कुदसिया महल गरीबों की मसीहा Naeem Ahmad, July 21, 2022February 28, 2024 लखनऊ के इलाक़ाए छतर मंजिल में रहने वाली बेगमों में कुदसिया महल जेसी गरीब परवर और दिलदार बेगम दूसरी नहीं हुई। लखनऊ के नवाब नसीरुद्दीन हैदर की इस महबूब मलिका की सखावत के डंके सारे शहर में बजते थे। उनके दरे-दौलत से कोई कभी खाली हाथ नहीं लौटता था। इस दरियादिली की एक वजह यह भी थी कि बेगम एक मामूली घर की लड़की थी और उन्हें गरीबी का दुख-दर्दे मालूम था।बेगम कुदसिया महल गरीबों की मसीहाबेगम कुदसिया महल को वो दिन याद आ गए जब लड़कपन में उनके मकान में एक नजूमी मीर अनवर अली इनके बाप से मिलने आए थे। बेगम बचपन में बिस्मिल्ला खानम थीं और उन्ही के हाथों मकान के अन्दर से गिलौरियाँ बाहर भेजी गई थी। जब ड्योढ़ी में आकर उसने मीर साहब की तरफ़ पान के बीड़े बढ़ाए तो उन्होंने हाथ पकड़कर लकीरें पढ़ना शुरू कर दिया। इसी बीच घर के बड़े लोग आकर बैठचुके थे। हाथ देख चुकने के बाद मीर साहब ने बड़े अदब से बिस्मिल्ला ख़ानम को आदाब बजाया और इतना ही कहा, “बेटी, खुदा जब आपको मलिकाका मर्तबा दे तो इस गरीब को न भूल जाइयेगा।” घरवाले उसे बे सिर पैर की बात समझकर मज़ाक उड़ा बैठे थे मगर अब तो सच कुदसिया महल की निगाहों में मुस्करा रहा था। फिर कुदसिया महल ने बड़ी इज्जत से उस बूढ़े ज्योतिषी मीर अनवर अली को महल में बुलवाया और दस हज़ार की थैली नजर देकर उन्हे सलाम अता किया।बेगम कुदसिया महलकुदसिया महल की इस परोपकारी दास्तान का कोई अन्त नही है । हर रोज़ सुबह सवेरे जब उनके महल “कोठी दर्शन विलास’ के दारोगा कादिर अली खाँ साहब 500 रुपये बेगम की तरफ़ से फकीरों और गरीबों में बाँट दिया करते थे तब बेगम साहिबा दस्तरख्वान पर नाश्ते के लिए बैठती थीं। शाही खजाने की तरफ़ से उनके बावर्ची खाने का खर्च 1400 रुपये रोज़ बाँधा गया था और उसमें से भी एक बड़ा हिस्सा मोहताजों को खिला दिया जाता था।लखनऊ के क्रांतिकारी और 1857 की क्रांति में अवधलखनऊ का एक नामी रंगरेज, जो कुदसिया महल के दुपट्टे रंगता था, एक दिन महल के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया। उसने अपनी बेटी की शादी के लिए दरख्वास्त की। ज़रूरत पूछने पर उस बेचारे ने सिर्फ़ चार सौ रुपयों की फरमाइश की। इस बात पर कुदसिया महल को बेहद रंज और अफ़सोस हुआ और हुक्म दिया कि आज से दर्शन विलास की ड्योढ़ी पर सूरत मत दिखाना। इधर रंगरेज के होश गुम हो गए कि आख़िर मुझ ग़रीब से ऐसी कौनसी खता हो गई। बाद में जाहिर हुआ, बेगम इस बात पर नाराज़ हो गई हैं कि इस क़दर कम रक़म के लिए हमारे आगे दामन क्यूँ फैलाया गया और क्या ये हमारी तौहीन नहीं है जबकि इतनी छोटी जरूरत तो शहर का कोई मामुली आदमी भी रफ़ा कर सकता हैं। फिर उसे महल से कई हज़ार रुपये बेटी की शादी के लिए देकर बिदा किया गया।लखनऊ में 1857 की क्रांति का इतिहासएक दिन एक नौशा अपनी नयी ब्याही दुल्हन लिए उनकी महलसरा के पास से गुजरा। बरात में रोशन चौकी थी, बाजे भी बज रहे थे। सब कुछ था मगर ग़रीब की बेटी थी, इसलिए दहेज कुछ भी नहीं था। जब महल की कनीज़ों ने बेगम को कुल हाल बताया तो आपने फ़रमाया हमारे महल में दुल्हन को दो घड़ी के लिए रोक लिया जाए। अब क्या था, चोबदार और खिदमतगार इधर-उधर दौड़ रहे थे। कहारों ने दुल्हन की पालकी कोठी “दर्शन विलास’ की दहलीज़ में लाकर रख दी। ख़ादिमाएँ दुल्हन को गोद मे उठा लाई और दीवानखाने में लाकर बिठा दिया जहाँ कुदसिया महल मसनद नशीन थीं। चन्द इशारों में दुल्हन को जड़ाऊ जेवरों से लाद दिया गया और नौशे को तमाम नज़रें दिला दी गईं। जब कोठी “दर्शन विलास” से निकलकर दूल्हा और दुल्हन आगे बढ़े तो बरातका कायापलट हो चुका था क्योंकि वो गरीब अब मालामाल हो चुके थे।गोमती नदी का उद्गम स्थल और गोमती नदी लखनऊ के बारे मेंबेगम कुदसिया महल ने नवाब की एक बात दिल में लग जाने पर संखिया चाट कर अपनी जान दे दी। ये 21 अगस्त, 1834 की बात है। उन्हें लखनऊ स्थित इरादत नगर कर्बला में दफ़्न कर दिया गया। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- [post_grid id=”9505″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... Uncategorized जीवनीलखनऊ के नवाब