प्रयागराज का किला – इलाहाबाद का किला किसने बनवाया Naeem Ahmad, August 5, 2022February 25, 2024 इलाहाबाद का किला जो यमुना तट पर स्थित है, इस किले साथ अकबर के समय से लेकर अंग्रेज़ों के पतन तक का इतिहास ही सीमित नहीं है, किन्तु इसका सम्बन्ध बौद्ध कालीन संस्कृति के साथ भी जुडा हुआ है। इतिहास से प्रकट होता है कि ह्वेनसांग नाम के एक चीनी यात्री ने सन् 643 ई० में प्रयागराज की यात्रा की थी। उसने अपनी यात्रा में गंगा यमुना के संगम के समीप एक देव मन्दिर होने का वर्णन किया है जिसके सामने एक विशाल वट वृक्ष था।दौलताबाद का किला – दौलताबाद का इतिहासइलाहाबाद के किले का निर्माण किसने करवाया था यह तो हम आगे जानेंगे लेकिन जिस समय इस किले का निर्माण कराया गया तो यह वट वृक्ष तथा देव मन्दिर दोनो ही किले के अन्तर्गत सम्मिलित कर लिये गये। आज भी किले में वह देव मन्दिर विद्यमान है, जिसमे अनेक देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। आज भी लाखों यात्री वट वृक्ष की पूजा करने के लिये आते हैं और अपने विश्वास के अनुसार उसे पूजते है। इलाहाबाद के किले का सविस्तार वर्णन करने से पूर्व हम इस स्थान की ऐतिहासिक महत्ता पर दृष्टि डालना आवश्यक समझते हैं। इलाहाबाद का प्राचीन नाम प्रयाग हैं। जिसका शब्दार्थ यज्ञ के लिये नियत की हुई भूमि है। प्रयाग का वर्णन मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों से मिलता है। कालीदास ने अपने ग्रंथ रघुवंश में इसका वर्णन किया है। कालीदास ने श्री रामचन्द्र के मुख से कहलवाया है, हे देवी सीता! गंगा यमुना के संगम की शोभा का अवलोकन करो?। महाकवि तुलसीदास जी ने भी अपनी रामायण में प्रयागराज का वर्णन करते हुए लिखा है:–की कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ। कलुप पुंज कु जर मृग राऊ॥ अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुवर सुख पावा।। कहि सिय लखनहि सखहि मुनाई। श्री मुख तीर्थ राज बडाई॥यह वर्णन उस समय का है, जब श्री रामचन्द्र आपने अनुज भ्राता लक्ष्मण तथा अपनी पत्नि सीता के साथ वनवास के लिये गये ओर मार्ग से वे प्रयागराज में पहुंचे। यहाँ पर सभी ने स्नान किया और शिव की पूजा की और इसके पश्चात वे भारद्वाज मुनि के आश्रम की ओर चल दिये। भारत में देवी देवताओं का जिस समय प्राबल्य था, उस समय गंगा यमुना के मिलन स्थल पर, जिसे संगम कहा गया है एक देवता की भी कल्पना की गई जिसका नाम ‘वेणीमाधव! रखा गया। वेणीमाघव देवता की आज भी पूजा होती है और यात्री उन के नाम पर भेंट चढाते और अपनी मनोकामना की सिद्धि करते हैं।मालखेड़ा का इतिहास – मालखेड़ा का किलारशीद अल दीन हमदानी मुस्लिम इतिहासकार ने अपनी पुस्तक जामी अल तवारीखी’ में प्रयाग के अक्षयवट का उल्लेख किया है। यह पुस्तक 1310 ई० में लिखी गई थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने वर्णन मे लिखा है कि प्रयागराज में कन्नौज के राजा हर्षवर्धन प्रति पांचवे वर्ष आया करते थे ओर अपने राजकोष का प्रचुर धन दान में दिया करते थे। उसने लिखा है— राजधानी के पूर्व की ओर और गंगा यमुना के संगम पर लगभग 10 ली (5 ली बराबर 1 मील ) चौडी सफेद बालू से ढकी हुई ढलुआ भूमि है, जहां धूप रहती है। उसे दान क्षेत्र कहा जाता है। प्राचीन समय से राजा ओर उदार दाता वहा जाकर दान देते और भेंट पूजा करते रहे हैं।? इस क्षेत्र के वर्णन से पता चलता है कि उस समय गंगा झूसी की तरफ बहती थी और संगम क्षेत्र 2 मील चौड़ा था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने कन्नौज के राजा शिलादित्य के प्रयागराज जाने और उनके वहां दान करने का सुन्दर वर्णन किया है। उसने लिखा है वे दान के लिय तैयार होकर आये थे और उन्होंने वहां काफी दान किया था।इलाहाबाद का किला किसने बनवायाइलाहाबाद की कलेक्टरी के कार्यालय में जिले के सम्बन्ध में जो दस्तावेज विद्यमान है उसमें किले को 38 जरीब लम्बा ओर 26 जरीब चौड़ा बताया गया है। उसका क्षेत्रफल 983 बीघा था। इसके बनाने में 6 करोड़ 17 लाख रूपये व्यय हुये। आधार शिला रखने के पश्चात् 45 वर्ष तक इस किले का निर्माण होता रहा। किले के निर्मोण कार्य का निरीक्षण शाहजादा सल्लीम, राजा टोडलमल, भारथ दीवान, प्रयागदास, सैयद खां आदि ने किया था। अकबर ने अपने पुत्र सलीम को प्रयागराज का शासक बनाया। यही सलीम बाद को जहांगीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जहांगीर ने अपने पिता अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया। उसने सैनिकों को अपने पक्ष में करके इलाहाबाद नगर और दुर्ग को अपने संरक्षण मे ले लिया।पेनुकोंडा का इतिहास और पेनुकोंडा का किलाइतिहास में अनेक ऐसी घटनायें हैं जिनका इलाबाद दुर्ग के साथ गहरा सम्पर्क रहा है। औरंगजेब ने भी इस दुर्ग का काफी समय तक प्रयोग किया। प्रसिद्ध फ्रांसीसी पर्यटक बर्नियर 1665 ई० में इलाहाबाद आया था जबकि औरंगजेब यहां राज्य करता था। उसने इस दुर्ग के भीतरी भाग को देखा था ओर यहां की अनेक इमारतों का उसने वर्णन भी किया। प्रयाग गंगा तट पर 1668 ई० में शिवाजी अपने पुत्र शम्भा जी के साथ आये थे जबकि ये आगरा से दक्षिण वापिस गये थे।प्रयागराज दुर्ग के भीतर पातालपुर मंदिर ये सम्बन्ध में अनेक कथायें प्रचलित हैं। 1766 में इस पातालपुरी मंदिर के सम्बन्ध में एक डच मिशनरी टिफेन थाॉलर ने लिखा है– “दुगे के भीतर दक्षिण पूर्व की ओर पत्थरों से बनी हुई एक कंदरा है। जब कोई इस तंग मार्ग में प्रवेश करता है तो उसे यह 4 या 5 कदमों की सडक तथा 7 पगो की लम्बाई से फटकर त्रिभुजाकार मालूम पडती है। इस पतले तथा अंधेरे मार्ग से जाने के लिये प्रकाश आवश्यक है। दीवारें पत्थरों से बनी हुई हैं और दीवारों के पत्थरों को काटकर राम, गणेश, पार्वती आदि देवताओं की मुर्तियां रखी हुई है। महादेव का अश्लील चित्र भी तीन या चार स्थानों में रखा हुआ है। इसी कंदरा के एक चकोर पत्थर में महादेव के पैरो के चिन्ह भी दिखाई देते है।”बिजय मंडल किला का इतिहासमि० टिफेन थॉलर ने अक्षयवट के सबंध में भी अपना अनुभव लिखा है। उसका कथन है–“इन मूर्तियों की अपेक्षा वे एक वृक्ष के प्रति जिसे हिन्दुस्तानी में बड कहते हैं, अधिक सम्मान प्रकट करते हैं। यह कंदरा में स्वयं विकसित होता है तथा सदैव हरा रहता है। इसकी शाखायें दो समान भागा में विभक्त हैं। इसमें पत्तियां नहीं है फिर भी इसमें रस है और यदि चाकू से काटा जाता है तो इसमें से एक प्रकार का दूध निकलता है। हिन्दू अपने इस पवित्र वृक्ष को सूखने से बचाने के लिये सर्वदा इसकी जड़ सींचते हैं। साथ ही सुगंधित पुष्प ऊपर रख देते हैं। पत्थर की दीवारों के कारण वृक्ष बढ़ नहीं सकता है।”पातालपुरी मन्दिर तथा अक्षयवट के सम्बन्ध में और भी अनेक यात्रियों ने वर्णन किया है। आज भी उसकी पूजा प्रतिष्ठा के लिये दूर दूर के यात्री आते हैं। संगम स्नान के पश्चात वे इसके दर्शन करते हैं। कहा ज्ञाता है कि वर्तमान अक्षयवट का तना प्रति तीन या चार वर्ष में परिवर्तित कर दिया जाता है।प्रयागराज किले का इतिहास3 फरवरी 1954 को संगम क्षेत्र में दुर्घटना के कारण अनेक यात्री कुचल कर मर चुके थे परन्तु फिर भी लाखों यात्री उसके पश्चात भी किले के द्वार से प्रवेश पाकर इसके दर्शन करते रहे। न जाने कितनी प्राचीन श्रद्धा और भक्ति इस मन्दिर तथा अक्षयवट के साथ जुडी हुई हैं जो मनुष्य को महान संकट उठाने के लिये भी विवश कर देती है। ऐसे नजारे यहां की बार देखने को मिलते हैकि सहस्तों यात्री दुर्ग के द्वार पर एक लंबी पंक्ति बनाएं खड़े होते हैं और जिनमें से बहुत से भाई बहिनों के सिर पर सामान भी रखा हुआ होता है। परन्तु फिर भी वे इंच इंच सरकते हुये किले के अन्दर प्रवेश पाने के लिये आतुर रहते है। यह इस अक्षयवट के प्रति लोगों में श्रृद्धा की ही देन है।इलाहाबाद का किलाविलियम फिंच ने प्रयागराज दुर्ग का 1611 ई० मे अवलोकन किया था। उन दिनो ही यह किला बना था। उसने इसकी सुन्दरता तथा विशालता की बडी प्रशंसा की है। उसने लिखा है इस किले की शान का मुझ पर बड़ा प्रभाव पड़ा। सन् 1782 में फारेस्टर नाम के व्यक्ति ने दुर्ग के शाही महल की बड़ी प्रशंसा की है। उसने लिखा है– महल का ऊपरी भाग संगमरमर का बना हुआ था जो विचित्र प्रकार के रंगो और असामान्य रूप से सुन्दर कारीगरी से सजा हुआ था। इसके पश्चात प्रयागराज का किले पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का अधिकार हो गया। पादरी हिचर में इसे सन् 1824 में देखा उसने जहां किले के भीतरी महलों की प्रशंसा की है, वहां उसने यह भी लिखा है कि किले के उस समय के अधिकारियों ने अपनी आवश्यकता के लिये उसमें परिवर्तन करके उनकी दुर्दशा कर दी।प्रयागराज किले के अंदर स्थित भवनचेहल सितून महल इलाहाबाद किले मेंकिले में चेहल सितून महल एक अत्यन्त सुन्दर भवन था। इसके सम्बन्ध में मि० फर्ग्सन ने अपनी पुस्तक भारतीय ओर पूर्वी स्थापत्य कला का इतिहास में भी वर्णन किया है। वह लिखता है– “किले मे सबसे अधिक सुन्दर इमारत चेहल सितून महल ( चालिस स्तम्भ ) थी। ये स्तंभ ऐसे बनाये गये थे कि उनसे दो अष्ट भुज बन जाते थे। बाहरी अष्टभुज चौबीस खम्भो से बनता था ओर शेष सोलह खम्भे भीतरी अष्टभुज बनाते थे। इसकी ऊपरी मंजिल में भी इतने ही खम्भे उसी तरह बने हुये थे ओर उन पर गुम्बद बना हुआ था। परन्तु आज दर्शक इस इमारत को नहीं देख सकते क्योकि यह पूरी इमारत नष्ट हो गई है ओर इसका सामान चार दीवारी की मरम्मत के लिये प्रयोग में लाया जाता रहा है। बड़ें हाल की लकड़ी की कुछ नक्काशी अभी तक देखने में आ रही है। यह हाल सस्त्र के कारखाने के रूप में प्रयुक्त हो रहा है। उसके बाहरी भागों के बीच से ईंट की दीवार बना दी गई है। उसका मंडप व अन्य वस्तुएं वहां मे हटा दी गई हैं।इलाहाबाद किले में जनाना महलकिले की दूसरी दर्शनीय इमारत बेगमों का जनाना महल है। इस महल में पहिले 64 खम्भे थे जो आठ पंक्तियों मैं विभाजित थे। जिस समय अंग्रेजों ने इस किले पर अधिकार किया तो उन्होंने इस जनाने महल को भी शस्त्रागार के रूप में परिवर्तित कर लिया। बहुत वर्षों तक यह इसी काम में लाया जाता रहा परंतु लार्ड कर्जन ने इसे खाली कराके फिर महल का रूप दिया। इसे सुसज्जित करने का प्रयत्न किया गया। अंग्रेज़ी शासन काल में समय समय पर किले की इमारतों में परिवर्तन किये गये। सुरक्षा की दृष्टि से इसकी कुछ पुरानी दीवारें और मीनारें गिरा दी गई।अंग्रेजों का दृष्टिकोण इसे सेना के लिये प्रयोग मे लाना था अतः उन्होंने उसे शस्त्रागार तथा सेना का निवास स्थान बना लिया। आज भी प्रयागराज में अकबर यह किला भारतीय सेना का ठिकाना स्थान बना हुआ है।अशोक की लाटइलाहाबाद के किले में अशोक की लाट (स्तंभ) भी एक दर्शनीय वस्तु है। सम्राट अशोक ने यह स्तम्भ 232 ई० पू० में कौशाम्बी में स्थापित किया था। इसे वहां से उठा कर इस किले में लाया गया और इसको पुनः स्थापित किया गया। इस स्तम्भ पर अशोक के 6 आदेश अंकित है। इनमे अशोक ने अपने अन्तर्गत कार्य करने वाले अधिकारियों को अनेक उपदेश व आदेश दिये हैं, जिनका अभिप्राय यह है कि वे गर्व, क्रोध, निर्दयता, ईर्प्या आदि दुर्भावना का परित्याग करें। दूसरों का हित करना, दान देना, पवित्र जीवन व्यतीत करना तथा सत्य का आचरण करना ही धर्म है। अधिकारियों को आदेश दिया गया है कि वे जनता की रक्षा तथा उसकी देखभाल का सदैव पूरा ध्यान रखे। उनके कष्ट और दुख को अपना कष्ट अनुभव करें।लालकोट का किला – किला राय पिथौराअशोक की लाट के आदेश मुख्य रूप से कौशाम्बी के शासकों के नाम अंकित किए गए थे। सम्भव है इसी से जनरल कर्निघम ने यह अमुमान लगाया कि यह स्तम्भ मूल रूप में कौशाम्बी में लगाया गया होगा। जनरल कर्निघम के मतानुसार इस स्तम्भ को फीरोजशाह तुगलक के समय से कौशाम्बी से प्रयाग लागा गया क्योंकि उसी के संबंध में यह कहा जाता है कि इसी प्रकार की एक अन्य लाट उठाकर वह देहली ले गया था। इलाहाबाद किले के निर्माण के उपरान्त इस लाट को जहांगीर ने उठवाकर दुर्ग के भीतर रखवा लिया होगा।तुगलकाबाद किला इतिहास इन हिन्दीअशोक की यह लाट 35 फिट ऊंची है। नीचे इसका व्यास 4 फिट 11 इंच है और ऊपर दो फिट दो इंच है। इसका सबसे ऊपरी भाग अब नहीं है और अनुमान है कि अशोक कालीन शेरों का चिन्ह इस पर अंकित रहा होगा। अशोक की इस लाट पर समुद्रगुप्त के समय का एक वृस्तित लेख भी मिलता है। समुद्रगुप्त ने सन 326 ई० में शासन संभाला। उसने लम्बे शासनकाल में समस्त भारत विजय किया तब जाकर एकछत्र राज्य स्थापित हुआ। अशोक की इस लाट पर समुद्रगुप्त की विजयों का उल्लेख है। और स्वयं समुद्रगुप्त के समय का लिखा होने के कारण इतिहास के पाठकों की विशेष ज्ञान वृद्धि का साधन है। एक लेख जहांगीर कालीन भी इस पर अंकित है। तथा विभिन्न समयों मैं अनेकों यात्रियों द्वारा इस पर मनमानी बातें लिखी गई। जिस ढंग से यह बाद की लिखाई की गई है उनसे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह स्तम्भ कई बार उखड़ा और स्थापित होता रहा। विभिन्न लिपियों से यह अनुमान लगाने का प्रयत्न किया गया है कि किस समय में यह उखड़ा और किस समय में यह लगा। सम्भवतः अशोक के कुछ समय बाद यह गिर गया हो तथा समुद्रगुप्त ने इसे पुनः स्थापित कराया हो।सीरी किला का इतिहास:- दिल्लीइसके बाद सम्भवतः अलाउद्दीन खिलजी के समय तक यह स्तम्भ खड़ा रहा। फीरोज शाह तुगलक ने इसे पुनः स्थापित किया किंतु कुछ ही समय बाद जहांगीर उठवाकर किले में ले आया। जहांगीर के बाद फिर एक बार इसके उखाड़े जाने का उल्लेख मिलता है। सन् 1798 ई० में जनरल कैड ने इसे गिराया और अंत मे सन् 1838 ई० में इसको वर्तमान स्थान पर पुनः स्थापित किया गया। इस स्तम्भ पर बाद की खुदाइयों में से एक से पता लगता कि सन् 1575 ई० में माघ मेले के अवसर पर राजा बीरबल प्रयागराज आया था।रामपुरा का किला और रामपुरा का इतिहासऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर पता लगता है कि मुगल सम्राट फरूख्सियार ने प्रयागराज दुर्ग में छबीलेराम नागर को नियुक्त किया था। फरुख्सियार के बाद मोहम्मद शाह गद्दी पर बेठा। छबीलेराम ने मोहम्मद शाह को राजा स्वीकार नहीं किया और अगस्त 1719 में खुला विद्रोह कर दिया। छबीलेराम नागर की सेनाओं ने बंगाल का प्रदेश दिल्ली से अलग कर दिया और बंगाल में मालगुजारी की काफी धनराशि जो देहली को जा रही थी उसे मार्ग में पटना में ही रोक लिया। छबीलेराम को दबाने के लिये अब्दुल्ला की सेनाओं ने श्राक्रमण किया। छबीलेराम ने इलाहाबाद का किला अपने भतीजे गिरधर बहादुर की सुरक्षा में छोड़ा और स्वयंउसने यवन सेनाओ को रोकने के लिये किले से कुछ दूर पर मोर्चा बन्दी की किन्तु दोनों सेनाओं में मुठभेड़ होने से पहले ही उस पर फालिज पड़ा जिसमे नवंबर सन 1719 में उसका देहान्त हो गया।मांडू का किला किसने बनवाया थागिरधर को सन्धि करने के लिये संदेश भेजा गया और बदले में उसे अवध, लखनऊ और गोरखपुर के क्षेत्र देने का वचन भी दिया गया किन्तु गिरधर ने उसे अस्वीकार कर दिया। जो यवन सेना का अग्रिम दल अब्दुल नबी खां के नेतृत्व में इस दुर्ग पर अधिकार करने के लिये आ रहा था उसको बुंदेलो ने मार्ग में काफी परेशान किया। इधर दोआब के हिंदू राजाओं के साथ इलाहाबाद से केवल दस मील की दूरी पर ही यवन सेनाओ को मोर्चा लेना पड़ा। दुर्ग की प्राचीरों के बाहर जो भीषण युद्ध लड़ा गया वह अनिर्णीत ही रहा अन्त में 3 मई 1720 को परस्पर एक सन्धि हो गई जिसके अनुसार गिरधर ने 11 मई को प्रयागराज का किला खाली कर दिया तथा बदले में उसे अवध प्रदेश 30 लाख रुपये और युद्ध पर किया गया व्यय मिला।पुराना किला कहा स्थित है – पुराना किला दिल्ली1721 में मौहम्मद शाह ने यह दुर्ग फरूखाबाद के मौहम्मद खां को दे दिया जिसने अपनी ओर से भूरे खां को यहां स्थापित किया। 4 वर्ष बाद मौहम्मद खां को छत्रसाल बुन्देले के विरुद्ध युद्ध करने के लिये भेजा गया। वह स्वयं इलाहाबाद के किले में तैयारियाँ करने के लिये पहुंचा किन्तु दिल्ली से एक नया आदेश आ जाने के कारण छत्रसाल के विरुद्ध कार्यवाही नहीं की गई। 1732 ई० में यह दुर्ग सर बुलन्द खां को दे दिया गया। 1735 ई० में मौहम्मद खां ने पुनः प्रयत्न करके इस दुर्ग के लिये अपनी नियुक्ति करा ली किन्तु यह संदेहास्पद बात है कि उसे दुर्ग पर अधिकार मिल सका या नहीं। सर बुलन्द खां के पुत्र के साथ उसका युद्ध भी हुआ था। किंतु 1736 ई० में सर बुलन्द खां का इस किले पर अधिकार होने का उल्लेख मिलता है जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि मौहम्मद खां का इस किले पर अधिकार नहीं हो पाया। 3 वर्ष पश्चात् यह दुर्ग अमीर खां उमदतुल मुल्क को दे दिया गया जिसका अधिकार 1743 ई० तक रहा।अमीर खां 1743 में देहली में वध कर दिया गया और उसके बाद अवध के नवाब वजीर सफदरजंग को प्रयागराज का किला दे दिया गया।तालबहेट का किला किसने बनवाया – तालबहेट फोर्ट हिस्ट्री इन हिन्दीसफदर जंग को इस प्रदेश का प्रबंध करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा। 1736 ई० में मराठों ने इस बात की मांग की थी कि हिन्दुओं के तीन महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान मथुरा, प्रयाग तथा बनारस उनके अधिकार में दे दिये जाये। अधिकांश बुन्देलखण्ड उनके हाथों में आ ही चुका था और समय समय पर वे जमना पार करके दोआब प्रदेश पर आक्रमण करते रहते थे। 1739 ई० में राघोजी भोंसले ने इलाहाबाद पर आक्रमण किया और वहा के सहायक किलेदार शुजा खां का वध करके इलाहाबाद को लूटा। इस आक्रमण के फलस्परूप राघोजी तथा पेशवा के परस्पर सम्बन्ध विकृत हो गये। 1742 ई० में राघोजी ने पुन इलाहाबाद पर आक्रमण किया किन्तु इसे वापिस लौटना पडा क्योकि उसके अपने प्रदेश पर गायकवाड ने आक्रमण कर दिया था। इसी वर्ष बाला जी ने इलाहाबाद पर आक्रमण किया। लगभग 2 वर्ष बाद राघोजी तथा पेशवाओं के बीच इस बात पर समझौता हो गया कि इलाहाबाद के क्षेत्र की मालगुजारी पेशवाओं को दे दी जाए।प्रयागराज का किला – इलाहाबाद का किला किसने बनवायाअवध के नवाब सफदरजंग ने दीवान नवल राय कायस्थ को इलाहाबाद का गवर्नर नियुक्त किया। 1749 में नवल राय ने अवध की सेनाओ को लेकर फरूखाबाद पर आक्रमण किया तथा वहा के शासक मुहम्मद खां की विधवा से 50 लाख रूपया प्राप्त किया। उसने मुहम्मद खां के पाच पुत्रों को गिरफ्तार कर लिया जिन्हे इलाहाबाद के दुर्ग में भेज दिया गया। 1750 में इनका वध कर दिया गया। कहा जाता है कि पांचों को जीवित ही दीवार में चुनवा दिया गया था। इसका मुख्य कारण यह बताया जाता है कि फरुखाबाद के तत्तकालीन शासक नवाब अहमद खां के हाथों नवल राय न केवल पराजित हुआ था अपितु बच कर भाग गया था। किन्तु शीघ्र ही अवध का नवाब वजीर स्वयं भी पराजित हुआ। इस सब का परिणाम यह हुआ कि इस सारे प्रदेश में भारी अव्यस्था उत्पन्न हो गई। इसके पश्चात् कई बार मुस्लिम तथा हिन्दू शासकों के बीच छोटे छोटे संघर्ष हुए और उनमे भूसी तथा दुर्ग का क्षेत्र कई बार लूटा गया।गोपालपुरा का किला जालौन – गोपालपुरा का इतिहास1759 ई० में शाह आलम दिल्ली की गद्दी पर बैठा और उसने बंगाल विजय करने का निर्णय किया। अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने शाह आलम की इस गलती का पूर्ण लाभ उठाया। उसने एक ओर शाह आलम को यह विश्वास दिलाया कि बंगाल विलय में उसकी हर प्रकार सहायता करेगा, दूसरी ओर धोखे से उसकी अनुपस्थिति में प्रयागराज के दुर्ग पर अधिकार कर लिया 1760 में शाह आलम को बंगाल विजय के प्रयत्न में तीन बार हार हुई और 1761 में पुन एक बार मुंह की खानी पड़ी। फलतः उसने बंगाल विजय का विचार छोड़ दिया ओर अंग्रेजों से संधि कर ली और उनके कठपुतली शासक मीर कासिम को बंगाल का शासक स्वीकार कर लिया जिसके बदले में उसे 24 लाख रुपए वार्षिक ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा मिलने का वचन दिया गया। बंगाल से दिली लौटते समय मार्ग मे शाह आलम शुजाउद्दौला के हाथो पड गया जिसने दो वर्ष तक शाह आलम को कभी इलाहाबाद में कभी लखनऊ में बन्दी बना कर रखा।जगम्मनपुर का किला – जगम्मनपुर का इतिहाससन 1763 ई० में बंगाल के शासक मीर कासिम ने अंग्रेजों के प्रभुत्व को कम करने के उद्देश्य से अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सहायता मांगी। मुगल सम्राट शाह आलम भी मीर कासिम की सहायता को आ गया परन्तु उनकी संयुक्त सेना को सन् 1764 ई० में बक्सर के मैदान में अंग्रेज़ी सेना ने पराजित कर दिया। मीर कासिम भाग गया। शाह आलम कम्पनी की आधीनता में आ गया। इलाहाबाद के किले पर कम्पनी का अधिकार हो गया। शुजाउद्दौला को भी सन्धि करने के लिये विवश होना पड़ा। सन 1765 ई० में इलाहाबाद में सन्धि हुईं। इस सन्धि में इलाहाबाद ओर कड़ा नवाब वजीर से लेकर शाह आलम को दिये गये। शुजाउद्दौला ने कम्पनी को 50 लाख रुपये हर्जाने के देने का वायदा किया। अंग्रेज़ो ने बादशाह को 26 लाए रुपया वार्षिक देने का वचन दिया, बदले में बादशाह ने उन्हें बंगाल, बिहार और उडीसा में दीवानी के अधिकार प्रदान किए। सन् 1771 ई० तक शाहआलम इलाहाबाद में खुशरूबाग में रहता था। महादाजी सिंधिया ने जिसका बोलबाला दिल्ली में बहुत था उसे दिल्ली बुलाया। शाहआलम दिल्ली चला गया। अग्रेजो ने उसकी 26 लाख रुपये की पेशन बंद कर दी और इलाहाबाद तथा कडा को अवध के नवाब शुजाउद्दौला के हाथो 50 लाख रूपये में बेच दिया। कुछ समय बाद प्रयागराज दुर्ग नवाब वज़ीर को दे दिया गया परन्तु दुर्ग में अंग्रेज अफसरों के अधीन उनकी सेना भी रहने लगी। सन् 1801 ई० में नवाब वजीर सआदत अली खां ने यह दुर्ग अंग्रेजों के अधिकार मे दे दिया जिसका कारण यह था कि पूर्व संधि के अनुसार निश्चित किये गये धन का कुछ अंश नवाब कंपनी को नहीं दे सका था।प्रयागराज के किले पर अंग्रेजों का आधिपत्यअंग्रेजों ने इस दुर्ग को अपनी छावनी का एक मुख्य केन्द्र बना दिया। 1803 ई० में लार्ड लेक ने अंग्रेजी सैनिक शक्ति को संगठित करके, यहीं से उत्तरी भारत के कई स्थानों पर आक्रमण किये। जिसके फल स्वरुप उन्हें बहुत सा भाग प्राप्त हो गया। लेफ्टीनेंट कर्नल पावल ने इलाहाबाद में अंग्रेजी शक्ति को बढ़ा कर बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया और उसमें इसे सफलता प्राप्त हुई। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता युद्ध के समय मेरठ से विद्रोह प्रारम्भ होने का समाचार इलाहाबाद में 12 मई को पहुंचा। उस समय इलाहाबाद में अग्रेज़ी सेना नहीं थी परन्तु 19 मई को अंग्रेजों ने इधर उधर से कुछ अंग्रेज सेनिक एकत्रित करके यहां रखे। परन्तु विद्रोहियों ने 6 जून को इलाहाबाद का खजाना लूट लिया। बहुत से अंग्रेज़ों को मार डाला। मौलवी लियाकत अली ने दिल्ली पति को अपना राजा घोषित कर दिया। परन्तु यह सब केवल एक सप्ताह तक ही चला। 11 जून को कर्नल नील ने दुर्ग और इलाहाबाद पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। 15 जून को मौलवी लियाकत अली शहर छोडकर भाग गया। पंद्रह वर्ष के पश्चात् सन् 1872 में अंग्रेजों ने उन्हे पकड़ लिया ओर उन पर विद्रोह का अभियोग चलाया। उन्हें देश निकाले का दंड दिया गया।कुलपहाड़ का किला – कुलपहाड़ का इतिहास इन हिन्दी कुलपहाड़ सेनापति महललार्ड केनिंग ने 1858 में इलाहाबाद को उत्तर पश्चिमी जिलों का मुख्य केन्द्र बनाया। उनकी आज्ञा से आगरा से प्रधान कार्यालय इलाहाबाद लाया गया उन्होने जार्ज एडमन्सटन को उत्तर पश्चिमी प्रान्तों का लेफ्टीनेन्ट गवर्नेर नियुक्त किया। लार्ड केनिंग ने 1858 ई० में इलाहाबाद में एक बड़ा दरबार किया। उसमें महारानी विक्टोरिया का घोषणा पत्र पढ़ा गया। उसके पश्चात् इलाहाबाद के दुर्ग पर अंग्रेजों का पूर्ण प्रभाव तथा अधिकार स्थापित हो गया।पथरीगढ़ का किला किसने बनवाया – पाथर कछार का किला का इतिहास इन हिन्दीतीर्थराज प्रयाग के गंगा जल के सबंध में यह कहा जाता है कि अनेक मुसलिम शासकों के लिये यहां का पवित्र जल पीने के लिये भेजा जाता था। इतिहास के पृष्ठों से पता चलता है कि मौहम्मद तुगलक के लिये ऊंटों पर लद॒कर यहां का गंगा जल दौलताबाद जाया करता था। क्योकि उसका यह विश्वास हो गया था कि गंगा जल के प्रयोग से उसके मस्तिष्क को शान्ति प्राप्त होगी। इसी प्रकार अकबर भी प्रयागराज से अपने लिये गंगा जल मंगाया करता था। आश्चर्य की बात तो यह है कि कट्टर हिन्दू धर्म विरोधी औरंगजेब भी यहां के गंगा जल का सेवन करता था। यहां के सम्बन्ध में यह बात भी उल्लेखनीय है कि राजा, महाराजाओ के सिवाय स्वामी शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी दयानन्द आदि धर्म प्रचारक समाज सुधारक महापुरुष व नेता भी यहां आते रहे। उत्तर भारत में अंग्रेजी शासन की नींव प्रयाग से ही जमी और भारत की एक मात्र राष्ट्रीय संस्था क्रांग्रेस का पालन पोषण भी प्रयागराज में ही हुआ।धमौनी का किला किसने बनवाया – धमौनी का युद्ध कब हुआ और उसका इतिहासप्रयागराज दुर्ग के सम्बन्ध में यह बात विशेष, उल्लेखनीय है कि जहां यह मुगलों ने अपने आमोद प्रमोद तथा शासकीय दृष्टिकोण से बनवाया तथा इनके पतन के उपरान्त अंग्रेजो ने इसे उत्तर प्रदेश का सामरिक महत्व का एक केंद्र रखा, वहा धार्मिक कृत्यों, पूजा आदि का भी यह एक केंद्र बना रहा है। इतिहास इस बात को प्रगट करता है कि इसके निर्माण से लेकर आज तक किले के अन्दर अक्षयवट का दर्शन पाताल पुरी मन्दिर की पूजा बराबर चलती रही है। हो सकता है कि युद्ध की स्थिति में कुछ समय के लिए धार्मिक विश्वास रखने वाले व्यक्तियों को प्रवेश न करने दिया गया हो परन्तु साधारण स्थिति में यह दुर्ग सदैव हिन्दू धर्म के उपासकों के लिए खुला रहा है। अंग्रैजी शासन काल में यद्यपि दुर्ग के अधिकाश भाग में जन साधारण को घूमने की आज्ञा नहीं थी। परन्तु उन्होंने दुर्ग के उस भाग को जिसमें अक्षयवट तथा पातालपुरी मन्दिर विद्यमान हैं दर्शकों के लिए खुला रखने की व्यवस्था की हुई थी तथा उसी के समीप दर्शनार्थी अशोक की लाट को भी देखते रहे। ऐसी व्यस्था होने का मुख्य कारण यह भी हो सकता दे कि दुर्ग के समीप कुछ दूरी पर गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम विद्यमान है। जिस संगम-स्नान का पुण्य लाभ करने के लिए भारतवर्ष के कोने कोने से यात्री आते हैं और किसी भी सरकार ने चाहे वह मुसलमानों की रही अथवा अंग्रेजों की पवित्र संगम पर स्नान करने की कोई रोक नहीं लगाई। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:— [post_grid id=”8089″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत के पर्यटन स्थल उत्तर प्रदेश पर्यटनऐतिहासिक धरोहरें