एंटीबायोटिक की खोज किसने की, एंटीबायोटिक कैसे तैयार किया जाता है Naeem Ahmad, March 6, 2022March 12, 2022 आधुनिक चिकित्सा के बढ़ते कदमों में एंटीबायोटिक की खोज निस्संदेह एक लंबी छलांग है। सबसे पहली एंटीबायोटिक पेनिसिलीन थी, जिसकी अलेग्जेंडर फ्लेमिंग ने सन् 1928 में खोज की थी। उन्होंने ही सर्वप्रथम यह देखा था कि स्टेफिलोकीकाई नामक बैक्टीरिया की कल्चर प्लेट में जब हरे रंग की फफूंद उग जाती है, तो बैक्टीरिया की वृद्धि रुक जाती है लेकिन पेनिसिलीन को इसके फंफूद से सन् 1940 मे अलग किया गया और उसके गुणों का विस्तार से अध्ययन किया गया।प्रारंभ पेनिसिलीन इतनी दुर्लभ थी कि रोगी को दिए जाने के बाद यह औषधि उसके मूत्र से वापिस निकाल ली जाती थी, ताकि उसका पुनः प्रयोग किया जा सके। आज पेनिसिलीन बहुत ही कम मूल्य पर उपलब्ध हो जाती है। एंटीबायोटिक की खोज किसने की थी बैक्टीरिया एक कोशकीय वनस्पति वर्ग से संबंध रखने वाला जीव होता है। कुछ बैक्टीरिया रोग पैदा करते हैं। इनके आधार पर एंटीबायोटिक दो मुख्य भागो में बांटे जा सकते हैं। एक तो वे, जो केवल कुछ प्रकार के बैक्टीरिया पर ही प्रभाव डाल सकते हैं। इनको नैरो स्पैक्ट्रम एंटीबायोटिक कहते हैं। इस वर्ग में पेनिसिलीन मुख्य है। दूसरे जो विभिन्न प्रकार के बहुत से बैक्टीरिया पर प्रभाव डालते हैं, इनको ब्रॉड स्पैक्ट्रम एंटीबायोटिक कहा जाता है, जिनमें टेट्रासाइक्लन और क्लोरोमाइसिटीन मुख्य हैं। एंटी’ का अर्थ होता है किसी के विरोध में तथा ‘बायोट’ का अर्थ जीवन है। इन दोनों को मिलाकर एंटिबायोटिक कहा जाता है। ये दवाएं कुछ विशेष प्रकार के जीवाणुओं के जीवन को नष्ट करने के लिए उपयोग में लाई जाती हैं। एक वैज्ञानिक ने इसकी परिभाषा यों दी हैः-‘एंटीबायोटिक वे औषधियां हैं, जो अपनी जीवन-रक्षा के लिए दूसरों का जीवन नष्ट करती हैं। वैक्समैन नामक वैज्ञानिक के कथनानुसार ये वे रासायनिक पदार्थ हैं जो जीवाणुओं से बने हैं और इनमें बैक्टीरिया या जीवाणु की वृद्धि रोकने की शक्ति है। परंतु यदि हम चाहें कि किसी भी जीवाणु के कारण हुए रोग में हम कोई भी एंटीबायोटिक प्रयोग करें, तो यह संभव नहीं है। इनका कार्य क्षेत्र बडा ही सीमित होता है। एक विशेष प्रकार का एटीवायोटिक किसी विशेष रोग के लिए ही उपयोगी होगा। ऐसा नहीं होता कि वह किसी भी बैक्टीरिया से हुए रोग को ठीक कर दे। यह आश्चर्यजनक सत्य है कि बैक्टीरिया द्वारा जनित रोग का इलाज भी बैक्टीरिया से ही बने एंटीबायोटिक द्वारा होता है। बैक्टीरिया द्वारा अनेक खतरनाक बीमारियां फैलाई जाती हैं। इनके कारण गंभीर बीमारिया हो जाती हैं, जिनसे मृत्यु भी हो सकती है। बैक्टीरिया द्वारा फैलाई जाने वाली मुख्य बीमारियां हैं-टी. बी. अथवा क्षयरोग, टायफाइड, हैजा, डिप्थीरिया, न्यूमोनिया और पेचिश। इनके अतिरिक्त भी अनेक बीमारियां इसके द्वारा फैलती हैं। एंटीबायोटिक पहले तो पेनिसिलीन को द्रव के रूप में प्राप्त किया गया। पर शीघ्र ही वैज्ञानिको का यह प्रयत्न सफल हुआ कि वे प्रयोगशाला मे इसे सिन्थेटिक माध्यम मे बना सके। सिन्थेटिक शब्द मानवीकृत अथवा कुत्रिम के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। पेनिसिलीन के आरंभिक दिनों मे अनेक कमियां सामने आयी। एक तो यह कि यह दवा मुर्दो द्वारा शीघ्र ही शरीर के बाहर निकाल दी जाती है। जब अपने पूरे समय तक औषधि शरीर में उपस्थित ही नहीं रहेगी, तो उसे अपनी क्रिया करने का अवसर ही नहीं मिलेगा। अत: इसकी खुराकें जल्दी-जल्दी देनी पड़ती थी। इसके अतिरिक्त एक अवगुण यह है कि घोल के रूप में पेनिसिलीन एक अस्थाई यौगिक का कार्य करती है। अम्लों के कारण भी इसकी क्रियाशीलता जाती रहती है। पेनिसिलीन अस्थाई होती है। अतः इसे शुद्ध करने में अत्यन्त कठिनाई का सामना करना पड़ा क्योकि यह ठीक प्रकार से शुद्ध हो ही नहीं पाती थी। बाद में इसमे कुछ सफलता मिली। अंत मे नई विधियो से शुद्ध और अधिक मात्रा मे पेनिसिलीन बनाई गई। इस सफलता ने अनेक वैज्ञानिकों तथा अनुसंधान केन्द्रों का ध्यान अपनी ओर खीचा, उस समय द्वितीय विश्व-युद्ध हो रहा था। ऐसी विशेष परिस्थितियो के कारण, जबकि इस प्रकार की दवाये बडी आवश्यक सिद्ध हो सकती थीं, सब का ध्यान उधर उठना स्वाभाविक ही था। उन दिनो पेनिसिलीन को बड़े व्यापारिक स्तर पर बनाने के प्रयत्न आरंभ किए गए। इस तरह के प्रयत्न ब्रिटेत और अमेरिका ने सम्मिलित रूप से किए थे व्यापारिक स्तर पर बनाई जाने वाली पेनिसिलीन में शुद्ध पेनिसिलीन के लवण ही रहते हैं। ये विशुद्ध रूप से हानिरहित होते हैं। इस प्रकार बिकने वाली पेनिसिलीन मैं केवल पेनिसिलीन ही नहीं होती। यो तो अनेक विधियों से पेनिसिलीन बनाई जा रही है। पर बडे पैमाने पर बनाने के लिए मुख्यतः तीन विधिया प्रयोग में लाई जाती हैं। 1. इस विधि से पेनिसिलीन बनाने मे इसके बैक्टीरिया, जिनका पूरा नाम पेनिसिलीन नोटेटम है, एक बर्तन में इनके खाद्य पदार्थ की ऊपरी सतह पर उगाए जाते है। पूरी तरह से उगाने के बाद यह जीवाणु या फफूदी जो कि हरे रंग की होती है, एक मोटी चटाई की भांति मालूम पड़ती है। लगभग एक सप्ताह बाद यह पूरी तरह से उग आती है। इस विधि द्वारा बनाने पर अन्य विधियों की अपेक्षा पेनिसिलीन अधिक मात्रा में बनती है। किन्तु इसे बनाने में परिश्रम बहुत लगता है, जिससे लागत बढ़ जाती है। अतः बड़े पैमाने पर बनाने के लिए यह विधि अधिक उपयोगी सिद्ध नही हो पाई है। 2. इसमें पेनिसिलीन बड़ी-बड़ी टंकियों में या बड़े बर्तनों मे उगाई जाती है। टंकियों का उपयोग तब किया जाता है जबकि चीनी मे खमीर उठाकर उसे बैक्टीरिया के खाद्य के रूप में प्रयोग किया गया हो और बर्तनों में तब, जब कि साइट्रिक अम्ल को खाद्य बनाया गया हो। यह फफूंदी सास लेने के लिए बहुत बडी मात्रा मे ऑक्सीजन का प्रयोग करती है। अतः यदि खाद्य इसके ऊपर छा जाएगा तो कठिनाई होगी। इससे बचने के लिए खाद्य को बराबर हिलाते रहना पड़ता है। इसमें एक अन्य सावधानी भी रखनी पड़ती है, जो हवा इसमें पहुंचाई जाती हैं उसे बडी सावधानीपूर्वक शुद्ध कर लिया जाता है, अन्यथा अन्य बैक्टीरिया भी, जो हर समय वायुमंडल में रहते हैं, उगना आरंभ कर देगे। यह फफूदी या तो गुच्छों के रूप में उगती है या लंबे तन्तुओ के रूप मे। इस विधि से दो दिनों में पेनिसिलीन तैयार हो सकती हैं। इस प्रकार इसमें समय की काफी बचत होती है। परंतु दूसरी ओर यह तरीका कभी-कभी असफल भी हो जाता है। बड़े पैमाने पर बनाने के कारण बड़े-बड़े गुच्छे उग आते है। इसके स्थान पर यदि कम-कम खाद्य लेकर, थोडा-थोडा पेनिसिलीन एक बार मे बनाया जाए, तो कम हानि रहती है। 3. इस विधि से पेनिसिलीन बनाने मे पेनिसिलीन की सर्वाधिक प्राप्ति होती है। इसमें ये बैक्टीरिया एक निश्चित तापक्रम पर बडे-बडे बर्तनों मे उगाए जाते हैं। इसमें कुल चार दिन का समय लगता है। जीवाणु समस्त वातावरण में सदा उपस्थित रहते हैं। अत जब तक पेनिसिलीन पूरी तरह से तैयार नहीं हो जाती अर्थात् इसका चूर्ण निकाल कर अलग नही कर लिया जाता, सदा दूसरे जीवाणुओं से इसके प्रभावित होने का भय बना रहता है। इसलिए इसे बनाने में अधिक सावधानी शेष वस्तुओ से अलग निकालने मे रखनी पड़ती है। इस दिशा में हुई थोडी-सी असावधानी भी इसके बनाने के समस्त परिश्रम पर पानी फेर देती है। अतः इसके खाद्य पदार्थ को शीघ्रता से छान कर पेनिसिलीन से अलग कर दिया जाता है। इसके उपरान्त अनेक रासायनिक क्रियाएं होती हैं, तत्पश्चात् हमें पेनिसिलीन के क्रिस्टल मिलते हैं। एंटीबायोटिक केवल पेनिसिलीन को ही नहीं कहा जाता। अन्य एंटीबायोटिक कुछ बीमारियों मे पेनिसिलीन से भी अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुए है। आज सैकडो एंटीबायोटिक मानव ने खोज निकाले हैं। जैसे पेनिसिलीन, पेनिसिलियम नोटेटम नामक बैक्टीरिया से, ग्रामिसाईडन वेसिलस क्वेविस से, टाइटोश्राईसन भी बेसिलस ब्रेविस से, स्ट्रेप्टेमाइसिन स्ट्रेप्टोमाइसीज ग्रीसियस से, बेसिट्रासिन बेसिलस सबटिलिस से तथा औरियोमाइसिन स्ट्रेप्टेमाइमीज नामक जीवाणु से प्राप्त होता है। पहला सिंथेटिक एंटीबायोटिक क्लोरमफेनिकाल था। एंटीबायोटिक की खोज से चिकित्सकों को संक्रामण (Infaction) रोकने मे बडी सहायता मिली है। इनकी मदद से शल्य चिकित्सा को और अधिक सुरक्षित बनाया जा सका है। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े [post_grid id=’8586′]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in 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