हरिराव होलकर का जीवन परिचय हिन्दी में

महाराज हरिराव होलकर

इंदौर राज्य के महाराजा हरिराव होलकर का जन्म सन् 1795 में हुआ था। इनके पिताका नाम विठोजी राव होलकर था। इन्होंने सन् 1834 से सन् 1843 तक इंदौर राज्य के राज्य सिंहासन पर राज्य किया। इनके शासनकाल में इंदौर राज्य कोई उन्नति न कर सका। अपने इस लेख में हम इन्हीं महाराजा हरिराव होलकर के बारे में कुछ बातें जानेंगे।

इंदौर के महाराजा हरिराव होलकर का परिचय

महाराजा मल्हारराव द्वितीय को कोई पुत्र नहीं था। अतएव उनकी रानी साहिबा गौतमाबाई ने अपने पति की मृत्यु के कुछ समय पूर्व ही मार्तण्डराव होलकर को गोद ले लिया था। सन्‌ 1833 की 27 अक्टूबर को वे गद्दी-नशीन हुए। अंग्रेज सरकार ने भी इनकी गद्दी नशीनी मंजूर कर ली। पर इसके कुछ ही समय बाद महाराजा यशवन्तराव के भतीजे हरिराव उनके साथियों द्वारा महेश्वर के किले से मुक्त कर दिये गये। इन्हें स्वर्गीय महाराजा मल्हारराव ने कैद किया था। इनका राजगद्दी पर विशेष अधिकार था। इनके साथी इन्हें मंडलेश्वर में पोलिटिकल ऑफिसर के पास ले गये और वहाँ वे होल्कर राज्य की गद्दी के असली उत्तराधिकारी सिद्ध हुए।

राज्य की प्रजा और सिपाहियों ने भी मातेण्डराव का पक्ष त्याग कर हरिराव का पक्ष ग्रहण किया। स्वर्गीय महाराजा मल्हारराव द्वितीय की माता तथा पत्नी ने रेसिडेन्ट के आगे मार्तण्डराव के पक्ष का बहुत कुछ सर्मथन किया। पर उनकी एक न चली। अंग्रेज सरकार ने आखिर हरिराव ही को असली उत्तराधिकारी मान कर उन्हें होल्कर राज्य की गद्दी का स्वामी घोषित कर दिया।

सन्‌ 1834 की 17 अप्रैल को रेसिडेन्ट की उपस्थिति में हरिराव होलकर मसनद पर बिराजे। हरिराव ने रेवाजी फनसे को राज्य का दीवान मुकर्र किया। यह आदमी बहुत खराब चाल-चलन का था। इसे राज्य-शासन का कुछ भी अनुभव न था। इसकी नियुक्ति से राज्य में निराशा ओर असंतोष छा गया। राज्य की आमदनी घट कर 9 लाख रह गई । खर्च बढ़ कर 24 लाख तक पहुँच गया।

महाराज हरिराव होलकर
महाराज हरिराव होलकर

12 लाख केवल फौज के लिये खर्च होते थे। इससे राज्य में अशान्ति और अव्यवस्था का साम्राज्य छा गया। इस अव्यवस्था के कारण लोकमत हरिराव के विरुद्ध ओर मार्तण्डराव के पक्ष में होने लगा। तीन सौ मकरानी और राज्य की फौज के कुछ अफसर मार्तण्डराव से आ मिले। इन सबों ने मिल कर राजमहल को घेर लिया। इन्होंने स्वर्गीय महाराजा मल्हारराव की माता से सहायता के लिये प्रार्थना की। पर उस बुद्धिमती महिला ने इन्कार कर दिया।

आखिर ये सब लोग तितर-बितर कर दिये गये। इसी समय रेवाजी की बद अशुभ दीवानगिरी का भी अन्त हुआ। सन्‌ 1836 के नवम्बर में रेवाजी अपने पद से अलग कर दिये गये। इनके बाद भी राज्य की दशा खराब ही रही। पश्चात्‌ महाराजा हरिराव के भवानीदीन नामक एक मर्जीदान को दिवानगीरी का पद मिला। यह रेवाजी से भी खराब और अयोग्य था। यह भी उक्त पद से बर्ख्वास्त कर दिया गया। अब महाराजा हरिराव ने अपने हाथों से राज्य-व्यवस्था चलाने का निश्चय किया। पर उनकी तन्दुरुस्ती ने उनका साथ नहीं दिया। अतएव उन्हें बीच बीच में फिर दिवानों को नियुक्त करने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। उन्होंने राज-कार्य में सहायता देने के लिये राजाभाऊ फनसे को बुलाया। पर यह बड़ा शराबी था। इसने भी शासन-काय में अपनी अयोग्यता का परिचय दिया। इसके बाद नारायणराव पलशीकर इस कार्य के लिये बुलाया गया। पर सन्‌ 1837 के अक्टूबर में उक्त दीवान साहब का भी शरीरान्त हो गया। महाराजा हरिराव की तन्दुरुसती गिरती ही गई। राज्य-सम्बन्धी चिन्ताओं ने उनकी तन्दुरुसती को बड़ा धक्का पहुँचा था। आखिर सन्‌ 1843 की 24 अक्टूबर को उनका परलोक-वास हो गया।

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