नवाब मुहम्मद अली शाह लखनऊ के 9वें नवाब Naeem Ahmad, June 14, 2022March 3, 2023 मुन्नाजान या नवाब मुहम्मद अली शाह अवध के 9वें नवाब थे। इन्होंने 1837 से 1842 तक लखनऊ के नवाब के रूप में शासन किया। नवाब मुहम्मद अली शाह के वालिद नवाब नसीरूद्दीन हैदर थे। इनके शासन काल में लखनऊ में खूब तरक्की हुई अनेक इमारतों का निर्माण हुआ। नवाब मुहम्मद अली शाह का जीवन परिचयनवाब नसीरुद्दीन हैदर का इस दुनिया से रुखसत होना ही था कि गद्दी के लिए हाय तौबा मचनी शुरू हो गयी। जिसका ज़िक्र मिर्जा रजब अली बेग ने अपनी किताब “फतानये इब्रत’ में किया है– “बाद दफ़न नसीरुद्दीन हैदर आधी रात को नसीरुद्दौला गददी पाने के लिए फरहतबख्श कोठी में तशरीफ ले आये। रेजिडेन्ट करनल छोटे साहब एवं रोशनुद्दौला व सुबाहन अली खाँ कमरे में सलाह कर रहे थे। उसी वक्त बादशाह बेगम फसर्दूबख्श मिर्जा और मुन्ताजान हाथी पर सवार होकर एक जुलूस के साथ दरवाजे पर आ पहुँचे। छोटे साहब ने दरवाजे पर पहुँच कर मना किया पर वे न मानी हाथी से उतरकर अन्दर आ गयीं। हंगामा हुआ और छोटे साहब घायल भी हो गये। बेगम ने मुन्नाजान को तख्त पर बिठाया। जो लोग हाजिर थे उनको नजरें दी गयीं। बाकी दूसरे दिन के लिए मुल्तवी रखी गया। मिर्जा इमाम बख्श सिपहसालार मुकर्रर हुए। रेजिडेन्ट साहब ने उसी वक्त फौज की तैयारी का हुक्म दिया बादशाह बेगम और नवाब रोशनुद्दौला में गर्मागर्म बहस हो रही थी। रेजिडेन्ट ने मिर्जा अली खाँ से कहा कि बेगम ने यह अच्छा नहीं किया। राज्य के लालच में न पड़ें, घर वापिस जायें सुबह देखा जायेगा। फिर रेजिडेंट ने मुस्तफा खाँ रिसालदार अब्दरर्हमान खाँ कंधारी के पोते को समझाया कहा कि बखुशी राज्य छोड़ दें वरना अच्छा न होगा। छोटे बड़े की खातिर में नहीं आया। इसके बाद मेगनीज के रिसाले की तोपें लाल बारादरी के सामने लगायी गयीं। कत्ले आम शुरू हुआ। बादशाह बेगम मुन्नाजान को लेकर खराब हालत में अल्मास बाग वापस आयी। वहाँ से गिरफ्तार होकर कई दिन तक मुन्नाजान के साथ रेजिडेन्सी में रहीं। अरबी उस्सानी मंगल के दिन, 1225 हिजरी को अंग्रेजी फौज कानपुर से आ गयी। वे एक टूटे बंगले में कैद की गयी और वहां से चुनारगढ़ के किले में भेजी गयी। इस प्रकार तमाम जान-माल का नुकसान हुआ। 8 जुलाई सन् 1837 को को नसीरुद्दौला गद्दी पर बैठे। नसीरुद्दौला का नाम बदल कर मुहम्मद अली शाह रखा गया। उन्हें एक खिताब भी हासिल हुआ–अबुल फतह मुईनुद्दीन सुल्तानेज़मा नौशेखाने आदिल।नसीरूदौला ने ताज के बाद मोहम्मद अली शाह का नाम ग्रहण किया। वह पहले से ही 60 वर्ष का था और कमजोर स्वास्थ्य का था। उन्होंने अंग्रेजों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे और ईस्ट इंडिया कंपनी को अवध में बलों को बढ़ाने और आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप करने की अनुमति दी जब कभी भी कानून और व्यवस्था में गिरावट आई। ब्रिटिश रेजिडेंट ने नई संधि का एक उपयुक्त मसौदा तैयार किया जिसने कंपनी को व्यापक अधिकार दिए लेकिन कुछ कारणों से कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने इसकी पुष्टि नहीं की। हुसैनाबाद के सौंदर्यीकरण के लिए नवाब मुहम्मद अली शाह को भविष्य में याद किया जाएगा। उसने सतखंड का निर्माण शुरू किया और हुसैनाबाद टैंक का निर्माण किया। सड़कों का सुधार किया गया। हुसैनाबाद इमामबाड़ा और शाहजहानाबाद की जामा मस्जिद से बड़ी योजना के साथ, हुसैनाबाद टैंक के सामने, नवाब मुहम्मद अली शाह लखनऊ को एक नया बुबुल बनाना चाहते थे। वह राज्य प्रशासन को और बेहतर बनाने के लिए वांछित परिवर्तन नहीं ला सके, लेकिन अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने पूरी कोशिश की। उनकी प्रजा उन्हें पसंद करती थी। वह अपने उत्तराधिकारी के लिए खजाने में पर्याप्त राशि बचाने में सफल रहे, उनके अपने बेटे अमजद अली शाह का नाम उनके जीवनकाल में रखा गया था। वृद्ध राजा की मृत्यु जल्दी हो गई और उन्होंने अपनी कई परियोजनाओं को अधूरा छोड़ दिया। नवाब मुहम्मद अली शाह नसीरुद्दीन हैदर के वजीर रोशनुद्दौला मुहम्मद अली शाह के भी वज़ीर रहे लेकिन केवल 3 माह तक ही। नवाब ने रोशनुद्दौला को हटाकर हकीम मेंहदी को अपना वज़ीर बनाया। रोशनुद्दौला कम्पनी सरकार का कुत्ता था। तमाम हेरफेर के कारण उस पर 20 लाख का जुर्माना हुआ और वजीर साहब जेल में पहुँच गये उनका तीन लाख का मकान भी मुहम्मद अली शाह ने अपने कब्जे में कर लिया मगर जल्दी ही घूस देकर वह कैद से भाग निकला और उसे उसके आकाओं ने शरण दी।मुहम्मद अली शाह को नये गवर्नर जनरल लार्ड आकलैंड ने 25 जुलाई, 1837 को नवाब होने पर बधाई पत्र भी भेजा था। नवाब मुहम्मद अली शाह एक योग्य शासक के रूप में उभर कर सामने आये। रज्जब अली सरूर ‘फसानये इब्रत’ में लिखते हैं कि बरवकक्त तख्तनशीनी हर आदमी अपनी-अपनी जगह पर खुश था, बागी लोगों की गिरफ्तारी शुरू हुई, 27 अक्टूबर को सुबहान अली खाँ, एहसान हुसेन खाँ, मुजफ्फर हुसैन खाँ, खादिम हुसैन, बन्दा हुसैन और कुदरत हुसैन गिरफ्तार होकर कैद खाने भेजे गये। धनिया व दुलबी कहारिन भी गिरफ्तार हुई।मुहम्मद अली शाह को इमारतें बनवाने का भी बड़ा शौक था जिसका ज़िक्र किताब अफ़जलुत तवारीख में मुन्शी राम सहाय ने किया है। नवाब मुहम्मद अली शाह द्वारा बनवाई कुछ इमारतें:– इमामबाड़ा हुसेनाबाद. 1253 हिजरी दरवाज़ा इमामबाड़ा. 1254 हिजरी सड़क हुसैनाबाद 1254 हिजरी जरीह (ताजिया) 1254 हिजरी हुसैनाबाद कुआं 1254 हिजरी रसदगाह 1254 हिजरी हुसैनाबाद का हम्माम 1255 हिजरी सराय हुसेनाबाद 1255 हिजरी तालाब नौखण्डा 1255हिजरी मस्जिद हुसेनाबाद 1255 हिजरी गेंद खाना 1255 हिजरीइस प्रकार नवाब मुहम्मद अली शाह एक कुशल शासक के रूप में सदैव याद किए जायेंगे। कम्पनी सरकार भी उनसे खुश ही रही, कारण रकम मिलती ही थी लेकिन अन्दर ही अन्दर वह उन्हें भी बराबर खोखला करती रही। 4 रबी उस्सनी, तदनुसार सोमवार, 16 मई 1842 को उनका इन्तकाल हो गया। नवाब मुहम्मद अली शाह और उनकी बीबीयां मोहम्मद अली की मुख्य पत्नी खेतू बेगम थी। उनकी पूरी उपाधि नवाब मलिका मुक़क़दरा उज़मा मुमताज-उस-ज़मानी नवाब जहान आरा बेगम थीं। उनकी मृत्यु के बाद उन्हें हज़रत मरियम मकानी की एक और उपाधि दी गई। वह देहली के एक कुलीन परिवार से आती थी। उनके पिता कमर-उद-दीन खान के पोते थे। उसकी शादी पर, उसे मेहर दी गई थी। 6 लाख, 7 लाख रुपये की संपत्ति और उचित रखरखाव भत्ता। जब राजा कैसरबाग में रहने लगे, तो बेगम ने हुस्न बाग में रहने की इच्छा जताई। वह एक धर्मपरायण महिला थीं और सभी का सम्मान करती थीं। राज्य के मामलों में उनका हस्तक्षेप नगण्य था और जब उन्हें ऐसा करने के लिए कहा जाता था तब ही उनका विरोध होता था। अमजद अली शाह उनसे और इसलिए उनके बेटे वाजिद अली शाह से सलाह लेते थे। उसे हैजा बिमारी ने पकड़ लिया और 20 अक्टूबर, 1850 को उसकी मृत्यु हो गई। हालांकि एक 60 वर्षीय व्यक्ति नवाब मुहम्मद अली शाह ने महिलाओं में अपनी रुचि बनाए रखी। प्रिंट में कम से कम सात नाम सामने आए जो उनकी माध्यमिक पत्नियां थी और बेगम बादशाह खानम का एक और नाम सूची में जोड़ा गया है। नवाब मलिके-ए-जहाँ हमीदा सुल्तान फकर-उल-ज़मानी का नवाब मुहम्मद अली शाह के दिल में एक विशेष स्थान था, जो उनके द्वारा गवर्नर जनरल को लिखे गए एक पत्र से स्पष्ट होता है। मिर्जा हुमायूं बखत उनके पुत्र थे। उन्हें 9000 रुपये प्रतिमाह पेंशन और 4800 रुपये मासिक भत्ता दिया गया। उसने जामा मस्जिद के निर्माण के लिए उसे 10,000 रुपये भी दिए। मुहम्मद अली की मृत्यु के बाद, नए राजा नवाब अमजद अली शाह ने उसकी पेंशन और संपत्ति को लेकर उसे परेशान किया। इस बार बेगम और उनके बेटे के बीच फिर से संपत्ति का विवाद खड़ा हो गया, लेकिन सुलह हो गई। अपने बेटे की मृत्यु के साथ, बेगम फिर से अपनी बड़ी बहू के खिलाफ संपत्ति विवाद में उलझ गई, जिसने नए राजा के समर्थन से अपने पति के हिस्से के लिए दावा किया। बेगम, नवाब और निवासी के बीच एक लंबा पत्र व्यवहार हुआ। बेगम विद्रोह के बाद और 1865 में वापसी के बाद मक्का की तीर्थयात्रा पर गईं; उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि लखनऊ के दौलतपुर में उनकी संपत्ति पर अंग्रेजों का कब्जा था। ऐसा लगता है कि संपत्ति के मुकदमों ने उसे अंत तक कभी नहीं छोड़ा। इस बार वह अपना केस लंदन के प्रिवी काउंसिल में ले गईं लेकिन वह हार गईं। बेगम अब दिल से टूट चुकी थी, बीमार थी और अपना शेष जीवन मक्का में बिताना चाहती थी। वह मुंबई पहुंची लेकिन जहाज पर चढ़ने के दिन ही उसकी मृत्यु हो गई। उनके पार्थिव शरीर को नजरबंदी के लिए कर्बला भेज दिया गया। ऐसा कहा जाता था कि बेगम ने अपनी चल संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा बंबई में छोड़ दिया था। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें—– [post_grid id=”6023″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... 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