अंकगणित किसे कहते है — अंकगणित की खोज कैसे हुई Naeem Ahmad, March 10, 2022February 17, 2023 जो अंकगणित प्रणाली आज संसार में प्रचलित है, उसे विकसित और पूर्ण होने मे शताब्दियां लगी है। यद्यपि इसका आविष्कार और प्रयोग, भारत की कुछ गणित पुस्तकों में, ईसा की प्रथम ‘शताब्दी में ही मिलता है, किन्तु भारत में भी जनसाधारण के बीच इसका प्रचलन ईसा की छठी शताब्दी तक नहीं हुआ था। भारत से यह प्रणाली अरब देशों में गयी, इसीलिए अरबी में अंकों को हिदसा कहते हैं और अरबों द्वारा बारहवीं शताब्दी में इसका प्रचलन यूरोप में हुआ। अत: वहां पर इसे ‘अरब अंक’ के नाम से संबोधित किया जाने लगा। अंक लेखन की आधुनिक प्रणाली को जिसमें 9 अंकों और शून्य चिह्न का प्रयोग होता है, विज्ञान के सभी जानकारों ने इसे मानव-बुद्धि की एक महत्वपूर्ण अनोखी उपलब्धि माना है। वस्तृतः इस अंक प्रणाली ने ही, हमारे पूर्वजों के लिए ऐसा पथ निर्मित कर दिया था, जिस पर गणित संबंधी खोजों की प्रगति बड़ी तीव्रता से हुई और इसी के परिणामस्वरूप 15वी शताब्दी तक अंक गणित और बीजगणित के क्षेत्र में भारत समस्त संसार मे अग्रगण्य रहा। अंकगणित की खोज कैसे हुई आधुनिक अंक प्रणाली के आविष्कार से पूर्व समस्त राष्ट्र इकाइयों, दहाईयों इत्यादि के लिए विभिन्न चिह्नो का प्रयोग करते थे। इकाई प्रदर्शित करने लिए 9चिह्न, दहाई के लिए पृथक 9 चिह्न, सैकड़े के लिए अन्य 9 चिह्न तथा हजार के लिए भिन्न प्रकार के 9 चिह्न थे। इस प्रकार हजार या इससे बडी कोई संख्या लिखने के लिए बहुत से अंक चिन्हों का प्रयोग करना पड़ता था। इस प्रकार के अंकन को रोमन प्रणाली कहते हैं। अब भी इनका प्रयोग बहुत-सी घड़ियों में पाया जाता है। प्राचीन अंकगणित प्राणली स्थानीय मान वाले चिन्हों की विशेषता यह है कि बड़ी से बडी संख्या भी न्यूनतम स्थानों में लिखी जा सकती है। इस प्रणाली में अभाव-सूचक शून्य चिह्न का बहुत बड़ा महत्व है। इस शून्य का प्रयोग, इस प्रणाली में, एक विशेष अंक के रूप में होता है, सर्वथा अभाव के स्थान मे नही। इस प्रणाली में शून्य को एक मूर्त महत्व शक्ति और पद प्राप्त है। हिन्दू दर्शन में इस सृष्टि की उत्पत्ति शून्य से मानी गयी है, जिसे ‘शून्याकाश’ के नाम से संबोधित किया गया है। जिस प्रकार हिन्दू मस्तिष्क द्वारा ऐसा महत्वपूर्ण दार्शनिक सिद्धांत प्रस्तुत किया गया, उसी प्रकार हिन्दू मस्तिप्क ने ही गणित में भी शून्य की धारणा की पुष्टि की और उसे न केवल एक ठोस मूल्य प्रदान किया, वरन् उसे एक असीम शक्ति भी दी। इस प्रणाली के जन्म का आधार, बोलचाल में संख्याओं का प्रयोग है। जैसे जब हम 456 कहते हैं तो उसका तात्पर्य होता है 4 सौ, 5 दस और 6 एक। सख्या में हम देखते हैं कि, वे ही अंक स्थान भेद से विभिन्न मान के हो जाते हैं। स्थानीय मान की यह भावना वस्तुतः हिन्दू दर्शन से ली गई है,जिसका यह एक सिद्धांत ही है कि किसी भी वस्तु का मूल्य उसके आसपास की वस्त॒ओं के साथ, उसके संबध और विश्व में उसकी अपेक्षाकृत स्थिति द्वारा निश्चित किया जाता हैं। कछ विद्वान इसका श्रेय भारत को देते थे, तो कछ यूनानियों, अरबों या तिब्बतियों को, पर अब सभी ने यह स्वीकार कर लिया है कि इस प्रणाली का जन्म भारत मे ही हुआ। किसी खोज के संबंध मे, किसी व्यक्ति अथवा किसी राष्ट्र का स्वत्व स्थापित करने के लिए दो बातो पर विचार करना पड़ता है। प्रथम बात यह है कि क्या उस खोज की उन्हें आवश्यकता थी और दूसरी यह कि वह खोज सर्वप्रथम प्रयोग मे कहा लाई गई। हिन्दू, बौद्ध व जैन धर्म तथा दर्शन ग्रंथों से यह सिद्ध हो जाता है कि भारतीयों को वस्तुत: इसकी आवश्यकता थी। जबकि संसार के दूसरे राष्ट्र दस हजार से बडी कोई संख्या लिख सकने मे असमर्थ थे। शून्य का प्राचीनतम उल्लेख ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व के ‘रचना-पिगल’ के छंद-सूत’ मे हुआ है। शून्य चिह्न का प्रयोग संस्कृत नाटक ‘स्वप्नवासवदत्तम’ में भी हुआ हैं।अंको के स्थानीय मान का भी उल्लेख हिन्दू ग्रंथो में किया गया है। ‘पातजलि योगसूत्र’ के ‘व्यास-भाष्य’ मे उक्त मिलती है कि “वही सख्या इकाई के स्थान पर एक, दहाई के स्थान पर दस और सैंकडें के स्थान पर सौ होते हैं। ऐसा ही कथन शंकराचार्य के ‘शारीरिक भाष्य’ मे भी पाया जाता है। हिन्दुओं के प्राचीनतम गणित तथा ज्योतिष शास्त्र के ग्रंथों में भी इस प्रकार के स्थानीय मान वाले प्रयोग हुए हैं। ईसा की तीसरी शताब्दी में लिखे गए ज्योतिष ग्रंथ ‘बखशाली’, पांचवी शताब्दी में लिखे गए ‘आर्य भट्टीय’ तथा छठी शताब्दी में लिखी गई ‘पंचसिद्धांतिका’ में इस प्रणाली के कितने ही प्रयोग मिलते हैं। अंकगणित के भारत में ही सर्वप्रथम प्रयोग किए जाने का सबसे प्रबल प्रमाण शिलालेख और ताम्रपत्र हैं। 595 ई., 646 ई., 674 ई., 725 ई., 636 ई. तथा 793 ई. के शिलालेखों में अंकगणित के प्रयोग मिलते हैं। सुमात्रा के पालेम और हिंद-चीन के संवोर नामक स्थानों पर हिन्दी राजा की विजय के शिलालेख हैं। उन पर भी उनकी तिथि एक संवत् 605 अंक प्रणाली में दी गई है-अर्थात् 688 ई । भारत की इस प्रणाली का उल्लेख पाश्चात्य तथा अरबी लेखकों ने भी किया है। सीरिया के विद्वान सरवेरूस सेबोख्त ने 622 ई. में लिखे अपने ग्रंथ में लिखा है—- सीरी जाति से सर्वथा भिन्न हिन्दुओं के विज्ञान एवं गणित-ज्योतिष के सूक्ष्म अनुसंधान यूनानियों और बेबीलोनियनों के अनुसंधानों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण गई हैं और उनका गणित तो बर्णनातीत है। समस्त गणना केवल 9 चिहनों द्वारा की गई है। इब्न-वहशीय (855 ई.), जहीज (860 ई.) तथा अब्दुल अल-मसूदी (943 ई.) आदि अरबी के ख्यातिप्राप्त लेखकों ने भी अंक लिपि की हिन्दू उत्पत्ति का समर्थन किया है। में अंक-लिपि के स्थानीय मान का उदाहरण 8वीं-9वी शताब्दी से पूर्व विश्व में अन्यत्र कही भी नहीं मिलता। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े [post_grid id=’8586′]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new 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