कालिंजर का किला – कालिंजर का युद्ध – कालिंजर का इतिहास इन हिन्दी Naeem Ahmad, June 27, 2021March 11, 2023 कालिंजर का किला या कालिंजर दुर्ग कहा स्थित है?:— यह दुर्ग बांदा जिला उत्तर प्रदेश मुख्यालय से 55 किलोमीटर दूर बांदा-सतना रोड़ पर कालिंजर पहाड़ी पर स्थित है। यह भारत का प्राचीन किला है। इस किले की प्रसिद्धि हर युग मे रही है। सतयुग में यह रत्नकूट, त्रेता युग में महागिरि, द्वापरयुग में पिंगलगिरि, तथा कलयुग में यह क्षेत्र कालिंजर के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। प्राचीन काल में यह एक नगर तथा तीर्थ स्थल के रूप में विख्यात था। उस समय यहां अनेक मंदिर और सरोवर थे। कालिंजर किले का इतिहास इन हिन्दी – कालिंजर फोर्ट रहस्य – कालिंजर का परिचय कालिंजर दुर्ग का निर्माण कब हुआ था? तथा कालिंजर किले का निर्माण किसने कराया था?:— सुप्रसिद्ध इतिहास लेखक फरिस्था के अनुसार कालिंजर किले का निर्माण सातवीं शताब्दी में केदार बर्मन ने कराया था। कालिंजर का युद्ध कब हुआ था? कालिंजर युद्ध का इतिहास:— इस किले की सेनाओं ने कन्नौज नरेश जयपाल की सेनाओं के साथ सन् 978 ई. में गजनी के सुल्तान पर आक्रमण किया था और उसे परास्त किया था। जिसका बदला लेने के लिए महमूद गजनवी की सेना ने सन् 1023 ई. में कालिंजर पर आक्रमण किया था। उस समय यहां का नरेश नन्द था। इसके पश्चात सन् 1182 ई. में दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने चन्देल नरेश परमार्दि देव को पराजित किया था। इसके पश्चात सन् 1202 या 1203 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने परमार्दि देव को हराकर इस किले को अपने अधीन कर लिया था। मुगल शासक हुमायूं ने भी इस किले को जितने का प्रयत्न किया था। इसके पश्चात शेरशाह सूरी ने सन् 1544 या 1545 में इस किले पर आक्रमण किया और उसे जीत लिया, किंतु तोपखाने में आग लगने के कारण उसकी मृत्यु वहीं हो गई। उसके बाद जलाल खॉ ने इस किले को अपने अधिकार में कर लिया तथा वह सलामशाह के नाम पर यहां दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसके बाद सन् 1569 में अकबर बादशाह के सेना नायक मजनूँ खाँ न इस फोर्ट को अपने अधिकार में कर लिया, और बाद में यह बीरबल की जागीर बन गया। औरंगजेब के शासन काल में यह किला बुन्देलों के अधिकार में आ गया। छत्रसाल की मृत्यु के बाद पन्ना नरेश ह्रदय शाह इस किले के शासक रहे। सन् 1812 में यह किला अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। सन् 1866 में 1857 की क्रांति का परिणाम देखते हुए इस दुर्ग का विध्वंस किया गया ताकि यह सामरिक महत्व का न रह जाये। कालिंजर का किला कालिंजर फोर्ट त्रिकूट पहाड़ी पर जमीन से 700 अथवा 800 फीट ऊंचाई पर तथा इस किले का परकोटा 50 फिट ऊंचा है। यह परकोटा कही कही पर नष्ट हो चुका है और कहीं कहीं नष्ट होने की स्थिति में है। इस किले में प्रवेश करने के लिये परकोटे से लगे हुए अनेक दरवाजे है। ये दरवाजे निम्न नामों से प्रसिद्ध है:—1. आलम अथवा आलमगीर दरवाजा 2. गणेश दरवाजा 3. चण्डी अथवा चौबुर्जी दरवाजा 4. बुधभद्र दरवाजा 5. हनुमान दरवाजा 6. लाल दरवाजा 7. बड़ा दरवाजा इस किले में चढ़ने वाले मार्ग को तुर्क और मुगलशासक काफिर घाटी के नाम से पुकारते थे। इस दुर्ग में अनेक सीढियां बनी हुई हैं, इनके माध्यम से इस किले में चढ़ा जा सकता है। चण्डी दरवाजा के पास एक अन्य दरवाजा भी है, जो किले के ऊपर जाता है। इस द्वार के समीप पीछे की तरफ दुर्ग रक्षक का निवास स्थल है। चौथा दरवाजा जिसे बुधभद्र के नाम से पुकारा जाता है। उस दरवाजे का निर्माण तदयुगीन युद्धों को ध्यान में रखकर किया गया था। पांचवां द्वार हनुमान द्वार के नाम से प्रसिद्ध है। यहां पर हनुमान कुंड नाम का जलाशय है। ये सदैव जल से परिपूर्ण रहता है। तथा इसके बाद जो द्वार आता है, वहां एक तोप रखने का भी स्थान है। तथा एक चट्टान के सामने एक हनुमान जी की प्रतिमा भी है। इसके बाद छठा द्वार आता है जिसे लाल दरवाजा के नाम से जाना जाता है। थोड़ी दूर चलने पर दो दरवाजों के बीच में एक दरवाजा और दिखाई देता है। जो सिद्ध गुफा की ओर जाता है। लाल दरवाजे के बाद सातवां द्वार पड़ता है। जिसमें संवत् 1691- 92 का एक अभिलेख उपलब्ध होता है। यही पर भगवान शिव और पार्वती की प्रतिमा भी है। इस दरवाजे के समीप पत्थरों पर दो तोपें भी रखी हुई है। ये तोपें बहुत वजनी है। और लोहे की बनी है। इसी के समीप छत्रसाल के पुत्र ह्रदय शाह का एक अभिलेख उपलब्ध हुआ है। दुर्ग के ऊपर अनेक धार्मिक स्थल भी उपलब्ध होते है। इन धार्मिक स्थलों मे सेज, सीता कुंड, पाताल गंगा आदि है। पाताल गंगा में 25 फिट नीचे जलकुंड है। इस जल का प्रयोग सैनिक आपातकाल में किया करते थे। पाताल गंगा के समीप एक दुसरा जल कुंड है। जो पांडव कुंड के नाम से प्रसिद्ध है। यहां भगवान शिव की छोटी छोटी 6 प्रतिमाएं है। जब हम किले के उत्तर पूर्व दिशा की ओर चलते है तो हमें अंग्रेजी शासनकाल के स्तंभों के अनेक टुकड़े मिलते है। जिससे यह ज्ञात होता है कि इस किले का विध्वंस ब्रिटिश सैनिकों ने किया था। तथा इसी स्थल में मूर्तियों के भग्नावशेष बिखरे पड़े हुए है। ये समस्त पुरातात्विक महत्व की है। ये मूर्तियां कभी स्तंभों से जुड़ी हुई थी। यही से आगे बढ़ने पर मैदान आता है तथा इसके दाहिनी ओर अनेक भवनों के भग्नावशेष दिखाई पड़ते है। इन भग्नावशेषों में कुछ भग्नावशेष मंदिरों की है। इन मंदिरों में कोई मूर्ति नहीं है। तथा इसी के समीप दो सरोवर दिखाई पड़ते है। जिन्हें बुड्ढा-बुढिया ताल के नाम से पुकारा जाता है। ये सरोवर 50 गज लंबे और 25 गज चौड़े है। लोग यहां स्नान करने के उद्देश्य से आते है। यहां से थोड़ी दूर पर किले के नीचे की ओर सिद्धि की गुफा नामक स्थान है। यह क्षेत्र पूरा का पूरा त्रिकोणीय स्थिति में पन्ना दरवाजे से जुड़ा हुआ है। यहां पर तीन दरवाजे है जिनमें दो नीचे की ओर जाते है। वर्तमान समय में इन दोनों दरवाजों को बंद कर दिया गया है। इसके दाहिनी ओर अनेक अभिलेख दिखाई पड़ते है। इससे कुछ ही दूर चलने पर पूजा के अनेक स्थान है किंतु इन्हें बंद कर दिया गया है। पन्ना दरवाजे के बाद मृगधारा नामक स्थान है। इस स्थल में नीचे की ओर दो कमरे बने हुए है। और उसके ऊपर छत पड़ी है। अंदर वाले कमरे में एक प्राकृतिक जलधारा प्रवाहित होती हैं। तथा यही पर मृगों की सात मूर्तियां भी है। यहां से थोडी दूर आगे चलने पर दो सुखे कुंड है जिनमे पानी नहीं है। तथा इसके पास लोहे की दो तोपें रखी हुई है। कालिंजर नीलकंठ मंदिर के पीछे एक ढाल है। जहां अनेक मूर्तियां है। इन मूर्तियों में वराह भगवान की प्रतिमा है। जो भगवान विष्णु के अवतार है। इसमें से एक प्रतिमा नीलंकठ के मार्ग पर है। तथा यहा एक नंदी की मूर्ति भी है। जिसके ऊपर शिवलिंग है। इस मूर्ति का निर्माण बड़े सुंदर ढंग से किया गया है। इसके समीप कोटि तीर्थ ताल है। इस तीर्थ में स्नान करने का धार्मिक महत्व है। यह ताल 100 गज लम्बा है तथा इसका निर्माण चट्टान काट कर किया गया है। जनश्रुति व कथाएं कालिंजर अति प्राचीन काल से हिन्दुओं की धार्मिक आस्था का केंद्र रहा है। तथा यह दुर्ग विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी की एक पहाडी में स्थित है। तथा वैदिक काल में इस किले का महत्व रहा है। कालिंजर फोर्ट से जुड़ी हुई अनेक जनश्रुतियां एवं कथाएं है। एक कथा के अनुसार कालिंजर दुर्ग का निर्माण राजा भरत ने कराया था। जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। एक दूसरी कथा के अनुसार यह भगवान शिव का निवास स्थल था। कहते है कि भगवान शिव ने इस स्थल पर गरलपान किया था। इसीलिए इस स्थल का नाम कालिंजर पड़ा। एक अन्य कथा चंदेल नरेशों से जुड़ी हुई है। जिसके अनुसार चंद्र वर्मा ने इस किले का निर्माण कराया। पृथ्वीराज रासो में इस कथा का वर्णन मिलता है। कि यहां के नरेश परमार्दिदेव को पृथ्वीराज ने सन् 1182 में परास्त किया था। उसके बाद यह दुर्ग दिल्ली के शासक कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथो में सन् 1803 में चला गया। कालान्तर में यह दुर्ग धीरे धीरे नष्ट होता गया। अब इसके भग्नावशेष ही शेष है। जब कोई यात्री इस दुर्ग को देखने के लिए आता है और वह बड़ी शांतिपूर्वक सातो दरवाजों को पार करके ऊपर पहुंचता है, तो उसे यह मालूम पड़ता है कि दुर्ग के सातो दरवाजों का नाम अति प्राचीन काल में नक्षत्रों के नाम से रखा गया था। बाद में इन दरवाजों के नाम बदल दिये गये और नये नाम रख दिये। चंदेल वंश चंदेलों की उत्पत्ति कब हुई इस संबंध में यहां एक कथा प्रचलित है। इस वंश की उत्पत्ति हेमवती नाम की ब्राह्मण कन्या और चन्द्रमा के संयोग से हुई। कहते है कि चंदेल वंश के प्रथम पुरुष का नाम चंद्र वर्मा था। नीलकंठ मंदिर के दरवाजे में एक अभिलेख उपलब्ध हुआ है। जिस अभिलेख में इस वंश की जानकारी मिलती है। कालिंजर का युद्ध कब हुआ:– चंदेल नरेश धंगदेव के शासन काल में महमूद गजनवी का आक्रमण यहा 1027 के लगभग हुआ था तथा महमूद गजनवी ने कालिंजर की लड़ाई तीन महीने यहां रहकर लड़ी। तदयुगीन नरेश धंगदेव ने 3600 घुड़सवार, 45000 पैदल सैनिक और 600 हाथियों के साथ मुकाबला किया था। इस युद्ध में धंगदेव हार गया तथा उसने महमूद गजनवी से संधि कर ली। महमूद गजनवी यहां से काफी धन सम्पत्ति लूट ले गया तथा उसने यहां के धार्मिक स्थलों को भी नष्ट किया। मूर्ति वास्तुकला इस किले के ऊपर हिन्दू और मुसलमानों के कई स्थानों पर प्राचीन स्मृति चिन्ह मिलते है। अनेक मृत्यु स्मारक दूर दूर तक फैले है। वास्तु शिल्प कला की दृष्टि से यहा दुर्लभ मूर्तियां है। तथा कुछ महलो के अवशेष भी मिलते है। कोटि तीर्थ ताल के निकट राजा अनान सिंह का महल है। इसे बुंदेली वास्तुशिल्प का उत्कृष्ट नमूना माना जा सकता है। इस महल के बाहरी भाग में नृत्य करते हुए मयूरों के चित्र बने है। तथा अनेक प्रकार की पत्थरों की प्रतिमाएं भी यहां है। इन मूर्तियों में नृत्य, गणेश, नंदी तथा अन्य महिलाओं की मूर्तियां, देवी देवताओं की मूर्तियां, यक्ष यक्षिणियों की मूर्तियां, पशु पक्षियों की मूर्तियां शामिल है। जो यह सिद्ध करती हैं कि मूर्ति कला शिल्प की दृष्टि से यह किला महत्वपूर्ण है। दुर्ग में ही नीचे उतरने पर काल भैरव की एक प्रतिमा है। इस प्रतिमा की 18 भुजाएँ है। तथा यह प्रतिमा गले में नरमुंड माला पहने है। तथा बगल में काली देवी की एक प्रतिमा है। यही पर एक सती स्तंभ भी है। कहा जाता है कि किसी राजपूत महिला ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए यहा जौहर किया था। कहते है कि शेरशाह आक्रमण के पूर्व यहां कीर्ति सिंह चंदेल का राज्य था। उसकी पुत्री का नाम दुर्गावती था। जिसने गौड़ नरेश दलपतिशाह से विवाह किया था। तथा जिसका युद्ध अकबर बादशाह से गौड़वाने में हुआ था। वह बहादुरी में झांसी की रानी से किसी भी स्थिति में कम नहीं थी। औरंगजेब के शासनकाल के समय बुंदेलखंड के छत्रसाल ने इस दुर्ग को जीत लिया था। छत्रसाल की मृत्यु सन् 1732 के लगभग हुई तथा छत्रसाल ने अपने राज्य का एक चौथाई भाग मराठों को दे दिया था किंतु कालींजर परिक्षेत्र बुंदेलों के अधिकार में सन् 1812 तक बराबर बना रहा। आज भी कालिंजर का महत्व पवित्र गंगा नदी के समान है। इस क्षेत्र में अनेक ऋषि मुनियों ने सिद्धि प्राप्त करने के लिए तपस्या की। यह दुर्ग अपनी गौरव गाथा स्वतः कर रहा है। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—– [post_grid id=’8089′]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत के पर्यटन स्थल ऐतिहासिक धरोहरेंबुंदेलखंड के किले