चिरगाँव झाँसी जनपद का एक छोटा से कस्बा है। यह झाँसी से 48 मील दूर तथा मोड से 44 मील दूर झाँसी कानपुर मार्ग पर स्थित है। इसी चिरगाँव में यह किला स्थित है, जिसे चिरगांव का किला कहा जाता है।
चिरगाँव का किला का इतिहास
बुन्देलो के शासन काल में यह प्रशासन का मुख्यालय था, और बुन्देलों को इस समय हसतभडइया के नाम से जानते थे। यहाँ के प्रशासनिक मुखियाँ की सन्धि अंग्रेजों से सन् 1823 में हुई थी, तथा यहाँ के नरेश ओरछा के राजा बीर सिंह देव के वंशज थे। सन् 1844 में यहाँ के शासक राव बखत सिंह ने ब्रिट्रिश शासन के आदेशो की अवहेलना की इसलिए ब्रिट्रिश शासको ने उसके विरूद्ध सेना भेजी जिससे भयभीत होकर बखत सिंह यहाँ से भाग गये, तथा अंग्रेजो ने उनके दुर्ग को अपने अधिकार में कर लिया। उनके वंश के लोग बाद मे टीकमगढ़ में रहने लगे।
चिरगाँव का किला
चिरगाँव बस्ती के अन्दर एक पहाडी पर यह चिरगाँव का किला स्थित है। यह किला 12वीं शताब्दी के बाद का निर्मित है। यह किला परकोटे से घिरा हुआ है तथा यहाँ पहुँचने के लिये सीढ़िया बनी हुई है। दुर्ग की दीवार से लगा हुआ नीचे की ओर एक मन्दिर है। यह मन्दिर आज भी सुरक्षित स्थित में है। उसकी कुछ दूरी पर दुर्ग का प्रवेश द्वार उपलब्ध होता है, तथा दुर्ग के ऊपर आवासीय महल, जलाशय, धर्मस्थल, और सैनिकों के रहने के लिए स्थल बने हुए है। 1857 की क्रान्ति और उससे पहले इस दुर्ग का महत्व सर्वाधिक था। किन्तु 1857 की क्रान्ति के पश्चात इस दुर्ग का कोई सामरिक महत्व नहीं रह गया इस दुर्ग में निम्नलिखित स्थल दर्शनीय है।
वर्तमान में चिरगाँव का किला एक खंड़हर के रूप में तब्दील हो चुका है। किन्तु आज भी यह अपने अंदर समाये इतिहास को उजागर करता है। इतिहास में रूचि रखने वाले अनेक पर्यटक यहां आते है। इससे लगे मंदिर के कारण भक्त गण मंदिर दर्शन के साथ साथ किले के भी दर्शन करते देखे जा सकते है।
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