करनाल का युद्ध कब हुआ था – करनाल युद्ध के बारे में जानकारी Naeem Ahmad, April 13, 2022April 3, 2024 करनाल का युद्ध सन् 1739 में हुआ था, करनाल की लड़ाई भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। करनाल का युद्ध मुग़ल बादशाह मौहम्मद शाह और नादिरशाह के बीच हुआ था। अपने इस लेख में हम इसी प्रसिद्ध युद्ध के बारे में निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर जानेंगे:— करनाल का युद्ध कब हुआ था? करनाल का युद्ध क्यों हुआ था, करनाल के युद्ध में किसकी जीत हुई? करनाल के युद्ध में किसकी हार हुई? करनाल का युद्ध किस किस के मध्य हुआ था? मुगल साम्राज्य का अंत कैसे हुआ? मुग़ल साम्राज्य का अंतिम शासक कौन था? नादिरशाह कौन था? बाजीराव का दिल्ली पर हमला? करनाल के युद्ध के बारें में? करनाल का युद्ध क्या था? करनाल का युद्ध 1739? मुगल-साम्राज्य का पतन कैसे हुआपानीपत के युद्ध में विजयी होने के बाद बाबर ने भारत में जिस मुग़ल-राज्य की स्थापना की थी और अकबर ने अपनी शक्ति, राजनीति एवम बुद्धिमत्ता से चारों ओर राजाओं तथा बादशाहों को जीतकर जिस राज्य को साम्राज्य बना दिया था, उसका अधपतन औरंगजेब के शासनकाल में ही आरम्भ हो गया था। मुग़ल साम्राज्य के गौरव का कारण बाबर की वीरता और अकबर की राजनीति थी। इसीलिए उसका समस्त भारत में विस्तार हो चुका था और अकबर ने उत्तरी भारत, दक्षिणी भारत एवंम मध्य भारत में अपने साम्राज्य को मजबूत बनाकर, काबुल और कन्धार तक शासन किया था। वीरता से राज्य की प्रतिष्ठा होती है और श्रेष्ठ राजनीति के द्वारा उसकी रक्षा की जाती है। औरंगजेब में इन गुणों का अभाव था ओर उनके स्थानों पर निर्दयता क्रूरता ने अधिकार कर रखा था। वह क्रूर था अपने पिता के साथ, सगे भाइयों और बहनों के साथ और उन मुसलमानों के साथ भी, जो उसके जातीय भाई थे। इस दशा में वह हिन्दुओं के साथ कितना क्रर और अमानुषिक था, इसे यहाँ पर लिखना अनावश्यक मालूम होता है। बादशाह जहाँगीर और शाहजहाँ के समय मुग़ल साम्राज्य सुरक्षित रहा। लेकिन औरंगजेब का शासन आरम्भ होते ही उसमें जिन कीटनाशकों ने प्रवेश किया, उनके द्वारा एक दिन उसका अन्त हो गया।1971 भारत पाकिस्तान युद्ध – 1971 भारत पाकिस्तान युद्ध के कारण और परिणामसन् 1707 ईसवी में औरंगजेब की मृत्यु हुई थी। उसके पाँच लड़कों में सबसे बड़ा मोहम्मद था, वह पहले ही मर चुका था। अकबर विद्रोही होकर अन्त में फ़ारस भाग गया था। इन दोनों के अतिरिक्त उसके तीन पुत्र बाकी रह गये थे आज़म, मुअज्जम और कामबख्श। औरंगजेब के मरते ही इन तीनों लड़कों में राज्य के लिए युद्ध आरम्भ हो गया। आज़म आगरे में मारा गया। कामबख्श की हैदराबाद में मृत्यु हो गयी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसका लड़का मुअज्ज़म बाकी था। इसलिए वही बुढ़ापे में सन 1707 ईसवी में बहादुर शाह जफर के नाम से मुग़ल-साम्राज्य के सिहासन पर बैठा। करनाल का युद्ध वर्णन जारी है…. सामाज्य का नाटकीय दृश्यबहादुर शाह जफर में शक्ति, साहस और अनुभव का अभाव था। उसको उस राजनीत का ज्ञान न था, जो एक शासक के लिए आवश्यक होती है। इसीलिए उसके सिंहासन पर बैठते ही उसका राज्य निर्बल पड़ने लगा। बहादुर शाह विलासी था और उसका अधिकांश समय महलों में ही व्यतीत होता था। विलासिता सभी प्रकार की निर्बलता की कारण होती है। बहादुर शाह दिन-पर-दिन निर्बल होता गया। राज्य पर आने वाली कठिनाइयों और विपदाओं के नाम से वह धबराता था। उसकी इन कमजोरियों ने मुग़ल साम्राज्य को निर्बल बनाया और उसके परिणाम स्वरूप मराठों, सिखों, राजपूतों और जाटों की शक्तियाँ लगातार बढ़ने लगी।समस्त साम्राज्य में अराजकता और अशान्ति की वृद्धि हुई। मराठों के उत्पातों को उसने किसी प्रकार रोका और राजपूतों के साथ उसने सन्धि की। लेकिन सिखों के संघर्ष बराबर बढ़ते रहे भर अन्त में उनके साथ युद्ध करते हुए वह सन् 1712 ईसवी में मारा गया।सारंगपुर का युद्ध (1724) मराठा और मालवा का प्रथम युद्धबहादुर शाह के बाद उसका लड़का जहाँदार शाह सिंहासन पर बैठा। विलासिता में वह अपने पिता बहादुर शाह से भी आगे बढ़ गया। सिंहासन पर बैठने के बाद कुछ ही महीनों में उसके भतीजे फर्रुखसियर ने उसे मार डाला और 1713 ईसवी में वह दिल्ली का बादशाह हो गया। शासन के कार्यों में फ़र्रूखसियर स्वयं अयोग्य और विलासी था। अब्दुल्ला खाँ और हुसैन अली खाँ नामक दो सैयद बन्धुओं ने, उसके बादशाह होने में उसकी सहायता की थी। उसकी अयोग्यता और कायरता के कारण साम्राज्य का प्रबन्ध सैय्यद बन्धुओं ने अपने हाथों में ले लिया। वे दोनों भाई बहुत पहले से मुग़्ल-साम्राज्य के अधिकारियों में रहे थे। फ़र्रुखसियर के शासनकाल में अब्दुल्ला खाँ प्रधान मन्त्री हो गया और उसने शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। वे दोनों भाई अत्यन्त चतुर और दूरदर्शी थे। फ़र्रूखसियर ने अपने शासन-काल में हिन्दुओं के साथ अनेक अत्याचार किये और उन पर कितने ही कर लगाकर उसने अपनी क्रूरता का परिचय दिया। सैय्यद बन्धुओं के द्वारा वह मारा गया। उन दिनों में मुगल साम्राज्य के शासन की बागडोर सैय्यद बन्धुओं के हाथों में थी।फ़र्रुखसियर के पश्चात उसके दो चचेरे भाइयों को सिंहासन पर बिठाया गया, परन्तु कुछ ही महीनों के बाद उन्हें भी मरवा डाला गया। उसके बाद जहाँदार शाह के चचेरे भाई मोहम्मद शाह को बादशाह बनाया गया। वह पहले से ही जानता था कि सैय्यद बन्धु मुग़ल साम्राज्य के शासन के साथ खेल कर रहे हैं। इसलिए वह सैय्यद बन्धुओं से प्रसन्न न था। लेकिन उसके सामने कोई ऐसे साधन न थे, जिनके द्वारा वह साम्राज्य का उद्धार कर सकता और वह स्वयं सैय्यद बन्धुओं से छुटकारा पाता। सैय्यद बन्धुओं ने जो अपराध अब तक किये थे, उनसे मोहम्मद शाह भली-भाँति परिचित था और वह किसी अवसर की खोज में था। सन् 1722 ईसवीं में दक्षिणी भारत में मुग़ल-राज्य में विद्रोह हो जाने के समाचार मिले। मोहम्मद शाह अपनी सेना के साथ उस विद्रोह को शान्त करने के लिए दक्षिण की ओर रवाना हुआ और अपने साथ उसने हुसैन अली को भी ले लिया। दक्षिण में पहुँचने के पहले ही मोहम्मद शाह ने उसे मरवा दिया। यह समाचार अब्दुल्ला को दिल्ली में मिला। उसने तुरन्त मोहम्मद शाह के साथ बदला लेने की चेष्टा की और मुगल साम्राज्य के सिंहासन पर उसने किसी दूसरे को बिठा दिया। मोहम्मद शाह ने दक्षिण से लौट कर उस नये सम्राट को परास्त कर कैद कर लिया और उसी मौके पर अब्दुल्ला मारा गया। करनाल का युद्ध वर्णन जारी है…. मुग़ल सामाज्य की बढ़ती हुई निर्बलता सैय्यद बन्धुओं का अन्त करके मुग़ल सम्राट मोहम्मद शाह को शांति मिली। उसने निजामुल मुल्क नामक मुगल सरदार को अपना प्रधान मन्त्री नियुक्त किया। उसकी अवस्था बुढ़ापे की थी और दक्षिण की एक जागीर का वह मालिक था। मोहम्मद शाह को एक ऐसी शक्ति की आवश्यकता थीं, जो मुगल-साम्राज्य की इस बढ़ती हुई कमजोरी के दिनों में सहायता कर सके। उसने सैय्यद बन्धुओं को मिटाकर उनके आतंक और अधिपत्य से छुटकारा पा लिया था। लेकिन साम्राज्य में जो चारों ओर विद्रोह पैदा हो रहे थे, उनके दबाने और अधिकार में लाने के लिए वह अपने आपको निर्बल पाता था। कुछ इसी प्रकार की आशाओं से उसने निजामुल मुल्क को अपना प्रमुख मन्त्री बनाया था। लेकिन वह इस योग्य साबित न हो सका। अवसर से लाभ उठाता कौन नहीं चाहता। सम्राट मोहम्मद शाह ने निज़ामुल मुल्क पर विश्वास करके उसको अपना प्रधान मन्त्री बनाया था और उसका कर्तव्य था कि वह गिरते हुए दिनों में साम्राज्य की सहायता करके उसे शक्तिशाली बनाता। लेकिन साम्राज्य में होने वाले उत्पातों, विद्रोहों और युद्धों को देखकर उसने अपने स्वार्थों की रक्षा का उपाय सोचा। दिल्ली से वह हैदराबाद चला गया और अपनी जागीर को स्वतन्त्र राज्य कह कर उसने सन् 1724 ईसवी में स्वाधीनता की घोषणा कर दी।राणा सांगा और बाबर का युद्ध – खानवा का युद्धइन्हीं दिनों में साम्राज्य के विरुद्ध और भी कितनी घटनायें घटी। निजामुल मुल्क का दमन करने के लिए मुगल सेनापति मुबारिज खाँ मुगल-सेना के साथ देहली से भेजा गया था। वह स्वयं वहां पर मारा गया। निज़ामुल मुल्क ने मोहम्मद शाह को बिल्कुल निर्बल समझ लिया था। फिर भी उसने राजनीति से काम लिया और अपनी स्वाधीनता को सुदृढ़ तथा स्थायी बनाने के लिए उसने राजपूत राजाओं के साथ सन्धि कर ली थी। इसके साथ-साथ उसने मुग़लों के विरोध में मराठों को उकसाया। उसके फलस्वरूप, बाजीराव ने मालवा पर आक्रमण किया और वहां के शासक दयाराम बहादुर को परास्त किया। उन्हीं दिनों में अम्बेर के राजा जयसिंह को मालवा का राज्य दिया गया। लेकिन जयसिंह ने उसे स्वीकार न किया और मालवा मराठों के हाथों में आ गया।गुलाब युद्ध कब हुआ था – गुलाब युद्ध के कारण और परिणामठीक यही अवस्था गुजरात-राज्य की भी हुई। अजित सिंह के पुत्र अभयसिंह ने गुजरात पर चढ़ाई की और वहां के अधिकारी बुलन्द खाँ को परास्त कर उसने भगा दिया। परन्तु इसी समय मराठों ने गुजरात पर आक्रमण किया और मारवाड़ के राजा अभय सिंह से गुजरात लेकर अपने अधिकार में कर लिया। जिन दिनों में दक्षिण और राजपूताना में इस प्रकार की उथल-पुथल मची हुईं थी, उन दिनों में बंगाल, बिहार और उड़ीसा में सिराजुद्दौला की प्रभुत्व चल रहा था। अयोध्या में सआदत खाँ का लड़का सफदर जंग शाषक था। सआदत खाँ इस बात को भूल गया था कि उसने मुग़ल बादशाह की सहायता से ही अयोध्या का राज्य प्राप्त किया है। उस उपकार के बदले उसके हृदय में कृतधर्ता उत्पन्न हुई। उसने भारत में मुगल सत्ता को मिटाने के लिए फ़ारस के विजयी बादशाह नादिरशाह को बुलाया। मालवा और गुजरात में अपने प्रभुत्व को मजबूत बनाकर मराठों ने दूसरे प्रदेशों पर भी आक्रमण करता आरम्भ किया। उनका साहस और उत्साह बढ़ रहा था। नर्मदा नदी को पार कर मराठे उत्तरी भारत में चारों और फैलने लगे उनको अवसर अनुकूल मालुम हुआ और विरोधी शक्तियां चारों क्षीण हो रही थीं। आक्रमणकारी मराठों की संख्या लगातार बढ़ती जाती थी। उनकी विजय और सफलता के कारण दक्षिणी भारत की अनेक जातियों के लोग जो पहले कभी युद्ध के मैदानों में पास न आये थे, भाला और तलवारें लिए हुए मराठा सैनिक सवारों के बीच में घोड़ों पर दिखायी दे रहे थे। इस प्रकार मराठों की संख्या बहुत बढ़ गयी थी और उनके आक्रमणों से उतरी भारत के राजपूत अक्रान्त हो उठे थे। उन मराठों के द्वारा राजपूताना के निर्बल राज्यों में भयानक विनाश और विध्वंस हुआ था। करनाल का युद्ध वर्णन जारी है…. दिल्ली पर बाजीराव की चढ़ाई मराठों का आतंक उन दिनों में लगातार बढ़ता जाता था। सन् 1737 ईसवी में बाजीराव प्रथम ने अपने साथ एक विशाल मराठी सेना लेकर चम्बल नदी को पार किया और दिल्ली के निकट पहुँच गया। मुगल-सम्राट की निर्बलता को वह जानता था। मराठों के द्वारा दिल्ली का विध्वंस देखकर बादशाह ने दिल्ली की फौज को तैयार किया और युद्ध के लिये उसने रवाना किया। रिकाबगंज के मैदान में दोनों और की सेनाओं का सामना हुआ। मराठों के मुकाबले में दिल्ली की सेना ठहर न सकी और अन्त में वह भयानक रूप से पराजित हुईं। रिकाबगंज में परास्त होने के कारण बाजीराव के साथ युद्ध करने के लिए दिल्ली में दूसरी एक मुगल सेना तैयार हुईं और मराठों से लड़ने के लिए वह रवाना हुई। बाजीराव ने अपना विचार बदल दिया और वह दिल्ली से अजमेर की तरफ चला गया और फिर ग्वालियर की ओर लौट पड़ा। यहां से वह फिर दिल्ली जाकर आक्रमण करना चाहता था। लेकिन उसके दिल्ली आने के पहले ही मराठों की एक विशाल सेना कोंकण में पुर्तगालियों के विरुद्ध रवाना हो चुकी थी, इसलिए बाजीराव को अपना रास्ता बदल कर कोंकण की ओर रवाना होना पड़ा। करनाल का युद्धदक्षिण में मराठों की शत्रुता आसफ़जाह के साथ थी। उसने हैदराबाद राज्य की प्रतिष्ठा की थी। दिल्ली पर बाजीराव के चढ़ाई करने पर निजाम को बाजीराव पर सन्देह पैदा हो गया था। उसने सोचा कि बाजीराव दिल्ली के पश्चात् हैदराबाद पर आक्रमण कर सकता है। इसलिए मालवा से उसका प्रभुत्व किसी प्रकार मिटा देना चाहिए। निजाम बाजीराव के साथ युद्ध करने की तैयारी करने लगा। उन्हीं दिनों में बाजीराव के आतंक से भयभीत होकर दिल्ली में मोहम्मद शाह ने अपने मन्त्रियों के साथ निश्चय किया कि मराठों के साथ युद्ध करने के लिए निजाम को फिर बुलाया जाय और उसको प्रसन्न करने के लिए आगरा और मालवा के प्रान्त निजाम के लड़के गाज़ीउद्दीन को दे दिये जाये। यही किया गया। निजाम ने दिल्ली आकर मराठों के साथ युद्ध की तैयारी की और एक फौज को अपने साथ लेकर वह मालवा की और चलता हुआ। निजाम ने अपने दूसरे लड़के नासिर जज्म को लिखकर भेजा कि जैसे भी हो, बाजीराव को दक्षिण में ही रोको लेकिन बाजीराव पहले ही दक्षिण से चल चुका था। मालवा की और निजाम की बढ़ती हुई सेना का समाचार पाकर उसने नर्मदा नदी को पार किया और भोपाल में पहुँच कर उसने निज़ाम की फौज को रोका। तुरन्त युद्ध आरम्भ हो गया। बाजी राव ने निजाम की सेना को भली प्रकार घेर लिया था। इसलिए युद्ध में उसकी सेना कुछ कर न सकी। निजाम की सेना ने कुछ समय तक तोपों की मार की और अन्त में घबराकर उसने सन्धि की प्रार्थना की। इस सन्धि के अनुसार जनवरी सन् 1738 ईसवी में मुग़ल बादशाह की और से निजाम ने नर्मदा नदी से चम्बल नदी तक के समस्त प्रान्त और प्रदेश बाजीराव को देकर पचास लाख रुपया वार्षिक कर देना स्वीकार किया। करनाल का युद्ध वर्णन जारी है…. पुर्तगालियों के साथ मराठों का युद्धऊपर लिखा जा चुका है कि दक्षिण से बाजीराव के दिल्ली की ओर चले जाने पर चिम्मा जी अप्पा के नेतृत्व में एक बड़ी मराठा सेना पुर्तेगालियों को परास्त करने के लिए कोंकण की तरफ गयी थी। इस समाचार के मिलने पर बाजीराव ने दिल्ली के आक़्रमण का निर्णय स्थगित कर दिया था और वह कोंकण पहुँच कर पुर्तगालियों के साथ युद्ध करना चाहता था। लेकिन जब उसे मालुम हुआ कि एक मुग़ल सेना लेकर निजाम मालवा के मराठों पर आक्रमण करने के लिए जा रहा है तो उसने भोपाल में जाकर निज़ाम के साथ युद्ध किये था, जिसका विवरण ऊपर लिखा जा चुका है। निजाम को परास्त कर अपनी विजयी सेना के साथ बाजीराव कोंकण की ओर चला। चिम्मा जी अप्पा और बाजीराव की सेनाओं के सामने पुर्तगालियों की पराजय हुई। उनका उत्तरी प्रान्त मराठों के अधिकार में आ गया। बसई के लेने में मराठों को पुर्तगालियों के साथ भीषण युद्ध करना पड़ा और बहुत हानि उठानी पड़ी। करनाल की लड़ाई का वर्णन जारी है…. करनाल का युद्ध – नादिरशाह का आक्रमणजिन दिनों में दक्षिण और उत्तर से मुग़ल-साम्राज्य पर विद्रोहों और आक्रमणों की आँधिया आ रही थीं, दिल्ली के मुगल बादशाह मोहम्मद का ध्यान अफ़ग़ानिस्तान की ओर न था। उसे यह मालुम न थाकि वहां पर क्या हो रहा है। उस समय तक काबुल और गज़नी में भारत के मुगलों का राज्य था। सन् 1648 ईसवी से कन्धार फ़ारस के शाह वंशजों के अधिकार में चला आ रहा था।लेकिन सन् 1722 ईसवी में गिलजाई अफ़गानों ने उस पर अपना अधिकार कर लिया था। सन् 1729 ईसवी में वह॒ विजय प्रसिद्ध सैनिक नादिरशाह को प्राप्त हुई। उसने न केवल फ़ारस पर अपना अधिकार किया, बल्कि सन् 1738 ईसवी में उसने कंधार को भी लेकर अपने राज्य में मिला लिया। उसके बाद काबुल तथा गजनी पर आक्रमण करके उनको अपने राज्य में शामिल कर लिया। मुगल बादशाहों ने इनकी रक्षा का भार बहुत कुछ पहाड़ी जातियों पर छोड़ रखा था।वे लोग किसी बाहरी आक्रमण के समय मुग॒लों के इन प्रदेशों की रक्षा करते थे और उसके बदले में मुगल बादशाह धन से उनकी सहायता किया करते थे। पहाड़ी जातियों की इस सहायता का सम्बन्ध मुगल साम्राज्य के साथ इन दिनों में टूट चुका था।थर्मापायली का युद्ध कब हुआ था – थर्मापायली युद्ध के कारण और परिणामनादिशाह ने उसके बाद भारत की ओर बढ़ने का विचार किया और नवम्बर सन् 1738 ईसवी में सिन्ध नदी को पार कर वह अपनी सेना के साथ पंजाब की और आगे बढ़ा। नादिरशाह के आक्रमण का समाचार जब दिल्ली पहुँचा तो उसके साथ युद्ध करने के लिए कमरुद्दीन निजाम और खाने दौरान के सेनापतित्व में दिल्ली से मुगल सेनायें भेजी गयीं। उन सेनाओं ने शहादरा पहुँच कर मुकाम किया। उनको वहाँ पहुंचे हुए एक महीना बीत गया। इन्हीं दिनों में लाहौर भी नादिरशाह के अधिकार में चला गया। मुगलों की पराजय के समाचार दिल्ली में लगातार पहुँचते रहे मोहम्मद शाह ने घबरा कर राजपूतों और मराठों से सहायता माँगी। मुगल बादशाह की सहायता के लिए राजपूत राजाओं की ओर से कोई नही गया। मराठों ने सहायता देना स्वीकार तो किया लेकिन पुर्तगालियों के साथ कोंकण का संघर्ष अभी तक चल रहा था। इसलिए उनकी कोई सहायता बादशाह को मिल न सकी। निराश होकर मोहम्मद शाह स्वयं अपनी सेना के साथ नादिरशाह के मुकाबले में पहुँचा। करनाल में दोनों ओर की सेनाओं का मुकाबला हुआ। बहुत समय तक भयानक संग्राम होने के बाद अन्त में मुगल सेनाओं की पराजय हुई। नादिरशाह के सैनिक अधिक संख्या में घोड़ों और ऊँटों पर सवार थे ओर वे लम्बी बन्दूकों की मार करते थे। भारतीय सैनिकों के पास भाला, तलवार और तीर थे। नादिरशाह के पास हलकी तोपें भी थीं उनकी मारों से उसकी सेना ने मुगल सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया था। करनाल का युद्ध वर्णन जारी है… करनाल का युद्ध में मोहम्मद शाह का आत्म समर्पणमुगल सेनाओं के पराजित होने पर मोहम्मदशाह की समझ में अपनी रक्षा का कोई उपाय न आया। उसने फरवरी सन् 1739 को नादिरशाह के पास जाकर व्यक्तिगत रूप से आत्म समर्पण किया। नादिरशाह की आज्ञा से वह कैद कर लिया गया ओर फ़ारस की विजयी सेना ने करनाल से चलकर दिल्ली में प्रवेश किया। मोहम्मदशाह राज्य का सर्वनाश नहीं चाहता था। इसीलिए उसने नादिरशाह के पास जाकर आत्म समर्पण किया था। उसने आशा की थी कि इसके बाद सन्धि हो जायगी और सार्वजनिक विनाश रुक जायगा। परन्तु मोहम्मदशाह का यह अनुमान सही न निकला। नादिरशाह की फौज ने दिल्ली पहुँच कर मार-काट और लूट आरम्भ कर दी। दिल्ली राजधानी में हाहाकार मच गया। आक्रमणकारी सैनिकों ने दिल्ली नगर के प्रत्येक घर में घुसकर अमानुषिक अत्याचार किये, घरों को लूटा और बड़ी निर्दंयता के साथ स्त्रियों, बच्चों और पुरुषों का वध किया। करनाल का युद्ध वर्णन जारी है…. करनाल युद्ध के बाद दिल्ली का सर्वनाशजिस सर्वनाश को बचाने के लिए सम्राट मोहम्मद शाह ने स्वयं नादिर शाह के पास जाकर अपने आपको कैदी बनाया था, उस वध, विनाश और विध्वंस को वह बचा न सका। शत्रु के हाथों में कैदी होकर उसे स्वयं अपने नेत्रों से अमानुषिक अत्याचारों के वीभत्स दृश्य देखने पड़े। वह नादिरशाह की क्रूरता श्रौर निर्दयता को पहले से जानता न था। आक्रमण के पहले दिन दिल्ली की विशाल और सम्पत्तिशाली नगरी में कत्ले-आम होता रहा। घरों में घुस कर शत्रु के सैनिकों ने एक तरफ से सब को काट डाला और उस घर को लूट कर बाद में आग लगा दी। उस आग में कटे हुए स्त्री, बच्चे और पुरुष असहाय अवस्था में जलते रहे। ठीक यही अवस्था सारे शहर में की गई। दूसरे दिन शहर के प्रमुख व्यक्ति, सम्पत्तिशाली और राज्य के अधिकारी ख़ोज-खोज कर काटे गये। उनके परिवारों को ढूंढ कर उनके घरों पर भी आग लगा दी गई।बादशाह के फ़र्रशखाने में जाकर शत्रुओं ने लुट की और जो सामान ले जाने केयोग्य न था, उसमें आग लगा दी। केवल उस फ़र्राशखाने में आग में जल जाने के कारण एक करोड़ रुपये की हानि हुई। नादिरशाह के इस कत्लेआम से दिल्ली में जो स्री, पुरुष और बच्चे काट कर फेंक दिये गये थे, उनकी संख्या लगभग एक लाख के पहुँच गयी थी जिस सआादत खाँ ने आक्रमण के लिए नादिरशाह को भारत में बुलाया था, उसके साथ हैदराबाद का शासक आसफ़जाह मिला हुआ था और नादिरशाह को बुलाने में दोनों का हाथ था। दोनों ही ऊपर से मोहम्मदशाह के साथ मेल रखते थे और आसफ़ जाह॒ तो मुगल साम्राज्य के प्रधान मन्त्री की हैसियत से उस समय काम कर रहा था, जब नादिरशाह ने भारत में आकर आक्रमण किया था। मुग़ल सम्राट मोहम्मदशाह की पराजय का मुख्य कारण यह हुआ कि नादिरशाह के आक्रमण करने पर उससे लड़ने के लिए जो सेनायें दिल्ली से भेजी गयी थीं, उनमें सआादत खाँ और आसफ़ जाह दोनों ही सेनापति थे।करनाल के युद्ध में दोनों ही नादिर शाह के साथ मिल गये थे। इस विश्वासघात की भयानक अवस्था में मोहम्मदशाह के सामने आात्म समर्पण करने के सिवा और कोई रास्ता ही न था। करनाल का युद्ध वर्णन जारी है…. नादिरशाह से साथ सन्धिलूटमार और सर्वसंहार के बाद नादिरशाह ने मोहम्मद शाह के साथ सन्धि की और उस सन्धि के अनुसार, मोहम्मद शाह को 50 लाख रुपये वार्षिक देना स्वीकार करना पड़ा। दो महीने तक लगातार लूटमार के बाद कुल मिला कर बाईस करोड़ पचास लाख रुपये की सम्पत्ति नकद और हीरे जवाहरात मिला कर जिसमें साम्राज्य का रत्नाभूषणों से बना हुआ बहुमूल्य राज सिंहासन भी शामिल था, दिल्ली से नादिरशाह ले गया। इसके अतिरिक्त, लूट की मुल्यवान बहुत सी सामग्री, प्रसिद्ध शिल्पकार, हाथियों, घोड़ों और ऊंटों के मुणड भी दिल्ली से उसके साथ फ़ारस देश गये। भारत में पहले भी बहुत से विदेशी आक्रमण हुए थे और तेमूरलंग ने तो भारत में अत्याचारों को सीमा तक पहुँचा दिया था। लेकिन नादिरशाह की क्रूरता और निर्दंयता के जो भयानक दृश्य इस देश को देखने पड़े, उनकी स्मृतियाँ दो सौ वर्षों के बाद भी इस देश के निवासियों को देख कर आज भी इस देश के निवासी नादिरशाह के साथ उसकी उपमा देते हैं। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—-[post_grid id=”7736″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest 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