खालसा पंथ का अर्थ – खालसा पंथ की स्थापना व जन्म Naeem Ahmad, June 17, 2019March 23, 2024 “खालसा पंथ” दोस्तों यह नाम आपने अक्सर सुना व पढ़ा होगा। खालसा पंथ क्या है। आज के अपने इस लेख में हम खालसा पंथ के बारें में विस्तार से जानेंगे। खालसा पंथ सिक्ख धर्म में एक विशेष समुदाय को कहते है। खालसा का अर्थ है, “पवित्रता” और पंथ का अर्थ है, “मार्ग”। अर्थात खालसा पंथ का अर्थ है, “पवित्रता का मार्ग। अर्थात खालसा पंथ धारण करने वाला प्रत्येक सिक्ख पवित्रता के मार्ग पर चलता है।नाड़ा साहिब गुरूद्वारा पंचकूला हरियाणा चंडीगढ़खालसा पंथ का जन्म 1699 ईसवीं में वैशाखी के दिन हुआ था। खालसा पंथ की स्थापना गुरू गोविंद सिंह जी ने की थी। उन्होंने पांच सिक्खों को अमृतपान कराकर पांच ककार धारण करने की सलाह दी थी। खालसा की स्थापना का स्थान आनंदपुर साहिब है।खालसा पंथ का इतिहाससम्वत् 1756 की वैशाखी से काफी समय पूर्व गुरू साहिब ने सारे हिन्दुस्तान तथा अन्य काबुल कंधार देशों में यह संदेश भेजा कि इस बार वैशाखी के अवसर पर समस्त संगत उत्सुकता पूर्वक पहुंचे। गुरू साहिब के आदेश पत्र पढ़कर आनंदपुर साहिब पहुंचने लगे। वैशाखी से कुछ दिन पूर्व ही बड़ी संख्या में सिक्ख संगत एकत्र होने लगी। तथा गुरू का अटूट लंगर वितरण होने लगा।वैशाखी वाले दिन एक बहुत बड़ा सुंदर तंबू लगाया गया। गुरू साहिब के तख्त के पिछे एक छोटा लेकिन किमती तंबू लगाया गया। सारी सिक्ख संगत दरबार में आकर बैठ रही थी। आसा जी की वार का दिव्य कीर्तन हो रहा था। समस्त संगत की आंखें गुरू साहिब के दर्शन के लिए उत्सुक थीं।नानक झिरा बीदर साहिब – गुरूद्वारा नानक झिरा साहिब का इतिहासजब आसा की वार सम्मपूर्ण हुई तो गुरू जी उस छोटे तंबू में से निकलकर संगत के समक्ष आएं, लेकिन दर्शन करके सारी संगत चकित हो उठी। आज गुरू साहिब के चेहरे पर एक अनूठा तेज था। उनकी आंखें ज्वाला की भांति दहक रही थी, तथा चहरे पर अलग ही ईश्वरीय नूर था। उनके हाथ में चण्डी रूपी तलवार थी, जो बिजली के समान चमक रही थी।अपने तख्त पर बैठने की बजाए खडे होकर तलवार को जोश के साथ हवा में घुमाकर तथा गर्जना पूर्ण स्वर में बोले– यह भगवती सदा ही शीश मांगती है, आज इसे एक श्रद्धालु सिक्ख के शीश की आवश्यकता है, क्या आप मे से कोई ऐसा सिक्ख है जो अपने गुरू को शीश भेंट कर सके?गुरू जी की यह आज्ञा सुनकर समस्त दरबार में सन्नाटा छा गया। सभी जानते थे कि गुरू जी सिक्खों के शीश की रक्षा करते है, लेकिन उनके द्वारा सिक्खों का शीश मांगना एक अद्भुत तथा अनहोनी बात थी।गुरू जी फिर दहाड़कर बोले— यह श्री साहिब किसी प्यारे सिक्ख का शीश मांग रही है, है कोई तुम में से गुरू का प्रेमी सिक्ख जो अपने गुरू के लिए शीश भेंट कर सकें?सभी ने चुप्पी धारण की हुई थी, तथा लोग ऐसे श्वास खींचकर बैठे थे, जैसे कोई शेर को देखकर श्वासहीन हो जाता है। कोई भी एक दूसरे की ओर देख तक नहीं रहा था, ताकि गुरू जी उनके चेहरे पर कुछ पढ़ ही न ले।धुबरी साहिब असम – श्री गुरू तेग बहादुर गुरूद्वारा धुबरी असमगुरू जी तीसरी बार कहने ही वाले थे कि एक सिक्ख उठकर खड़ा हुआ, तथा विनती करने लगा— हे सच्चे पातशाह! मेरा यह शीश आप ही का है, मुझे क्षमा करें मैं आपकी आज्ञा का पालन तुरंन कर सका। मुझे अति प्रसन्नता होगी यदि मेरा एक निकम्मा शीश आप जी की तलवार की धार का आनंद प्राप्त कर सके। यह सिक्ख लाहौर निवासी भाई दयाराम था।हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:—–सिक्ख धर्म के पांच तख्त साहिबगुरू ग्रंथ साहिब सिक्ख धर्म का धार्मिक ग्रंथदमदमा साहिब का इतिहासपांवटा साहिब का इतिहासअकाल तख्त का इतिहासगोल्डन टेम्पल का इतिहासगुरूद्वारा हेमकुंड साहिबहजूर साहिब का इतिहासखालसा पंथगुरू साहिब ने बड़े क्रोध में भाई दयाराम जी को बाजू से पकड़ा और उस तम्बू में ले गए, जो उनके तखत के पीछे लगा हुआ था। सारी संगत ने तलवार किसी के शीश पर चलती सुनी तथा एक धड़ के जमीन पर गिरने की आवाज आई। फिर उन्होंने रक्त भी तंबू से बाहर निकलता देखा। सभी लोग भयभीत हुए बैठे थे कि गुरू साहिब रक्त में भीगी तलवार लिए तंबू मेंसे बाहर आए और तलवार घुमाते हुए फिर गरजे— इस तलवार को एक और शीश की जरूरत है, आओ, कोई गुरू का सिक्ख इस तलवार की प्यास मिटाएँ?। दरबार में फिर सहानुभूति पूर्ण खामोशी छा गई, लेकिन इस बार दिल्ली से आए भाई धर्म चंद जी ने अपना शीश भेंट किया।भाई धर्मचंद जी का भी वही हाल हुआ तथा गुरू जी जब तीसरी बार रक्त भीगी तलवार लहराते हुए बाहर आए तो द्वारका निवासी भाई मोहकम चंद उठा तथा उसने अपना शीश भेंट करने की प्रार्थना की।जब चौथी बार गुरू जी वहीं तलवार लेकर बाहर आये तो बिदर निवासी भाई साहिब चंद ने गुरू जी की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अपना शीश भेंट किया।धुबरी साहिब असम – श्री गुरू तेग बहादुर गुरूद्वारा धुबरी असमभाई साहिब चंद जी का भी वहीं हाल हुआ तथा गुरू साहिब फिर भव्यता में आकर कहने लगे— इस तेग की प्यास अभी नहीं बुझी है, इसको एक और शीश की प्यास है। उठो! कोई मां का लाल तथा गुरू की प्रसन्नता प्राप्त करो!अब गुरू जी को पुनः कहने का अवसर न मिला। तुरंत जगन्नाथ के रहने वाले भाई हिम्मत राय जी उठ खडे हुए। वह कहने लगे– हे सच्चे पातशाह! मुझसे देर हो गई क्षमा करना, मेरा यह निरथर्क शीश आपकी तलवार के लिए तरस रहा है। शीघ्रता से भगवती की प्यास को मिटाओ।गुरू साहिब उसे भी तंबू मे ले गये, तलवार चलने तथा धड़ गिरने की आवाज आई तथा फिर रक्त की धारा तंबू मे से बाहर आई।बाहर बैठे सभी सिक्ख फिर इंतज़ार करने लगे कि गुरू जी नंगी तलवार लेकर बाहर निकलेंगे, तथा प्रत्येक अपने आप को तैयार करने लगा, कि इस बार वह गुरू साहिब को शीश भेंट कर मोह माया के समुद्र को पार कर जाएगा। लेकिन काफी इतंजार के बाद भी गुरू जी बाहर न आएं। सभी की दृष्टि तंबू पर लगी थी, तथा इस कौतुक को अधीरता से देख रहे थे।काफी समय के बाद गुरू जी तंबू से बाहर आएं। लेकिन सभी देखकर विस्मय के समुद्र में डूब गए, कि इ बार गुरू जी नंगी तलवार लेकर बाहर नहीं आएं थे। बल्कि उनकी तलवार म्यान में ही थी तथा उनके साथ उनके भेष समान, सुनहरी केसरी लिबास पहने, पांच अन्य सिक्ख थे। उन पांचो में गुरू साहिब की भांति तेज झलक रहा था, था उन पांचों की निराली सुंदरता तथा शान देखकर सारी संगत वाहिगुरू वाहिगुरू कह उठी।सभी को देखने में कोई भ्रम न हुआ कि यह वहीं पांच सिक्ख थे, जिन्होंने गुरू साहिब को अपना शीश भेंट किया था।नानकसर कलेरा जगराओं साहिब – नानकसर गुरूद्वारे जगराओं हिस्ट्री इन हिन्दीशीश भेंट करने वाले पांचों सिक्ख केसरी पहनावा पहने गुरू साहिब के तख्त के निकट आ खड़े हुए। फिर गुरू साहिब ने संगत को उपदेश दिया तथा अपने तख्त पर बैठ गए।उन्होंने एक सरबलोह का बाटा मंगवाया उसमें उत्तम जल डाला। बाटे के समीप वीर आसन में बैठकर खण्डा फेरनेलगे तथा साथ साथ वाणी का पाठ भी उच्चारण करते रहे। जब वह अमृत जिसमें ईश्वरीय वाणी तथा गुरू जी की आत्मिक शक्ति घुल गई तो माता साहिब देंवा ने इसमें बताशे डाल दिए। जब यह बताशे पूर्ण रूप से घुल गए, तो गुरू जी बाटा लेकर खडे हो गए। और उन पांचों प्यारों को वीर आसन में बैठने के लिए कहा।बाटे का अमृत उन्होंने पांचों सिक्खो को पिलाया। तथा उस अमृत की कुछ छीटें उनकी आंखो व शरीर पर मारी। फिर उन्होंने अमृत को उनके केशो तथा जुडे में डाला। कहा जाता हैं कि उस दिन से प्रत्येक सिक्ख का प्रत्येक बाल पाक तथा पवित्र हो गया है।पांचों सिक्खों को अमृत छका कर गुरूजी ने उन्हें आदेश दिया कि अब वह अपने हाथों से अमृत उन्हें अमृत छकाएं। पहले तो उन्होंने कुछ संकोच किया, लेकिन गुरू जी ने उन्हे कहा– आज से तुम मेरा खास रूप हो, खालसा गुरू है तथा गुरू खालसा है। आज तुम मेरे गुरू हो तथा मैं आपका शिष्य हूँ।गुरूद्वारा बाबा अटल राय जी, हिस्ट्री ऑफ बाबा अटल राय जीफिर उन पांचो प्यारों ने गुरू जी को अमृत छकाया। गुरू जी ने फिर कथन किया– आज से तुम सभी शेर हो, तुम्हारी जातपात का भेद खत्म हो गया है, तथा तुम्हारी जाति खालसा है, तुम सभी सिंह हो। इसलिए आपके नामों के साथ दास, चंद, राय, राम आदि नही लगेगा। बल्कि प्रत्येक नाम के साथ सिंह लगेगा। इस प्रकार उन पांचो सिक्खो के नाम के साथ सिंह लगाकर वह स्वंय भी गोविंद राय से गुरू गोविंद सिंह हो गए।तत्पश्चात उन पांचो प्यारो को अमृत तैयार करने के लिए कहा तथा वह अमृत शेष संगत को छकाया गया। इस प्रकार कुछ दिनों में ही लाखों सिक्ख अमृत छककर सिंह हो गए। तथा प्रत्येक सिक्ख को उन्होंने पांच कक्कार प्रदान किए तथा इन कक्कारों को हमेशा अपने साथ रखने का आदेश दिया। यह पांच कक्कार है –; केश, कंघा, कच्छहरा, कड़ा, कृपाण।भारत के प्रमुख गुरूद्वारों पर आधारित हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:—-[post_grid id=’6818′]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... Uncategorized प्रमुख गुरूद्वारे