चंद्रमहल सिटी पैलेस जयपुर राजस्थान Naeem Ahmad, September 12, 2022February 20, 2024 राजस्थान की राजधानी जयपुर के ऐतिहासिक भवनों का मोर-मुकुट चंद्रमहल है और इसकी सातवी मंजिल ”मुकुट मंदिर ही कहलाती है। दिवाने खास के पश्चिम में बडे और ऊंचे दरवाजों के बजाय जयपुर के स्थापत्य की परम्परागत ताजदार “पोली” हैं जो अति सुन्दर और नयनाभिराम है। यह रिधसिधे पोल या गणेश पोल है जो चंद्रमहल को सर्वतोभद्र से जोडती है। इसमे संदेह नही किस चंद्रमहल जैसा आज है, उसमे सवाई जयसिंह से लेकर मानसिंह द्वितीय तक सभी राजाओं का कुछ न कुछ योगदान रहा है। लेकिन अठारहवी सदी के इस भव्य राजपूत इमारत के प्रधान निर्माताओ में जयसिंह, प्रतापसिंह और रामसिंह द्वितीय के नाम लिये जा सकते है। सवाई जयसिंह भव्यता के साथ सादगी का हिमायती था, पर प्रताप सिंह के समय में जयपुर की निर्माण-शैली जिस प्रोढता और परिपक्वता को जा पहुची थी उसमे जयपुर के मजबूत चूने के पलस्तर में अलंकरण का भी बडा रिवाज हो गया था। यह “ प्रीतम निवास” के विशाल आंगन मे बनी हुईं चार पोलो या “पोलियो”‘ से ही स्पष्ट है जिनके अलंकरण में मयूर बने हुए है। यह कक्ष जयसिंह के बनवाये हुए ‘ चन्द्र मंदिर के पीछे है। प्रीतम निवास, रिधमसिध पोल और भीतर का विशाल चाक प्रतापसिंह ने बनवाये थे। दोनो मिलकर चंद्रमहल की सबसे नीचे की मंजिल है।चंद्रमहल सिटी पैलेस जयपुरसवाई जयसिंह की आज्ञा से नगर-प्रासाद के इस सात मजिले महल का निर्माण जयपुर के प्रधान नगर नियोजक विद्याधर चकवर्ती ने ही कराया था। विद्याधर को, जो महकमा हिसाब की एक शाखा का नायब दरोगा था, 1729 ई में जब जयपुर नगर का निर्माण पूरे वेग से चल रहा था, देश दीवाण’ नियुक्त किया गया था। 1734 ई में उसे अश्वमेध यज्ञ का सिरोपाव बख्शा गया था ओर इसी वर्ष में उसने ज्येप्ठ शुक्ला पंचमी को ‘सतखंडा’ महल या चंद्रमहल बनाने के उपलक्ष मे सिरोपाव किमती साविक 85-3 प्राप्त किया था।मुबारक महल कहां स्थित है – मुबारक महल सिटी प्लेसचन्द्र मंदिर मे बरामदे की भित्ति पर जयपुर के राजाओं के पूरे आकार के दर्शनीय चित्र बने है। संगमरमर के आंगन, स्निग्ध स्तंभ आर सुरुचिपूर्ण रंग- सज्जा इस राजसी आवास की विशेषताएं है जो सवाई मानसिंह द्वितीय (1922-70 ई ) ने एक जर्मन कलाकार ए एच मूलर से कराईं थी। 44 बर्ष राज करने और जयपुर जैसा शहर बसा देने के बाद इसी भवन मे सवाई जयसिंह ने निनिमेप दृष्टि से भगवान गोविन्द को निहारते ओर ब्रजनाथ व गोकलनाथ जैसे विद्वान पंडितो से भागवत-कथा सुनते हुए अपनी जीवन-लीला समाप्त की की थी। यह 3 अक्टूबर 1743 की बात है।चंद्रमहल जयपुरचंद्रमहल मे रहने वाले पहले राजा सवाई जयसिंह की तरह जयपुर के अंतिम महाराजा सवाई मानसिंह (द्वि) का पार्थिव शरीर भी यहां 1970 ई मे उसी स्थिति मे जनता के दर्शनार्थ रखा गया था। चंद्रमहल की दूसरी मंजिल मे “सुख निवास” है जों एक खुली छत पर खुलता है। यह महल भी अपनी दीवारो पर रंगीन बेल-बूटो और फलो के डिजायनों से सजा हुआ है। कुछ चित्र भी है। सुख निवास सवाई जयसिंह ने अपनी चहेती रानी सुखकंवर के नाम पर बनाया होगा जो ईश्वरी सिंह की माता थी। आमेर मे भी सूख मंदिर” है। जयपुर के कवि शासक प्रताप सिंह को यह अत्यन्त प्रिय था। वह प्राय इसी मे रहता और अपनी काव्य-रचना करता था। अपनी एक रचना ”स्नेह बहार” के अन्त में उसने लिखा है जय जयनगर मकाम, धाम जहा गोविन्द कौ। पते कियौ विश्वाम, सरन गहयौ नद नद कौ।। जब ही कियौ विलास, सुख निवास के माहि यह। बाचे बद्धि-प्रकास, दुख दारिद सब जाहि बह।।अपने एक अन्य ग्रन्थ रंग चॉपड की रचना भी प्रतापसिंह ने इसी कक्ष मे पूरी की थी:– श्री गुबिन्द प्रभु के निकट, जयपर नगरहि मद्ध। ब्रजनिधि दास पतै कियौ, सुख निवास में सिद्ध।।भर्तृहरि के “वैराग्य शतक” के ब्रज-भाषानुवाद को भी प्रताप सिंह ने इन पक्तियो के साथ पूरा किया है:–श्री राधा गोबिद के चरन सरन विश्वाम। चन्द्रमहल चित चहल में जयपुर नगर मुकाम।।प्रताप सिंह के ग्रन्थो मे रचना सवत् के साथ-साथ सुख निवास, चन्द्र महल और जयपुर नगर मुकाम का स्थान-स्थान पर हवाला दिया गया है। स्नेह सग्राम से यह कवि नरेश कहता है:–जयपुर नगर मुकाम, चन्द्रमहलहि अवलम्बत। भयी सग्रन्थ प्रतच्छ, सच्छता पाई सबत।।जयपुर के कारीगरो ने चंद्रमहल के कक्षों मे भी दीवारों और छतो मे कांच की जडाई का काम किया है। यह सुन्दर और कमनीय होते हुए भी उस नफासत को नही पहुंचा जो आमेर मे मिर्जा राजा जय सिंह के बनवाये हुए ‘जय मंदिर” और ‘जस मंदिर’ में है। उस शीशमहल के लिए जहा महाकवि बिहारीलाल तक ने अपनी संतसई में यह उल्लेख किया है:–प्रतिविम्दित जयसाह द्युति, दीपित दरपण-धाम। सब जग जीतन को कियो, काय व्यूह मन काम।।वहा चंद्रमहल के शीश महलो के विषय में काव्य-रसिक सवाई प्रताप सिंह और उसकी ‘कवि बाईसी’ भी मौन ही रहे है। चंद्रमहल की तीसरी मंजिल रंग मंदिर कहलाती है। इसमे भी दीवारों, स्तंभो और छत मे छोटे-बडे शीशे है। चौथी मंजिल पर शोभा निवास है, पांचवी पर छवि निवास और इसके भी ऊपर छठी मंजिल पर “श्री निवास” प्रासाद है। यह अलग-अलग नाम जैसे बताते है कि आधुनिक राज भवनो और दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में “द्वारका सूट, अम्बर सूट” आदि नाम रखने की परम्परा नयी नही है। एक ही राजमहल के विभिन्न कक्षों को अलग-अलग नामो से मध्यकाल मे भी जाना जाता था और यह नाम भी शुद्ध भारतीय तथा कक्ष की शोभा के अनुरूप अधिक युक्तियुक्त होते थे। शोभा निवास मे रंग और सुनहरी कलम के साथ विभिन्न आकार के शीशो की जडाई है। जयपुर के राजा इसी कक्ष मे बैठकर दीपावली पर लक्ष्मी पूजन किया करते थे।City place Jaipur history in hindi – सिटी प्लेस जयपुर का इतिहास – सिटी प्लेस जयपुर का सबसे पसंदीदा पर्यटन स्थलचंद्रमहल की सातवी मंजिल “मुकुट मंदिर” है। यहां से सारा जयपुर शहर तो आंखो के नीचे आ ही जाता है, दूर की पहाडियो और उन पर बने दुर्गो और मंदिरो का भी विंहगम दृश्यावलोकन होता है। एक ही नजर में जयपुर की अप्रतिम नगर-रचना, अनूठे शिल्प-साष्टव ओर भव्य स्थापत्य-कला का दिग्दर्शन हो जाता है। चंद्रमहल की इस छत का उपयोग सबसे अधिक शायद महाराजा राम सिंह ने किया था। इस राजा के शोको में पतंगबाजी भी एक था। चंद्रमहल ओर जनानी ड्योढी के बीच राम सिंह के कमरे मे एक कोठरी अब तक पतंगो की कोटडी कहलाती है। दूर-दूर के पतंग-डोर बनाने वाले तब यहां काम करते रहते थे। राम सिंह ने अच्छी “तुकल’ बनाने वालो और “मांजा” सतने वालों को इस हुनर में कमाल हासिल करने के लिये जागीर तक दी थी। चंद्रमहल की छत से जो पतंग उडाये जाते वे आदम कद पतंग होते, जिनके पावो में चांदी की छोटी-छोटी घुघरिया फूदन बनकर लटकी रहती। ठुमकी के साथ जब पतंग हवा पर सवार होकर आसमान से बाते करने लगता तो यह बारीक घुघरिया भी ठनक-ठनक करती। आज तो बस अनुमान ही किया जा सकता है कि कैसा माहौल रहता होगा।जयपुर पर्यटन स्थल – जयपुर टूरिस्ट प्लेस – जयपुर सिटी के टॉप 10 आकर्षणवैसे जयपुर में पतंगबाजी इस नगर की स्थापना के समय से ही चालू हो गई थी। तभी 1770 मे बखतराम साह ने इस नगर के हाट-बाजारो का वर्णन करते हुए लिखा है ‘वस्त्रागर बुनकर वरकसाज, कहु बेचत गुड पतंगबाज। किन्तु बखतराम साह से बहुत पहले महाकवि बिहारी ने आमेर मे भी पतंगबाजी अवश्य देखी होगी। सतसई का यह दोहा प्रसिद्ध है:—उडति गडी लखि ललन की, अगना अगना माह। चौरी लो दौरी फिरति, छुवति छवीली छाह।।सवाई जय सिंह तो “श्री राजाधिराज” था और प्रताप सिंह भी तूगा की लडाई मे महादजी सिंधिया को हराने के बाद बडा प्रतापी राजा होकर जिया था, लेकिन चंद्रमहल में रहने वालो मे राम सिंह एक ऐसा राजा था जो सबसे पहिले इंसान था। इस राजा की सादगी ओर बन्दा परवरी, दोनो की कहानियां ही इकट्ठी की जाये तो एक अच्छी खासी पोथी बन जाये। अपने पहिन ने की बोतली रंग की अगरखी ओर लाल पगडी को राम सिंह खुद ही धो लेता ओर रंग-सुखाकर पहिन लेता। महाराजा के पोशाकी कम नही थे और वह खास कपडो की देखभाल ओर उन्हे पहिनाने की ही तनख्वाह पाते थे, लेकिन रामसिंह के सरल स्वभाव और अपना काम खुद करने की ताव देखिये कि अपने सिर की नाप के लकडी के “मतगे” पर स्वय ही पगडी बांध लेता। मतंगा देखना हो तो आज भी परोहित जी के कटले में चले जाइये, जहा बीद राजाओ के साफे और पगडिया बांधी जाती है और इस बंधाई के दाम भी अब तो अच्छे खासे देने पडते है।ब्रजराज बिहारी जी मन्दिर जयपुर राजस्थानइसमे शक नही कि रामसिंह जैसे बहु-प्रतिभा-सम्पन्न, शास्त्र और संगीत प्रेमी, बहु पठित और बहुश्रुत, कला-कौशल के संरक्षक, परम्परा प्रिय आर सुधारवादी राजा का उत्तराधिकारी होकर रहना एक आसान काम न था। लेकिन माधोसिंह जैसा आदमी भी, जो न ऐसा पढा-लिखा था आर न इतना सुसंस्कृत अपने “गोपालजी’ के भरोसे ही ऐसे बडे बाप का लायक बेटा साबित हुआ। रामसिंह जो बडी विरासत छोड गया था, माधोसिंह उसके प्रति बडा सजग ओर सचेष्ट था। अपनी जिन्दगी में उसने ऐसी कोई बात न की जिससे रामसिंह के खडे किए हुए ढांचे मे थोडी भी गडबड हो। चंद्रमहल में सवेरे बिस्तर छोडते ही वह सबसे पहिले उन कोठरी में जाता जिसमे गोपालजी की मूर्ति विराजमान थी। फिर हाथ जोडकर भगवान से ये बाते करता जैसे किसी भरोसे के दोस्त या दातार मालिक से बतलाते है। वह क्या था आर क्या हो गया था इस बारे मे उसे कोई मुगालते भी नही थे। साफ दिल से वह गोपालजी से अर्ज करता “गोपाल! ई राज ओर इ प्रजा को तू ही मालिक छे। मै तो आयो कोने, तू ही मंनै इ गह्दी पर ल्यायो छं। अब तू ही म्हारी लाज राखजे, इसी कोई बात मत होवा दीजे क म्हारे कोई धब्बी लाग जाय! गोपाल, माधोसिह की तू ही निभावैलो!।” और, गोपालजी ने माधोसिह की वास्तव में सब निभाई। मन-गढन्त सुने-सुनाये किस्सो मे बह जाने वालो की बात तो अलग है, लेकिन जिन लोगो ने माधोसिंह ओर उसके तौर-तरीको को देखा और खूब नजदीक से समझा-परखा है, वे आज तक माधोसिंह का गुण-गान करते नही थकते। उसके दान-पुण्य के चर्चे जैसे कभी खत्म ही नही होते।गोपीजन वल्लभ जी मंदिर जयपुर राजस्थानचंद्रमहल जिसके शीर्ष पर अब भी सवाई जयपुर का सवाया पंचरंगा झडा ही फहराता है यह सवाया झंडा, (जिसमे बडे ध्वज के ऊपर उसके एक चौथाई आकार का छोटा ध्वज लगता है जयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह की ही देन है), ऐसे अनुपात से बना हे कि इसमे सब कही घूम कर देखे बिना इसकी विशालता और भव्यता का अनुमान ही नही होता। अपने सामने दूर तक फैले सुरम्य उद्यान के साथ यह राजसी आवास सचमुच जीवन के सुद्ध और रगीनियो को भोगने का एक आदर्श महल ही रहा होगा। चंद्रमहल के पश्चिम मे एक छोटे चोक के साथ” माधो निवास” नामक महल है। इसका पश्चिमी भाग माधोसिंह प्रथम (1750- 67 ) ने बनवाया था, शेष भाग रामसिंह द्वितीय (1835-80ई ) ने जोडा। इसके पश्चिम में भी एक चौक है जिसके बीच मे तरणताल हैं। माधो निवास उत्तर की ओर जय निवास उद्यान में खुलता है। लाल बलुआ पत्थर का इसका द्वार कराई के काम से सुसज्जित है, जिसमे दो हाथी भी उत्कीर्ण है। इसी से इसका नाम गजेन्द्र पोल” है। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- [post_grid id=”6053″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत के पर्यटन स्थल जयपुर के दर्शनीय स्थलजयपुर पर्यटनजयपुर पर्यटन स्थलराजस्थान ऐतिहासिक इमारतेंराजस्थान पर्यटन