देश की शक्ति निर्बल और छिन्न भिन्न होने पर ही बाहरी आक्रमण होते है। आपस की फूट और द्वेष सेभारत सदा निर्बल रहा है। और इसी प्रकार के अवसरों पर बाहरी आक्रमणकारियों ने देश का सर्वनाश किया है। अपने इस लेख में हम जिस बहारी आक्रमण का वर्णन करने जा रहे वो है, हूणों का आक्रमण। इस लेख हम हूणों के आक्रमण के साथ साथ हूणों का इतिहास, हूणों के आक्रमण का प्रभाव, हूणों के वंशज, हूणों की उत्पत्ति, हूणों कौन थे, हूणों का शासन, हूणों का धर्म, हूणों को किसने पराजित किया, हूणों के बारें आदि महत्वपूर्ण जानकारियों का भी इस लेख में वर्णन करेंगे।
लेकिन हूणों के साथ साथ इस देश में भयानक युद्ध हुए उनके पहले की परिस्थितियों पर प्रकाश डालना जरूरी है। यानि हूणों का आक्रमण से पहले फ्लैसबैक में जाना बहुत जरूरी है। हूणों से भी पहले जिन आक्रमणकारी जातियों ने भारत पर आक्रमण कर अपना आधिपत्य कायम किया उनमेंशकों का आक्रमण विषेता रखता है। जिसका वर्णन हम अपने पिछले लेख में कर चुके है। इस देश में जब अशोक का शासन चल रहा था, करीब करीब उन्हीं दिनों में चीन में एक शक्तिशाली राजा हुआ था। उसने चीन की अनेक रियासतों को जीतकर और उनपर अपना अधिकार कायम कर के चीन में अपनी एक बड़ी सत्ता बना ली थी। इससे पहले जब चीन छोटे छोटे राज्यों में चल रहा था। उन दिनों में उनके सामने बार बार खतरे पैदा होते थे। चीन के आसपास रहने वाली जो जातियां शक्तिशाली होती थी, वही चीन में आक्रमण करके लूटमार किया करती थी। चीन के उत्तर में इर्तिश और आमूर नदियों के बीच रहने वालें हूणों नेचीन को निर्बल पाकर बार बार लूटा था, और सभी तरीकों से उसका विनाश किया था। छोटी छोटी चीन की रियासतें उन हूणों से नष्ट होती रहती थी। लेकिन चीन के उस शक्तिशाली राजा ने हूणों का आक्रमण रोका और उनके चीन में प्रवेश करने का रास्ता बंद कर दिया।
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हूणों का इतिहास, विशेषता और बर्बरता
हूणों का इतिहास क्या है? हूणों कौन थे? हूणों के वंशज कौन थे? हूणों की उत्पत्ति कैसे हुई?
भारत में हूणों के होने वाले आक्रमणों पर लिखने से पहलेहूणों के जीवन की कुछ महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख यानि हूणों के बारें में जानना बहुत जरूरी है। उन दिनों तक मध्य एशिया की अनेक जातियां अपनी असभ्यता, भीषणता और नृशंसता के लिए प्रसिद्ध थी। हूणों की जाति भी उनमें से एक थी, और वह बरबरता में उन जातियों में सब से अधिक भयानक थी।
हूण भी मध्य एशिया के रहने वाले थे। और वहां पर वे जिस देश के निवासी थे, उसका नाम येथा था। और यह प्रदेश सर और आमू नदियों के उत्तर में था। कुछ लेखकों नै येथा का अर्थ हूण के साथ किया है। लेकिन वास्तव में येथा हूणों के प्रदेश का नाम था। उनके देश में नदियों की बड़ी अधिकता थी। वहां की समस्त भूमि को उन नदियों ने आवयश्कता से अधिक पानी दे रखा था। इसलिए वह भूमि बहुत उपजाऊ हो गई थी। येथा पहाड़ियों के निकटवर्ती प्रदेश था। उसके निवासी हूण गर्मियों में पहाड़ों पर चले जाते थे, और उसके बाद लौटकर अपने गांव में आ जाते थे। हूणों की जाति अत्यंत भयानक लड़ाकू थी। उसकी संख्या अन्य जातियों की अपेक्षा बहुत अधिक थी। उनमें जातिय संगठन बहुत मजबूत था। टिड्डी दल की तरह वे लाखों की संख्या में दूसरी जातियों और देशों पर टूट पड़ते थे, और भयानक रूप से उनका संहार करते थे। उनके आक्रमण से उन दिनों में मध्य एशिया की अन्य लड़ाकू जातियां भी घबराती थी, और हूणों को देखकर उनसे अपनी रक्षा किया करती थी।
हूणों के विषय में यह बताया जा चुका है कि मध्य एशिया की यह जाति जंगली, असभ्य और भयानक क्रूर थी। हूणों के शरीर मोटे, स्थूल, नाक चपटी, कंधे चौडे और नेत्र डरावने होते थे। उनके शरीर की बनावट कुछ ऐसी थी बनावट कुछ ऐसी थी कि उनको देखकर सहज ही भय उत्पन्न होता था। उनकी आवाज तेज और जंगली थी। उनके अत्याचार मनुष्यता की सीमा से बाहर होते थे। उनका टिड्डी दल जब अपने प्रदेश से निकलता था तो वह रास्ते में मिलने वाले गांवों और नगरों का सर्वनाश करता हुआ चलता था। चौथी शताब्दी में उन हूणों ने अपना प्रदेश छोड़कर दूसरे स्थानों पर अधिकार कर लिया था। उनमें से बहुत से लोग पश्चिम की ओर यूरोप में जाकर वोल्गा तथा डैन्यूब नदियों के बीच वाले प्रदेश में रहने लगे थे। और कुछ लोग अक्सस तथा आमू नदी की घाटी में बस गये थे। इतिहासकारों ने श्वेत हूणों के नाम से उनका उल्लेख किया है।
हूणों के जीवन की बहुत सी बातें खूंखार जंगली जानवरों के साथ मिलती थी। कई एक विदेशी यात्रियों ने उनके संबंध में लिखा कि हूण लोग जीवित प्राणियों को मार कर उनका मांस खा जाते थे। हूणों का आक्रमण केवल भारत में ही नहीं हुए थे, बल्कि उन्होंने मध्य एशिया की दूसरी जातियों का भी विनाश किया था। हूण मंगोल जाति के वंशज थे। जब उनकी संख्या अधिक हो गई थी। तो वह मध्य एशिया से निकलकर यूरोप की तरफ बढ़े थे। हुणों ने आलील के सेनापतित्व में कुन्तुतुनिया और दूसरे प्रदेशों पर आक्रमण किया।
आंध्र राज्य का उत्थान और पतन
हूणों को पराजित करने वाले भारतीय प्रदेशों का फ्लैसबैक भी जानना बहुत जरूरी है। प्राचीन काल में दक्षिण महाराष्ट्र के आंध्र देश के नाम से एक छोटा राज्य था। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान में थी जिसका नाम बाद में पैठान पड़ा। शुंग सम्राटों की विजय के बाद दक्षिण में बड़ा परिवर्तन हुआ इसी अवसर पर आंध्र नरेशों ने अपनी शक्तियां बढ़ा ली और गौमती पुत्र, सातकर्णी आदि कई प्रतापी राजाओं का वहां पर राज्य रहा। पहली शताब्दी से लेकर तीसरी शताब्दी तक आंध्र के राजाओं का ने शक सेनाओं के साथ लगातार युद्ध किये और उनको भारत में राज्य विस्तार करने का अवसर नहीं दिया। शक लोगों ने बहुत कोशिश की लेकिन वे सौराष्ट्र से आगे नहीं बढ़ सके। हांलांकि उन दिनों में शक लोगों अपनी विरता से अनेक भारतीय राजाओं को भयभीत कर दिया था, और देश के अनेक भागों पर उनका आंतक फैल गया था। फिर भी आंध्र के राजाओं के सामने उनकी शक्तियां बार बार विफल हुई।
दूसरी शताब्दी के बाद से ही आंध्र राज्य की शक्ति घटने लगी थी। और तीसरी शताब्दी तक कोई भारतीय राजा शक्तिशाली न रहा। आपस के युद्धों में देश का शासन छोटे छोटे राज्यों में बदलने लगा। छोटी छोटी रियासतें लेकर क्षत्रिय राजा अपने आप को स्वतंत्र घोषित करने लगे। इस अवस्था में उत्तरी भारत की ओर आंध्र राज्य की बढ़ती हुई शक्तियां निर्बल हो गई। देश की इस अवस्था में मगध देश के एक सरदार श्रीगुप्त ने पंजाब के शक लोगों की सहायता से पाटलिपुत्र पर अपना अधिकार कायम किया और श्रीगुप्त के पुत्र घटोत्कच गुप्त अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करके एक स्वतंत्र राजा हो गया।
गुप्त वंश का शासन काल
चंद्रगुप्त प्रथम राजा घटोत्कच गुप्त का पुत्र था। सिंहासन पर बैठने के बाद कन्नौज आदि अनेक राज्यों को जीतकर उसनेगुप्त वंशीय साम्राज्य की नीवं डाली। उस वंश में जीतने भी सम्राट हुए, सभी वैष्णव सम्प्रदायिक थे। उनके शासन काल में बौद्ध धर्म को बहुत आघात पहुंचा और गुप्त साम्राज्य में उसका प्रभाव बहुत कम हो गया। चंद्रगुप्त प्रथम बुद्धिमान और बहादुर राजा था। शासन का अधिकारी होने के बाद से ही उसने अनेक युद्ध किये और लगातार उसने अपने राज्य का विस्तार किया। चंद्रगुप्त ने दक्षिणी मगध, तिरहुत और अवध को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। और उसके बाद भी वह अपने राज्य के विस्तार में लगा रहा। इसमें उसे बराबर सफलता मिली।
चंद्रगुप्त प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्रसमुद्रगुप्त राज्य का उतराधिकारी हुआ, वह अपने पिता की तरह वीर और चतुर था। धार्मिक बातों के साथ उसे बड़ा प्रेम था, और उसके इस प्रेम ने उसमें लोकप्रियता की भावना उत्पन्न कर दी थी। वह धार्मिक विद्वानों के बीच बैठकर बातें किया करता तथा उनके तर्कों को सुनता और स्वयं उनमें भाग लेता। उसकी लोकप्रियता के कुछ और भी कारण थे। कवियों और दूसरे कलाकारों के साथ भी वह प्रेम किया करता था। समुद्रगुप्त ने विदेशी जातियों के साथ बराबर युद्ध किया और जातियों ने भारत में जहां अपना शासन कायम कर रखा था, उनको जीतकर उसने अपने राज्य में मिला लिया था। समुद्रगुप्त ने अपने शासन काल में बड़ी उन्नति की। पंजाब और राजपूताना के लगभग सभी राजा और नरेश उसके प्रभुत्व को स्वीकार करने लगे थे। विंध्याचल पर्वत के दक्षिण में उस समय कई छोटी छोटी रियासतें थी, समुद्रगुप्त ने उनको भी जीतकर अपने अधिकार में कर लिया था। इसके बाद अपनी विजय पताका फहराता हुआ वह पाटलिपुत्र के दक्षिण की ओर रवाना हुआ और छोटा नागपुर, उड़ीसा एवंम गोदावरी और कृष्णा नदियों के बीच के स्थानों पर भी उसने अपना अधिकार कर लिया। समुद्रगुप्त ने महाराष्ट्र, खान देश आदि अनेक प्रदेशों को भी जीत लिया था।
सन्375 ईसवींमें समुद्रगुप्त की मृत्यु हो गई। उसने अपने शासन काल में अशोक की भांति राज्य विस्तार किया था। उत्तर में हिमालय पर्वत से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पश्चिम में यमुना नदी के पूर्व से ब्रह्मपुत्र नदी तक उसका साम्राज्य फैला हुआ था। समुद्रगुप्त के बाद उसका पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य राज गद्दी पर बैठा। अपने पिता के समान वह भी समझदार और दूरदर्शी था। अपने शासनकाल में उसने साम्राज्य का विस्तार किया। अभी तक शक लोगों का शासन भारत के अनेक स्थानों पर कायम था। विक्रमादित्य ने उनको जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। इन दिनों में गुप्त साम्राज्य की सीमा अरब सागर तक पहुंच गई थी।
हूणों का आक्रमण
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त राज सिंहासन पर बैठा। अपने पिता की भांति वह भी तेजस्वी और शक्तिशाली राजा हुआ।सन् 455 ईसवीं में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र स्कंदगुप्त राजा हुआ। स्कंदगुप्त के शासक होते ही मध्य एशिया के हूणों के आक्रमण आरंभ हो गए। स्कंदगुप्त के शासनकाल में हूणों का पहला हमला भारत में सन् 455 ईसवीं में हुआ। स्कंदगुप्त शूरवीर और बहादुर राजा था। उसने अपनी सेना लेकर आक्रमणकारी हूणों का मुकाबला किया। हूण लोग अपनी असभ्यता और बर्बरता के लिए प्रसिद्ध थे। ये लोग भयानक लड़ाकू थे, और अनेक देशों पर आक्रमण करके उनका विनाश कर चुके थे। स्कंदगुप्त भयभीत नहीं हुआ और युद्ध करके उसने हूणों को पराजित किया।। आक्रमणकारी हूण भी क्षति उठाकर और स्कंदगुप्त से पराजित होकर अपने देश लौट गये। लेकिन उसके बाद भी हूणों के संगठित और जोरदार आक्रमण भरत पर होते रहे। स्कंदगुप्त ने बार बार उन हूणों पराजित किया, लेकिन वे निराश न हुए। पराजित होने के बाद वे मध्य एशिया की तरफ लौट जाते और उसके बाद वे फिर जोरदार तैयारी करके भारत पर हमला करते। हूणों के हमलों का यह क्रम बराबर जारी रहे।

दस वर्षों के बाद सन् 465 में भारत पर हूणों का जो आक्रमण हुआ वह आधिक भयानक था। इस बार भारत के पश्चिम उत्तर की सीमा से हूणों का आगमन हुआ। उनकी संख्या पहले की अपेक्षा बहुत अधिक थी। काबुल से आगे बढ़कर समस्त उत्तरीय और पश्चिमी पंजाब पर उन्होंने अपना प्रभुत्व कायम किया। इस बार के आक्रमण में हूणों के अत्याचार अत्यंत क्रूर और भयानक हो गये। इसके पहले भी भारत मे अनेक विदेशी हमले हुए थे। लेकिन वे इस प्रकार क्रूर और निर्दय न थे। इसके बाद हूण आगे की ओर बढ़े और यमुना के तट के अनेक राज्यों पर उन्होंने अपना अधिकार कर लिया। इन दिनों में गुप्त साम्राज्य की शक्तियां क्षीण होने लगी थी, फिर भी स्कंदगुप्त जब तक जीवित रहा हूणों का मुकाबला वह बराबर करता रहा। लेकिन आक्रमणकारी हूणों की संख्या बराबर बढ़ती गई और आखिर में स्कंदगुप्त उनके दमन में धीरे धीरे कमजोर पड़ने लगा। धन के अभाव के साथ साथ स्कंदगुप्त के साथ सैनिकों की भी कमी होती गयी, इस अवस्था में स्कंदगुप्त की अंत में हूणों के मुकाबले में पराजय हुई।
स्कंदगुप्त के बाद गुप्त साम्राज्य में कई एक सम्राट हुए लेकिन उनमें से कोई ऐसा शूरवीर और प्रतापी न था, जो हूणों का सामना कर सकता और उनको पराजित करके भारत की सीमा से बाहर निकाल देता। गुप्त साम्राज्य के अंतिम शासकों के समय भारत में हूणों के आक्रमण के आक्रमण और अत्याचार बढ़ गये। नरसिंह गुप्त बालादित्य के सिंहासन पर बैठते ही यह आशा की गई कि देश की अवस्था में कुछ परिवर्तन होगा और हूणों के अत्याचारों से देश की कुछ रक्षा होगी। इस आशा का कारण यह था कि नरसिंह बालादित्य आरंभ से ही बुद्धिमान और वीर मालूम होता था। सिंहासन पर बैठने के बाद ही उसका ध्यान दर्शन शास्त्र की ओर अधिक खिचा और वह उस विषय के पंडितों के साथ बातें करने में अपना समय अधिक व्यतीत करने लगा। दार्शनिक आकर्षण ने नरसिंह गुप्त बालादित्य के अन्तःकरण को राज्य की परिस्थितियों की ओर से उदासीन बना दिया और उसका परिणाम यह हुआ कि उसने देश में बढ़ते हुए हूणों के हमलों की तरफ ध्यान न दिया उन दिनों में हूणों की विजय और सफलता का यह एक प्रधान कारण हो गया।
हूण सरदार तोरमाण की विजय
तोरमाण कौन था? तोरमाण ने किस पर विजय की?
पिछले जिन दिनों में भारत हूणों के जोरदार और लगातार हमलों से मटियामेट हो रहा था उन्हीं दिनों में हूणों का युद्ध फारस के बादशाह फीरोजशाह के साथ चल रहा था। सन् 484 ईसवीं में हूणों के सरदारों ने फीरोजशाह का अंत किया और उसके राज्य में अपना अधिकार कर लिया। फारस को विजय करने के बाद हूणों की सम्पूर्ण शक्तियां भारत की ओर रवाना हुई और हूण सरदार सम्पूर्ण भारत को जीतकर अपना आधिपत्य कायम करने की कोशिश करने लगे। इन दिनों में हूणों का एक सरदार तोरमाण युद्ध में बड़ी प्रसिद्धि पा रहा था। उसके साथ हूणों की एक बड़ी सेना थी, और उसमें बहुत से चुने हुए लड़ाकू हूण सैनिक थे। सन् 495 ईसवीं में सरदार तोरमाण ने अपनी सेना लेकर नरसिंह गुप्त बालादित्य के राज्य पर आक्रमण किया। नरसिंह गुप्त बालादित्य ने भी अपनी सेना लेकर तोरमाण की हूण सेना का मुकाबला किया। हूण सेना में सैनिकों की संख्या बहुत अधिक थी और ये सभी युद्ध में भयानक लड़ाकू थे। नरसिंह गुप्त बालादित्य धार्मिक और दार्शनिक पुरूष था। धार्मिकता और युद्ध प्रियता, परस्पर दो विरोधी प्रकृति रखती है। हूण सरदार तोरमाण के साथ युद्ध में नरसिंह गुप्त बालादित्य की पराजय हुई। उसकी सेना युद्ध क्षेत्र से भाग गई और तोरमाण की हूण सेना ने मालवा राज्य पर अपना अधिकार कर लिया।
नरसिंह गुप्त बालादित्य की सेना को पराजित कर तोरमाण ने गुप्त साम्राज्य के.अनेक राज्यों पर अपना अधिकार कर लिया और राजा की उपाधि लेकर उसने स्यालकोट में अपनी राजधानी कायम की इसके बाद भी वह अपने राज्य के विस्तार की कोशिश करता रहा। भारत के पूर्व में यमुना यमुना से चंबल नदी तक और दक्षिण की ओर नर्मदा नदी तक उसके राज्य का विस्तार हो गया। तोरमाण का प्रभुत्व तेजी के साथ भारत में बढ़ा और मध्य भारत के कितने ही राजाओं ने उसके आधिपत्य को स्वीकार कर लिया। अनेक छोटी छोटी रियासतें, जो समुद्रगुप्त के द्वारा पराजित हुई थी, तोरमाण के अधिकार में आ गयी। उसके राज्य विस्तार के कारण गुप्त साम्राज्य दिन ब दिन क्षीण होता गया। और जो कुछ बाकी रह गया था, हूण लोग उस फर भी अपनी सत्ता कायम करने की चेष्टा करने लगे। भारत के अनेक राज्यों पर अपना शासन कायम करके तोरमाण की मृत्यु सन् 510 में हो गई, और उसके मरने के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकारी बना।
हूण राजा मिहिरकुल की नृशंसता
मिहिरकुल कौन था? हूणों का आक्रमण में मिहिरकुल की क्या भूमिका रही? मिहिरकुल हूण का शासन कैसा था?
मिहिरकुल कौन था यह तो अब आप जान ही गये होगें। मिहिरकुल अपने पिता की तरह बुद्धिमान न था। लेकिन अत्याचारों में वह अपने पिता तोरमाण से आगे निकल गया। राज्य का अधिकार प्राप्त करने के बाद ही उसने भयानक अत्याचार आरंभ कर दिये। वह स्वभाव से ही अत्यंत निर्दयी था। बौद्ध धर्मावलंबियों के साथ उसने उस निर्दयता का व्यवहार किया जिसे जानकर सहज ही रोंगटे खड़े होते है। मिहिरकुल के अत्याचार लगातार बढ़ते गये। अपने विस्तृत राज्य में भी उसने भीषण निर्दयता का व्यवहार किया, उसके द्वारा होने वाली क्रूरता, सीमा पार कर गई। इन अत्याचारों से अब लोग बड़ी बैचेनी के साथ विद्रोहात्मक विचार करने लगे थे। लेकिन मिहिरकुल के ऊपर कोई प्रभाव न पड़ा और उसकी क्रूरता का सिलसिला बराबर जारी रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तरी भारत में मिहिरकुल के आतंक से हाहाकार मच गया और कुछ हिन्दू राजाओं ने मिलकर मिहिरकुल के साथ युद्ध करने के लिए संगठन करना आरंभ किया।
हूण सेना की पराजय
हूणों के शासन का किसने विरोध किया? हूणों की पराजय कैसे हुई? हूणों का आक्रमण का कैसे जवाब दिया गया?
मिहिरकुल ने भारतीय राजाओं के साथ जिन राक्षसी अत्याचारों का प्रयोग किया था, उनसे राजा और प्रजा की बड़ी अधोगति हुई, उसने लूटने मार काट करने और मंदिरों के विध्वंस करने का कार्य बराबर जारी रखा। उसके इन अत्याचारों का बदला लेने के लिए उस समय कोई शक्तिशाली हिन्दू राजा न था। हूणों के आधिपत्य से जो भारतीय राज्य बाकी रह गये थे वे सभी छोटे छोटे थे, और अपनी कुशल मनाया करते थे। संगठित होकर वे एक दूसरे का साथ देना न जानते थे। उनके बीच में कोई ऐसा राजा न था जो सभी को एकता के बंधन में बांधकर हूणों के उपद्रवों और अत्याचारों का अंत करता। मिहिरकुल ने जिन अत्याचारों की वृष्टि की थी। उनसे सभी राजा भयानक विपदाओं में पड़े हुए थे। अपनी रक्षा का कोई उपाय उनके सामने न था। मिहिरकुल के द्वारा जो भारतीय नरेश सताये जा रहे थे। उनकी समझ में यह आया कि हम लोग संगठित होकर अपनी रक्षा कर सकते है। और इस अत्याचारी हूण नरेश के उत्पातों का बदला ले सकते है। इसी आधार पर हिन्दू राजाओं का संगठन हुआ। इस संगठन का कार्य मन्दसौर के मालव सरदार यशोधर्मन के द्वारा आरंभ हुआ। यशोधर्मन एक शूरवीर सरदार था और युद्ध कौशल में वह निपुण था। हिन्दू राजाओं को संगठित करके उसने मिहिरकुल को परास्त करने का निश्चय किया।
यशोधर्मन ने सब से पहले गुप्त वंश के राजा बालादित्य से मुलाकात की और अपने उद्देश्य के संबंध में उसने बहुत सी बातें की। नरसिंह गुप्त बालादित्य बुद्धिमान था, लेकिन धार्मिक भीरूता ने उसे निर्बल बना दिया था। यशोधर्मन की बातों को बालादित्य ने स्वीकार कर लिया। यशोधर्मन की सफलता यही से आरंभ हुई। उसने दूसरे हिन्दू राजाओं से भी परामर्श किया, और सभी राजाओं और सरदारों ने उसके प्रास्ताव को स्वकृति दे दी। यशोधर्मन के इस प्रयत्न के फलस्वरूप उत्तर और दक्षिण के सभी राजा और सरदार हूणों के साथ युद्ध करने के लिए तैयार हो गये। सभी ने मिलकर यशोधर्मन के नेतृत्व में युद्ध करने का निर्णय लिया और सभी अपनी अपनी सेनायें लेकर उज्जयिनी में आकर एकत्रित हुए।
इस विशाल भारतीय सेना का नेतृत्व यशोधर्मन ने स्वीकार किया और वह साहस के साथ इन एकत्रित सेनाओं को अपने अधिकार में लेकर हूण नृपति मिहिरकुल पर आक्रमण करने के लिए सन् 527 ईसवीं में रवाना हुआ। इस आक्रमण का समाचार मिहिरकुल को मिला। युद्ध के लिए अपनी सेना को उसने तैयार होने की आज्ञा दी और दोनों ओर की सेनाये युद्ध क्षेत्र में पहुंच गई। बहुत दिनों से हूण सेना भारत में विजयी हो रही थी। और आज के युद्ध क्षेत्र में भारतीय सैनिक भी दिल खोलकर लड़ना चाहते थे। युद्ध के लिए रवाना होने से पूर्व यशोधर्मन ने एकत्रित सेनाओं के सामने प्रतीज्ञा की थी कि हम लोग या तो इस युद्ध में हूण सेना को पराजित करेंगे अथवा मातृभूमि के सम्मान में रणभूमि पर शहीद होगे। इस प्रतिज्ञा के साथ यशोधर्मन युद्ध क्षेत्र की तरफ रवाना हुआ था।
रणभूमि में दोनों ओर की सेनाओं का आमना सामना हुआ और युद्ध आरंभ हो गया। बहादुर हूण भारतीय सैनिकों के साथ युद्ध करते हुए आगे बढ़ने की कोशिश करने लगे और भारतीय सैनिक अपनी भयानक मार से उनको पीछे हटाने की चेष्टा करने लगे। दोनों ओर से युद्ध की गति तीव्र हो उठी और घमासान युद्ध के रूप में बदल गई। हूण सेना की तरफ से मिहिरकुल के साथ कितने ही हूण सरदार भयानक मार कर रहे थे और भारतीय सेना की ओर से कितने शूरवीर राजा और सरदार हूणों का संहार करने में लगे हुए थे। कई घंटे के भयानक युद्ध में दोनों ओर से बहुत से सैनिक युद्ध में मारे गये, लेकिन युद्ध की गम्भीरता में कोई कमजोरी पैदा नहीं हुई। यशोधर्मन स्वयं युद्ध क्षेत्र में मौजूद था, और अपनी भीषण मार से हूणों को काट काटकर ढेर कर रहा था। उसकी आंखे मिहिरकुल की तरफ लगी हुई थी, उसने आगे बढ़कर मिहिरकुल पर जोर के साथ प्रहार किया, लेकिन एक हूण सरदार के सामने पड़ जाने के कारण वह साफ बच गया। इसी मौके पर भारतीय सैनिक आगे बढ़ते हुए दिखाई पड़े। यह अवस्था देखकर मिहिरकुल ने हूण सेना को भयानक मार करने और आगे बढ़ने के लिए ललकारा, आवाज सुनते ही हूण सैनिक एक साथ आगे बढ़े, उनके आगे बढ़ते ही भारतीय सैनिक आंधी की तरह उन पर टूट पड़े और उस भीषण संघर्ष में इतने जोर का संग्राम कुछ समय तक हुआ, जिसमें अपने और पराये के समझने का ज्ञान सैनिकों को न रहा। इस भयानक मार काट के मध्य यशोधर्मन ने मिहिरकुल पर हमला किया और उसे गिरफ्तार कर लिया। मिहिरकुल के गिरफ्तार हो जाने पर हूण सेना पीछे की तरफ हटी और वह युद्ध क्षेत्र से भागने लगी। कुछ दूर तक भारतीय सेना ने हूण सेना का पिछा किया और उसके बाद वह लौट आयी। भरतीय सैनिकों की सुपुर्दगी में मिहिरकुल को उज्जयिनी में लाया गया और एकत्रित हिन्दू राजाओं ने यशोधर्मन के साथ परामर्श करके इस बात का निर्णय करना चाहा कि हूण नरेश मिहिरकुल के संबंध में क्या होना चाहिए। कुछ लोगों का कहना था कि जिसने अरसे से अपनी क्रूरता, निर्दयता और नृशंसता में संसार का कोई अत्याचार नहीं छोड़ा उसके अक्षम्य अपराधों का बदला देने के लिए उसको जान से मार डाला जाये। लेकिन नरसिंह गुप्त बालादित्य ने इसका विरोध किया। बालादित्य स्वयं बौद्ध धर्म का अनुयायी और अहिंसा का पक्षपाती था। यही अवस्था उज्जयिनी में एकत्रित अधिकांश हिन्दू राजाओं और नरेशों की थी। इसलिए मिहिरकुल की हत्या नहीं की गयी और उसे उसके राज्य से निर्वासित करके कश्मीर भेज दिया गया।
हूण सेना के साथ दूसरा युद्ध
दूसरा हूणों का आक्रमण कैसे हुआ? हूणों का द्वितीय आक्रमण किसने किया? हूणों का पतन कैसे हुआ?
हिन्दू राजाओं ने मिहिरकुल को क्षमा प्रदान की थी, लेकिन इस क्षमा के लिए हूण नरेश मिहिरकुल ने बंदी अवस्था में भी प्रार्थना नहीं की थी। इसलिए इस मिली हुई क्षमा को उसने हिन्दू राजाओं की कायरता के रूप में स्वीकार किया, और वह कश्मीर चला गया। वहां पहुंच कर उसने भारतीय राजाओं से बदला लेने का उपाय सोचा। कश्मीर राज्य की सेना में उसने विद्रोह पैदा करा दिया। और वहां के राजा को सिंहासन से उतारकर खुद राजा बन बैठा। मिहिरकुल को किसी प्रकार भारतीय राजाओं से बदला लेना था। लेकिन इसके लिए कश्मीर की सेना काफी न थी। गांधार में एक दूसरे हूण सरदार का शासन था और उसी सरदार को हिन्दू राजाओं ने मिहिरकुल को निर्वासित करने के बाद उसका राज्य सौप दिया था। मिहिरकुल ने कश्मीर राज्य की सेना को अपने साथ लेकर गांधार राज्य के हूण सरदार पर आक्रमण किया, वहां की समस्त हूण सेना ने मिहिरकुल का साथ दिया और इस प्रकार मिहिरकुल अपने राज्य के साथ साथ गांधार राज्य का भी शासक हो गया।
इस समय मिहिरकुल के अधिकार में फिर एक विशाल हूणों की सेना हो गई थी। उसने हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करने के लिए अपनी सेना की तैयारी की और एक लाख से अधिक सैनिकों तथा सवारों की विशाल सेना लेकर मिहिरकुल रवाना हुआ। हूण सेना ने अजमेर पहुंच कर मुकाम किया। यशोधर्मन को हूणों का आक्रमण का समाचार मिला। उसने उन सभी भारतीय राजाओं और सरदारों को युद्ध के लिए फिर आमंत्रित किया। जिन्होंने संगठित होकर कुछ महिने पहले हूणों की सेना को पराजित किया था। उज्जयिनी में फिर भारतीय राजाओं की सेनायें एकत्रित हुई। और वहां से यशोधर्मन के नेतृत्व में सन् 528 ईसवीं में हूणों की बलिष्ठ सेना के साथ दूसरा युद्ध करने के लिए रवाना हुई।
अजमेर पहुंच कर भारतीय सेना ने अचानक मिहिरकुल की हूण सेना पर आक्रमण किया और हूणों को तैयार होने तक का मौका न देकर भारतीय सैनिक बिजली की तरह उन पर टूट पड़े। बड़ी तेजी के साथ तैयार होकर हूण सेना ने भारतीय सेना से युद्ध किया। कुछ समय तक दोनों ओर से भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में भारतीय सेना ने हूणों का बुरी तरह संहार किया। मिहिरकुल की सेना युद्ध में टिक न सकी और उसके सैनिकों ने पराजित होकर इधर उधर भागना शुरू कर दिया। भारतीय सेना ने उन भागते हुए हूणों का पिछा किया, और भयानक रूप से उनका विनाश किया।अजमेर में हूणों की छावनी में भारतीय सेना ने लूट की और हूणों की सेना की समस्त सामग्री तथा रसद अपने अधिकार में कर ली। हूणों की सेना में भागते हुए मिहिरकुल जान से मारा गया। इस भगदड़ में जो हूण सैनिक बचे थे वे भागकर लापता हो गए और अंत में वे मरूभूमि की ओर जाकर लूनी नदी को पार करके दूसरी तरफ चले गये। मिहिरकुल के जीवन का यह अंतिम युद्ध था। जिसमें वह एक लाख सैनिकों को लेकर युद्ध के लिए आया था। और उसकी सेना के लगभग एक चौथाई आदमी भागकर अपने प्राणों की रक्षा कर सके। मिहिरकुल के मरते ही भारत में हूणों की सत्ता का अंत हो गया और मध्य एशिया में भी तुर्को की शक्तिशाली सेना के साथ युद्ध में हूणों को पराजित होना पड़ा। जिसके परिणामस्वरूप मध्य एशिया में भी हूणों के राज्य का अन्त हो गया।