी के अत्याचारों से बुरी तरह पिसे जा रहे थे। मालवा के ठाकुर, किसान ओर छोटे छोटे मातहत रइसों पर दयाबहादुर और उसके एजन्टों के बड़े बड़े जुल्म हो रहे थे। उन पर कई प्रकार के अमानुषिक कर लगा दिये गये थे और वे बुरी तरह लूटे जा रहे थे। इन लोगों ने दिल्ली के सम्राट के पास अपनी फ़रियाद भेजी और अपने दुःख मिटाने के लिये उनसे प्राथना की। उस समय का सम्राट मुहम्मदशाह बड़ा कमज़ोर ओर विषय-लम्पट था। वह दिन रात ऐशो-आराम में अपने आपको भूला हुआ रहता था। जब इस फ़रियाद का कोई नतीज़ा नहीं हुआ तब मालवे के राजपूत राजाओं ने अपनी आँख जयपुर के सवाई जयसिंहजी की ओर फेरी ओर उनसे अपना दुःख मिटाने की अपील की। जयसिंह जी उस समय उन अत्यन्त शक्तिशाली राजाओं में से एक थे जो बादशाह की फरमा बरदारी के लिये मशहूर थे। पर कहा जाता है कि बादशाह की कृतघ्रता से जयसिंह जी की इस राज भक्ति में बहुत कुछ कमी आ गई थी। उन्होंने ( जयसिंह जी ने ) पेशवा बाजीराव से गुप्त पत्र-व्यवहार करना शुरू किया और मुसलमान साम्राज्य को किस प्रकार उलट देना इसके मन्सूबे होने लगे। जिन मालवे के राजपूत राजाओं ने जयसिंहजी के पास अपने दुःखों की शिकायत की थी। उन्हें जय सिंह जी ने यह आदेश किया कि वे मराठों को मालवे पर आक्रमण कर मुगल शासन को उलट देने के लिये निमन्त्रित करें। राव नन्दू- लाल चौधरी उस समय एक बड़ा धनवान और प्रभावशाली जमींदार था। उसके पास पैदल और घुड़सवारों की 2000 फौज थी जिसे वह अपनी जागीर से तनख्वाह देता था। नर्मदा के भिन्न भिन्न घाटों की रक्षा का भार भी उसी पर था। इसीलिए मराठों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने ओर उन्हें मालवे के आक्रमण में सहायता करने का भार उसे सौंपा गया था। पेशवा की सेना ने बुरहानपुर के पास अपना पड़ाव डाल रखा था। यहाँ से मल्हारराव 12000 सेना को साथ लेकर आगे बढ़े। राव नन्दलाल ने अपना वकील भेजकर मालवे में प्रवेश करने के लिये उनका स्वागत किया और उन्हें विश्वास दिलाया कि उनकी सेना के लिये ये नर्मदा के घाट खोल देंगे इतना ही नहीं; प्रत्युत सारे जमींदार इस आक्रमण में उनकी सहायता करेंगे। यह आश्वासन पाकर मराठो सेना आगे बढ़ी। उसने अकबरपुर नामक घाट के मार्ग से नर्मदा को पार किया। जब इस बात की खबर दया बहादुर को लगी तो उसने अपनी सेना के साथ प्रस्थान करके टांडा जाने वाले मार्ग पर पड़ाव डाल दिया। उसकी धारणा थी कि शत्रु सेना इसी मार्ग द्वारा मालवे में प्रवेश करेगी। पर उसका यह अनुमान गलत निकला। महाराष्ट्र सेना मालवे के जमींदार और प्रजागण की सहायता से बिना किसी प्रकार की बाधा के भैरव घाट के मार्ग से मालवे में आ धमकी। धार और अमझरा के बीच तिरला नामक स्थान पर इसका दया बहादुर की सेना से मुुकाबला हुआ। दया बहादुर इस युद्ध में मारा गया और उसकी सेना तितर-बितर हो गई। इसी समय से मालवे में मराठों की सत्ता स्थापित हुई। मराठों ने मालवे के प्राचीन ठाकुरों ओर जमींदारों की जागीरें उन्हीं के अधिकार में रहने दीं। उनके साथ शर्तें भी वे ही कायम रहीं जोकि उनकी मुगल सम्राट के साथ थीं। मुगल आधिपत्य में ये जमींदार जिस प्रकार चूस जाते थे अब उससे मुक्त हो गये। मुग॒लों द्वारा नियुक्त किये गये तमाम अमलदार और अधिकारी गण हटा दिये गये और उसके स्थान में मराठों के आदमियों की नियुक्ति हुई। हाँ, जिन जमींदारों ने मराठों का आधिपत्य स्वीकार नहीं किया वे अपनी जागीरों से च्युत कर दिये गये और उनके स्थान में उन जागीरों का अन्य वास्तविक अधिकारी नियुक्त कर दिया गया। मराठों के आगमन से तमाम हिन्दू सरदार और जनता के दुःखों का अन्त हो गया। मालवे पर मराठों का विजयी झंडा उड़ने लगा। अब वहा मुग़ल हुकूमत की जगह पेशवा की हुकूमत हो गई। फिर पेशवा ने मालवा को मल्हारराव होलकर, राणोजी सिन्धियां ओर परमार सरदार के बीच बांट दिया। इन महानुभावों ने बड़ी ही उत्तमता के साथ मालवे का शासन किया। सन् 1737 में पेशवा ने उत्तर हिन्दुस्तान की चढ़ाई में मल्हारराव होलकर को भी साथ लिया था। जब तत्कालीन मुगल सम्राट ने सुना कि महाराष्ट्र फौजें दिल्ली पर चढ़ आ रही हैं, तब उन्होंने निजाम को सहायता के लिये बुलाया। निजाम 3400 सेना और एक जंगी तोपखाना लेकर मुग़ल सम्राट की सहायता के लिये चले। इस समय निजाम के पास तीस हजार पैदल सेना ओर ऊँचे दर्जे का तोपखाना था। कई बुन्देले राजा भी अपनी सेना सहित आकर मिल गये थे। धामोनी ओर सिरोंज होती हुईं निजाम की सेना भोपाल के सुप्रसिद्ध तालाब के किनारे पहुँची । निजाम ने अपने दूसरे पुत्र नासिरजंग को बाजीराव पेशवा को रोकने का हुक्म दिया। कहने की आवश्यकता नहीं कि नासिरजंग को असफलता हुईं। सुसज्जित महाराष्ट्र सेना भी नर्मदा नदी लाँघकर निजाम के मुकाबले के लिये चल पड़ी। भोपाल मुकाम पर दोनों का मुकाबला हुआ। इसमें निजाम की सेना बुरी तरह से हारी। वह वीर मराठों के सामने अपना टिकाव न कर सकी। निजाम ने सेना सहित भाग कर पास ही के एक किले में आश्रय लिया। मराठों ने भोपाल पर घेरा डाला। इसी बीच में खबर लगी कि मुग़ल कोर्ट का एक बड़ा सरदार सफदरखाँ ओर कोटा के राजा निजाम की सहायता पर आ रहे हैं। जब मल्हारराव ने यह सुना तो उन्होंने जसवन्त राव पवार की सहायता लेकर उनका मार्ग रोका । दोनों फौजों में युद्ध हुआ। मल्हारराव की भारी विजय हुई। विपक्षी सेना के कोई 1500 आदमी काम आये। अब निजाम ने विजय की सारी आशा खो दी। भोपाल का घेरा बराबर 27 दिन तक रहा, इस बीच में निजाम सेना की बड़ी दुर्दशा हुईं। न तो उसके पास खाने का सामान रहा और न फौजी सामान। आखिर सब तरफ से मजबूर होकर निजाम ने मराठों के हाथ आत्म समर्पण किया। इस समय मराठों और निजाम के बीच जो सन्धि हुई वह मराठों की ज्वल्यमान विजय और निजाम की भारी पराजय की स्पष्ट द्योतक है। अव्हिन अपने (Latter Mughal) के दूसरे भाग पृष्ट 305 में लिखता है कि “निजाम ने अपने हाथ से बाजीराव को लिख कर दिया कि अब से सारे मालवे पर आपका अधिकार रहेगा और में आपको सम्राट से 50 लाख रुपया नकद दिलवाने की कोशिश करूँगा।” कहना न होगा कि इस विजय से मराठों का चारों ओर बोलबाला होने लगा। उनका जबदस्त दबदबा जम गया। सन् 1739 में मल्हारराव होलकर पोर्च्युगीजों के ख़िलाफ़ चिमनाजी आपा की सहायता करने के लिये भेजे गये। ये पोर्चुगीज़ लोग सैकड़ों वर्षों से हिन्दुओं को राक्षसी यन्त्रणाएँ दे रहे थे। मराठों ने इनके साथ युद्ध किया। मराठों की विजय हुईं। बसीन के किले पर उनकी विजय ध्वजा फहराने लगी। इस समय से मल्हारराव की कीर्ति ध्वजा दूर दूर पर फहराने लगी। सन् 1743 में बूंदी के राजा उम्मेद सिंह जी की माता ने जयपुर नरेश ईश्वरी सिंह जी के खिलाफ़ उनकी सहायता करने के लिये मल्हारराव होलकर को निमन्त्रित किया। इसका कारण यह था कि बूंदी की बहुत सी जमीन पर ईश्वरी सिंह ने अन्याय पूर्वक अधिकार कर लिया था। लखारी मुकाम पर जयपुर और मराठों की फौजों का मुकाबला हुआ। इसमें जयपुर की फौजें बुरी तरह हारी। इसके बाद मल्हारराव ने जयपुर के महाराजा से बूंदी के महाराजा के लिये उस मुल्क की सनद प्राप्त की, जिसके लिये यह सब झगड़ा बखेड़ा खड़ा हुआ था। सन् 1743 में जयपुर के माधवसिंह जी की माता ने मल्हारराव से प्रार्थना की कि वे उनके पुत्र साधवसिंह को जो राज्य का वास्तविक अधिकारी है गद्दी दिलाने में सहायता दें। उन्होंने महाराजा मल्हारराव को यह भी समझाया कि किस प्रकार इश्वरी सिंह अन्याय पूर्वक गद्दी का मालिक बन बैठा। इस पर मल्हार॒राव ते माधवसिंह को राज्य गद्दी पर बिठाने के लिये सेना सहित कूच किया। ईश्वरीसिंह ने जब मल्हारराव की चढ़ाई का समाचार सुना तब विजय की कोई आशा न देख आत्महत्या करली। इससे माधवसिंह को राज्यगद्दी मिल गई। इस सहायता के उपलक्ष में माधवसिंह ने मल्हारराव को रामपुर, भानपुर के परगने दे दिये। इतना ही नहीं उन्होंने इन्हें साढे तीन लाख रुपया प्रति साल खिराज का देना कबूल करते हुए, 7600000 रुपया एक मुश्त भी दिया। सन् 1746-47 में मल्हारराव ने अजयगढ़, कालिंजर और जौनपुर के युद्धों में आसाधारण वीरत्व और अलौकिक कार्य पटुता प्रकट की। इससे पेशवा आप पर बहुत ही प्रसन्न हुए। आपकी बड़ी प्रशंसा होने लगी। सन् 1751 में मल्हारराव होकर कुर्की नदी के किनारे वाले युद्ध में पेशवा के साथ थे, जिसमें निजाम ने बुरी तरह शिकस्त खाई थी। इसमें भी मल्हारराव होलकर ने आसाधारण वीरत्व प्रकट किया था। सन् 1751 में अवध का नवाब सफ़दरजंग मराठों से मिला और उसने उनसे प्रार्थना की कि वे रोहिलों से अवध की रक्षा करें।मराठों ने यह बात स्वीकार कर ली। इस कार्य का भार विशेष रुप से मल्हार राव के सुपुर्द किया गया। अतएव रोहिलों के खिलाफ जो युद्ध हुआ, उसमें मल्हारराव ने खास तौर से भाग लिया। इस समय मल्हारराव के पास शत्रु सेना के मुकाबले में बहुत कम सेना थी। सीधी तरह से लड़ने में विजय की आशा बिलकुल नहीं थी अतएव मल्हारराव ने अपनी बुद्धि दौड़ाकर एक अजब युक्ति ढूंढ निकाली। उन्होंने कट्ठे हजार ढोर मँगवा कर उनके सींगों में इस युक्ति से छोटी छोटी जलती हुई मशालें बन्धवा दीं कि जिससे उन ढोरों को हानि न पहुँचे। फिर उन ढोरों को एक विशिष्ट दशा में भड़का दिया गया। ये ढोर जिस ओर भगकर गये उस ओर शत्रु सेना को हजारों प्रकाश चिन्ह दिखलाई देने लगे। रोहिलों ने देखा कि विपक्षयों की सेना तो अपार है, वे भयभीत होकर कर्तव्य विमूढ़ हो गये। वे प्रकाश चिन्हों की ओर देखने लगे। पीछे से मल्हारराव ने अन्धेरे में शत्रु पर एकाएक हमला कर दिया। बस रोहिले घबरा गये। वे बेतहाशा होकर इधर उधर भागने लगे। इस वक्त शत्रुओं का बहुत सा सामान मल्हारराव के हाथ लगा। सन् 1752 में मल्हारराव होलकर का निजाम के साथ भालकी मुकाम पर फिर युद्ध हुआ। इसमें भी निजाम की हार हुई।सन् 1754 में मराठों ने भरतपुर के राजा पर जो चढ़ाई की थी, उसमें भी मल्हारराव होल्कर का खास हाथ था। इस चढ़ाई का कारण यह था कि भरतपुर के राजा ने सम्राट आलमगीर के लिये दूसरे के खिलाफ़ वजीर शुजाउद्दौला को सहायता दी थी और मुगल सम्राट के प्रधान सेनापति नज़फ़खाँ ने भी अपने दुश्मनों से बदला लेने के लिये मराठों को निमन्त्रित किया था। मराठों ने भरतपुर राज्य के कुँभेर नामक किले पर घेरा डाला। इस घेरे में मल्हारराव के पुत्र खण्डेराव विपक्षी सेना की तोप के गोले से मारे गये। इससे मल्हार राव आग बबूला हो गये। उनका खून उबल उठा। उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि में भरतपुर के किले को जमींदोज करके उसके सारे सामान को जमना नदी में फिंकवा दूंगा। इससे भरतपुर के राजा भयभीत हो गये। उन्होंने सुलह के लिये प्रार्थना की। उन्होंने मल्हार॒राव के गुस्से को शान्त करने के लिये 75000 रु० प्रति साल की आमदनी के 5 गाँव दिये, जिससे कि खण्डेराव की छत्री का खर्च चलता रहे। सन् 1756 में मल्हारराव ने उस लड़ाई में भाग लिया था जो दक्षिण के साबनूर के नवाब के साथ पेशवा की हुई थी। सन् 1759-60 में उन्होंने जयपुर जिले के कुछ किले हस्तगत किये। पानीपत और मल्हारराव होलकर भारत वर्ष के इतिहास में पानीपत का युद्ध विशेष महत्व रखता है । इस युद्ध ने भारत वर्ष के राजनेतिक भविष्य पर किस प्रकार का प्रभाव डाला था यह बात सूक्ष्मदृष्टि इतिहास-वेत्ताओं से छिपी हुई नहीं है। इस युद्ध के परिणाम के विषय में भिन्न भिन्न इतिहास वेत्ताओं का भिन्न भिन्न मत है। हमारे पास स्थान नहीं है कि हम उन सब का पूर्ण रूप से वर्णन करें। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस युद्ध में मराठों की शक्ति को एक जबर्दस्त धक्का लगा था। कम से कम कुछ समय के लिये मराठों के भाग्य को विपरीत दशा में पलट दिया था। हमें यहां यह देखना है वि मल्हारराव होल्कर का इस युद्ध में किस प्रकार का भाग रहा था। जब सदाशिवराव बड़े अभिमान के साथ महाराष्ट्र सेना को पानीपत के मैदान की ओर ले जा रहे थे तब वीरवर सूरजमल जाट जैसे बहादुर सिपाही की अनुभवी आंख ने महाराष्ट्र सेना की इस ऊपरी सजधज के अन्तर्गत अव्यवस्था ओर असगंठन के बीज देखे थे। उसने सदाशिवराव से यह अनुरोध किया था कि पुरानी महाराष्ट्र पद्धतियों से अफगानों को हैरान करें ओर जब अफ़गान सेना पीछे हटने लगे तब उन पर अकस्मात् रुप से आक्रमण कर दे। सूरजमल ने सदाशिवराव को बाकायदा युद्ध करने की सलाह न दी। मल्हारराव होल्कर और अन्य फौजी अफसरों ने सूरजमल की राय का समर्थन किया था। पर देश के दुर्भाग्य से सदाशिवराव को उनकी बात नहीं पटी। सदाशिवराव ने सूरजमल को एक छोटा सा जमींदार और मल्हारराव को गडरिया कह कर ताना मारा। इसके बाद भी सदाशिवराव ने मल्हारराव की राय की उपेक्षा की। पानीपत के युद्ध के मैदान में भी मल्हारराव ने सदाशिवराव को अपनी युद्ध नीति बदलने के लिये कई बार समझाया पर उन्होंने एक न सुनी। वे अपनी ज़िद पर अड़े रहे। इससे मल्हारराव को बड़ा क्रोध आया और वे लड़ाई से अलग हो गये। इसके थोड़े ही अर्से बाद तांदुलजा ( उदगीर ) की लड़ाई में भारी विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में मल्हारराव को पेशवा की ओर से 300000 की जागीर मिली। सन् 1764 में वजीर शुजाउदौला ने मल्हारराव होलकर को निमन्त्रित किया। इसका कारण यह था कि शुजाउद्दौला अंग्रेजों से हार गया था और इसीलिये उसने अंग्रेजों के खिलाफ सहायता पाने के लिये मल्हारराव को बुलाये थे। मल्हारराव होलकर ने यह निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और उन्होंने अपनी सेना सहित कूच किया। मल्हारराव और अंग्रेजों के बीच लड़ाई हुई। इसमें मल्हारराव को भारी विजय प्राप्त हुई। इस लड़ाई में अंग्रेजों की भारी हानि हुई। इसके बाद अंग्रेजों ने मल्हारराव की फौज पर अकस्मात् आक्रमण कर बदला लिया। इस हमले के कारण मल्हारराव को बुन्देलखंड के काल्प नामक स्थान तक पीछे हटना पड़ा। यहाँ आकर इन्होंने देखा कि गोहदा का राना तथा दतिया का राजा सम्मिलित होकर मराठों की राज्यसत्ता को जड़मूल से खोदने का षड़यन्त्र कर रहे हैं। उन्होंने यह भी देखा कि हिम्मतबहादुर ने मराठों से झांसी का प्रान्त भी छीन लिया है। इसपर मल्हारराव होलकर को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने मराठों के हाथ से गये हुए प्रान्तों की वापस लेने का निश्चय किया। मल्हारराव ने झाँसी पर घेरा डाला। तीन मास की लड़ाई के बाद उसे वापस फतह कर लिया। चार दिन तक लड़ने के बाद दतिया के राजा ने भी घुटने टेक दिये। उसने मल्हारराव के हाथ में आत्म समर्पण कर दिया। यही स्थिति ओरछा, शेवड़ा, और अन्य स्थानों के राजाओं की हुई। इसी बीच में मल्हारराव होलकर की सहायता करने के लिये राघोबा के सेना पतित्व में दक्षिण से सेना आ पहुँची । पर मल्हारराव इस सेना का कुछ भी उपयोग न कर सके क्योंकि सन् 1766 की 20 वीं मई को आलमपुर में मल्हारराव होलकर देहान्त हो गया। स्मारक रूप में आपकी वहाँ छत्री बनी है। इस छत्री के खर्च के लिये दतिया आदि राज्यों की और से होल्कर होलकर को 27 गाँव मिले थे। मल्हारराव अपने समय के महान वीरों में से एक थे। आपने कोई चालीस युद्धों में बड़ी सफलता के साथ भाग लिया था। आप जैसे असाधारण वीर थे वैसे ही चतुर राजनीतिज्ञ भी थे। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:— [post_grid id=”7736″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to 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