अहिच्छत्र जैन मंदिर – जैन तीर्थ अहिच्छत्र का इतिहास Naeem Ahmad, April 23, 2020March 14, 2024 अहिच्छत्र उत्तर प्रदेश के बरेली जिले की आंवला तहसील में स्थित है। आंवला स्टेशन से अहिच्छत्र क्षेत्र सडक मार्ग द्वारा 18 किमी है। अहिच्छत्र क्या है? अहिच्छत्र स्थान एक प्रसिद्ध जैन तीर्थ है। यह क्षेत्र जैन मान्यता के अनुसार एक कल्याणक और अतिशय स्थान है। जिसका जैन धर्म मे विशेष महत्व है। अहिच्छत्र जैन मंदिर पर बडी संख्या में जैन श्रृद्धालुओं का जमावडा लगा है। यहां साल में एक विशाल मेला भी लगता है।अहिच्छत्र को कल्यायक क्षेत्र क्यो कहा जाता है और इसका क्या महात्म्य हैअहिच्छत्र आजकल रामनगर गांव का एक भाग है। इसको प्राचीनकाल में संख्यावती नगरी कहा जाता था। एक बार भगवान पार्श्वनाथ मुनि दशा में विहार करते हुए संख्यावती नगरी के बाहर उद्यान में पधारे और वहा प्रतिमा योग धारण करके ध्यानलीन हो गये। संयोगवश संवर नामक एक देव वायु विमान द्वारा आकाश मार्ग से जा रहा था। ज्यों ही विमान ध्यानलीन पार्श्वनाथ के ऊपर से गुजरा कि वहीं रूक गया। उस तपस्वी ऋद्धिधारी मुनि को कोई सचेतन या अचेतन वस्तु लांघकर नहीं जा सकती थी। संवर देव ने इसका कारण जानने के लिए नीचे की ओर देखा। पार्श्वनाथ को देखते ही जन्म जन्मांतरों के वैर के कारण वह क्रोध से भर गया। विवेक शून्य हो कर अपने पिछले जन्म में पार्श्वनाथ के हाथों हुए अपमान का बदला लेने को आतुर हो उठा, और अनेक प्रकार के भयानक उपद्रव कर उन्हें त्रास देने का प्रयत्न करने लगा। किंतु ध्यानलीन पार्श्वनाथ पर इन उपद्रवों का रंचमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा, न वे ध्यान से चल विचल हुए और न उनके मन में आततायी के प्रति दुर्भाव ही आया।उज्जैन का इतिहास और उज्जैन के दर्शनीय स्थलतभी नागकुमार देवों के इंद्र धरणेन्द्र और उसकी इंद्राणी पद्मावती के आसन कांपने लगे। वे पूर्व जन्म में नाग नागिन थे। संवर देव कर्मठ तपस्वी था। पार्श्वनाथ उस समय राजकुमार थे। जब पार्श्वकुमार सोलह वर्ष के किशोर थे, तब गंगा तट पर सेना के साथ हाथी पर वे भ्रमण के लिए निकले। उन्होंने एक तपस्वी को देखा जो पंचाग्नि तप कर रहा था। कुमार पार्श्वनाथ अपने अवधिज्ञान के नेत्र से उसके इस विडंबना पूर्ण तप को देख रहे थे। इस तपस्वी का नाम महीपाल था और यह पार्श्वकुमार का नाना था। पार्श्वकुमार ने उसे नमस्कार नहीं किया। इससे तपस्वी मन में बहुत क्षुब्ध था। उसने लकडी काटने के लिए अपना फरसा उठाया ही था कि भगवान पार्श्वनाथ ने मना किया इसे मत काटो, इसमें जीव है। किंतु मना करने पर भी उसने लकडी काट डाली। इससे लकड़ी के भीतर रहने वाले नाग और नागिन के दो टुकड़े हो गये। परम करूणाशील पार्शवनाथ ने असहय वेदना में तडपते हुए उन नाग नागिन को णमोकार मंत्र सुनाया। मंत्र सुनकर वे अत्यंत शांतभाव से मरे और नाग नागिन, नागों देवों के इंद्र और इंद्राणी के रूप में धरणेन्द्र और पद्मावती हुए। महीपाल अपनी सार्वजनिक अप्रतिष्ठा की ग्लानि में अत्यंत कुत्सित भावों के साथ मरा और ज्योतिष्क जाति का देव संवर बना था। उसी देव ने मुनि पार्श्वनाथ से अपने पूर्व वैर का बदला लेने के लिए उपद्रव करने लगा।दिल्ली के जैन मंदिर – श्री दिगंबर जैन लाल मंदिर, नया मंदिर, बड़ा मंदिर दिल्लीधरणेन्द्र और पद्मावती ने आकर प्रभु के चरणों में नमस्कार किया। धरणेन्द्र ने सर्प का रूप धारण करके पार्श्वनाथ को ऊपर उठा लिया और सहस्त्र फण का मंडप बनाकर उनके ऊपर तान दिया। देवी पद्मावती भक्ति के उल्लास में वज्रमय छत्र तानकर खड़ी हो गयी। इससे संवर देव पार्शवनाथ के साथ साथ धरणेन्द्र और पद्मावती के ऊपर क्षुब्ध हो उठा। उसने उनके ऊपर भी अनेक प्रकार के कर्कश वचनों से प्रहार किया। इतना ही नहीं आंधी, जल, वर्षा, उपलवर्षा आदि द्वारा भी घोर उपद्रव करने लगा। किंतु पार्श्वनाथ तो इन उपद्रवों रक्षा प्रयत्नों और क्षमा प्रसंगों निलिप्त रहकर आत्मध्यान में लीन थे। उन्हें तभी केलवज्ञान उत्पन्न हो गया। वह चैत्र कृष्ण चतुर्थी का दिन था। इंद्रों और देवों ने आकर भगवान के ज्ञान कल्याणक की पूजा की।देवगढ़ का इतिहास – दशावतार मंदिर, जैन मंदिर, किला कि जानकारी हिन्दी मेंजब इंद्र ने वहां अपार जल देखा तो उसने इसके कारण पर विचार किया। वह संवर देव पर अति क्रोधित हुआ। संवर देव भय के मारे कांपने लगा। इंद्र ने कहा तेरी रक्षा का एक ही उपाय है। कि तू प्रभु से क्षमा याचना कर। संवर प्रभु के चरणो में जा गिरा। तत्पश्चात इंद्र की आज्ञा से धनपति कुबेर ने वहीं पर समरसरण की रचना की और भगवान पार्श्वनाथ का वहां पर प्रथम जन कल्याणकारी उपदेश हुआ। नागेंद्र द्वारा भगवान के ऊपर छत्र लगाया गया था, इसी कारण इस स्थान का नाम संख्यावती के स्थान पर अहिच्छत्र हो गया। साथ ही भगवान के केवलज्ञान कल्याणक की भूमि होने के कारण यह पवित्र तीर्थ क्षेत्र हो गया। अतिशय क्षेत्र क्यों कहा जाता है अतिशय का महत्वभगवान पार्श्वनाथ के सिर पर धरणेन्द्र द्वारा सर्प फण लगाने और भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात लगता है कि यहां की मिट्टी में ही कुछ अलौकिक अतिशय आ गया। यहा पर पश्चातवर्ती काल में अनेक ऐसी चमत्कार पूर्ण घटनाएं घटित होने का वर्णन जैन साहित्य में अथवा अनुश्रुतियों में उपलब्ध होता है। इन घटनाओं में आचार्य पात्रकेसरी की घटना तो सचमुच ही विमस्यकारी है। आचार्य पात्रकेसरी का समय 6-7वीं शताब्दी माना जाता है। वे इसी पावन नगरी के निवासी थे। उस समय नगर के शासक आवनियाल थे। उनके दरबार में पांच सौ ब्राह्मण विद्वान थे, जो प्रायः तात्विक गोष्ठी किया करते थे। पात्रकेसरी इनमें सर्व प्रमुख थे। एक दिन यहां के पार्श्वनाथ मंदिर में ये विद्वान गोष्ठी के लिए गये। वहां एक मुनि जिनका नाम चरित्र भूषण था, आचार्य समन्तभद्र विरचित देवागम स्त्रोत का पाठ कर रहे थे। पात्रकेसरी ध्यान पूर्वक उसे सुन रहे थे। उनके मन की अनेक शंकाओं का समाधान स्वतः होता गया। उन्होंने पाठ समाप्त होने पर मुनिराज से स्तोत्र दुबारा पढ़ने का अनुरोध किया। मुनिराज ने दुबारा स्तोत्र पढ़ा। पात्रकेसरी उसे सुनकर अपने घर चले गये, और गहराई से तत्व चिंतन करने लगे। उन्हें अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैन दर्शन सत्य लगा। किंतु अनुमान प्रमाण के संबंध में उन्हें अपनी शंका का समाधान नहीं मिल पा रहा था। इससे उनके चित्त में कुछ उहिग्नता थी। तभी पद्मावती देवी प्रकट हुई और बोली — विप्रवर्य ! तुम्हें अपनी शंका का उत्तर कल प्रातः पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा द्वारा प्राप्त हो जायेगा। दूसरे दिन पात्रकेसरी पार्श्वनाथ मंदिर में चहुंचे। जब उन्होंने प्रभु की मूर्ति की ओर देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। पार्श्वनाथ प्रतिमा के फण पर लिखित कारिका को पढ़ते ही उनकी शंका का समाधान हो गया, और उन्होंने जैन धर्म को सत्य धर्म स्वीकार कर उसे अंगीकार कर लिया। तत्पश्चात वे जैन मुनि बन गये। अपनी प्रकाण्ड प्रतिभा के कारण जैन दार्शनिक परंपरा के प्रमुख आचार्यों में उनकी गणना की जाती है।अहिच्छत्र जैन तीर्थ के सुंदर दृश्यइसी प्रकार दूसरी चमत्कार पूर्ण घटना का उल्लेख आराधना सार कथाकोष में उपलब्ध होता है। जिसके अनुसार उस समय इस नगर का शासक वमुपाल था। उसकी रानी का नाम वसुमती था। राजा ने एक बार अहिच्छत्र नगर में बड़ा मनोज्ञ सहस्त्रकृट चैत्यालय का निर्माण कराया और उसमें पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा स्थापित करायी। राजा की आज्ञा से एक लेपकार मूर्ति के ऊपर लेप लगाने को नियुक्त हुआ। लेपकार मांसभक्षी था। वह दिन में जो लेप लगाता था, रात में वह गिर जाता था। इस प्रकार कई दिन बीत गए। लेपकार पर राजा बहुत क्रोधित हुआ और उसे दंडित कर निकाल दिया। एक दिन एक अन्य लेपकार आया। आकस्मात उसकी भावना हुई और उसने मुनि के निकट जाकर कुछ नियम लिये पूजा रचाई, दूसरे दिन से उसने जो लेप लगाया वह फिर मानो वज्त्रलेप बन गया।मरसलगंज प्राचीन दिगंबर जैन मंदिर आतिशय क्षेत्र तीर्थयहां क्षेत्र पर एक प्राचीन शिखरबद्ध मंदिर है। उसमें एक वेदी तिखाल वाले बाबा की है। इस वेदी में हरित पन्ना की भगवान पार्श्वनाथ की एक मूर्ति है। तथा भगवान के चरण विराजमान है। इस तिखाल के संबंध में बहुत प्राचीन काल से एक किंवदंती प्रचलित है। कहा जाता है कि जब इस मंदिर का निर्माण हो रहा था उन दिनों एक रात लोगों को ऐसा लगा कि मंदिर के भीतर चिनाई का कोई काम हो रहा है। ईटों के काटने छाटने की आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी। लोगों के मन में दुशंकाएं होने लगी और उन्होंने उसी समय मंदिर खोलकर देखा तो वहां कुछ नहीं था। अलबत्ता एक आश्चर्य उनकी दृष्टि से छिपा नहीं रह सका। वहां एक नई दीवार बन चुकी थी जो संध्या तक नहीं थी और उसमें एक तिखाल बना हुआ था। अवश्य ही किन्हीं अदृश्य हाथों द्वारा यह रचना हुई थी। तभी से लोगों ने इस वेदी की मूर्ति का नाम तिखाल वाले बाबा रख दिया। कहते है जिनके अदृश्य हाथों ने कुछ क्षणों में एक दीवार खडी करके भगवान के लिए तिखाल बना दिया वे अपने आराध्य प्रभु के भक्तों की प्रभु के दरबार में हाजिर होने पर मनोकामना भी पूरी करते है। यहां के एक कुएँ के जल में भी विशेषता हैं। जिसके पीने से अनेक रोग दूर हो जाते है। सुनते है कि प्राचीन काल में आसपास के राजा और नवाब इस कुएँ का जल को पीने के काम में लाते थे। अहिच्छत्र का इतिहास – अहिच्छत्रा राजधानी का रहस्ययह नगरी भारत की प्राचीनतम नगरियों में से एक है। भगवान ऋषभदेव ने जिन 52 जनपदों की रचना की थी, उसमें एक पंचाल भी था। परवर्ती काल में पंचाल जनपद दो भागों में विभक्त हो गया, उत्तर पंचाल और दक्षिण पंचाल। पहले सम्पूर्ण पंचाल की राजधानी अहिच्छत्र थी। किंतु विभाजन होने पर उतर पंचाल की अहिच्छत्र राजधानी रही और दक्षिण पंचाल की कम्पिला। जैन साहित्य में पंचाल के प्रायः इन दो भागों का उल्लेख मिलता है। समय, महाभारत में अहिच्छत्र के शासक द्रोण थे और कम्पिल के द्रुपद। कही कही इस नगरी का नाम संख्यावती और अहिच्छत्रा भी मिलता है। कौशांबी के निकट पभोसा क्षेत्र की गुफा में स्थित एक शिलालेख में इसका नाम अधिचक्रा भी मिलता है। वैदिक साहित्य में इन नामों के अतिरिक्त परिचक्रा, छदावती और अहिक्षेत्र भी मिलते है। संम्भवतः विभिन्न नाम प्रचलित रहे है। किंतु दूसरी शताब्दी से लगभग छठी शताब्दी तक अहिच्छत्रा नाम अधिक प्रचलित रहा है। यहां की खुदाई में दूसरी शताब्दी की एक यक्ष प्रतिमा तथा मिट्टी की गुप्तकालीन मोहर मिली थी। उन दोनों पर भी अहिच्छत्रा नाम मिलता है।आगरा जैन मंदिर – आगरा के टॉप 3 जैन मंदिर की जानकारी इन हिन्दीअहिच्छत्र का अर्थ या नगरी का यह नाम सर्प द्वारा छत्र लगाने के कारण पड़ा। इसमें जैन, वैदिक और बौद्ध तीनों ही धर्म सहमत है। किंतु इस संबंध में जो कथानक दिये है उसमें जैन कथानक अनेक कारणों से अधिक प्रमाणिक प्रतीत होता है। भगवान पार्श्वनाथ ऐतिहासिक महापुरुष थे। उनका प्रभाव तत्कालीन सम्पूर्ण भारत विशेषतः उत्तर और पूर्व भारत में अत्यधिक था। वैदिक साहित्य भी उनके प्रभाव से अछूता नहीं रहा। उनके प्रभाव के कारण वैदिक ऋषियों की चिंतनधारा बदल गयी। उनके चिंतन की दिशा हिंसक मूलक यज्ञों और क्रियाकांडो से हटकर अध्यात्मवादी उपनिषदों की रचना की ओर मुड गई।चन्द्रवाड़ अतिशय क्षेत्र प्राचीन दिगंबर जैन मंदिर – चन्दवार का प्रसिद्ध युद्ध, इतिहासभगवान पार्श्वनाथ संबंधी उपयुक्त घटना की गूंज उस काल में दक्षिण तक पहुंची थी, इस बात का समर्थन कुल्लरगुड्ड् मैसूर प्रांत में उपलब्ध उस शिलालेख से भी होता है। जिसमें गंगवंशावली दी गयी है। उसमे उल्लेख है कि जब भगवान पार्श्वनाथ को अहिच्छत्र में केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उस समय यहां प्रियबधु राजा राज्य करता था। वह भगवान पार्श्वनाथ के दर्शन करने अहिच्छत्रा गया था। पार्श्वनाथ संबंधी इस घटना का एक सांस्कृतिक महत्व भी है। इस घटना ने जैन कला को विशेषत्या जैन मूर्तिकला को बडा प्रभावित किया। पार्श्वनाथ की प्रतिमाओं का निर्माण इस घटना के कारण ही कुछ भिन्न शैली में होने लगा था। चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएं अपने आसन मुद्रा ध्यान आदि दृष्टि से सभी एक समान होती है। उनकी पहचान और अंतर उनके आसन पर अंकित किये गये चिन्ह द्वारा ही किया जा सकता है। केवल पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं अन्य तीर्थंकर प्रतिमाओं से एक बात में निराली है। अरहंत दशा की प्रतिमा होते हुए भी उनके सिर पर सर्प का फण रहता है। जो हमें सदा ही कर्मठ द्वारा घोर उपसर्ग करने पर नागेन्द्र द्वारा पार्श्वनाथ के ऊपर सर्प फण के छत्र तानने का स्मरण दिलाता रहता है। इतना ही नहीं, अनेक पार्श्व प्रतिमाएं इस घटना के स्मरण रूप में धरणेन्द्र, पद्मावती के साथ निर्मित होने लगी और इसीलिए जैन साहित्य में इस इंद्र दम्पति की ख्याति पार्श्वनाथ के भक्त यक्ष – यक्षिणी रूप में विशेष उल्लेख योग्य हो गई।पारसनाथ का किला बढ़ापुर का ऐतिहासिक जैन तीर्थ स्थल माना जाता हैयह घटना अपने रूप में असाधारण थी। अवश्य ही इस घटना के प्रत्यदर्शी व्यक्ति भी वहां रहे होगें। उनके मुख से जब सत्य घटना जन जन के कानों में पहुंची होगी तब उन सबका ह्रदय निष्काम वीतराग भगवान पार्श्वनाथ के चरणों में श्रृद्धापूर्वक झुक गया होगा और उनके दर्शनों के लिए वहां असंख्य जन मेदिनी एकत्रित हुई होगी। फिर यह कैसा अलौकिक संयोग कि सभी भगवान का केवलज्ञान महोत्सव हुआ और समरसरण लगा। वहां भगवान का उपदेश हुआ उस प्रथम उपदेश को ही सुनकर वे भगवान के उपासक बन गये और जब भगवान का वहां से विहार हो गया तब सबने मिलकर प्रभु की स्मृति सुरक्षित रखने के लिए वहां एक विशाल मंदिर का निर्माण कराया।पावापुरी जल मंदिर का इतिहास – पावापुरी जैन तीर्थ हिस्ट्री इन हिन्दीयहां क्षेत्र से दो मील दूर एक प्राचीन किला है। जिसे महाभारत कालीन कहा जाता है। इस किले के निकट ही कटारी खेडा नामक टीले से एक प्राचीन स्तंभ मिला है। उस स्तंभ पर एक लेख है। इसमें महाचार्य इंद्रनंदी के शिष्य महादरि के द्वारा पार्श्वनाथ के मंदिर में दान देने का उल्लेख है। यह लेख पार्श्वनाथ मंदिर के निकट ही मिला है। इस टीले और किले से कई जैन मूर्तियां मिली है। कई मूर्तियों को ग्रामीण लोग गांव देवता मानकर अब भी पूजते है। संभव है वर्तमान में जो पार्श्वनाथ का मंदिर है वह नवीन मंदिर हो और जिस स्थान पर किले और टीले से प्राचीन जैन मूर्तियां निकली है। वहां प्राचीन जैन मंदिर रहा हो। यदि यहा के टिलो और खंण्डहरो की जो मीलों में फैले हुए है। खुदाई की जाये तो हो सकता है कि गहराई में पार्श्वनाथ कालीन जैन मंदिर के चिन्ह और मूर्तियां मिल जायें।लोद्रवा जैन मंदिर का इतिहास – हिस्ट्री ऑफ लोद्रवा जैन टेंपलऐसा कोई मंदिर गुप्तकाल तक तो अवश्य था। शिलालेखों आदि से इसकी पुष्टि होती है। गुप्तकाल के पश्चातवर्ती इतिहास में इस संबंध में कोई सूत्र उपलब्ध नहीं होता। फिर भी यह तो असंदिग्ध हैकि परूवर्ती काल में भी शताब्दियों तक यह स्थान जैन धर्म का एक विशाल केंद्र रहा है। इस काल में यहां पाषाण की अनेक जैन प्रतिमाओ का निर्माण हुआ। ऐसी अनेक प्रतिमाएं, स्तूपों के अवशेष मिट्टी की मूर्तियां और कला की अन्य वस्तुएं प्राप्त हुई है। यहां यह उल्लेखनीय है कि ये सभी प्रतिमाएं दिगंबर परंपरा की है। यहां श्वेतांबर परंपरा की एक भी प्रतिमा न मिलने का कारण यही प्रतीत होता है कि यहां पार्श्वनाथ काल में दिगंबर परंपरा की ही मान्यता प्रभाव और प्रचलन रहा है। प्राचीन अहिच्छत्र एक विशाल नगरी थी उसके भग्नावशेष आज रामनगर के चारों र दूर दूर तक बिखरे पडे है। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार इस नगर का विस्तार उस समय तीन मील में था। तथा यहां अनेक स्तूप भी बने हुए थे। एक राज्य के रूप में ईसका अस्तित्व गुप्तकाल में समाप्त हो गया था। उससे पूर्व एक राज्य की राजधानी के रूप में इसकी ख्याति रही है। यहा अनेक मित्रवंशीय राजाओं के सिक्के मिले है इन राजाओं में कई जैन अनुयायी थे।अहिच्छत्र का किला – भीम की गदा अहिच्छत्र का रहस्ययहां मिलो में प्राचीन खंडहर बिखरे पडे पडे है। यहा दो टीले विशेष उल्लेखनीय है। एक टीले का नाम ऐंचुली उत्तरिणी है और दूसरा टीला ऐंचुआ कहलाता है। ऐंचुआ टीले पर एक विशाल और ऊंची कुर्सी पर भूरे बलुई पाषाण का सात फुट ऊंचा एक पाषाण स्तंभ है। इसका नीचे का भाग पौने तीन फुट चकौर है फिर तीन फुट तक छः पहलू है इसके ऊपर का भाग गोल है। कहते है कि इसके ऊपर के दो भाग गिर गये है। इसका ऊपरी भाग देखने से ऐसा लगता है कि वह अवश्य ही टूटकर गिरा होगा। ऊपर का भग्न भाग नीचे पड़ा हुआ है। इसकी आकृति तथा टीले की स्थिति से ऐसा लगता है कि यह मान स्तंभ रहा होगा। जन साधारण में वहां ऐसी भी किंवदंती है कि यही प्राचीन काल कोई सहस्त्रकूट चैत्यालय था। यहां खुदाई में अनेक जैन मूर्तियां उपलब्ध हुई है। संम्भवतः यहा प्राचीनकाल में अनेक जैन मंदिर और स्तूप रहें होगें। ऐंचुआ टीले के इस पाषाण स्तंभ को भीम की गदा भी कहते है। भीम की गदा कहें जाने के संबंध में एक कहानी भी ग्रामीण जनता में प्रचलित है। जिसके अनुसार अपने अज्ञात वास में पांडवों ने इस नगर के एक ब्राह्मण के घर वास किया था। उस समय भीम ने अपनी गदा वहां स्थापित कर दी थी। यहां एक जैन मूर्ति का शीर्ष भी मिला था जो क्षेत्र के फाटक के बाहर विद्यमान है। पहले इस टीले के नीचे शिवगंगा नदी बहती थी अब भी उसकी रेखा मात्र अवष्शिट है। कहा जाता हैं कि अपने वैभव काल में अहिच्छत्र नगर 48 मील की परिधि में था। आज के आंवला, वजीरगंज, रहटुइया जहाँ अनेकों प्राचीन मूर्तियां और सिक्के प्राप्त हुए है। पहले इसी नगर में सम्मिलित थे। इस नगर का मुख्य दरवाजा पश्चिम में वर्तमान सैंपनी बताया जाता है। यहां के भग्नावशेषों में 18 इंच तक की ईटें मिलती है।नागपुर का इतिहास और टॉप 10 दर्शनीय स्थलसड़क से कुछ फुट ऊंची चौकी पर क्षेत्र का मुख्य द्वार है। फाटक के बांयी ओर बाहर उस भग्न मूर्ति के शीष के दर्शन होते है। जो किले से लाकर यहां दीवार मे एक आले में रख दिया गया है। भीतर एक विशाल धर्मशाला है। बीच में एक पक्का कुआं है। बायी ओर अहिच्छत्र जैन टेम्पल का मुख्य द्वार है। द्वार में प्रवेश करते ही क्षेत्र का कार्यालय मिलता है। फिर एक लम्बा चौडा सहन है। सामने बायी ओर एक छोटे गर्भगृह में वेदी है। जिसमें तिखाल वाले बाबा ( भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा) विराजमान है। पार्श्वनाथ की यह सतिशय प्रतिमा हरितपन्ना की पद्मासन मुद्रा मे विराजमान है इसकी आवगाहना नौ इंच है। प्रतिमा अत्यंत सौम्य और प्रभावक है। इस प्रतिमा के पादपीठ पर कोई लेख नही है। सर्प का लाछन अवश्य अंकित है। और सिर पर फण मंडल है। वेदी के नीचे सामने वाले भाग में दो सिंह आमने सामने मुख किये बैठे है। प्रतिमा के आगे सौम्य चरण स्थापित है। प्रतिमा का काल 10-11वीं शताब्दी अनुमति किया जाता है। इस वेदी के ऊपर लघु शिखर है।कच्छ का इतिहास और कच्छ के दर्शनीय स्थलइस वेदी के दांयी ओर दूसरी वेदी में मूलनायक पार्श्वनाथ की श्याम वर्ण एक फुट दस इंच की आवगाहना की अत्यंत मनोहर प्रतिमा है। प्रतिमा के सिर पर सप्त फणवलीका मंडल है। भामंडल के स्थान पर कमल की सात लम्बायमान पत्तियो और कली का अंकन जितना कलापूर्ण है उतना ही अलंकरणमय है। इससे मूर्ति की सज्जागत विशेषता में वृद्धि हुई है। अलंकरण का यह रूप अदभुत है। मूर्ति के सिंहासन पीठ के सामने वाले भाग में 24 तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्तकीर्ण है। इस प्रतिमा के बांयी ओर श्वेत पाषाण की दस इंच ऊंची पद्मासन पार्शवनाथ प्रतिमा है। इससे आगे दायी ओर एक गर्भगृह में दो वेदिया है जिनमें आधुनिक प्रतिमाएं विराजमान है। उनमें विशेष उल्लेख योग्य कोई प्रतिमा नही है। अंतिम पांचवीं वेदी में तीन प्रतिमाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय है। लगभग 40 वर्ष पहले बूंदी राजस्थान में भूगर्भ से कुछ प्रतिमाएं प्राप्त हुई थी। उनमे से तीन प्रतिमाएं लाकर यहां विराजमान कर दी गई थी। तीनों का रंग हल्का कत्थई है। और शिलापट्ट पर उत्तकीर्ण है। बाये से दायी ओर को शिलाफलक का आकार तीन फुट है। बीच में फणालंकृत पार्श्वनाथ तीर्थंकर की खडगासन प्रतिमा है। इसके परिकर में नीचे एक यक्ष और दो यक्षी है। जो चवंरवाहक है। उनके ऊपर कायोत्सर्ग मुद्रा में दस इंच की एक पद्मासन प्रतिमा अंकित है। इसी प्रकार बांयी ओर भी दो प्रतिमाएं है। यह शिलाफलक पंथवालयतिका कहलाता है। पाषाण बलुआई है। लेख या लाछन नही है। मध्य में हल्के कत्थई रंग की पद्मासन पार्श्वनाथ प्रतिमा है। ऊपर सर्पफण है। आवगाहना दो फुट है। सिंहासन में सामने दो सिंह जिव्हा निकाले बैठे है। जो कर्म शत्रुओं के भयानक रूप के प्रतीक है। यक्षी और पद्मावती एक बच्चे को गोद में लिये है। पार्श्वनाथ के भामंडल के दोनों ओर गज उत्कीर्ण है जो गजलक्ष्मी के प्रतीक है। उनसे कुछ ऊपर इंद्र हाथो में स्वर्ण कलश लिये क्षीरसागर के पावन जल से भगवान का अभिषेक करते प्रतीत होते है। फण के ऊपर त्रिछत्र है। उसके दोनो ओर शीर्ष कोनो पर देवकुलिकाएं बनी हुई है। अलंकरण साधारण ही है किंतु इससे कला की जो अभिव्यजना हुई है उससे दर्शक आकृष्ट हुए बिना नहीं रहता।अंतिम प्रतिमा खडगासन है आवगाहना तीन फुट है। अधोभाग मे दोनो ओर इंद्राणी चवंर लिए हुए है। मध्य में यक्ष यक्षी विनत मुद्रा में बैठे है। मूर्ति के सिर के दोनों ओर विनाशकारी देव है। एक विमान में देव और देवी है दूसरे में एक देव है। छत्र के एक ओर सिंह और दूसरी ओर हाथी का अंकन है। भामंडल और छत्रत्रयी है। संभंवतः इन तीनों प्रतिमाओं का निर्माण उस युग में हुआ है जब प्रतिमाओं में अलंकरण और सज्जा का विकास प्रारंभिक दशा मे था। इन प्रतिमाओं पर श्रीवत्स लाछन भी लघु आकार में है। पादपीठ पर भी लेख या लाछन नहीं है। इस प्रकार की शैली गुप्त काल के निकट परवर्ती काल में प्राप्त होती है। अर्थात चौथी पांचवी शताब्दी से आठवीं नौवीं शताब्दी तक मूर्ति कला विन्यास उपयुक्त प्रकार का रहा है।पाटण का इतिहास और पर्यटन – अन्हिलवाड़ा कहां हैधर्मशाला के मुख्य द्वार के सामने सडक के दूसरी ओर का मैदान भी मंदिर का है। सडक से कुछ आगे चलने पर वह विशाल पक्का कुआं या वापिका है। जिसके जल की ख्याति पूर्वकाल में दूर दूर तक थी। आचार्य जिनप्रभु सूरि ने भी विविध तीर्थ कल्प में इस वापिका की प्रशंसा की है। अहिच्छत्र जैन मंदिर के निकट रामनगर गांव है वहां भी एक शिखरबद्ध मंदिर है। इस मंदिर में फणमंडित भगवान पार्श्वनाथ की श्याम वर्ण पद्मासन प्रतिमा है। इसकी आवगाहना चार फुट है। प्रतिमा अत्यंत मनोज्ञ है। इससे पहले इस मंदिर के स्थान पर पद्मावती पुरवाल पंचायत की ओर से बना हुआ मंदिर था। बाद में उसके स्थान पर समस्त दिगंबर जैन समाज की ओर से यह मंदिर बनाया गया था। मंदिर के बाहर उत्तर की ओर आचार्य पात्रकेसरी के चरण बने हुए है। चरणों की लम्बाई ग्यारह इंच है। ऐसा विश्वास है कि आचार्य पात्रकेसरी इसी स्थान पर बने हुए मंदिर में देवी पद्मावती द्वारा प्रतिबोध पाकर जैन धर्म में दीक्षित हुए थे। क्षेत्र का वार्षिक मेला चैत्र कृष्ण अष्टमी से चैत्र कृष्ण त्रयोदशी तक होता है।जैन धार्मिक स्थलों पर आधारित हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:—[post_grid id=”7632″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत के प्रमुख धार्मिक स्थल उत्तर प्रदेश पर्यटनजैन तीर्थ स्थल