हल्दीघाटी का युद्ध भारतीय इतिहास का सबसे प्रसिद्ध युद्ध माना जाता है। यह हल्दीघाटी का संग्राम मेवाड़ के महाराणा और दिल्ली मुग़ल सम्राट के मध्य हुआ था। यह वही भीषण महाराणा प्रताप और अकबर का युद्ध था जिसमें दोनों ओर से हजारों वीर सैनिकों और सरदारों ने अपना बलिदान दिया है। हल्दीघाटी का यह प्रसिद्ध स्थान वर्तमान में राजस्थान में है। राजस्थान में यह स्थान एकलिंग जी से कुछ किलोमीटर की दूरी पर अरावली पर्वत श्रृंखला में खामनोर एवं बलीचा गांव के मध्य में एक दर्रा है। अपने इस लेख में हम इसी महा संग्राम के बारे में जानेंगे और इससे जुड़े निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से जानेंगे:—–
हल्दीघाटी के युद्ध में किसकी जीत हुई? हल्दीघाटी युद्ध का क्या परिणाम निकला? हल्दीघाटी का युद्ध कब और किसके मध्य हुआ था? निम्नलिखित में से कौन हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से युद्ध में कौन कौन शामिल हुआ? हल्दी घाटी के युद्ध को गोगुंदा का युद्ध किसने कहां? हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप का सेनापति कौन था? महाराणा प्रताप और अकबर का युद्ध? हल्दी घाटी किस राज्य में है? हल्दी घाटी युद्ध पर निबंध लिखिए? हल्दीघाटी का मैदान? हल्दीघाटी का इतिहास? हल्दीघाटी का युद्ध किस किस के मध्य हुआ? हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ था? हल्दीघाटी के युद्ध में किसकी जीत हुई? हल्दीघाटी के युद्ध में किसकी विजय हुई? महाराणा प्रताप ने कौन कौन से युद्ध लड़े? हल्दीघाटी युद्ध के अन्य नाम? हल्दीघाटी कहा पर है और क्यों प्रसिद्ध है? हल्दीघाटी का संग्राम?
हल्दीघाटी के युद्ध से पहले- उदयसिंह की मृत्यु
चित्तौड़ पर अकबर के आक्रमण के समय वहां का राणा उदयसिंह
राज्य छोड़कर निकटवर्ती पहाड़ियों के घने जंगलों में चला गया था
और वहां से आगे बढ़कर गोहिलों के पास पहुँच गया था। ये गोहिल लोग राजपिप्पली नामक गम्भीर वन में रहते थे। कुछ समय तक उदयसिंंह अपने परिवार के साथ वहां पर बना रहा और उसके पश्चात् वहाँ से चलकर अरावली पर्वत में प्रवेश करके गिहलोट नामक स्थान पर पहुँच गया। इस स्थान के साथ उदयसिह का एक पुराना सम्बन्ध था। चित्तौड़ को विजय करने के पहले उसके पूर्वज बप्पा रावल ने इसी स्थान के निकट कुछ समय तक अज्ञातवास किया था। अरावली पर्वत के जिस भाग में जाकर उदयसिह ने अपने रहने का स्थान निश्चित किया, उसकी विशाल तलहटी में कई एक नदियाँ प्रवाहित होती थी और उनके स्वच्छ जल ने उस स्थान को अत्यन्त रमणीक बना रखा था। वहाँ के एक ऊंचे शिखर पर उदयसिह ने एक सुन्दर प्रासाद निर्माण कराया था। ऐसा मालुम होता है कि उदयसिंह चित्तौड़ के होने वाले विध्वंस की घटना को पहले से जानता था और वह यह भी जानता था कि मुझे चित्तौड़ की राजधानी छोड़कर एक दिन अरावली के इसी स्थान पर आना पड़ेगा। इसीलिए इस स्थान को उसने पहले से ही अनेक सुविधाओं के साथ तैयार करा लिया था। गिहलोट में अनेक सुविधायें पहले से मौजूद थी, उसके बाद उदयसिंह के आ जाने पर उस स्थान का नित नया निर्माण हुआ। छोटे-बड़े कई एक नये महल तैयार किये गये, रहने वालों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती गयी और कुछ वर्षों में वह स्थान एक नगर के रूप में परिणत हो
गया। उदयसिह ने उस नगर का नाम उदयपुर रखा और उसने मेवाड़ राज्य की राजधानी बनायी। चित्तौड़ विध्वंस होने के चार वर्ष पश्चात् गोगुंदा नामक स्थान में उदयसिह की मृत्यु हो गयी। उस समय उसके पच्चीस पुत्र थे। उदय सिंह के निर्णय के अनुसार उसका छोटा पुत्र जगमल मेवाड़ के सिंहासन पर बैठा। लेकिन गद्दी पर बैठने के थोड़े ही दिनों के बाद राज्य के सरदारों में असंतोष उत्तपन्न हुआ इसलिए उसके स्थान पर राणा प्रताप सिंह को सिंहासन पर बिठाया गया और राणा जगमल को गद्दी से उतार दिया गया। हल्दीघाटी युद्ध का वर्णन जारी है…..
महाराणा प्रताप सिंह का दृष्टिकोण
महाराणा प्रताप सिंह, राणा उदयसिंह का सबसे बड़ा लड़का था और उससे छोटा शक्तसिंह था। पुत्र होने पर भी राणा प्रताप सिंह स्वभाव और चरित्र में अपने पिता उदयसिंह से बिल्कुल भिन्न था। वह जन्म से ही स्वाभिमानी और स्वतन्त्रता प्रिय था। उसकी माता सोनगढ़ के राजपूत सरदार की लड़की थी। उदयसिह में राजपूती गुणों का जितना ही प्रभाव था, राणा प्रताप सिंह की माता में उनका उतना ही आधिक्य था। महाराणा प्रताप सिंह की माता का नाम जयवंता बाई था। राणा प्रताप सिंह को जीवन की बहुत-कुछ शिक्षा अपनी स्वाभिमानी माता से मिली थी। महाराणा प्रताप के जीवन का संघर्ष उसके जन्म के साथ ही आरम्भ हुआ था। उसके साथ, महाराणा प्रताप के पिता उदयसिंह का स्नेह न था जीवन के आरम्भ से ही वह पिता के प्यार से वंचित हो गया था। इस अवस्था में उसके जीवन पर उदयसिंह का प्रभाव न पड़ना स्वाभाविक था। इस स्नेह से वंचित होने का ही यह प्रभाव था कि पिता के पश्चात् राज्य का अधिकारी होने पर भी उसे राजगद्दी न दी गयी थी और उदयसिह का छोटा पुत्र जगमल सिंह जिसे उदयसिंह अधिक प्यार करता था। सिंहासन पर बिठाया गया था। किन्तु सरदारों के विरोधी होने के कारण वह सिंहासन पर रह न सका था। महाराणा प्रताप सिंह के जीवन की बहुत-सी बातें संग्रामसिंह के साथ मिलती थीं। बल, पराक्रम और स्वाभिमान में वह ठीक संग्रामसिंह की तरह का था। संग्रामसिंह के जीवन की शुरुआत में भाइयों का द्वेष उत्पन्न हुआ था और उसके कारण राज्य को छोड़कर कहीं एकान्त में बहुत दिनों तक उसे जीवन व्यतीत करना पड़ा था। प्रताप के जीवन की परिस्थितियाँ भी इसी प्रकार की थीं। बहुत समय तक उसे भाइयों की सहायता के स्थान पर शत्रुता ही मिली थी।
राणा उदयसिंह जब तक चित्तौड़ में रहा था, प्रताप सिंह का उस समय भी कोई महत्व न था। जगमल सिंह ही राज्य का अधिकारी समझा जाता था। चित्तौड़ पर अकबर के आक्रमण करने पर उदय सिंह अपने परिवार को लेकर पहाड़ों पर चला गया था। उस समय से लेकर कई वर्षो तक महाराणा प्रताप के सामने एक निर्वासित जीवन था। परन्तु इन कठिनाइयों के कारण उसके स्वाभिमान में किसी प्रकार को निर्बलता नहीं आयी थी। उसने अपनी माता से अपने पूर्वजों के गौरव की कथायें सुनी थीं। लड़कपन से ही वह उन मुसलमान बादशाहों का विरोधी था, जिनके अत्याचारों से उसके पूर्वजों के राज्य का विनाश हुआ था। हल्दीघाटी का युद्ध का वर्णन जारी है…..
हल्दीघाटी के युद्ध से पहले बादशाह अकबर और उस समय के अन्य नरेशों की स्थिति
उदयपुर के राज-सिंहासन पर बैठने के बाद, महाराणा प्रताप सिंह ने चित्तौड़ के उद्धार का निश्चय किया। यद्यपि अकबर बादशाह की शक्तियां महान थीं और उसके साथ युद्ध करने के लिए महाराणा प्रताप के पास कुछ भी न था। लेकिन अपनी इस निर्बल परिस्थिति के कारण वह निराश न हुआ। उसने उन साधनों को जुटाने का कार्य आरम्भ कर दिया, जो युद्ध में उसके सहायक हो सकते थे। महाराणा प्रताप ने सब से पहले यह किया कि उसने उदयपुर के स्थान पर कमलमेर में राजधानी की प्रतिष्ठा की। इसके साथ साथ उसने पहाड़ी दुर्गों को तैयार करने का काम किया। किस अवसर पर किस दुर्ग से काम लिया जा सकता है, इस अभिप्राय से उसने इनकी मरम्मत कराई। महाराणा प्रताप सिंह के अधिकार में बहुत थोड़ी सेना थी और उसके द्वारा सम्राट अकबर का सामना करना किसी प्रकार संभव न था। इसलिए उसने दुर्गम पहाड़ी स्थानों पर अपनी सेना को रखने का निश्चय किया और पर्वतों के बीच में रहकर और शत्रुओं पर लगातार आक्रमण करने का उसने निर्णय लिया। इसके साथ साथ महाराणा प्रताप ने उन राजपूतों की सेना तैयार की जो शक्तिशाली मुग़ल सेना से युद्ध करने और उनके अत्याचारों का उनको बदला देने की अभिलाषा रखते थे। इन्हीं दिनों में उसे कुछ ऐसे राजपूत सरदार मिल गये जो शूरवीर थे। उन्होंने महाराणा प्रताप सिंह के साथ देश का उद्धार करने की प्रतिज्ञा की और स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए अपनें प्राणों का बलिदान देने के लिए तैयार हो गये। अपने सरदारों के साथ परामर्श करके महाराणा प्रताप सिंह ने अकबर के साथ युद्ध करने का निश्चय किया। अपने लगातार प्रयत्नों से राणा प्रताप ने अपनी एक छोटी सी सेना बना ली। लेकिन युद्ध के लिए उसको सम्पत्ति की आवश्यकता थी। इसके लिए उसने सरदारों से बात करके एक योजना तैयार की और उसके अनुसार अंत में मुगल बादशाह अकबर के साथ युद्ध करने के लिए वह तैयारियों में व्यस्त हो गया। सम्राट अकबर के विरुद्ध महाराणा प्रताप सिंह के विद्रोह का समाचार चारों ओर फैलने लगा। मुग़ल-साम्राज्य भारत में सर्वत्र फैल चुका था और अकबर की शक्तियां अत्यन्त प्रबल और अटूट हो चुकी थीं। शासन करने में वह बहुत प्रवीण और दूरदर्शी था। करीब-करीब सभी हिन्दू राजाओं को उसने अपने अधिकार में कर लिया था। अकबर के भय, प्रलोभन और आतंक के कारण कोई ऐसा राजा उस समय न रह गया था, जो उसके साथ विद्रोह करके प्रताप का साथ देने का साहस करता। अकबर के नेत्रों से महाराणा प्रताप का विद्रोह छिपा न था। वह विरोधियों को बस में करना खूब जानता था। अकबर महान राजनीतिक पुरुष था। मनुष्य को पहचान ने की उसमें बड़ी योग्यता थी। वह आसानी के साथ इस बात का सही निर्णय कर लेता था कि कौन आदमी किस प्रकार अधिकार में आ सकता है। अपनी इसी बुद्धि के द्वारा उसने समस्त भारत में मुग़ल-राज्य का विस्तार किया था और राजाओं तथा बादशाहों की स्वतन्त्रता का नाश कर उसने अपना आधिपत्य कायम किया था। बादशाह अकबर, महाराणा प्रताप की नीति से अनभिज्ञ न था। परन्तु उसको अभी तक अकबर ने अयोग्य, असमथ तथा उपेक्षणीय समझा था। आवश्यकता के लिए वह पहले से ही तैयार था। उसने एक ऐसी नीति का भी आश्रय लिया था, जिससे कितने ही हिन्दू राजाओं ने न केवल अकबर की अधीनता स्वीकार की थी, बल्कि उसे प्रसन्न करने के लिए वे प्रताप का मान-मर्दन करने के लिए भी तैयार थे। ऐसे मौके पर काम आने के लिए वे राजा और बादशाह तो उसके हाथ में थे ही, जो किसी समय चित्तौड़ और प्रताप के पू्वजों के शत्रु रह चुके थे, शिशोदिया वंश के अत्यन्त निकटवर्ती अनेक राजपुत नरेश भी अकबर के हाथ में ऐसे थे, जो उसके नेत्रों के संकेत पर प्रताप के साथ युद्ध करने को तैयार थे। अकबर के भयानक राजनीतिक जाल ने न केवल राजपूत राजाओं की स्वाधीनता का विनाश किया था, वरन उसने उसकी मानसिक और बौद्धिक शक्तियों का भी विध्वंस किया था, जिसके कारण राजपुताने के वे राजा भी, जिनको प्रताप अपना समझ सकता था, उसके शत्रु हो रहे थे। इस प्रकार के राजाओं में मारवाड, अम्बेर, बीकानेर और बूंदी राज्य के राजा भी शामिल थे। बात यहीं तक न थी, परिस्थितियां तो यहां तक भयानक थीं कि प्रताप का सगा भाई राणा उदयसिंह का पुत्र शक्तसिंह भी अकबर के हाथ में था और वह प्रताप का शत्रु हो चुका था। उसके बदले में अकबर ने उसे, उसके पूर्वजों के राज्य का एक प्रदेश देकर अपनी सेना का उसे एक अधिकारी बना दिया था। भारत की इन भयानक परिस्थितियों में महाराणा प्रताप को जब उसका कहीं कोई साथी दिखाई न देता था भारत के शक्तिशाली सम्राट अकबर के साथ विद्रोह किया और निर्भीक होकर उसने युद्ध करने का निर्णय किया। हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन जारी है……
महाराणा प्रताप सिंह की स्वतंत्रता की घोषणा
जीवन के समस्त सुखों में स्वाधीनता का सुख महान और अदभुत होता है। इसका अनुभव उस समय से आरम्भ होता है, जब कोई पराधीन जाती अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा करती है। अपनी निर्बलता से महाराणा प्रताप सिंह अपरिचित न था। वह जानता था कि देश की समस्त शक्तियां अपनी और पराई विरोधिनी हैं। फिर भी वह मुस्लिम आधिपत्य के प्रति विरोध और विद्रोह करना चाहता था। उसने और उसके सरदारों ने युद्ध के दिनों की कठिनाइयों का खूब अनुमान लगा लिया था। अनेक बार आपस में परामर्श करके वे महाराणा प्रताप के साथ पूरे तौर पर सहमत हो चुके थे। मुस्लिम आधिपत्य को मिटाने के लिए उन सब ने शपथ पूर्वक प्रतिज्ञाएं की थीं। जीवन की समस्त कठिनाइयों का सामना करने का उन्होंने निश्चय किया था और पराधीनता के अत्याचारों में रहने की अपेक्षा प्राणोत्सग करना श्रेयस्कर समझा था। सभी बातों का निश्चय हो चुकने पर वीर महाराणा प्रताप ने मेवाड़ राज्य के निवासियों में प्रचार किया कि जो लोग मुस्लिम आधिपत्य को मिटाकर राज्य की स्वतन्त्रता चाहते हों, वे तुरन्त अपने-अपने स्थान को छोड़कर हमारे साथ पहाड़ों पर आ जायें। जो ऐसा नहीं करेगे, वे मुस्लिम बादशाह के पक्षपाती समझे जयेंगे। और शत्रु समझ कर उनका विनाश किया जायेगा।
महाराणा प्रताप की इस आज्ञा के प्रचारित होते ही मेवाड-राज्य की प्रजा अपने घर द्वार छोड़कर और परिवार के लोगों को लेकर पहाड़ों की और रवाना हुई। पहाड़ों पर जाकर रहने वालों की संख्या रोजाना बढ़ती गयी और कुछ ही दिनों के भीतर मेवाड़ राज्य के गाँव, नगर और बाजार सुनसान दिखाई देने लगे। राणा प्रताप की आज्ञा का लगातार प्रचार होता रहा और उसके लिए बड़ी कठोरता से काम लिया गया। लोगों को एक अच्छा मौका देकर ओर उनके पहाड़ों पर आ जाने की प्रतीक्षा करके राणा प्रताप ने इस बात को जानना चाहा कि उस आदेश का कहां तक प्रभाव पड़ा है। इसलिए अपने साथ कुछ सवारों को लेकर प्रताप अपने धोड़े पर पहाड़ों से नीचे उतरा और दूर-दूर तक जाकर देखना शुरू कर दिया। महाराणा प्रताप का यह सिलसिला कितने ही दिनों तक बराबर जारी रहा। उसको यह देखकर संतोष हुआ कि राज्य के जो स्थान मनुष्यों के कोलाहल से भरे रहते थे, वे जन शुन्य पड़े हैं। जो मार्ग स्त्रियों-पुरुषों के चलने से भरे रहते थे। वे बिलकुल सुनसान हो गये थे। समस्त मेवाड़ राज्य मरूभूमि में परिणत हो गया और मुगल बादशाह अकबर को इस विशाल राज्य से कुछ भी लाभ उठा सकने का अवसर शेष न रहा। हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन जारी है….

महाराणा प्रताप ने की धन की व्यवस्था
मुगल शासन के प्रति महाराणा प्रताप सिंह ने जिस विद्रोह का निर्णय किया था, उसकी अभी तक तैयारियां चल रही थीं। मेवाड़ राज्य के निवासियों को पहाड़ों पर बुला कर प्रताप ने अकबर बादशाह को मेवाड़-राज्य से होने वाली लम्बी आय से वंचित कर दिया। अब उसे स्वयं धन की आवश्यकता थी। वह जिस विद्रोह को आरम्भ करने जा रहा था, उसकी रुपरेखा एक भयानक लड़ाई के साथ थी। आरम्भ होने वाला वह युद्ध कितना लम्बा होगा, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता था। उसके लिए सैनिक शक्ति के साथ साथ अपरिमित धन की आवश्कता थी। राणा प्रताप उसके लिए बिल्कुल चिन्तित नहीं हुआ, उसके हृदय में उसका अटूट साहस लहरें ले रहा था उसका उमड़ता हुआ उत्साह कभी उसे निराशा के अनुभव करने का अवसर नहीं देता था। उन दिनों में यूरोप वालों के साथ मुगल साम्राज्य का व्यवसाय चल रहा था। व्यावसायिक सम्पत्ति और सामग्री मेवाड़ राज्य के भीतर से होकर सूरत अथवा किसी दूसरे बन्दरगाह पर जाया करती थी। राणा प्रताप के सरदारों ने आक्रमण करके उसके लूट लेने का कार्य आरम्म कर दिया। उसके द्वारा महाराणा प्रताप की आर्थिक आवश्यकता की पूर्तिं होने लगी। हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन जारी है…..
महाराणा प्रताप और सम्राट अकबर के बीच संघर्ष
मेवाड़ राज्य को सुनसान बनाकर और मुगल राज्य के व्यवसाइयों,
को लुटना आरम्भ करके प्रताप ने विद्रोह की शुरूआत कर दी। राजस्थान के समस्त हिन्दू नरेश इस विद्रोह की ओर सावधानी के साथ देख रहे थे।वे सभी अकबर की अधीनता स्वीकार कर चुके थे। फिर भी प्रताप के विद्रोह से वे भयभीत हो रहे थे। वे अपने प्रति अकबर के ह्रदय में किसी प्रकार का सन्देह नहीं पैदा करना चाहते थे। वे सब के सब अपनी भलाई इसी में समझते थे कि विद्रोह के इन भयानक दिनों में अकबर बादशाह का विश्वास हम पर बना रहे। महाराणा प्रताप ने मेवाड़ राज्य में जो परिस्थिति उत्पन्न कर दी थी, उसकी एक-एक बात से अकबर अपरिचित न रहा। उसने महाराणा प्रताप सिंह के विनाश का निश्चय किया और अपनी एक सेना ले कर वह अजमेर की तरफ जाना चाहता था। उन्हीं दिनों में कई एक हिन्दू राजाओं ने अपनी बहुमूल्य भेंटों के साथ बादशाह से मुलाकातें की और उसके साम्राज्य के प्रति सदा विश्वस्त बने रहने की प्रतिज्ञाएं की, डर बुरा होता है। राजस्थान के उन राजाओं ने जिन्होंने शेर शाह के सामने कभी मस्तक नीचा नहीं किया था, उन्होंने उन दिनों में बार-बार अकबर के सामने नस्मस्तक हो कर साम्राज्य भक्त बने रहने का विश्वास दिलाया। अकबर जिन दिनों में अजमेर की ओर जाना चाहता था, प्रताप का विनाश करने के लिए, कई एक हिन्दू राजा अपनी सेनायें लेकर उसका साथ देने के लिए तैयार थे। जिन हिन्दू नरेशों ने इस भीषण काल में महाराणा प्रताप के विरुद्ध अपनी तलवारें निकाली उनके ऐसा करने का कारण था। ये वही हिन्दू राजा थे जिन्होंने मुगल बादशाह से भयभीत होकर, उसकी आधीनता स्वीकार की थी और कुछ ने तो अपने आपको सुरक्षित रखने के उद्देश्य से, अपनी लड़कियों के विवाह तक अकबर के साथ कर दिये थे। ऐसा करके उन्होंने अपनी स्वाधीनता के साथ-साथ, राजपूती
मर्यादा और गौरव को भी नष्ट कर दिया था। इसलिए वे लोग चाहते थे कि प्रताप का न केवल विनाश हो, बल्कि वे लोग उसका समाजिक पतन भी चाहते थे, जिससे उनके पतन के कारण कोई हिन्दू नरेश उन पर कीचड़ न उछाल सके। इस प्रकार के कलंकित और पतित राजपूत राजाओं में अम्बेर और मारवाड़ के राजा प्रमुख थे।
महाराणा प्रताप ने अकबर के विस्तृत साम्राज्य को देखकर कभी नस्मस्तक होने की बात नहीं सोची। अपनी संकुचित और सीमित शक्तियों के साथ उसने मुग़ल साम्राज्य के प्रति स्थायी और व्यापक विद्रोह का सूज्रपात किया था और जिन हिन्दू राजाओं ने अपनी स्वाधीनता अकबर बादशाह को अर्पण कर दी थी, उनका प्रताप ने निर्भीकता पूर्वक बहिष्कार किया था। पिछले लेख में लिखा जा चुका है कि अम्बेर के राजा बिहारीमल ने अपनी लड़की का विवाह अकबर के साथ कर दिया था। मानसिंह बिहारीमल का पोता था और भगवानदास उसका लड़का था। इस वैवाहिक सम्बन्ध के कारण अकबर ने मानसिंह को अपनी सेना में सेनापति का स्थान दिया था। मानसिंह स्वयं साहसी, चतुर तथा युद्ध में शूरवीर था और अनेक राजाओं पर अकबर की विजय का कारण राजा मानसिंह था। अकबर ने मानसिह को अपनी सेना में सब से ऊँचा पद दिया था और मानसिंह ने भारत के बहुत से राज्यों को जीत कर अकबर के राज्य को साम्राज्य बना दिया था। हल्दीघाटी का युद्ध का वर्णन जारी है……
अकबर के सेनापति मानसिंह का आतिथ्य
शोलापुर के युद्ध में विजयी होकर मानसिंह मुग़ल राजधानी आ
रहा था। रास्ते में ही उसने प्रतापसिंह से मिलने का इरादा किया।
प्रतापसिंह उन दिनों में कमलमेर में था। राजा मानसिंह का सन्देश
पाकर महाराणा प्रताप ने अपने पिता के बनवाये हुए उदय सागर पर उसके ठहरने का प्रबन्ध कराया। उस सरोवर के निकट खाने पीने की अनेक वस्तुएं तैयार की गयी। खाने के समय उसे अकेले बैठने का प्रबन्ध किया गया। महाराणा प्रताप ने उसके साथ मुलाकात नहीं की। भोजन के समय मानसिंह के बुलाने पर भी उसके पास महाराणा प्रताप नहीं गया। मानसिंह के आग्रह करने पर प्रताप ने वहां पहुंच कर कहा कि जिस राजपूत ने अपनी बहन ओर लड़की मुगल बादशाह को ब्याही है, मैं उसके और उसके परिवार के साथ भोजन नहीं कर सकता। मानसिंह का इससे अधिक अपमान और क्या हो सकता था। वह अपने स्थान से उठ कर अपने घोड़े के पास गया और उस पर बैठकर उस स्थान से लौटते समय उसने उत्तेजना के साथ प्रताप की ओर देखा ओर कहा “प्रतापसिह ! यदि मैं तुम्हारा यह अंहकार मिट्टी में न मिला दूँ तो मेरा नाम मानसिंह नहीं है ।” महाराणा प्रताप ने तिरस्कार के साथ मानसिंह की ओर देखा और अत्यन्त गम्भीर होकर उसने कहा “युद्ध-क्षेत्र मैं आपको देख कर मुझे प्रसन्नता होगी।” कि उसी समय किसी ने उपहास के साथ कहां “हाँ-हाँ, आप जरूर आइएगा और साथ में अपने फूफा अकबर को भी लाइएगा” मानसिंह के चले जाने के बाद, उस स्थान को अपवित्र समझ कर धोया गया और जिन लोगों ने मानसिंह को देखा था, उन्होंने स्नान करके अपने आपको पवित्र किया। हल्दीघाटी का युद्ध का वर्णन जारी है…..
सेनापति मानसिंह के अपमान का बदला
अपमान और क्रोध में विक्षुब्ध होकर मानसिंह कमलमेर से चला
गया। उसने अकबर बादशाह से अपने अपमान की सम्पूर्ण कथा कही। महाराणा प्रताप के विरुद्ध अकबर पहले से ही तैयार बैठा था। जो युद्ध कुछ दिन बाद हो सकता था, मानसिंह के अपमान से उसका समय समीप आ गया। यह अपमान, महाराणा प्रताप और अकबर बादशाह के बीच शीघ्र युद्ध होने का एक कारण बन गया।
महाराणा प्रताप सिंह पर आक्रमण करने के लिए अकबर का विचार सजीव हो उठा। मानसिंह के साथ उसने अनेक परामर्श किये और उसके बाद उसने सैनिक तैयारी का आदेश दे दिया। मानसिंह को इससे अत्यन्त सन्तोष मिला। वह किसी भी प्रकार प्रताप के साथ तुरन्त युद्ध करना चाहता था। हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन जारी है….
हल्दीघाटी के युद्ध के लिए तैयारी ओर रवानगी
उन दिनों में मुग़ल-साम्राज्य भारत में अत्यन्त शक्तिशाली हो चुका
था। देश के सभी छोटे-बड़े राजा और बादशाह, अकबर की अधीनता को स्वीकार करके अपने अस्तित्व की रक्षा कर रहे थे। भारत के लगभग सभी स्वतन्त्र हिन्दू राजाओं ने दिल्ली सम्राट के सामने आत्म-समर्पण कर दिया था। केवल एक राणा प्रताप बाकी था, जिसका कोई बड़ा अस्तित्व न था। मेवाड़ का राज्य उसका पिता उदयसिह पहले ही खो चुका था और वह विशाल तथा शक्तिशाली राज्य अकबर बादशाह के शासन में था। प्रताप के अधिकार में पहले से कोई अच्छी सेना न थीं। किसी राजपूत अथवा हिन्दू राजा की सहायता का विश्वास न था। जिनकी शक्तियां इस भयानक समय में सहायता कर सकती थीं, वे सभी प्रकार मुगल-सम्राट के हाथों में बिक चुके थे और उसको प्रसन्न करने के लिए वे प्रताप के अस्तित्व को मिटाने के लिए तैयार थे। अपनी इस भीषण परिस्थिति से परिचित होने के बाद भी राणा प्रताप ने सम्राट की शक्तियों का सामना करने का साहस किया था। सब से अधिक उसको अपने आत्म-बल का भरोसा था। इस युद्ध के लिए प्रताप ने बड़ी बुद्धिमानी के साथ सैनिक व्यवस्था की थी। बहुत से वीर राजपूतों और कितने ही शूरवीर सरदारों को साथ में लेकर प्रताप ने पहाड़ के निवासी भयंकर लड़ाकू भीलों की एक अच्छी सेना तैयार कर ली थी। यह पहाड़ी भील राजस्थान के मूल निवासी थे और राजपूत के बल वैभव से मली भाँति परिचित थे। उनके ऊपर समय की परिस्थितियों का प्रभाव न था। राजपूताना में मुस्लिम शासन को देख कर वे जले-भुने बैठे थे। राणा प्रताप के विद्रोह का झंडा उठते ही देख कर वे भील बड़े
प्रसन्न हुए थे और सभी प्रकार की सहायता देने के लिए उन्होंने राणा प्रताप को आश्वासन दिया था। वाणों के साथ युद्ध करने में ये भील उन दिनों में अत्यन्त भयंकर समझे जाते थे। हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन जारी है….
अकबर का राजनीतिक कौशल
मुग़ल-सम्राट अकबर के अनेक गुणों मे राजनीतिक कौशल उसका एक प्रधान गुणा था। अपने इसी गुण के कारण राज्य में विस्तार में उसको बहुत बड़ी सफलता मिली थी। शासक का शूरबीर होना ही काफी नहीं होता। शत्रु को किसी भी तरीके से परास्त करना राजनीति का उद्देश्य है। अनेक स्थलों पर राजपूतों के परास्त होने का मुख्य कारण यही था कि उनमें राजनीतिक दूरदर्शिता का अभाव था। अकबर शक्तिशाली शासक था ओर किसी प्रकार वह शत्रु को परास्त करना जानता था। अहमदाबाद को जीतने के बाद उसने अपने सेनापति भगवान दास, शाहकुली खाँ और लश्कर खाँ को अलग-अलग उनकी सेनाओं के साथ मेवाड़ राज्य के विभिन्न इलाकों में भेजा था। अकबर चाहता था कि हमारे प्रतिनिधि किसी प्रकार महाराणा प्रताप को आत्म समर्पण करने के लिए तैयार कर दें। यदि प्रताप इसके लिए तैयार हो जाता तो अकबर उसके पूर्वजों का राज्य लौटा देने के लिए तैयार था। इन सेनापतियों ने प्रताप को बदलने के लिए चेष्टाएं की । लेकिन उनमें किसी को सफलता न मिली थी। प्रस्तावों के रूप में जितने भी प्रलोभन प्रताप के पास पहुँचे थे, उन सब को उसने ठुकरा दिया था। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगल-सम्राट के सामने आत्म समर्पण किया था, उनमें अम्बेर का राजा मानसिंह प्रमुख था। उसने स्वयं आत्म-समर्पण किया था और अनेक स्वतन्त्रता प्रिय तथा स्वाभिमानी हिन्दू राजाओं ने उसके कारण अकबर के सामने आत्म-समर्पण किया था। महाराणा प्रताप को मिलाने भर मुग़ल-सम्राट की अधीनता में लाने के लिए जब अनेक हिन्दू और मुसलमान राजा तथा बादशाह असफल हो चुके थे तो उस महान कार्य के लिए राजा मानसिंह ने अपने ऊपर उत्तरदायित्व लिया था। शोलापुर के युद्ध से लौट कर दिल्ली पहुँचने के पहले
उसने कमलमेर में प्रताप से भेंट करने का जो इरादा किया था, उसका उद्देश्य यही था। उसने निश्चय किया था कि मैं प्रताप के यहां अतिथि होकर पहुंचगा ओर समय पाकर उसे अपने रास्ते पर ले आऊंगा। परन्तु आतिथ्य के साथ-साथ, उसके वहाँ पहुँचने का समस्त उद्देश्य संकट में पड़ गया और अपमान का इतना बड़ा शोक उसके सिर पर लाद दिया गया कि उसे लौट कर मुग़ल राजधानी पहुँचना कठिन हो गया। युद्ध की तैयारियां पूरी होने पर, विशाल मुग़ल सेना मेवाड़ की ओर रवाना हुई। सम्पूर्ण सेना का नेतृत्व अकबर बादशाह का बैटा मुग़ल-साम्राज्य का उत्तराधिकारी सलीम के हाथों में था। उसके साथ अपनी सेना को लेकर सेनापति मानसिह और राणा प्रताप सिंह का सगा भाई शक्तसिह दोनों अपनी सेनाओं के साथ महाराणा प्रताप से युद्ध करने के लिए रवाना हुए। अनेक हिन्दू और मुसलमान राजाओं और मुसलमान बादशाहों के साथ आयी हुई इस विशाल और शक्तिशाली मुगल सेना से युद्ध करने के लिए राणा प्रताप के साथ केवल बाईस हजार सैनिक थे और सलीम की सेना राणा की सेना से बहुत बड़ी थी। हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन जारी है…..
हल्दीघाटी के युद्ध स्थल पर व्यूह-रचना
अपने विशाल सैनिक समूह को अकबर ने मेवाड़ की ओर रवाना
किया। उसका अनुमान था कि प्रताप अपनी सेना को लेकर और
पहाड़ों से निकल कर मैदान में आकर युद्ध करेगा। लेकिन प्रताप ने ऐसा नहीं किया। उसकी सेना तैयार होकर अरावली पर्वत के बाहरी प्रदेश की ओर बढ़ी। मुग़ल सेना सलीम के नेतृत्व में रवाना हुई थी और उसका संचालन अन्य सेनापतियों के साथ-साथ, सेनापति मानसिंह कर रहा था। मेवाड़-राज्य में प्रवेश करके उसने अपनी सेना को पहाड़ी किनारे से बहुत दूर रखने की चेष्टा की। वह चाहता था कि महाराणा प्रताप अपनी सेना के साथ पहाड़ से उतर कर मैदान में आ जाये। इसीलिए उसने अपने आगे और पहाड़ों के बीच में एक बहुत बड़ा मैदान खाली रखा था। युद्ध के लिए रवाना होने के पहले ही प्रताप ने एक छोटी सी सेना कमलमेर की रक्षा के लिए वहां पर छोड़ दी और बाकी सम्पूर्ण सेना को लेकर गोगुणडा नामक स्थान से वह अरावली पर्वत के पश्चिम की ओर रवाना हुआ। हल्दीघाटी के रास्ते पर पहुँच कर उसने अपनी सेना रोकी और वहां पर ठहर कर वह मानसिंह तथा मुगल सेना का रास्ता देखने लगा। विश्व प्रख्यात हल्दीघाटी का युद्ध यहीं पर आरम्भ हुआ था। यह लड़ाई गोगुंदा युद्ध के नाम से भी इतिहास में प्रसिद्ध है। यह हल्दी घाटी का युद्ध कामनूर ग्राम के मैदान में हुआ था। यह गांव हल्दी घाटी के निकट गोगुंदा जिले में था।
सन् 1576 ईसवी की 18 जुन को युद्ध के मैदान में दोनों और
की सेनाओं का सामना हुआ। सेनापति मानसिंह ने अपने चाचा
जगन्नाथ तथा गयासुद्दीन और आसफ़ खाँ दोनों सरदारों को उनकी मजबूत सेनाओं के साथ मुगल-सेना के सब से आगे खडा किया। सैयद हासिम, सैयद अहमद और सैयद राजू की सेनायें मुग़ल-सेना के दाहिने ओर गाज़ी खाँ तथा लम्बकणा अपनी सेनाओं के साथ बाई ओर मौजूद थे। अपनी शक्तिशाली राजपूत सेना के साथ मानसिंह स्वयं मुग़ल सेना के मध्य भाग में खड़ा हुआ। उसके निकट मुग़ल सेना के बीचो बीच अपने हाथी पर सलीम था। शक्तसिंह और माधवसिंह अपनी-अपनी सेनायें लेकर सलीम और मानसिंह के दाहिने और बायें खड़े हुए। युद्ध क्षेत्र के लड़ाकू हाथियों का संचालन हुसैन खाँ के अधिकार में था वह अपने हाथियों के साथ मानसिंह के मोर्चे पर डटा था। सब से पीछे बोनस नदी के समीप एक सुरक्षित सेना मेहताब खाँ के नेतृत्व में उपस्थित थी। हल्दीघाटी के जिस तंग स्थान पर महाराणा प्रताप सिंह ने अपनी सेना लगा रखी थी, उसके दाहिने और बायी ओर ऊँचे-ऊँचे वृक्ष खड़े थे। उस स्थान के एक ऊँचे शिखर पर मुग़ल-सेना पर वाणों की वर्षा करने के लिए शूरवीर धनुधारी भीलों की सेना थी। उन भीलों ने पत्थरों के टुकड़ों को
एकत्रित करके अपने समीप बहुत बड़े-बड़े ढेर लगा दिये थे, जिनसे आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं पर भयानक मार की जा सके। राणा की बाई शोर हाकिम खाँ सूर के नेतृत्व में पठानों की सेना खड़ी की गई थी और एक दूसरी राजपूत सेना राणा के दाहिनी ओर थी, जिसका नेतृत्व वीर जयमलसिंह का बेटा रामदास कर रहा था।
उसके पीछे ग्वालियर का शासक रामशाह अपने लश्कर के साथ मोजूद था और उसके तीनों लड़के शालिवाहन, भानुसिंह और प्रताप बहादुर राजपूत सेनाओं के साथ युद्ध करने के लिए वहां पर आये थे। राणा की सेना में बाई ओर की रक्षा का भार माला के सरदार मन्नासिह के ऊपर था। कई एक शु्र-वीर राजपूत सरदारों के बीच में राणा प्रताप उपस्थित होकर युद्ध के आरम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था। हल्दीघाटी का युद्ध का वर्णन जारी है…..
हल्दी घाटी का युद्ध का प्रारम्भ
व्यूह-रचना के पश्चात् दोनों ओर की सेनायें युद्ध के लिए तैयार हो
चुकी थीं। मानसिंह मुग़ल-सेना के बीच में खड़े होकर राणा की सेना की ओर सावधानी के साथ देख रहा था। इसी अवसर पर राजपूतों को ओर से मुग़ल-सेना पर आक्रमण हुआ और हाकिम खाँ के आदेश देते ही उसकी पठान सेना ने सैयद हसीम की सेना पर आक्रमण किया। इसके बाद तुरन्त दोनों ओर से युद्ध आरम्भ हो गया। दाहिनी ओर से रामशाह ने राय लम्बकणा के साथ मार काट आरभ्भ कर दी और महाराणा प्रताप सिंह ने गाजी खाँ पर आक्रमण किया। युद्ध आरम्भ होने के कुछ समय बाद तक सैयद बन्धुओं की सेनाओं ने, भयानक मार की लेकिन हकीम खाँ की पठान-सेना ने उनको आगे नहीं बढ़ने दिया। रामशाह की सेना ने उस समय इतनी भीषण मार की कि लम्बकणा और उसकी सेना बहुत दूर तक पीछे हट गई ओर उसने राजपूत सैनिकों को आगे बढ़ने के लिए रास्ता दे दिया। लम्बकणां स्वयं पीछे हटा और अपनी सेना को दाहिनी ओर उसने जा कर शरण ली। उसके सामने राजपुतों को आगे बढ़ते देख कर कुछ समय के लिए मुग़ल सेना में एक साथ भय ओर भ्रम उत्पन्न हुआ। परन्तु उस समय गाजी खाँ ने युद्ध की परिस्थिति को सम्हालने में बहुत बड़ा काम किया। मुग़ल-सेना ने प्रोत्साहन पाकर भयानक मार शुरू कर दी। बहुत समय तक दोनों ओर से भीषण मारकाट होती रही। मुग़ल सेना की संख्या अधिक थी, लेकिन अपने साहस ओर शौर्य के कारण राणा की राजपूत सेना निर्भीक होकर युद्ध कर रही थी। गाज़ी खाँ का सामना महाराणा प्रताप सिंह प्रताप स्वयं कर रहा था और गाज़ी खाँ अपनी पूरी ताकत को लगा कर राणा को पीछे हटाने की कोशिश में था। उसने बार-बार अपनी सेना को ललकारा ओर कई बार उसने जोरदार आक्रमण राणा की सेना पर किये। राणा ने उसके हमलों को रोका और समय पाते हो महाराणा प्रताप अपने घोड़े चेतक को बढ़ा कर गाज़ी खाँ पर आक्रमण किया। गाजी खाँ ने भागने की चेष्टा की, लेकिन उसकी पीठ पर प्रताप का भाला लगा और वह घायल होकर युद्ध के मैदान से प्राण बचा कर भाग गया। हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन जारी है…..
हल्दीघाटी के युद्ध की गम्भीरता
गाज़ी खाँ के युद्ध से भागते ही मुग़ल-सेना की परिस्थिति फिर
बिगड़ने लगी। मुग़ल सैनिक एक बड़ी संख्या में पीछे हटने लगे। उसी समय राजपूतों ने आगे बढ़ कर मुग़लों पर भयानक आक्रमण किया, जिससे बहुत-से मुगल सैनिक युद्ध के मैदान से भागे और बोनस नदी में कूद कर उन्होंने बड़ी तेजी के साथ उसको पार किया। भागते हुए उन्होंने एक बार भी पीछे को ओर वहीं देखा और बोनस की दूसरी तरफ दूर जा कर उन्होंने सांस ली। रामशाह की राजपूत सेना की मार के कारण, मुगल-सेना के साथ की राजपूत सेनाओं के साहस हटने लगे और कुछ ही समय में उन्होंने भी मैदान से भागना शुरू कर दिया। मुग़ल-सेना की यह अवस्था देखकर आसफ़ खाँ अपनी सेना के साथ आगे बढ़ा और युद्ध की परिस्थिति को बदलने के लिए राजपूतों पर उसने जोरदार आक्रमण किया। थोड़ी ही देर में युद्ध की परिस्थिति फिर बदल गयी। सैयद अहमद, सैयद राजू और सैयद हासिम से अपनी अपनी सैयद बंधु सेनाओं को सम्हाल कर बड़ी दृढ़ता से काम लिया और युद्ध के उस भयानक अवसर पर उन तीनों ने बुद्धिमानी से काम लेकर मुग़ल-सेना के टूटते हुए धैर्यें को मजबूत बनाने का काम किया। फिर भी राजपूतों की भयानक मार से मुगल-सेना भयभीत हो रही थी। समुद्र की भीषण लहरों के समान राजपूत सैनिकों के दल, मुगल-सेना की बाई ओर मार करते हुए आगे बढ़ जाते थे और शत्रुओं की सेना को तितर-बितंर कर देते थे। राजपुतों की यह वीरता आश्चर्यजनक थी। उस समय मुग़ल सेना की परिस्थितियां अनिश्चित हो रही थीं। पर्वत के ऊँचे स्थानों से भीलों की वाण-वर्षा शत्रु सेना को बार-बार पीछे हट जाने के लिए विवश कर देती थी। जीवन का मोह छोड़ कर राणा को सेना के राजपूतों ने जो भयानक युद्ध किया, उसका कारण था उनकी स्वतन्त्रता का अपहरण हुआ था, उनकी मातृभूमि को दासता के बंधन में जकड़ दिया गया था और उनकी सम्पत्ति को छीन कर शत्रुओं ने अपनेअधिकार में कर लिया था। शत्रुओं के अत्याचारों ने राजपूतों को जीवनोत्सर्ग के लिए प्रेरणा दी थी और इसीलिए वे इस युद्ध में शत्रुओं का संहार करना चाहते थे अथवा मर कर वे बलिदान हो जाना चाहते थे।
बिहारीमल का शूरवीर पुत्र जगन्नाथ अपनी सेना के साथ सैयद
बंधुओं की सहायता कर रहा था। महाराणा की सेना के भयानक आक्रमण के समय भी वह अपने स्थान पर पहाड़ की तरह स्थिर बना रहा। उस भीषण मार-काट में रामदास मारा गया। चित्तौड़ पर होने वाले आक्रमण में उसके पिता ने अपने प्राणों की आहुति दी थी और हल्दी घाटी के युद्ध में अपने पिता का अनुकरण करके रामदास ने अपनी मातृ-भूमि की स्वतन्त्रता के लिए लड़कर अपने जीवन की भेंट दे दी। मानसिंह की राजपुत सेना के साथ युद्ध करते हुए रामशाह ने जिस शौर्य का प्रदर्शन किया, उसका वर्णन शब्दों में सम्भव नहीं है। मानसिह को परास्त करने के लिए वह कई बार आगे बढ़ा और अन्त में मारा गया। रामशाह के मारे जाने पर महाराणा प्रताप की शक्ति अधिक निर्बल हो गयी। महाराणा प्रताप ने अपने शक्तिशाली और विश्वासी चेतक घोड़े को आगे की ओर बढ़ाया और विजय अथवा मृत्यु का प्रलोभन करने के लिए उसने निर्भीकता के साथ निश्चय किया। राणा प्रताप को आगे बढ़ते हुए देख कर उसके राजपूत सैनिक उत्तेजित हो उठे। अपने घोड़े को आगे बढ़ा कर प्रताप मानसिह के सन्मुख पहुँच गया। राणा ने मानसिंह पर आक्रमण करने का निश्चय किया था। लेकिन निकट जाकर उसने देखा कि मानसिंह के आस-पास मुग़ल सेना ने घेरा डाल रखा है और उसके संरक्षण में खड़े हुए मानसिंह पर आक्रमण करने के लिए कोई रास्ता न था। जगन्नाथ के मुकाबले में राणा की सेना का एक लड़ाकू सरदार रामदास मारा गया था, इसलिए राणा के राजपूत, जगजन्नाथ को खत्म करने में लगे थे। लेकिन वह बार-बार बच जाता था। दोनों ओर के इस भयानक संघर्ष में दोनों सेनायें आगे पीछे हो जाती थीं। इन्हीं परिस्थितियों में राणा प्रताप ने अपना घोड़ा बढ़ा कर सलीम का सामना किया। मुगल सेनाओं के बीच में वह अपने हाथी पर था। महाराणा प्रताप ने सलीम पर अपने भाले का आक्रमण किया। उससे सलीम के के अंग रक्षकों के टुकड़े टुकड़े हो गये। उसी समय प्रताप ने अपने घोड़े को फिर बढ़ाया उसके धोड़े चेतक ने एडी का संकेत पाते ही अपने आगे के दोनों पैरों को उठा कर उछाल मारी। उसके अगले दोनों पैर सलीम के हाथी के मस्तक पर पहुँच गये। महाराणा प्रताप ने सलीम पर अपनी तलवार का भयानक वार किया।सलीम उससे बच गया, लेकिन वह तलवार उसके हौदे में लगी हुई लोहे की पत्तर से टकरा कर महावत के लगीं और वह कट कर नीचे गिरते ही मर गया। महावत के गिरते ही सलीम का हाथी युद्ध-क्षेत्र से बाहर की ओर भागा। प्रताप ने सलीम का संहार करने के लिए उसका पीछा किया। राणा की राजपूत सेना पोछे रह गयी और वह सलीम को मारने के उदेश्य से मुगल सेना के बीच में पहुँच गया। यह देखते ही राजपूत भागे बढ़े। लेकिन मुगल सेना ने प्रताप को चारों शोर से घेर लिया था। राजपूतों ने घेरे को तोड़ कर मुगल सेना के साथ भीषण युद्ध आरम्भ किया। दोनों ओर की सेनायें उस स्थान पर केन्द्रित हो गयी मुगल सेना के सरदार और सेनापति एक साथ, प्रताप पर टूट पड़े महाराणा की बची हुई राजपूत सेना प्रताप की रक्षा करने के लिए शत्रुओं के साथ संग्राम करने लगी। हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन जारी है….
हल्दीघाटी का मैदान और नर-संहार का भयानक दृश्य
मुग़ल-सेना ने प्रताप का संहार के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति को
एकत्रित कर लिया और पूरी शक्ति लगाकर उसने राणा के सर्वन्नाश की चेष्टा की। महाराणा प्रताप ने अद्भुत साहस और सामर्थ्य से काम लिया। दोनों ओर के सैनिकों में भीषण तलवारों को मार हो रही थी और राजपूत वीरों ने अपने प्राणों का मोह छोड़कर प्रताप को बचाने के लिए शत्रुओं पर आक्रमण किया था। इस भयंकर मार काट में दोनों ओर के बहुत से आदमी मारे गये।राजपूत ने मुगल सेना के घेरे को तोड़ दिया था और वे युद्ध करते हुए भीतर पहुँच गये थे। उस समय तलवारों की मार दोनों ओर से इतनी भयानक हो रही थी कि मुगल सैनिकों और सरदारों को राणा प्रताप को पहचान सकना कठिन हो रहा था। राणा के मस्तक पर मेवाड़ का राजछत्र लगा हुआ था। उसको देखकर वो राणा को पहचान रहे थे और एक साथ आक्रमण करके वे उसे समाप्त करना चाहते थे। महाराणा प्रताप के सामने अब॒ भी किसी प्रकार का भय न था। वह अपने घोड़े चेतक पर बैठा हुआ शत्रुओं के साथ भयानक मार कर रहा था। विशाल शत्रु सेना के सामने प्रताप का शक्तिशाली घोड़ा चेतक अपने अदभुत दृश्य का प्रदर्शन कर रहा था। उस विशाल शत्रु सेना के बीच में प्रताप के सुरक्षित बने रहने का एक कारण चेतक का आश्चर्यजनक दृश्य था। उसको देखकर उस समय मालूम होता था कि चेतक के सम्पूर्ण शरीर में विधुतियशक्ति काम कर रही है। उस घोड़े ने महाराणा प्रताप की महान शक्तियों को शत्रुओं के सामने अजेय बना दिया था। प्रताप को मारने के लिए सैकड़ों और सहस्त्रों तलवारें एक साथ चल रही थीं और महाराणा प्रताप ने चेतक की लगाम दाँतो से दाब कर अपने दोनों हाथों से शत्रुओं पर तलवार चलाकर एक अभूत पूर्व दृश्य उपस्थित कर दिया था। राजपूतों ने प्रताप को बचाने में अपनी कोई शक्ति उठा न रखी थी।
शत्रुसेना की शक्ति विशाल और विस्तृत थी। हल्दीधाटी के इस युद्ध में अब तब बहुत से राजपूत॒ मारे जा चुके थे। जो शेष रह गये थे, उनकी संख्या मुगल-सेना के सामने बहुत कम थी। महाराणा प्रताप के शरीर में तलवारों के छोटे-बड़े सैकड़ों जख्म हो चुके थे और उनसे रक्त के फव्वारे छूट रहे थे। युद्ध की परिस्थिति बहुत भयानक हो चुकी थी और प्रत्येक अवस्था में महाराणा प्रताप के प्राण संकट में पड़ गये थे। ऐसा मालूम हो रहा था कि अब अधिक समय तक महाराणा प्रताप को शत्रुओं के सामने सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। इस भीषण परिस्थिति से प्रताप परिचित न था। युद्ध करते हुए राजपूत सैनिक इस भयानक अवस्था को खूब समझ रहे थे। ऐसा मालूम हो रहा था कि प्रताप के प्राणों की रक्षा का अब कोई उपाय बाकी नहीं है। यह दृश्य बराबर भयानक होता गया। शत्रु महाराणा प्रताप को लगातार घेरते हुए चले आ रहे थे और महाराणा राणा प्रताप के दोनों हाथ मार करते-करते थक गये थे। राजपूत सैनिकों की संख्या लगातार कम होती जा रही थी। उस भीषण समय में प्रताप को अपने चारों शोर शत्रु-ही-शत्रु दिखायी दे रहे थे। उसके इस समय संकट का कारण बहुत कुछ उसके मस्तक पर लगा हुआ मेवाड़ का राजछत्र था। उसी को लक्ष्य करके शत्रु सेना की बाढ़ उसकी और आ रही थी। महाराणा प्रताप के वस्त्र पूरे रक्त से भीग गये थे युद्ध की यह भीषण परिस्थिति महाराणा प्रताप के नेत्रों से छिपी न थी। इस भयानक संकट के समय राजपूत सेना के बीच में से उठी हुई एक आवाज सुनायी पड़ी महाराणा प्रताप की जय। महाराणा प्रताप ने भी इस आवाज को सुना। आवाज के साथ ही साथ, झाला राज्य का शुरवीर सरदार मन्ना जी ने अपनी सेना के साथ मुग़ल सेना के बीच में प्रवेश किया उसने अपने भाले की नोक से प्रताप का राजछत्र उठाकर इतनी तेजी के साथ अपने मस्तक पर रखा कि शत्रुओं में किसी को कुछ समझने का अवसर न मिला। मन्ना जी ने अपने घोड़े को प्रताप के आगे ले जाकर महाराणा प्रताप को पीछे हट जाने का संकेत किया और वह स्वयं शत्रुओं से युद्ध करने लगा महाराणा प्रताप को मन्ना जी का उद्देश्य समझने में देर न लगी। वह अपने घोड़े पर बैठा हुआ राजपूत सेना के बीच होकर बाहर निकल गया। शत्रुओं का घेरा बहुत संकीर्ण हो गया था। बाहर निकल कर प्रताप ने कुछ समय तक युद्ध की गति को देखा। शत्रुओं का दबाव बढ़ता गया और कुछ ही समय में झाला नरेश मन्ना जी अपनी सेना के साथ युद्ध में मारा गया। प्रताप ने बाहर से ही देखा कि वीर श्रेष्ठ मन्ना जी ने कुछ समय तक शत्रुओं के सामने अपने युद्ध कौशल का अदभुत दृश्य दिखा कर प्राण दे दिये। मन्ना जी के इस बलिदान का अपू्र्व दृश्य अपने नेत्रों से देखकर प्रताप वहां से रवाने हुआ। उस समय भी उसके समस्त शरीर से रक्त निकल कर गिर रहा था और भयानक जख्मों के कारण उसके चेतक की अवस्था अच्छी न थी। हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन जारी है…..
शक्तसिंह का भाव-स्नेह
महाराणा प्रताप के प्राणों को रक्षा करने के लिए जिस साहस और बहादुरी के साथ झाला नरेश मन्ना ने अपने जीवन की आहुति दी, उसे राणा ने स्वयं अपने नेत्रों से देखा उस समय उसके प्राण उबल रहे थे, परन्तु मन्ना को सहायता के लिए उसके पास कोई साधन न था। मन्ना के गिरते ही अपने साथ हृदय में एक अमिट पीड़ा को लेकर महाराणा प्रताप युद्ध क्षेत्र से रवाना हुआ। उसी समय युद्ध रुका और दोनों ओर के बचे हुए सैनिकों और सरदारों ने अपनी अपनी सेनाओं को युद्ध-क्षेत्र से पीछे हटने को आज्ञायें दीं। युद्ध बन्द हो गया। हल्दीघाटी के इस युद्ध में महाराणा प्रताप के बाईस हजार सैनिकों और सरदारों में से चौदह हजार जान से मारे गये। इनमें पाँच सौ शूरवीर योद्धा महाराणा प्रताप के निकटवर्ती सम्बन्धी थे। रामदास, रामशाह और उनके तीन युवा पुत्रों ने अपनी सेनाओं के साथ विशाल मुगल-सेना से युद्ध करते हुए प्राणोत्सर्ग किये। दोनों ओर के पाँच सौ से अधिक सेनाओं के अधिकारी और सरदार मारे गये। मुग़ल-सेना के मारे गये सैनिकों की संख्या और भी अधिक थी, जिसको इतिहासकारों ने निश्चित रूप से नहीं लिखा। उसका बहुत-कुछ कारण यह था कि युद्ध के लिए जो विशाल सेना सलीम के साथ आयी थी, उसके सिवा, मुग़लों की एक सुरक्षित सेना अलग से थी। युद्ध में जो मुगल-सैनिक और सरदार मारे जाते थे, उनके स्थानों की पूर्ति के लिए मुगलों की सुरक्षित सेना के लोग पहुँच जाते थे। युद्ध-क्षेत्र छोड़कर महाराणा प्रताप अपने घोड़े चेतक पर दक्षिण की और रवाना हुआ था। जख्मों के कारण उसके शरीर की अवस्था अस्त-व्यस्त हो रही थी और यही दशा महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की भी थी। रक्त से डूबे हुए प्रताप अपने घोड़े पर जा रहा था, उसने एकाएक घुमकर पीछे की ओर देखा, दो मुगल सवार कुछ फासिले से उसका पीछा करते हुए आ रहे थे। प्रताप का समस्त शरीर घायल और अत्यन्त थका हुआ था उसके अनेक स्थानों से अ्विरल रक्तपात हो रहा था। वह कहीं निजेत स्थान में पहुँच कर विश्श्राम करना चाहता था। हल्दीघाटी हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन जारी है…..
मुग़ल-सैनिकों को दूर से देखकर
राणा प्रताप ने साहस और सावधानी से काम लिया। उसने घोड़े को एडी लगायी। चेतक अपने गम्भीर घावों को भूल गया और प्रताप का संकेत पाते ही उसके शरीर में मानो बिजली का प्रवेश हुआ। वह तेजी के साथ रवाना हुआ। मुग़ल सैनिक पीछा करते हुए तेजी के साथ चले आ रहे थे। ऊपर लिखा जा चुका है कि प्रताप का भाई शक्तसिंह भी हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की और से महाराणा प्रताप के साथ संग्राम करने के लिए आया था। राणा के राज-तिलक के बाद, कुछ आपसी कारणों से दोनों भाइयों में द्वेष उत्पन्न हो गया था, उसके परिणाम स्वरूप शक्तसिंह विद्रोही होकर अकबर के साथ जाकर मिल गया था और अकबर ने उसको अपने यहां आदर पूर्वक स्थान देकर अपनी सेना का उसे एक सरदार बना दिया था। हल्दीघाटी के युद्ध में अपने भाई महाराणा प्रताप का शौर्य और पराक्रम देखकर शक्तसिह की अवस्था विचलित हो उठी थी। वह शत्रु की ओर से अपने भाई को परास्त करने के लिए आया था और अकबर अपनी राजनीति के अनुसार, राणा प्रताप को उसके भाई के द्वारा परास्त कराना चाहता था, इसीलिए सलीम के साथ बहुत-से सरदारों और सेनापतियों के साथ शक्तसिंह को भी आना पड़ा था। परन्तु युद्ध के समय शक्तिशाली शक्तसिह के हाथ और पैर काम न करते थे। सलीम की विशाल सेना के साथ खड़े होने पर उसका अन्त:करण अस्थिर होने लगा था। यौवन के उन्माद में जीवन की एक कठुता लेकर अपनी जिस विवशता में वह अकबर से जाकर मिल गया था, उसे वह स्वयं जानता था। लेकिन अपने मजबूत हाथों में भीषण तलवार लेकर उसे स्वाभिमानी राजपूतों, सगे सम्बन्धियों और अपने भाई महाराणा प्रताप का संहार करना पड़ेगा, इसे उसने पहले से सोचा न था। युद्ध के समय शक्तसिंह के सम्मुख जो दृश्य उपस्थित हुआ, उसका ज्ञान और अनुभव, हल्दी घाटी के युद्ध में आने के पहले उसे न था। जिस समय दोनों ओर की सेनाओं का सामना हुआ ओर एक दूसरे का सर्वनाश करने के लिए जिस समय दोनों सेनाओं के शूरवीरों ने अपने हाथों में भयंकर तलवारें निकालीं, उस समय मुग़ल सेना के बीच में खड़े हुए शक्तसिह के स्वाभिमानी प्राण कांप उठे आज उसकी शक्तिशाली तलवार प्रताप के विध्वंस का काम करेगी, इसे वह पहले से जानता न था। उसकी अवस्था अदभूत हो उठी। युद्ध प्रारम्भ हुआ और भयंकर मार-काट में दिल का बहुत बड़ा भाग समाप्त हो गया। सैनिकों और सरदारों के शरीरों से निकले हुए रक्त के कितने ही नाले बहे। सम्मान, स्वाभिमान और स्वाधीनता की रक्षा के लिए चौदह हजार राजपूतों ने अपने प्राणों की आाहूतियाँ दे, दीं। शक्तिशाली शक्तसिह उस समय भी कर्क्तव्य विमूढ़ था। सलीम पर आक्रमण करने के बाद विशाल मुगल-सेना ने महाराणा प्रताप को चारों ओर से घेर लिया और महाराणा प्रताप के प्राण अन्त में संकट में पड़ गये। उस समय , भी शक्तसिंह अन्यमवस्क था। प्रताप के मारे जाने में अधिक समय बाकी न था उसी समय शूरवीर सरदार मन्ना ने आकर महाराणा प्रताप के प्राणों की रक्षा की थी और उसने अपने प्राण दे दिये। यह भयानक दृश्य भी शक्तसिह ने अपने घोड़े पर बैठे हुए प्रस्तर के समान अस्थिर और अचल होकर देखा। युद्ध-क्षेत्र से प्रताप के रवाना होते ही मुग़ल-सेना के दों खूख्वार सैनिकों ने प्रताप का पीछा किया शक्तसिंह के नेत्र इस घटना को सावधानी के साथ देख रहे थे। उसने समझ लिया कि अब घायल महाराणा प्रताप सिह का इन सैनिकों से बचना असम्भव है। उसके हृदय का बन्धु-स्नेह विचलित हो चुका था। वह अब भाई के संहार को देखने के लिए तैयार न था। अपने जीवन के समस्त बन्धनों और संकटों की उपेक्षा करके शक्तसिह ने उन दोनों मुगल सैनिकों के पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया और वहां से बहुत दूर जाकर उसने उन दोनों सैनिकों को घेर कर अपनी तलवार से उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले।
उन दोनों को मार कर शक्तसिंह अपने घोड़े पर आगे बढ़ा। उसने
राजस्थानी भाषा में महाराणा प्रताप को सम्बोधन किया। आवाज पहचान कर महाराणा प्रताप अपने घोड़े से उतर पड़ा। लगातार रक्त के निकलने से चेतक का जीवन समाप्त हो रहा था। प्रताप के उतते ही चेतक गिर गया और उसके प्राण निकल गये। दूर से ही प्रताप ने शक्तसिह को देखा उसके हृदय में शक्तसिह के सम्बन्ध में कुछ सन्देह पैदा हुआ। शक्तसिह ने भाई के इस सन्देह का अनुमान लगा कर अपने हाथ की तलवार एक ओर फेंक दी और अपने घोड़े को एक पेड़ से बाँध कर वह प्रताप की तरफ चला। समीप पहुँच कर वह प्रताप के पैरों पर गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा। ‘मैं अपराधी हूँ, मुझे क्षमा करो। इसके शिवा शक्तसिह के मुंह से कुछ न निकला। महाराणा प्रताप ने शक्तसिह को उठा कर छाती से लगा लिया। दोनों भाई कुछ देर तक अश्नुपात करते रहे। अन्त में दोनों भाइयों ने भूमि पर पढ़े हुए चेतक की और देखा। अनेक वर्षों से उस धोड़े ने जिस प्रकार महाराणा प्रताप की युद्धों में रक्षा की थी, वे सभी दृश्य प्रताप को एक-एक करके याद आने लगे। अधिक समय तक वहां रुकना उचित न समझ कर शक्तसिंह ने अपना घोड़ा देकर प्रताप को वहां से रवाना किया और वहां से लौट कर शक्तसिह ने मारे गये मुग़ल-सैनिकों का एक घोड़ा लेकर वह हल्दी घाटी की ओर लौटा। सलीम के पास पहुँचने में उसे बहुत समय लग गया था, इसलिए सलीम को उस पर अनेक सन्देह पैदा हुए। शक्तसिह ने उसे विश्वास देने की चेष्टा की परन्तु सलीम को संतोष न हुआ और उसने अन्त में शक्तसिह को मुग़ल-सेना से चले जाने की आज्ञा दे दी। सलीम के इस आदेश से शक्तसिह बहुत प्रसन्न हुआ। वह यही चाहता था। अकबर का सहयोग छोड़ कर बहुत शीघ्र चले आने के लिए उसने प्रताप को विश्वास दिलाया था । शक्तसिह के साथ कुछ राजपूतों की एक छोटी-सी सेना थी। अपनी उस सेना को लेकर शक्तसिह वहां से रवाना हो गया। उदयपुर पहुँच कर शक्तसिह प्रताप से मिला और उसके बाद उसने भिसरोर के दुर्ग पर आक्रमण किया। उसे जीत कर शक्तसिह ने प्रताप को सौंप दिया। भाई के इस सद्व्यवहार का बदला देने के लिए प्रताप ने वह दुर्ग शक्तसिह को दे कर, उसे उसका अधिकारी बना दिया। हल्दीघाटी हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन जारी है…..
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप का संकल्प
हल्दीघाटी का युद्ध समाप्त करके सलीम अपनी सेना के साथ दिल्ली चला गया। वर्षा के दिन भरा गये थे, नदियाँ भर गयीं। पहाड़ी रास्ते जंगली हो गये और आने-जाने के मार्ग चारों ओर जलमय हो गये। इन कारणों से मुगल सेना को आक्रमण करने का अवसर न रहा। इन दिनों में राणा प्रताप ने कुछ समय तक विश्वाम किया। लेकिन उससे यह बात छिपी न थी कि वर्षा-काल समाप्त होते ही मुगल-सेना का आक्रमण होगा और इसी बची हुई छोटी सी सेना से उस विशाल और शक्तिशाली सेना का किसी प्रकार सामना नहीं किया जा सकता। फिर भी प्रताप ने शत्रु के सामने मस्तक झुकाना स्वीकार नहीं किया और अपने ह्रदय में उसने निश्चय किया कि जब तक प्राण रहेंगे, शत्रु के साथ युद्ध करके उसे शान्ति से बैठने न दूगा। श्रात्म-समर्पण करने की अपेक्षा विष-पान करके मर जाना अधिक अच्छा है। वह हल्दीघाटी में अपनी शिकस्त का बदला लेना चाहता था।
मुगल-सेना के आक्रमण
महाराणा प्रताप का जैसा अनुमान था, बरसात समाप्त होते ही एक विशाल मुग़ल सेना ने प्रताप के विरुद्ध आक्रमण किया। महाराणा प्रताप को उदयपुर छोड़कर कमलमेर चला जाना पड़ा। मुग़ल सेना ने वहां पर भी आक्रमण किया। कुछ समय तक युद्ध करके राणा प्रताप को वहाँ से चोंड नामक पहाड़ी दुर्ग पर चला जाना पड़ा। परन्तु वहां पर राणा का अधिक समय रह सकना सम्भव न हुआ। कमलमेर घेरे जाने पर मानसिह ने धरमेती और गोगुंदा नामक पहाड़ी दुर्गों पर अधिकार कर लिया इन्हीं दिनों में अकबर के सेनापति मुहब्बत खाँ ने उदयपुर में अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी। पहाड़ी भीलों के साथ प्रताप का जो सम्बन्ध चल रहा था और जिसके बल पर उसने इतने बड़े युद्ध की नींव डाली थी, कुछ मुग़लों ने उस सम्बन्ध को छिन्न-भिन्न कर दिया था। फरीद खाँ नामक मुग़ल सेनापति ने चप्पत को-घेर लिया था और उसके बाद वह दक्षिण की ओर बहुत दूर तक आगे बढ़ गया था। उन दिनों में चोंढ़ नामक स्थान पर महाराणा प्रताप का मुकाम था। उसके आस-पास तक शत्रु की सेना पहुँच गयी थी।
महाराणा प्रताप चारों ओर से संकटों में फंस गया था। उसके रहने के लिए अब कोई ऐसा सुरक्षित स्थान बाकी न था, जहा पर महाराणा प्रताप अपने परिवार ओर साथियों के साथ ठहर सकता । जिन पहाड़ी स्थानों का उसने पहले से भरोसा किया था, वे सब शत्रु के अधिकारों में पहुँच गये थे। पर्वत के जिस स्थान पर वह पहुँचता था, वहीं पर पीछा करते हुए शत्रु की सेना दिखाई पड़ती थी । मुग़ल सेनाओं ने चारों शोर से उन पहाड़ी स्थानोंको घेरने की कोशिश की और अनेक बार वे प्रताप के इतने निकट पहुँच गयी, जिससे महाराणा के पकड़े जाने में कोई सन्देह न रह गया था। लेकिन बार-बार वह शत्रुओं के बीच से होकर मार-काट करता हुआ निकल गया और शत्रु उसको पकड़ सकने में सम न हो सके। यद्यपि इन दिनों में महाराणा प्रताप की कठिनाइयाँ बहुत अधिक हो गयी थीं और उसे अपने परिवार और साथियों के साथ नित्य एक नया पहाड़ी जंगल खोजना पड़ता था। मुगल आक्रमण कारियों ने उसके लिए कोई सुरक्षित स्थान बाकी न रखा था। कभी-कभी तो किसी स्थान पर पहुँचने के बाद ही उसे तुरन्त छोड देना पड़ता था और पहाडी जंगलों से निकल कर उसे दूर चला जाता पड़ता था। इन भयानक परिस्थितियों में कभी-कभी मुगल सेना के साथ महाराणा प्रताप का संघर्ष हो जाता था और अपने थोड़े से आदमियों के साथ वह शत्रु के सैकडों हजारों सैनिकों को मार-काट कर निकल जाता था। वह प्रायः अपने सामन्तों और सरदारों के साथ पहाड के किसी ऊँचे शिखर पर बैठ कर परामर्श किया करता था। उस समय वह देखा करता था कि शत्रु के सैनिक किसी सेनापति के नेतृत्व में पहाड़ के ऊपर जंगलों में
घूम-घुूम कर पता लगाने और आक्रमण करने की चेष्टा कर रहे हैं। इस प्रकार के आक्रमणों, संघर्षों और युद्धों में प्रताप के कितने ही वर्ष बीत गये। लेकिन वह शत्रुओं से बराबर सुरक्षित बना रहा। चोंड नगर को घेर कर सेनापति फ़रीद खाँ ने प्रताप को पकड़ लेने की पूरी कोशिश की थी और इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रताप और उसके साथ के सैनिक तथा सरदार भीषण संकट में पड गये थे। परन्तु वह संकट फ़रीद खाँ के लिए स्वयं काल हो गया। पर्वत के ऊपर जिस छोटे-से जंगली मार्गो में फ़रीद खाँ ने प्रताप को घेर लिया था, उसमें मार्ग की परिस्थितियों से अनभिज्ञ होने के कारण बहुत संख्या में मुगल सैनिक मारे गये और प्रताप तथा उसके सरदार शत्रुओं को मार-काट कर निकल गये।
महाराणा प्रताप का टूटता हुआ साहस
इन संकट पूर्ण परिस्थितियों में एक-एक करके प्रताप के कितने ही वर्ष बीत गये। उसके जितने आश्रय स्थान बाकी रह गये थे, अब वें भी शत्रु के अधिकार में चले गये थे। जीवन के इन भयानक दिनों में अपने परिवार के कारण प्रताप की कठिनाइयाँ बहुत बढ़ गयी थीं और अन्त में परिवार ही उसकी चिता का कारण बन गया । कोई ऐसा स्थान उसके सामने न था, जहां पर वह अपने परिवार को रख सकता।न उसके खाने-पीने का ठिकाना था और न ठहरने का। महाराणा प्रताप की अनुपस्थिति में एक बार उसका परिवार शत्रुओं के हाथों में पड़ गया था। लेकिन बहादुर भीलों ने अपने प्राणों का मोह छोड़कर उसके परिवार की रक्षा की थी। कई-कई दिन बीत जाते थे लेकिन परिवार के बच्चों को रूखा-सूखा भोजन न मिलता था। बार-बार पहाड़ के हिंसक जन्तुओं का संकट पैदा होता था। कई-कई दिनों के भूखे प्यासे बच्चों को देखकर प्रताप प्राय: घबरा उठता और इसी प्रकार की परिस्थितियों में उसने अपना साहस तोड़ कर मुग़ल सम्राट अकबर के सामने श्रात्म- समर्पण करने का निश्चय किया।लेकिन बीकानेर के राजा रायसिह के भाई पृथ्वीराज के पत्र को पढ़कर उसका फिर स्वाभिमान जागृत हुआ। उसने अपने टूटते हुए साहस को सम्हाला और मुग़ल-सम्राट से फिर युद्ध करने का उसने निश्चय किया।
देबीर का युद्ध
भगवान स्वयं वीरात्माओं के संकल्प की रक्षा करता है। महाराणा प्रताप ने फिर एक बार अकबर के साथ युद्ध करने का निश्चय किया। उसने अपने सरदारों से परामर्श किया और अपनी सेना के राजपूतों को एकत्रित करके वह अरावली पहाड़ से उतर कर मरुभूमि के एक प्रदेश में पहुँचा। उस समय मेवाड़ राज्य के विश्वासी मन्त्री भामाशाह ने अपने साथ विपुल सम्पत्ति लाकर प्रताप को भेंट की। यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उसके द्वारा, पचीस हजार सेना का व्यय बारह वर्ष तक पूरा हो सकता था। उन्हीं दिनों में प्रताप पर फिर आक्रमण करने के लिए मुग़ल सेनापति शहवाज खाँ एक बड़ी सेना के साथ दिल्ली से रवाना हुआ था और वह॒ देबीर नामक स्थान में पड़ा था। प्रताप ने साहस के साथ फिर अपनी सेना का संगठन किया और देबीर में पहुँच कर मुगल सेना पर आक्रमरण किया। दोनों सेनाओं में भयानक युद्ध हुआ।राजपूतों ने मुग़ल सेना का भीषण संहार किया और सेनापति शहवाज खाँ स्वयं प्रताप के हाथों से मारा गया। बहुत थोड़े मुग़ल-सैनिक वहाँ से भाग कर अपने प्राण बचा सके।
महाराणा प्रताप की विजय
राणा प्रताप को गिरफ़्तार करने के लिए मुग़ल सेनाओं का चारों
ओर जाल फैला हुआ था। देबीर के युद्ध में जो मुग़ल सैनिक मैदान से से भागे थे, वे आमैत नामक स्थान को चले गये थे और वे वहाँ पहुँच कर उस मुग़ल-सेना में शामिल हो गये, जो कुछ समय से प्रताप की खोज में वहां पर पड़ी हुई थी। राणा प्रताप को उस मुग़ल-सेना के सम्बन्ध में मालूम हुआ। वह तुरन्त अपने राजपूतों के साथ रवाना हुआ और वहाँ पहुँच कर मुगल-सेना पर भयानक आक्रमण किया और सम्पूर्ण सेना का संहार कर डाला। वहा से भागकर एक भी मुग़ल-सैनिक कहीं जा न सका। महाराणा प्रताप के साथ लगातार मुग़ल-सेनाओं को पराजय के समाचार मुगल सम्राट को मिले। इसलिए प्रताप को परास्त करने के लिए जोरदार सेना की तैयारी की गयी। उन दिनों में प्रताप को कैद करने के लिए मुग़लों की एक बड़ी सेना अब्दुल्ला के नेतृत्व में कमलमेर में पहुँची। प्रताप उसके साथ युद्ध करने के लिए रवाना हुआ कमलमेर पहुँच कर उसकी राजपूत सेना ने मुग़ल-सेना के साथ भयानक युद्ध किया। अन्त में अब्दुल्ला मारा गया और मुग़ल-सेना के बहुत-से सैनिकों का संहार हुआ। जो बचे, वे किसी प्रकार भागकर अपने प्राणों की रक्षाकर सके। भामाशाह के पूर्वज प्राचीन काल से भेवाड़-राज्य के मन्त्री होते आये थे और भामाशाह भी उसी पद पर राज्य के अन्तिम दिनों तक रहा था। राज्य की स्वतन्त्रता के युद्ध में पूर्वजों की चिरसंचित समस्त
सम्पत्ति को अर्पण करके राज्य की सहायता करना उसने अपना कर्तव्य समझा था। उसकी दी हुई सम्पत्ति इन दिनों में राणा प्रताप की एक अटूट शक्ति बन गयी थी।
बहुत वर्षो से प्रताप और उसकी सेना के सैनिक तथा सरदार भयकर आर्थिक संकटों का सामना कर रहे थे। यदि प्रताप को इस प्रकार की सहायताएं पहले मिली होती तो उसने सम्राट अकबर के साथ युद्ध में कुछ दूसरे ही दृश्य उपस्थित होते। इस मिली हुई सम्पत्ति से प्रताप ने एक शक्तिशाली राजपूत सेना का संगठन कर लिया था। उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने की उसने पूरी व्यवस्था कर दी थी। उसके बाद महाराणा प्रताप ने लगातार मुग़ल सेनाओं को पराजित किया और एक-एक करके मुग़ल सम्राट के 32 किलों पर उसने अधिकार कर लिया। इन्हीं दिनों में प्रताप ने चित्तौड़, अजमेर और मण्डलगण को छोड़कर, मेवाड़ का सम्पूर्ण राज्य मुगलों से छीन लिया। जिन मानसिंह ने राणा का विनाश करने में कोई बात उठा न रखी थी, प्रताप ने उसी मानसिंह के अम्बेर राज्य पर आक्रमण किया
ओर उसके अनेक हरे-भरे स्थानों को मिट्टी में मिला दिया। मानसिंह के विद्वेष और हल्दीघाटी की हार का इस प्रकार बदला देकर प्रताप ने अपने हृदय में सन्तोष अनुभव किया और अन्त में उदयपुर पर भी उसने अधिकार कर लिया।
राजपूतों के गौरव का सूर्यास्त
महाराणा प्रताप का गौरव भारत के राजपुतों का अन्तिम गौरव था ।अपनी छिन्न-भिन्न और दुर्बल शक्तियों में उसने जिस प्रकार भीषण कठिनाइयों और असह्य विपदाओं को सहन कर सम्मान, स्वाभिमान और स्वाधीनता का युद्ध जारी रखा, उसे देखकर सम्राट अकबर ने सदा के लिए प्रताप के साथ युद्ध करना बन्द कर दिया। अकबर के अनेक गुणों में एक गुण यह भी था कि वह जातीयता के भेद-भाव को भूल कर स्वाभिमानी शूरवीरों का सत्कार करना जानता था। उसका यह गुण, उसके शौर्य और ऊँचे गौरव का प्रमाण देता है। जिन राजपूत राजाओं ने उसके सामने आत्म समर्पण किया था, उनकी अपेक्षा, उसके हृदय में महाराणा प्रताप के लिए अधिक सम्मान था। वह प्रायः महाराणा प्रताप की प्रशंसा किया करता था। सन् 1597 ईसवी में पचपन वर्ष की अवस्था में महाराणा प्रताप सिंह की मृत्यु हो गयी। मरने के समय उसके अन्त:करण में एक पीड़ा थी। वह जानता था कि मेरा पुत्र अमरसिह मेरे बाद, राजपुतों के गौरव की रक्षा न कर सकेगा। वह विलासी है और विलासी मनुष्य श्रात्म-सम्मान तथा स्वाभिमान का महत्व नहीं जानता। इस प्रकार हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की हार हुई थी लेकिन उसके साहस ने हल्दीघाटी की उस हार को भी बाद में अकबर को झुका कर जीत में बदल दिया।
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