कजरी तीज कब मनाते हैं – कजरी के गीत – कजरी का मेला Naeem Ahmad, August 12, 2022February 25, 2024 कजरी तीज पूर्वांचल का सबसे प्रसिद्ध त्यौहार है, कजरी पर्व के अवसर मिर्जापुर और आसपास के जिलों में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। कजरी तीज के अवसर पर जगह जगह मेले भरते है।काशी का मेला – काशी विश्वनाथ के मेलेकला जीवन की अनिवार्यता है तो लोककला लोकजीवन की। चौसठ कलाओ में अधिकतर लोककलाए ही है। काव्यकला ललित होने के कारण उत्तम कला है। कजरी लोक-काव्य-कला है। इसमे साहित्य, संगीत और कला तीनो की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। अत कजरी को उत्तम कोटि की कला विधा माने तो कह सकते है कि कजरी लोकजीवन की अनिवार्यता है अथग लोक जीवन कजरी तीज भी अनिवार्यता है। क्योकि प्रत्येक लोककला में जीवन की अभिव्यक्ति होती है और वह सत्य तथा यथार्थ पर आधारित होता है। चूंकि इसका उद्भव और विकास लोक से लोक मे होता है, अत लोक मंगल की शाश्वत कामना इसमें निहित रहती है।कजरी तीज की उत्पत्तिकजरी तीज तो उत्पत्ति ही लोक से हुई है। किवदन्तियो में राजकुमारी का रोचक प्रसग तथा माँ विन्ध्यवासिनी के उपनाम “कज्जला देवी’ से सबंधित कथा का उल्लेख विशेष रूप से होता आ रहा है। कहते है कि यह विशेष गीत छद मा विंध्यवासिनी को प्रसन्न करने के लिए किसी मुसलमान शायर द्वारा रचा गया था। कजरी शैली मे रचे गये इस गीत को सुनकर मां ने भक्त शायर को वरदान दिया था कि जो भी इस शैली में गीत रचकर उन्हे सुनायेगा, उसे उनकी भक्ति सहज मे ही प्राप्त हो जायेगी। तभी से हिन्दू हो चाहे मुसलमान, अमीर हो चाहे गरीब, किसी भी जाति-धर्म का क्यो न हो, किसी भी अखाडें का क्यो न हो, जब भी वह किसी अखाड़े मे सम्मिलित होगा, पहला कजरी गीत वह मां विंध्यवासिनी के प्रति ही लिखेगा। वह मां के झरोखे से उनका दर्शन करेगा उन्हे प्रसाद चढाकर बांटेगा और काजल का टीका लगाकर मां को शीश झुकायेगा। इन सभी प्रसंगो में लोकजीवन की ही अभिव्यक्ति मिलती है। कवि श्रीकृष्णताल गुप्त की मां विन्ध्यवासिनी के प्रति रची गयी कजरी की पक्तियां प्रस्तुत हैं–कजरी तीजकजरी के गीत “हमरे माई के बखरिया, रतन छतरी। चनन केवरिया कलस देहरी।। अचरा के छहिया अमिय रस बरसे। तपर्सी सिवनर्वां अमर फल परसे। सुरज चनरमा रहेन प्रहरी। हमरे माई के बखरिया रतन छतरी।। स्नेह, दया, करुणा, प्रेम, सहानुभूति, परोपकार, परहित-रक्षा, सत्य, अहिंसा, सद्भावना, सदाचार, सद्व्यवहार, सहृदयता, यो-ब्राह्मण बाल-स्त्री रक्षा, राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, त्याग बलिदान, जनकल्याण आदि शाश्वत् मानव-मूल्य है। आज के मूल्यो मे अस्पृश्यता निवारण साक्षरता, पर्यावरण, परिवार नियोजन, स्त्री-शिक्षा, परिश्रम, अनुशासन, अधविश्वासों का निवारण, जन-जागरण आदि मुख्य है। कजरी गीतो मे इन तमाम मूल्यो-मान्यताओ की स्थापना का सार्थक, उपयोगी और व्यावहारिक प्रयास कजरी के रचयिताओं द्वारा आरंभ से ही किया जाता रहा है। गोदना भी लोकजीवन की एक अनिवार्यता थी। एक विश्वास के अनुसार गोदना ही अगले जन्म का साथी है, बाकी चीजे तो यही धरी की धरी रह जाती है। मोहनलाल ने कजरी धुन मे राष्ट्रीय भावना का मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है- “कर में हमरे गोदनहारिन सुधर गोदनवा गोदो। नेहरू आनन्द भवनवा गोदो ना। खिला हो मुखडा कमला नेहरू का। सुधर रूप रगवा गोदो। गये हो नेहरू अमेरिका कनेडी के सगवा गोदी। घहर-घहर कर लडत वीर हो, काश्मीर के सीमवा गोदो।। प्रेमधन बदरी नारायण चौधरी, उपाध्याय और भारतेंदु बाबू हरश्चिद्र को साहित्यिक कजलियो का जनक माना जा सकता है। उन दिनों सावन-भादो मे साहित्य के ये दोनो अन्तरग मित्र और महारथी मिर्जापुर-वाराणसी एक-दूसरे के यहां आते-जाते थे। कजरी की समस्या पूर्तिया होती थी। दरबार लगता था। कलाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए कजरहवा, पोखरा, त्रिमुहानी, ओझला पुल, पक्काघाट, बजडे पर गंगा की धारा, लोहदी महाबीर, टाडापाल आदि मे मेलो-ठेलो का आयोजन किया जाता था। कजरी लडाई की जाती थी। कजरी में सवाल-जवाब होता था। इन सबका चित्रण कजली गीतो में हुआ है। जैसे- हरि-हरि मिर्जापुर की कजरी लागेै प्यारी रे हरी।। हर मगल त्रिकोण का मेला, होला अजब रसीलारामा। हरि हरि जगल में है मगल की तैयारी रे हरी।। और मिर्जापुरी लोकमस्ती देखिये- काली खोंह छानि के बूटी, गुण्डे तान उडावै रामा- हरि हरि अष्टभुजा पर भयलीं भिरिया भारी रे हरी।’ इसी प्रकार सीख की बाते भी बतायी गयी है। सीताराम द्विवेदी ‘समन्वयी’ की एक कजरी की कुछ पक्तियां देखिये जो नशाबदी के महत्व पर प्रकाश डालती है। शराबी पति घर बर्बाद कर देता है। जनकवि दूध और शराब का अतर स्पष्ट करता हुआ कहता है- “हरि-हरि बिगड गयल मोर घरवा, मिलल शराबी रे हरी। काम धाम सब छोड छाड़ के, भट्ठी पर जुट जाला रसामा। हरि हरि छोड सरबिया, पियल दूध मनमाना रे हरी। इसी प्रकार भाई-बहन के प्रेम का वर्णन देखिये- कजरी-तीज पर भाई की याद, नैहर के अन्य सदस्यों की याद आनी स्वाभाविक है। ननद-भौजाई के बीच के वार्तालाप की पक्तिया है– “साझे कइह भउजी खिचरी फकउतिउ, सबेर अड्डे ना।मोरा भैया अलबेलवा सबेर अइहै ना।” और उत्तर कि —“सांझे क खिचडी जुडाई ननदी, तोर भइया फडेबजवा, नाही हो अड्डहैँ ना साझे कहड् भउजी जलवा भरउतिउ, सबेर अइहै ना। मोर भइया अलबेलवा सबेरे अइहै ना।। और फिर इसी प्रकार मिर्जापुरी ठाठ तो देखिये। वर्षा के दिन भी क्या दिन है। रिमिझिम फुहारो के संग या बाद में पति-पत्नी बाहरी तरफ निकल जाते है और क्या-क्या देखल है- “प्रिया हमके घुमावै कई मील सखी चढके साइकिल सखी ना। देखा खजुरी क बाघ, बहुत दिन से रहा साथ। जल अगाध भरा जैसे, लगे झील सखी। चढके साइकिल सखी ना।” कजली लोकजीवन की अनिवार्यता है और लोकजीवन कजरी की भी अनिवार्यता है। क्योकि उसमे सब कुछ लोकपरक लोकोउयोगी और लोकानुरंजन के लिए होता है। उसमे एक साथ राष्ट्रीय चेतना, प्रेरक प्रसंग, सस्कृति-दर्शन, प्रकृति-चित्रण, झूलावर्णन, श्रूयार, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, गरीबी, पौराणिक आख्यान, समाज-सुधार ,त्याग, समर्पण, पारिवारिक जीवन की सूक्ष्म बातों का भी चित्रण रहता है। गरीबी मे सुख की सच्ची अनुभूति का चित्रण इन चार पक्तियों मे देखिये– “गोरिया कहै दुलराय, पियवा के गले लगाय, हमके बेसर दे गढ़ाय, लहरेदार बलमू । लेवे झुलनी बुलाक, झुमका टीका बुन्दाबाक, छू छ किलिया बिना नाक बा हमार बलमू।। स्पष्ट है कि सुख धन-सम्पत्ति से नहीं, सुख पारिवारिक जीवन से मिलता है। छोटा, सुखी, हँसता-खेलता परिवार ही धरती का असली स्वर्ग है। तमाम काण्ड करके, अरबों एकत्र करके भी क्या यह सहज सुख देश-समाज के उन गददारो को मिल सकता है ? कदापि नही, यह तो जंगल, पहाड, गाव-गिरांव में सीमित साधनो मे जीवन जीने वालों को ही नसीब हो सकता है। एक गरीब आदिवासी के उस सुख को क्या महलों का आदमी बादशाह पा सकता है जो दिन भर श्रम करने के बाद वह अपनी राम मडैया मे आते एक ही मोटी लिटटी या एक थरिया भात पूरे परिवार के साथ माल बांट के खां लेता। कथा कहानी कहते सुनते मेरा पर कजरी, बिरहा, लोरिकी, विजयमल के गीत गाते काठ की चारपाई या तख्त पर सो जाता। पत्नी भी पाव दबाते वही लुढक जाती।शिवपुर का मेला और तारकेश्वर का मेला मिर्जापुर उत्तर प्रदेशतात्पर्य यह कि कजरी मे सब कुछ लोकपरक है। उसकी लय धुन भाषा, भाव, विषयवस्तु सब कुछ लोक से उद्भूत है, लोक के लिए है, लोकानुरंजन के लिए है और लोक का पुराणोतिहास है। कजरी लोकजीवन की आत्मा ओर कजरी की आत्मा भी लोकजीवन है। यह इस बात से ही स्पष्ट है कि कजरी की धुने भी लोक से ही ग्रहण की गयी हैं। जैसे- अरे रामा, हे हरी, सावरिया, सावर गोशिया, ना, बलमू, जिरवा, झालरिया, पडेला झीरजीर बुनिया, ललना, विर्नवा, लोय आदि।विंध्याचल नवरात्र मेला मिर्जापुर उत्तर प्रदेशइसमे खादी, लिट्टी-बाटी, लोक रंग, लोक ढंग, लोक रुचि, लोकवार्ता को ग्रहण किया गया है। स्वतत्रता आन्दोलन के प्रसंग मे गांधी जी के खादी आन्दोलन तक को समेट लिया गया है। स्वतत्रता आन्दोलन में कजरी गीतों के माध्यम से जन-जागरण में मदद मिली थी। तात्पर्य कि कजरी पर्व लोक-मानस की अक्षय निधि है। उसके गायन, अखाड़े और दंगल की परपरा समाप्त होने की कगार पर है। किन्तु आज भी लोककण्ठ का श्रृंगार बनी कजरि के बडे पैमाने पर संग्रह की आवश्यकता है। उसे प्रोत्साहित कर जन-जागरण का काम लिया जा सकता है।हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- [post_grid id=’11706′]Share this:ShareClick to share on 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