नवाब दोस्त मोहम्मद खान का जीवन परिचय Naeem Ahmad, November 13, 2022March 28, 2024 भोपाल रियासत के मूल संस्थापक का नाम नवाब दोस्त मोहम्मद खान है। आपने सन् 1708 में अफगानिस्तान के खैबर प्रान्त के तराई नामक ग्राम से भारत में प्रवेश किया। नवाब दोस्त मोहम्मद खान के पिता का नाम नूर मोहम्मद खाँ था। ये नूर महम्मद खाँ सुप्रसिद्ध खान मोहम्मद खाँ मिर्जा खेल’ के पौत्र थे। जिस समय दोस्त मोहम्मद खाँ ने हिन्दुस्तान में प्रवेश किया उस समय मुगल सम्राट औरंगजेब इस दुनिया से कूच कर चुके थे, उनके पुत्र बहादुरशाह दिल्ली के तख्त पर आसीन थे। नवाब दोस्त मोहम्मद खान का जीवन परिचय नवाब दोस्त मोहम्मद खान पहले पहल भारत से मुजफ्फरनगर जिले के लीहारी जलालाबाद नामक ग्रास में आकर बसे। यह जिला उस समय जलाल खाँ नामक पुरुष के आधीन था। कुछ दिनों के पश्चात् नवाब दोस्त मोहम्मद खान का लोहारी जलालाबाद वासी एक पठान से झगड़ा हो गया। क्रोध में आकर उन्होंने पठान को कत्ल कर डाला। राज्य के अधिकारियों द्वारा इस अभियोग में दंड मिलने के भय से वे जलालाबाद छोड़कर शाहजहाँबाद अथवा देहली जा बसे । देहली से वे शाहँशाह की सेना के साथ मालवा प्रान्त में आये। यहाँ उन्होंने सीतामऊ नरेश के यहाँ नौकरी की। कुछ दिन नौकरी करके वे यहाँ से भीलसा के अधिकारी मोहम्मद फारुख से जा मिले। इसके बाद मोहम्मद फारुख को अपनी जायदाद सौंपकर उन्होंने मालवा प्रान्त के तत्कालीन एक सरदार के यहाँ नौकरी की। अपने मालिक की आज्ञा पाकर उन्होंने बाँस बरैली के जमीदार से युद्ध किया, जिसमें उन्हें गहरी चोट आई। किसी ने उसके इस युद्ध में मारे जाने की झूठी खबर फैला दी। मोहम्मद फारुख को यह खबर लगते ही उसने उसका भीलसा में रखा हुआ सब असबवाब हडप कर लिया। यह ख़बर जब नवाब दोस्त मोहम्मद खां के कानों तक पहुँची तो वे भीलसा पहुँचे। उनके हाज़िर होने पर मोहम्मद फारुख ने उनका कुछ असवाब वापिस दे दिया किन्तु बाकी असबाब देने से उसने इन्कार किया। मोहम्मद फारुख के इस बर्ताव से अप्रसन्न होकर दोस्त मोहम्मद खाँ ने बेरसिया परगने के मंगलगढ़ संस्थान की रानी–ठाकुर आनन्द सिंह की माता के पास नौकरी कर ली। यह सोलंकी राजपूत थीं। रानी दोस्त मोहम्मद खाँ के उत्साह एवं स्वामीभक्ति से इतनी संतुष्ठ थीं कि वे कभी कभी उन्हें अपना पुत्र कह कर सम्बोधित किया करती थीं। वह उन्हें इतना विश्वास पात्र समझती थीं कि उसने अपने कुछ बहुमूल्य जवाहिरात उन्हें सौंप दिये। रानी की मृत्यु केपश्चात् नवाब दोस्त मोहम्मद खान कुल जवाहिरात लेकर बेरसिया चले गये। उस समय बेरसिया बहादुरशाह की राज्य मजलिस के सरदार ताज मोहम्मद खाँ की जागीर में था। बहादुरशाह के शासन-काल के समय भारत में मुगलों की सत्ता का सार्वभौमत्व उठ गया था। तैमूर लंग के वंशज इस समय बहुत कमज़ोर हो गये थे। वे इतने बड़े प्रदेश का राज्य प्रबंध करने में बिलकुल असमर्थ हो रहे थे। भारत में उस समय जान व माल की कुशल नहीं थी। लुटेरे प्राय: राहगिरों को लूट लिया करते थे। वे गाँवों में भी डाका डालते थे। वे मालवा प्रान्त के पारासून आदि संस्थानों के ठाकुरों के आश्रय में रह कर खानदेश तथा बरार प्रान्त तक धावा करते थे। सारांश यह है कि, चारों ओर अव्यवस्था और गड़बड़ फैली हुई थी। मालवा प्रान्त के चान्दखेड़ी तालुके के अधिकारी यार खाँ भी लुटेरों के कष्ट से बचे नहीं थे। इतना ही नहीं, वे डाकुओं को पराजित करने में बिलकुल असमर्थ थे। अतएव चॉंदखेड़ी के जागीरदार ने काज़ी मोहम्मद साले ओर अमोलक चंद आदि पुरुषों की अनुमति से चाँदखेड़ी तालुका दोस्त मोहम्मद खाँ को प्रति वर्ष 30000 रुपये के इजारे पर दे दिया। आसपास का मुल्क जीतने की इच्छा से नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने अपने रिश्तेदारों तथा जाति बाँधुवों को चाँदखेड़ी तालुके में एकत्रित करना शुरू किया। साथ ही साथ उन्होंने अपने एक अनुभवी गुप्तचर को पारासून राज्य का भेद लेने के लिये भेजा। गुप्तचर अत्यंत चतुर था। वह फकीर के वेश में पारासून में घूमा करता था। उसने होली के दिन पारासून के ठाकुर तथा उसके सिपाहियों को नाच रंग में मस्त देखकर उसकी सूचना दोस्त मोहम्मद खाँ को दी। नवाब दोस्त मोहम्मद खान अपने साहसी ओर होशियार सिपाही साथ लेकर पारासून पहुँचे। उस समय मध्य रात्रि थी। ठाकुर तथा दूसरे पुरुष नशे में बेसुध थे। नाच भी हो रहा था। दोस्त मोहम्मद खां ने ऐसा सुयोग्य अवसर पाकर एकाएक उन्हें घेर लिया तथा ठाकुर और उसके कई अनुयायियों को मार डाला। ठाकुर के मारे जाने से उसके पुत्र, औरतें तथा तमाम मालियत दोस्त मोहम्मद खां के कब्जे में आ गई। नवाब दोस्त मोहम्मद खान दोस्त मोहम्मद खाँ का उत्साह इस विजय से और बढ़ गया। उन्होंने दूसरे प्रदेश भी अपने अधीन करने का निश्चय किया। खिचीवाड़ा तथा उमतवाडा प्रान्तों के लुटेरों का प्रबंध भी उन्होंने अच्छा किया। भीलखा के शासक मोहम्मद फारुख की ओर से शमसाबाद के हाकिम राजा खाँ और शमशीर खा ने दोस्त मोहम्मद खाँ के साथ युद्ध किया। युद्ध में राजा खां और शमशीर खाँ दोनों मारे गये। जगदीशपुर के देवरा वंश का राजपूत सरदार बड़ा लुटेरा था। उसने दिलोद परगने के पटेल से कर माँगा। पटेल ने नवाब दोस्त मोहम्मद खान की सहायता की आशा पर उसे कर देने से इंकार कर दिया। अतएव जगदीशपुर के राजपूत सरदार ने उक्त पटेल को लूट लिया। इस पटेल ने दोस्त मोहम्मद खाँ से सहायता मांगी। वे ऐसे अवसर की बाट जो ही रहे थे। उन्होंने उसे सहायता देने का वचन दिया। पठान लोग गुप्त रूप से आक्रमण की तैयारी करने लगे। कुछ दिनों के पश्चात् जगदीशपुर के अधिकांश राजपूत डाका डालने के लिये दूर देश में चले गये। दिलोद परगने के रायपुर ग्राम के ठाकुर ने नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ को यह खबर दी। खबर पाते ही नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने अपने कुछ चुने हुए सिपाहियों सहित जगदीशपुर के नजदीक तहाल नदी पर पहुंच कर वहाँ अपना मुकाम किया। वह यहाँ शिकार के बहाने से आये थे उन्होंने जगदीशपुर के ठाकुर के पास अपना वकील भेजकर उनसे भेट करने की इच्छा प्रकट की। जगदीशपुर के ठाकुर ने उन्हें दावत दी और खुद उनके डेरे पर पहुँचे। नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने ठाकुर का आदर सत्कार किया तथा मित्र-भाव प्रदर्शित कर उन्हें अपने डेरे में बुलाया। कुछ समय के पश्चात् वे अतर पान लाने के बहाने से डेरे के बाहर निकले। पूर्वानुसंधित कार्यक्रम के अनुसार ज्यों ही नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ ने डेरे के बाहर पेर रखा त्योंही उनके सिपाहियों ने रस्सियां काटकर डरे को गिर। दिया और कुल राजपूत सरदारों को काट डाला। उनकी लाशें तहाल नदी में फेंक दी गई। इसी दिन से इस नदी का नाम “हलाली” नदी पड़ गया। इस प्रकार सारा जगदीशपुर का राज्य नवाब दोस्त मोहम्मद खान के अधीन हो गया। उसने इस स्थान का नाम जगदीशपुर बदल कर इस्लामपुर रखा। यहाँ उन्होंने एक किला और कुछ इमारतें बनवाई और बाद में वे यहीं रहते थे। थोड़े ही समय में बहुत सफलता प्राप्त हो जाने के कारण नवाब दोस्त मोहम्मद खान की हिम्मत बहुत बढ़ गई और वे मोहम्मद फारुख पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगे। भीलसा के नजदीक जमाल बावड़ी गाँव में मोहम्मद फारुख ओर नवाब दोस्त मोहम्मद खां की फौजों का सामना हुआ। नवाब दोस्त मोहम्मद खां की सेना उनके छोटे भाई शेर मोहम्मद खाँ के संचालन में युद्ध कर रही थी। मोहम्मद फारुख युद्ध-स्थल में नहीं उतरा। वह एक हाथी पर सवार होकर दूर ही से युद्ध का तमाशा देख रहा था। नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ अपनी सेना के कुछ चुने हुए सिपाहियों सहित पास ही की एक टेकरी के पीछे छिपे बेठे थे। भीषण युद्ध शुरू हुआ। कुछ देर में मोहम्मद फारुख के दुराहा नामक ग्राम के राजा खाँ मेवाती ने शेर मोहम्मद खाँ को इतने जोर की बरछी मारी कि वहआर पार निकल गई। इधर शेर महम्मद खाँ पर बरछी का वार होना था कि उधर उन्होंने राजा खां मेवाती पर तलवार का एक हाथ मारा। इससे उस के भी दो टुकड़े हो गये। अपने सेनापति के मारे जाने पर नवाब दोस्त मोहम्मद खान की फौज के पाँव उखड़ गये। वह युद्ध से भाग खड़ी हुई। मोहम्मद फारुख की फौज ने उसका पीछा किया। अपनी सेना के विजयी होने से मोहम्मद फारुख अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने रण-दुंदुभी बजाने का हुक्म दिया। नवाब दोस्त मोहम्मद खान, जोकि इस समय तक टेकरी की आड़ में छिपे हुए बेठे थे, शत्रुको आनन्द और खुशी में लीन होते देख अपने गुप्त-स्थान से बाहर निकले। बड़े साहस और चतुराई से उन्होंने मोहम्मद फारुख को घेरकर उसे कत्ल कर डाला। इसके पश्चात् अपने मुँह पर धांटा बाँधकर वे मोहम्मद फारुख के हाथी पर सवार हुए। रण-दुंदुभी बजाने वाले सब सैनिक नवाब दोस्त मोहम्मद खान के अधीन हो गये थे। अतएव उन्होंने उन्हें रण-दुंदुभी बजाने की आज्ञा दी। रण-दुन्दुभी का नाद सुनकर भीलसा की सेना, जो कि अपनी विजय से पहिले ही प्रफुल्लित हो उठी थी, इस समय फूली न समाई। युद्ध खत्म होने तक रात हो गई थी, इससे भीलसा की सेना ने दोस्त महम्मद खाँ को नहीं पहचाना। वह उन्हें अपना मालिक समझ कर उसके साथ भीलसा के किले तक था पहुँची। किले के रक्षकों ने भी नवाब दोस्त मोहम्मद खान को अपना स्वामी समझा। उन्होंने किले का द्वार खोलकर दोस्त मोहम्मद खाँ को किले के अन्दर ले लिया। किले में अपनी सेना सहित प्रवेश करने पर दोस्त मोहम्मद खाँ ने मोहम्मद फारुख का मृत शरीर बाहर निकाल कर फेक दिया तथा किले पर अपना अधिकार कर लिया। इस विजय से नवाब दोस्त मोहम्मद खान की शक्ति बड़ी प्रबल हो गई। थोड़े दिनों के पश्चात् महालपुर, गुलगाँव, झँटकेढ़ा, ग्यासपुर, अंबापानी, लाँची, चोरासी छानवा, अहमदपुर, बांगरोद, दोराहा, इच्छावर, सिहोर, देवीपुरा, आदि बहुत से परगने उनके कब्जे में जा गये। नवाब दोस्त मोहम्मद खां की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिये मालवा प्रान्त के सूबेदार दया बहादुर ने उनके विरुद्ध एक सेना भेजी। दोनों ओर की सेना में युद्ध हुआ। इस समय भी अपनी कूटनीति से नवाब दोस्त मोहम्मद खान को विजय प्राप्त हुई और सूबेदार दया बहादुर की सेना पराजित हुईं। इस युद्ध में विपक्षी दल का तोपखाना तथा अन्य युद्धोपयोगी बहुत सा सामान दोस्त मोहम्मद खाँ के हाथ लगा। उनके भाग्य को बढ़ते हुए देख कर शुजालपुर के अमीन विजेराम ने अपना परगना उन्हे सौंप दिया और खुद ही उनके अधीन हो गया। कुखाई का सरदार दलेल खाँ नवाब दोस्त मोहम्मद खां की सफलता पर सुब्ध हो कर भीलसा पहुँचा। उसने उनसे मुलाकात की और उन्हें युद्ध में सहायता पहुँचाने का वादा किया। यह भी निश्चित किया गया कि युद्ध के पश्चात् कब्जे में आए हुए प्रदेश का आधा आधा हिस्सा दोनों में बांटा जावे। जिस समय एकांत में इस विषय पर दोनों में वाद-विवाद हो रहा था, उस समय दोनों में झगड़ा हो गया। दोस्त मोहम्मद खां ने ऐसा योग्य ‘अवसर पाकर सरदार दलेल खां को कत्ल कर डाला। गुन्नूर में गोंड लोगों का एक सुदृढ़ किला था। उनका सरदार निजामशाह गोंड़ था। उसे चैनपुर बाड़ी में रहने वाले किसी रिश्तेदार ने विष देकर मार डाला था। निजामशाह की रानी का नाम कमलावती था। उसके एक लड़का था, जिसका नाम नवलशाह था। ये गुन्नूर के किले में रहते थे। नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ के साहस पर विश्वास कर इन्होंने निमामशाह पर विष-प्रयोग करने वाले रिश्तेदारों से बदला लेने का निश्चय किया। अतएव, इन्होंने नवाब दोस्त मोहम्मद खान से चैनपुर बाड़ी पर आक्रमण करने के लिये अनुरोध किया। नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ ने चुपचाप चैनपुर बाडी को घेर लिया और उसे अपने अधीन कर लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में कमलावती रानी ने उन्हें अपना मैनेजर नियुक्त किया। रानी की मृत्यु होते ही इन्होंने गुन्नूर के किले पर अपना अधिकार पर लिया। इन्होंने बहुत छोटे छोटे गोंड़ सरदारों को भी कत्ल करवा दिया था। हिजरी सन् 1140 के जिल्हिजा मास की 9 वीं तारीख को नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने भोपाल के आसपास एक नगर कोट और एक किला बंनवाने का काम शुरू किया। भोपाल उस समय एक विशाल सरोवर के तट पर बसा हुआ छोटा सा ग्राम था। भोपाल नगर की उन्नति के लिये नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ ने बहुत कोशिश की। हिजरी सन 1132 में सैयद हुसैन अली खाँ तथा सैयद दिलावर खाँ ने निजाम-उल-मुल्क से बुरहानपुर के समीप युद्ध किया था। उस समय नवाब दोस्त मोहम्मद खान के भाई मीर अहमद खाँ 500 अश्वारोही तथा 200 ऊंटों की सेना सहित दिलेर खाँ की ओर से युद्ध में लड़े थे। इस द्वेष का बदला लेने के लिये निजाम-उल-मुल्क ने दिल्ली से हैदराबाद वापिस लौटते समय हिजरी सन 1142 में इस्लामपुर दुर्ग के समीप “निजाम टेकड़ी” पर अपना डेरा डाला। नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने निजाम-उल – मुल्क सरीखे प्रबल शत्रु से युद्ध करना उचित न समझा। अतएव उन्होंने उनसे संधि कर ली और अपने पुत्र यार महम्मद खाँ को बतौर जामिन के निजाम-उल-मुल्क के हवाले कर दिया। नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने तीस वर्ष तक कठिन परिश्रम करके भोपाल राज्य की स्थापना की थी। उन्हें युद्ध में लगभग 30 ‘चोटे लगीं थीं। ईसवी सन् 1726 में 66 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। इनकी कब्र भोपाल के नजदीक फतेहगढ़ के किले में अब तक मौजूद है। नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ के पिता नूर मोहम्मद खां की कब्र भी भीलसा में बनी हुई है। दोस्त मोहम्मद खान के पाँच भाई और थे। इनमें से चार भाई प्रथक प्रथक युद्धों में मारे गये थे । पाँचवें भाई अकिल मोहम्मद खाँ थे। वे राज्य के दीवान थे। नवाब दोस्त मोहम्मद खान के 6 पुत्र तथा 5 पुत्रियां थीं। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- [post_grid id=”9505″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत की प्रमुख रियासतें जीवनीभोपाल के नवाब