निकोलस कोपरनिकस बायोग्राफी इन हिन्दी – निकोलस कोपरनिकस के सिद्धांत व खोज Naeem Ahmad, May 27, 2022March 23, 2024 निकोलस कोपरनिकस के अध्ययनसे पहले– “क्यों, भेया, सूरज कुछ आगे बढ़ा ?” “सूरज निकलता किस वक्त है ?” “देखा है कभी डूबते सूरज को, कितना खूबसूरत लगता है।–हमारी जबान भी उसी का समर्थन करती है जो कुछ कि हमारी इन्द्रियां हमें बतलाती हैं। यह–कि सूरज चलता है। लेकिन हमें मालूम है कि हमारी जबान भी गलत है, और हमारी इन्द्रियां भी— क्योंकि सूरज नहीं, जमीन चलती है। किन्तु कितनी सदियां आम लोगों का ही नहीं, वैज्ञानिकों का, ज्योतिविदों तक का यही विश्वास था कि पृथ्वी स्थिर है और सारा ब्रह्मांड इसकी प्रदक्षिणा करता है। ईसा के लगभग 150 साल बाद मिस्र के एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक टालमी ने कुछ गणनाएं की और ग्रह-नक्षत्रों की भावी स्थिति के बारे में कुछ संकेत दिए, जो बहुत कुछ सच निकले, पर क्योंकि इन गणनाओं में पृथ्वी को केन्द्र मान लिया गया था, इसलिए, कुछ बातें टालमी को खुद ही समझ नहीं आ सकीं कि ये नक्षत्र कभी-कभी अपने रास्तों से हटकर क्यों चलने लगते हैं। नक्षत्र के लिए ग्रीक भाषा में ‘प्लनेट’ शब्द प्रयुक्त होता है जिसका मूल अर्थ है ‘आवारा’ अपने रास्ते से हटकर चलने वाला। टालमी से भी लगभग 400 साल पहले एक ग्रीक ज्योतिषी, सामोस निवासी एरिस्टाकस ने एक स्थापना पेश की थी कि ब्रह्मांड का केन्द्र सूर्य है,किन्तु यह विचार उस समय कुछ इतना असाधारण था कि एरिस्टाकस के ज्योति विज्ञान की एकदम उपेक्षा कर दी गई। सदियां बीत गईं और 1540 ई० के करीब जाकर कहीं, पोलैंड के ज्योतिविद निकोलस कोपरनिकस ने अनुभव किया कि ग्रह-नक्षत्रों की जटिल गतिविधियों की व्याख्या बड़ी आसानी से की जा सकती है यदि हम सूर्य को अचल बिंदु मान लें, और पृथ्वी तथा नक्षत्रों आदि को उसकी परिक्रमा करने वाले तारो के रूप मे स्वीकार कर ले। निकोलस कोपरनिकस पौंलेड का एक ज्योतिविद तो था ही, साथ ही वह गणितज्ञ, वैज्ञानिक, चिकित्सक, पादरी तथा राजनीतिज्ञ भी था। किन्तु निकोलस कोपरनिकस के सिद्धांत को स्वीकार करने मे दुनिया को 150 साल और लग गए, क्योकि यह कल्पना हमारे इंन्द्रिय ज्ञान के विरुद्ध जो उतरती है। निकोलस कोपरनिकस बायोग्राफी इन हिन्दी निकोलस कोपरनिकस का जन्म 19 फरवरी 1473 के दिन, पौलेंड के तौरून नामक शहर में हुआ था। कोपरनिकस, निकोलस कौप्परनिड तथा बाबंरा वाक्जेनरोद के दो पुत्रों और दो पुत्रियों मे सबसे छोटा था। निकोलस कोपरनिकस–मूल ‘निकोलस कौप्परनिड का लैटिन रूपान्तर है। निकोलस कोपरनिकस के माता-पिता नगर के प्रतिष्ठित परिवारो से आए थे। तौरून एक समृद्ध व्यापार का केन्द्र था, और निकोलस का पिता न केवल एक धनीमानी व्यापारी था अपितु शहर का एक मजिस्ट्रेट और सामाजिक जीवन का प्राण भी था। निकोलस जब दस साल का हुआ, उसके पिता की मृत्यु हो गई और घर के लोगो ने मिलकर फैसला किया कि बच्चो का पालन-पोषण अब उनके मामा पादरी ल्यूकस वाक्जेनरोद के यहां ही होना चाहिए। ल्यूकस के प्रभाव मे क्योंकि वह खुद एक पादरी था, और स्वाध्यायशील व्यक्ति था। निकोलस ने भी यही निश्चय किया कि मै भी बडा होकर धर्म-प्रचार करूगां। उसकी शिक्षा-दीक्षा भी इस प्रकार, स्वयं बालक के निजी प्रण के अनुसार, धर्मनिष्ठ कर दी गई । 18 वर्ष की आयु में निकोलस कोपरनिकस का पौलैंड के क्रैको विश्वविद्यालय मे दाखिल हो गया। क्रैकों उन दिनो पौलैंड की राजधानी थी, और यूरोप भर मे उसकी समृद्धि तथा संस्कृति की ख्याति थी। देश विदेश से जर्मनी, हंगरी, इटली, स्विट्जरलैंड, स्वीडन से विद्यार्थी खुद-ब-खुद खिचे-खिचाए क्रैको की ओर चले आते, जहां पहुंचकर लैटिन मे उनकी शिक्षा का आरम्भ होता। उन दिनो ज्ञान-विज्ञान का प्रतिपादन लेटिन में ही हुआ करता था और पढा-लिखा कहलाने के लिए यह एक आवश्यक शर्त-सी ही बन चुकी थी, कि पहले लैटिन पर अधिकार प्राप्त करो। लैटिन पर अधिकार प्राप्त करके निकोलस ने दर्शन, ज्योतिविज्ञान, ज्यामिति तथा भूगोल आदि विषयो का अध्ययन शुरू कर दिया। ज्योतिविज्ञान का अध्ययन उन दिनो बहुत आवश्यक था। समुद्र के द्वारा व्यापार बडी तेजी के साथ बढ़ रहा था। जहाज दिनों-दिन बडे से बडे होते जा रहे थे और उन्हे दूर, और दूर, यात्राएं करनी पडती। कोपरनिकस अभी 19 साल का ही था जब कोलंबस ने समुद्र पार करके अमेरिका की खोज की थी। समुद्र-यात्रा का सारा दारोमदार ज्योतिष गणनाओं पर ही निर्भर करता था। एक बात और जो उन दिनो बहुत जरूरी हो गई, वह थी एक सही-सही कलैंडर का बनाया जाना, क्योंकि चर्च के पर्व-उत्सवो को उसके अभाव में ठीक ढंग से मनाया नही जा सकता था। निकोलस कोपरनिकस निकोलस कोपरनिकस की शिक्षा-कथा हमे शायद कुछ अजीब लग सकती है, क्रैको विश्वविद्यालय छोड़कर वह इटली के बीलोना स्कूल ऑफ लॉ में जाकर दाखिल हो गया। और बोलोना के बाद वह पेदुआ विश्वविद्यालय मे पहुचा, जहा उसकी पढाई बदस्तुर चलती रही। आखिर 1503 मे फैरारा विश्वविद्यालय से उसने डाक्टर ऑफ लॉज की उपाधि प्राप्त की। उन दिनों विद्यार्थी पढ़ने के लिए एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय में और दूसरे से तीसरे मे पहुचा करते थे। निकोलस पौलैड घर वापस आ गया, पर वहा बहुत दिन नही रहा। उसने मामा को समझाया कि धर्म सेवा के लिए डाक्टरी पढ़ना बहुत जरूरी है और लगता है कि अब घर मे आर्थिक समस्याएं कोई नही रह गई थी, क्योकि निकोलस इस बार 30 साल की उम्र में मैडिकल स्कूल में और पढाई करने के लिए पेदुआ वापस लौट आया। उस जमाने मे चिकित्सा शास्त्र और ज्योतिष शास्त्र मे परस्पर बहुत निकट सम्बन्ध हुआ करते थे। समझा यह जाता था कि शरीर के अंगों मे तथा ग्रह मण्डल की राशियों में कुछ गुह्य सम्बन्ध है। जोडियाक अथवा राशिमण्डल, ब्रह्माड मे उस क्षेत्र को कहा जाता है जहा सूर्य और अन्य प्रमुख नक्षत्र परिक्रमा करते दिखाई देते है। यह क्षेत्र 30-30 अंश के 12 भागो मे विभक्त है और हर भाग के लिए एक पृथक संकेत व शकुन होता है जिसे राशि मण्डल का शकुन कहते है। प्राय हर महीने सूर्य इस क्षेत्र के एक सर्वथा भिन्न भाग में आ जाता है, किन्तु नक्षत्र जैसे मौज मे आकर राशि मण्डल मे जहां-तहां आवारा गर्दी करते फिरते हैं। आज तक भी ऐसे लोग है जो अपने-आपको ज्योतिषी कहते है और आपकी जन्मतिथि के अनुसार सूर्य तथा नक्षत्रों की गणना करके, उस कुंडली के आधार पर, आपका सारा भाग्य (सारा जीवन ) पहले से ही पढ़ के बता देंगे। पढाई के इन्ही दिनों कभी निकोलस कोपरनिकस को फ्राएनबर्ग के गिरजे मे एक छोटे पादरी के तौर पर नौकरी मिल गई। नौकरी के मिलने में जहां उसके पादरी मामा की प्रतिष्ठा का योगदान था, वहा कोपरनिकस की अपनी योग्यता भी उसमे कुछ कम कारण न थी। कुछ भी हो, वह इस ओहदे को संभालने के लिए पूरी तरह से तैयार होकर आया था धर्म-विज्ञान में तथा दर्शन में उसे यथा विधि दीक्षा मिली थी, और वह इटली, ईसाइयत के केन्द्र इटली, के अन्दर तक कितनी ही बार यात्राए कर आया था। चर्च के कानून में वह डाक्टरेट की एक उपाधि भी हासिल कर चुका था, हिकमत में भी माहिर था, ग्रीक और लेटिन दोनों उसे आती थी, और ग्रीस तथा रोम के प्रख्यात दर्शन, गणित तथा विज्ञान सम्बन्धी ग्रन्थों में वह निपुण था। 33 वर्ष की उम्र मे निकोलस कोपरनिकस की शिक्षा-दीक्षा आखिर समाप्त हो ही गई, और वह अपने बूढे और बीमार मामा की सेवा के लिए पोलैंड वापस लौट आया। काफी फ़ालतू समय था, जिसमे वह अपनी पढाई-लिखाई और स्वतंत्र अध्ययन भी जारी रख सकता था, इन्ही स्वतंत्र अध्ययनों का परिणाम यह हुआ कि वह ब्रह्मांड व्यवस्था के बारे में एक नया दृष्टिकोण विज्ञान को दे सका। मामा की मृत्यु पर कोपरनिकस फ्राएनबर्ग में फिर से अपनी नौकरी पर चला आया। बहुत देर से धर्म सेवा का उसका यह मिशन बीच में ही रह गया था। यहां पहुच कर चर्च के परकोटे की एक बुर्जी मे उसने डेरा डाला। यह बुर्ज आज भी कायम है, और इसका नाम है ‘कोपरनिकस टावर’, यही उसकी वेधशाला थी। निकोलस कोपरनिकस के सिद्धांत व खोज शुरू-शुरू मे ग्रह गणना करते हुए और नक्षत्र-मंडल का अध्ययन करते हुए कोपरनिकस ने भी प्राचीन ग्रीक तथा अरबी गणनाओं को ही यथावत स्वीकार कर लिया। किन्तु उसके मत में अब भी यह था कि कुछ नई गणनाएं अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। क्योंकि लोगों में एक सन्देह सा उत्पन्न हो चुका था कि उस जमाने से इस जमाने तक पहुंचते-पहुंचते ब्रह्मांड की स्थिति में कुछ न कुछ परिवर्तन आ चुके हैं। निकोलस कोपरनिकस के यंत्र कोई सुक्ष्म यंत्र न थे, उनके द्वारा की गई आकाशीय गणनाओं में यूनानियों द्वारा की गई 1500 साल पुरानी गणनाओं की अपेक्षा कोई अधिक सत्यता आने की उम्मीद न थी, और आज जो विश्व में एक महा वैज्ञानिक के रूप में उसकी ख्याति है वह उसके साधनों एवं उसकी गणनाओं के कारण नहीं, अपितु गणित तथा दर्शन के आधार पर, तथा सुक्ष्म चिन्तन के द्वारा ब्रह्मांड की एक नूतन व्यवस्था परिकल्पित कर सकने के कारण ही है। कोपरनिकस के बाद भी ताइको ब्राहे तथा योहेन्नीज कैपलर सरीखे अन्य ज्योतिविद आए ओर उन्होंने उसकी भविष्यवाणियों में कुछ संशोधन भी किए, किन्तु इस दिशा में उपक्रम तथा प्रेरणा स्वयं कोपरनिकस ही दे गया था। 1539 के बसंत में 28 साल का एक जर्मन युवक जार्ज योएखिम रैटिकस, कोपरनिकस के यहां आया। रैटिकस भी अपने-आप में एक प्रतिभाशाली मनीषी था और, 28 साल की छोटी उम्र में, वित्तेनबर्ग विश्वविद्यालय में उसे प्रोफेसरी भी मिल चुकी थी। कोपरनिकस, जो अब बूढ़ा हो चुका था, रैटिकस से मिलकर बड़ा खुश हुआ, और रैटिकस ने भी दो साल से ऊपर कोपरनिकस के साथ उसकी वैज्ञानिक गवेषणाओं तथा हस्तलेखों का अध्ययन करते हुए गुजार दिए। और यह रैटिकस ही था जिसने कोपरनिकस से अनुरोध किया कि उसकी इन महान खोजों का प्रकाशन होना चाहिए, और रैटिकस को ही पहले-पहल मूल हस्तलेख (निकोलस कोपरनिकस के सिद्धान्तों का) जर्मनी में छपने के लिए भेजा गया था। इस पुस्तक का पूरा नाम है ‘रैवोल्यूशनिबस आबिअम सिलेस्टिअम’ (ब्रह्माड की देवी’ प्रदक्षिणाए) जिसको संक्षेप मे आज हम ‘रवोल्यूशन्स’ (प्रदक्षिणाए) के नाम से जानते है। बदकिस्मती से जब किताब छपकर पहले-पहल’ कोपरनिकस के हाथ मे पहुची, अगर यह वह किताब है जिसको विज्ञान-जगत न्यूटन की प्रिसीपिया’ (मूल सिद्धान्त) के समकोटि रूप मे स्मरण करता है, तब वह इस हालत मे नही था कि वह किसी भी मामले पर साफ-साफ कुछ भी सोच सकता। वह मर रहा था। वह दौरो का शिकार था। दिमाग को उसके अन्दर से चोट पहुंच चुकी थी। और दिल भी उसका कुछ कम बीमार न था। “रैवोल्यूशन्ज’ का एक सक्षिप्त परिचय– उसके लेखक की महानता के विषय मे कुछ ही संकेत छोड सकता है। निकोलस कोपरनिकस के सिद्धान्त का केन्द्र-बिन्दु यह है कि ब्रह्माड को यदि एक सामान्य चित्र द्वारा प्रस्तुत करना हो तो सूर्य को केन्द्र मानते हुए यह मानना होगा कि हमारी पृथ्वी एक ग्रह की तरह उसकी परिक्रमा कर रही है। पृथ्वी की इन्ही परिक्रमाओं में हमारे ऋतु-परिवर्तन का रहस्य छिपा हुआ है। कोपरनिकस ने ही पहली बार यह बात स्पष्ट की कि आसमान में तारो की स्थिति उन्हे इटली से देखने पर, वही कदापि नही हो सकती जो मिस्र से देखने पर होगी। उत्तराध से हम उन्हीं तारो को नही देख सकते जिन्हे कि हम दक्षिणार्थ से देख सकते है। जहाज के मस्तूल पर अगर एक दीपक थमा दिया जाए तो ज्यो-ज्यो जहाज समुद्र की ओर बढेगा दीपक की लौ मद्धिम पडती-पडती कुछ देर बाद अदृश्य हो जाएगी ऐसा मालूम पड़ेगा जैसे वह पानी में प्रविष्ट होती जा रही है। इन तथ्यों को उसने एक यृक्तिक्रम मे बांधा और सिद्ध कर दिखाया कि पृथ्वी गोल है। कोपरनिकस इस बात की गहराई मे भी विवेचना करते-करते जा पहुचा कि ये तारे और नक्षत्र कभी-कभी क्यो अपने परिक्रमा पथ से विचलित होते नज़र आते है, कभी एकदम से आगे बढ जाते है, और कभी बिना किसी वजह के जैसे पीछे की ओर मुड आते हैं और बीच-बीच मे जैसे चलना बिलकुल बन्द कर देते हैं। उसने स्पष्ट कर दिखाया कि यदि सूर्य को नक्षत्रों की इस गतिविधि का केन्द्र मान लिया जाएं, तो उनकी परिक्रमाओं मे दृश्यमान यह अनियमितता जैसे एकदम छूमंतर हो जाती है। दोष हमारे दृष्ठिकोण में था, निर्जीव नक्षत्रों की यात्राओं मे नही। टालमी की स्थापनाओं का अनुसरण करते हुए कोपरनिकस भी अपने गणित की सहायता से इसी निष्कर्ष पर पहुचा कि ग्रह यात्राओं मे यह अव्यवस्था एक वृत्त मे अथवा अनेक वृत्तों मे उनकी गतिविधि को मानने के कारण ही शायद आती है, क्योकि वृत्तों की स्थापना स्वीकार करके ही हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि नक्षत्रों की परिक्रमाएं आवृतिशील है। निकोलस कोपरनिकस ने यह भी सिद्ध कर दिखाया कि पृथ्वी को बह्माड का केन्द्र मानेने की आवश्यकता नही है, अर्थात्, यह आवश्यक नही कि वह सचमुच इस सम्पूर्ण ग्रह-मण्डल का केन्द्र हो ही, जब तक कि हमे इतनी बात बिलकुल स्पष्ट है कि इन सब मण्डलों का पार पा सकता हमारी मानव-बुद्धि के लिए असम्भव है और मण्डलो’ की इस विपुलता मे शायद ब्रह्माड के असली केन्द्र बिन्दु मे तथा पृथ्वी में दूरी का कुछ भी महत्त्व रह नही जाता। कोपरनिकस की बात हमे आसानी से समझ मे आ सकती हैं यदि हम 12 इंच व्यास का एक वृत्त खीचें और उसके अन्दर एक छोटा-सा बिन्दु, वृत्त के केन्द्र से इंच के 6वें हिस्से के बराबर फासले पर रख दें। अब यह छोटा-सा बिन्दु ही देखने वाले को स्वय वृत्त का केन्द्र प्रतीत होने लगेगा। कोपरनिकस ने “रेवोल्यूडन्ज’ मे पृथ्वी, चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्रों की गतिविधि का बडा सूक्ष्म विवेचन अंकित किया है। पुस्तक में पृष्ठ-पृष्ठ पर रेखाचित्र है जिनमे हर नक्षत्र का मार्ग अंकित है। और साथ ही गणना सारणियां प्रस्तुत है जिनके द्वारा पाठक नक्षत्रों की पृथ्वी से आपेक्षिक दूरी तथा स्थिति के विषय मे बहुत-कुछ सही ‘भविष्यवाणी'” कर सकता है। इन भविष्यवाणियो मे सचमुच कुछ गलतियां भी रह गई थी जिन्हे कैपलर ने आकर दुरुस्त किया। इसके दो कारण थे। एक तो यह कि कोपरनिकस के यंत्र कुछ सूक्ष्मदर्शी न थे। दूसरा यह कि जैसा कि कैपलर ने सिद्ध कर दिखाया कि नक्षत्रों के परिक्रमा मार्ग वास्तव मे शुद्ध वृत्ताकार न होकर कुछ-कुछ अंडाकार है। फिर भी इन गणनाओं मे पर्याप्त यथार्थता थी जिसके आधार पर एक नया और ज्यादा सही, कलैण्डर ग्रेगोरियन कलेण्डर निर्माण किया जा सकता था। निकोलस कोपरनिकस के अनुसंधान का क्षेत्र उसके युग के अनेक महापुरुषों की भांति विज्ञान तक ही सीमित नही था। पोलैंड उन दिनो बहुत-सी छोटी-छोटी रियासतों मे बंटा हुआ था , कही कोई स्थायी अर्थ-व्यवस्था नही थी। आए दिन कही न कही दो रियासतों मे लडाई छिडीं रहती, जिसका नतीजा यह होता कि लोगो के लिए चीजों के दाम चढते जाते। कोपरनिकस को यह भी मालूम था कि खोटे और खरे दोनो किस्म के, सिक्के चल रहे थे, और यह भी कि लोग खरे सिक्के को छिपाकर रख लेते और खोटे से ही अपना काम चला रहे थे। इस वस्तुस्थिति के अध्ययन का ही यह परिणाम हुआ कि बहुत साल बाद अर्थशास्त्र को एक नया नियम, ग्रेशम का नियम के रूप में मिल गया। निकोलस कोपरनिकस ने एक किताब लिखी जिसके जरिए उसने यह सलाह दी कि पोलैण्ड की हर रियासत मे एक ही सिक्का चले, सभी कही उस सिक्के का एक ही वजन हो, और उसकी एक ही बनावट हो। और इसके लिए यह भी जरूरी था कि पुराने सारे सिक्के पहले एकदम सरकार के हवाले कर दिए जाए। मुनाफाखोरों ने कोपरनिकस का भरपेट विरोध किया, और कोपरनिकस के परामर्शों को क्रियात्मक रूप न दिया जा सका। यह बडे अचरज की बात है कि लगभग इन्ही हालात मे ब्रिटिश सरकार ने जब सर आइजक न्यूटन को देश की आर्थिक अवस्था सुधारने के लिए आमंत्रित किया था, तो न्यूटन ने भी अक्षरश” यही परामर्श देश के कर्णधारों को तब दिए थे और ब्रिटेन की खुश किस्मती से न्यूटन के परामर्श मान लिए गए थे।निकोलस कोपरनिकस इतिहास में पहला व्यक्ति नही है जिसने सूर्य को विश्व का केंद्र माना हो। सदियों पहले एक ग्रीक ज्योतिविद सामोस निवासी एरिस्टार्कस ने यही सिद्धान्त स्थापित कर लिया था। किन्तु सिद्धान्त की परिपुष्टि मे बहु, बस, तथ्य पर आधारित एक युक्ति श्रृंखला को उपस्थित नही कर सका था। प्रतीत होता है जैसे प्रकृति ने यह रहस्य कोपरनिकस द्वारा उदद्घाटन के लिए ही इतने समय तक अपने हृदय मे छिपाए रखा था, जैसे एरिस्टार्कस के 1800 साल बाद हीं मनुष्य की बुद्धि इसकी सत्यता को मान सकती थी। निकोलस कोपरनिकस ने सिद्धान्त स्थापना कितने सुन्दर ढंग से की है, “और इन सबके बीच में सूर्य है, और, है कोई जो इस चमकते सितारे को किसी भी और–और बेहतर— जगह में रख सके ?–यह ब्रह्मांड, एक सुन्दर पूजा-मन्दिर है, जिसमें मन्दिर का अचेना-दीप वहीं स्थापित किया जा सकता था, जहां से मन्दिर का कोना-कोना जगमगा सके। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े—- [post_grid id=”9237″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a 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