अर्काट का इतिहास – अर्कोट कहा है Naeem Ahmad, February 26, 2023February 26, 2023 सतरहवीं-अट्ठारहवीं शताब्दी में कर्नाटक दक्खन (हैदराबाद) के निजाम का एक सूबा था, जिसकी राजधानी अर्काट थी। इसका प्रशासनिक मुखिया सूबेदार होता था। उसे नवाब कहा जाता था। औरंगजेब ने 1690 ई० में जुल्फीकार अली खाँ को यहाँ का सबसे पहला नवाब बनाया था। उसने 1703 ई० तक शासन किया। उसके बाद दाउद खाँ (1703-10), मुहम्मद सैयद सआदत उल्ला खाँ (1710-32) और दोस्त अली (1732-40) यहां के नवाब हुए। परंतु हैदराबाद का निजाम मराठों और उत्तरी भारत के मामलों में इतना अधिक व्यस्त रहता था कि वह अर्काट पर अपना पूर्णाधिकार स्थापित नहीं कर पाता था। 1740 में मराठों ने दोस्त अली को मारकर यहां खूब लूट-पाट की तथा उसके दामाद चंदा साहिब को कैद करके सतारा ले गए। अर्काट का इतिहास दोस्त अली के पुत्र सफदर अली खाँ ने मराठों को एक करोड़ रु, देने का वचन देकर अपनी जान और अपना राज्य बचाया। परंतु उसके एक चचेरे भाई ने 1742 में उसकी हत्या कर दी। उसके अवयस्क पुत्र सआदत उल्ला खाँ द्वितीय उर्फ मुहम्मद सैयद को नवाब बनाया गया। तब 1743 में हैदराबाद का निजाम यहां शांति स्थापित करने आया। 1744 में वह अपने एक विश्वस्त सेवक अनवरुद्दीन खान को कर्नाटक का नवाब बनाकर चला गया। निजाम द्वारा बाहर के व्यक्ति को कर्नाटक का नवाब बनाया जाना दोस्त अली के रिश्तेदारों को बहुत खला। वैसे भी बहुत सी जागीरें और किले अभी इन रिश्तेदारों के पास ही थे। उन दिनों कर्नाटक राज्य के कोरोमंडल तट के माध्यम से अंग्रेजी और फ्रांसीसी कंपनियां अपना व्यापार शांतिपूर्वक चला रही थीं। कर्नाटक का नवाब, अंग्रेज अथवा फ्रांसीसी एक-दूसरे के कार्यों में दखल नहीं देते थे। परंतु यह शांति अधिक दिन तक नहीं चली। इग्लैंड और फ्रांस ने यूरोप में आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध (1740-48) में एक-दूसरे के विपक्ष में भूमिका निभाई। फलस्वरूप भारत में भी वे एक-दूसरे के विरोधी हो गए। अंग्रेज नौ सेनानायक बर्नट ने कुछ फ्रांसीसी जहाज पकड़ लिए। फ्रांसीसियों के पास जल-युद्ध करने के लिए भारत में कोई बेड़ा नहीं था। अर्काट का इतिहासफ्रांसीसी गवर्नर जनरल ने मारीशस में फ्रांस के गवर्नर लॉ बुर्दोनईस से सहायता लेकर अंग्रेजों के बेड़े पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेज हुगली की ओर भाग गए और डुप्ले ने मद्रास पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने अनवरुद्दीन से सहायता की माँग की। परंतु फ्रांसीसियों ने अनवरुद्दीन से कहा कि वे अंग्रेजों से मद्रास छीनकर अनवरुद्दीन को ही दे देंगे। इसलिए अनवरुद्दीन ने अंग्रेजों की सहायता नहीं की। परंतु फ्रांसीसियों ने मद्रास छीनकर अनवरुद्दीन को नहीं दिया। फलस्वरूप नवाब ने फ्रांसीसियों पर आक्रमण कर दिया, परंतु डुप्ले की सेना ने उसे हरा दिया। कुछ दिनों बाद ही मद्रास के आस-पास भारी समुद्री तूफान आ गया, जिसमें बुर्दोनईस का बेड़ा नष्ट-भ्रष्ट हो गया। बुर्दोनईस मारीशस वापस चला गया। उसके वापस जाते ही बास्कोवन के नेतृत्व में अंग्रेजी नौसेना मद्रास पर कब्जा करने के लिए चल पड़ी। परंतु इसी दौरान आस्ट्रिया का उत्तराधिकार का युद्ध अक्ष-ला-शैपेल की 1748 की संधि के बाद खत्म हो गया। संधि के अनुसार मद्रास अंग्रेजों को वापस मिल गया। इस सारे घटनाक्रम को कर्नाटक का पहला युद्ध कहा गया। कुछ दिनों बाद कर्नाटक का दूसरा युद्ध शुरू हो गया, जिसका वर्णन निम्न प्रकार है:– कर्नाटक के पहले युद्ध से अंग्रेजों और फ्रांसीसियों को समुद्री प्रभुता की महत्ता का पता लग गया था। 1748 में चंदा साहिब मराठों की जेल से छूटकर भाग गया था। उसने अनवरुददीन खान से अपने ससुर दोस्त अली की गद्दी छीनने की योजना बनाई। 1748 में ही हैदराबाद में निजामशाही शासन के संस्थापक आसफ जाह निजाम-उल-मुल्क की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र नासिरजंग और पोते मुजफ्फरजंग में उत्तराधिकार का युद्ध शुरू हो गया। डुप्ले ने चंदा साहिब और मुजफ्फरजंग का पक्ष लेकर उन्हें अपने साथमिला लिया। 3 अगस्त, 1749 को अनवरुद्दीन को एक युद्ध में मार दिया गया। उसका पुत्र मुहम्मद अली त्रिचनापल्ली भाग गया। चंदा साहिब अर्काट का नवाब बन गया। अब अंग्रेज नासिरजंग तथा मुहम्मद अली की तरफ हो गए, परंतु डुप्ले की सेना के साथ हुए एक युद्ध में नासिरजंग मारा गया। फ्रांसीसियों ने मुजफ्फर जंग को हैदराबाद का निजाम बना दिया और फ्रांसीसी गवर्नर बूसी को उसकी रक्षा के लिए हैदराबाद में सेना सहित तैनात कर दिया। अब डुप्ले ने त्रिचनापल्ली का घेरा डालने के लिए फ्रांसीसी सेना भेज दी। अंग्रेज मुहम्मद अली के साथ हो गए। उन्होंने मुहम्मद अली को सुझाव दिया कि जब तक अंग्रेजी सेना त्रिचनापल्ली न पहुँच जाए, तब तक वह फ्रांसीसियों को बातों में उलझाए रखे। मुहम्मद अली ने ऐसा ही किया। फ्रांसीसियों के साथ चंदा साहिब भी अपनी सेना साहित त्रिचनापल्ली गया हुआ था। इसी दौरान अंग्रेज सेनानायक क्लाईव ने अर्काट पर कब्जा कर लिया। चंदा साहिब का पुत्र अपनी आधी सेना लेकर त्रिचनापल्ली से अर्काट की तरफ दौड़ा। अंग्रेजों के साथ हुए एक युद्ध में वह मारा गया। बाद में चंदा साहिब ने भी आत्म-समर्पण कर दिया। 1753 में उसे मारकर उसकी जगह मुहम्मद अली को कर्नाटक का नवाब बना दिया गया। 1753 में डुप्ले को वापस बुलाकर उसकी जगह गोदेहु को भारत भेज दिया गया। गोदेहु ने अंग्रेजों के साथ समझौता करके अंग्रेजों द्वारा विजित प्रदेशों पर उनका अधिकार मान लिया। इस प्रकार कर्नाटक के दूसरे युद्ध का अंत हो गया। दूसरे युद्ध के बाद अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में तीसरा युद्ध भी हुआ, परंतु इसमें कर्नाटक के नवाब ने कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं निभाई। 1780 में हैदर अली ने अंग्रेज सेनापति बैली को मारकर अर्काट पर कब्जा कर लिया था। यूँ मुहम्मद अली को अर्काट में कर्नाटक का नवाब बना दिया गया था, परंतु वह इतना ऐशपसंद शासक था कि उसने अपना सारा पैसा चेपक में आराम परस्ती में खत्म करके कंपनी के नौकरों से भारी ब्याज पर पैसा उधार लेना शुरू कर दिया। अंग्रेजी बोर्ड ऑफ कंट्रोल ने निर्णय लिया कि नवाब का कर्ज कर्नाटक के राजस्व से चुकता किया जाए। 2 नवंबर, 1784 को हुई व्यवस्था के अनुसार कर्नाटक के राजस्व पर अंग्रेजों ने नियंत्रण कर लिया। नवाब को उसका छठा हिस्सा उसके खर्चे के लिए दे दिया गया। जब कंपनी के नौकरों ने अपना पैसा वापस देने के लिए दबाव डाला, तो मुहम्मद अली का राजस्व इकट्ठा करने का अधिकार बहाल कर दिया गया। परंतु वह अब भी पहले की तरह ऋण में ही डूबता रहा। 24 फरवरी, 1787 को भारत में कंपनी के नए गवर्नर जनरल ने नवाब के साथ इस आशय की संधि की कि कंपनी 15 लाख पगोड़ा (52 लाख रु.) के बदले कर्नाटक की रक्षा करेगी। परंतु टीपू के साथ तीसरे मैसूर युद्ध (1790-92) के दौरान कंपनी ने कर्नाटक के शासन पर भी अपना कब्जा कर लिया। युद्ध के बाद 12 जुलाई, 1792 को हुई संधि के तहत कर्नाटक नवाब को वापस दे दिया गया। साथ ही ब्रिटिश मांग 15 लाख पगोडा से घटाकर 9 लाख पगोडा कर दी गई। 13 अक्तूबर, 1795 को मुहम्मद अली की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अमदूत-उल-उमरा कर्नाटक का नवाब बना। मद्रास के अंग्रेजी गवर्नर होबर्ट ने उस पर कंपनी की बकाया राशि के बदले जमानत में रखे गए क्षेत्र सौंपने का दबाव डाला, परंतु वह नहीं माना। लार्ड वेल्जली द्वारा बाद में श्रीरंगापटना में पाए गए तथाकथित प्रलेखों से यह सिद्ध हुआ कि मुहम्मद और अमदूत-उल-उमरा दोनों टीपू सुल्तान से राजद्रोहात्मक पत्राचार कर रहे थे। उसने घोषणा की कि अपने इस कार्य से उन्होंने कर्नाटक की गददी पर बने रहने का अधिकार खो दिया है। 15 जुलाई, 1801 को अमदूत-उल-उमरा की मृत्यु हो गई। वेल्जली ने उसके पुत्र अली हुसैन के नवाबी के दावे की अनदेखी करके अमदूत-उल-उमरा के एक भतीजे आजिमुद्दौला के साथ 25 जुलाई, 1801 को संधि कर ली जिसके अनुसार आजिमुद्दौला को कर्नाटक के कुल राजस्व का पांचवां हिस्सा पेंशन के रूप में देकर उसे नाम-मात्र का नवाब बना दिया गया। बदले में कंपनी ने राज्य का सिविल और सैनिक शासन अपने हाथ में ले लिया। आजिमुद्दौला 1819 तक नवाब रहा। उसके बाद आजम जाह (1819-25) और आजिम जाह बहादुर (1867-74) कर्नाटक के उल्लेखनीय नवाब रहे। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:– [post_grid id=”5906″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print 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