15 लाख रुपया खर्च करके यदि कोई राष्ट्र एक ऐसे विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध कर सकता है जो कल वॉट डेवी या फैराडे जैसा वैज्ञानिक हो सकता है तो ऐसा सौदा एक मिट्टी के मोल का सौदा ही होगा। इन शब्दों में टामस हक्सले ने जो स्वयं भी एक माना हुआ ब्रिटिश वैज्ञानिक था, सन् 1900 में सरकार से अपील की थी कि वह वैज्ञानिकों के प्रशिक्षणार्थ कुछ वार्षिक अनुदान निश्चित कर दे। हम्फ्री डेवी विद्युत-रसायन में अपनी खोजों के लिए प्रसिद्ध है, और कितने ही उद्योग आज उसी के कारण स्थापित भी हैं जिन पर अरबों रुपया वार्षिक खर्च आता है। सचमुच– 15 लाख में एक हम्फ्री डेवी! बहुत ही सस्ता सौदा है।
यह एक अद्भुत संयोग ही है कि हम्फ्री डेवी और उसका प्रिय शिष्य फैराडे, दोनों एक ही साथ इंग्लैंड में काउंट रूमफोर्ड द्वारा स्थापित रॉयल इन्स्टीट्यूट में काम करते थे। रॉयल इन्स्टीट्यूट के उद्देश्यों में एक यह भी था कि युवक वैज्ञानिकों के शिक्षण प्रशिक्षण का कुछ प्रबन्ध होना चाहिए। आज भी रॉयल इन्स्टीट्यूट
वैज्ञानिकों के लिए अवसर जुटाता है, और क्रिसमस की छुट्टियों में हर साल बच्चों में विज्ञान के प्रति रूचि उत्पन्न करने के लिए व्याख्यान मालाएं आयोजित करता है।
हम्फ्री डेवी का जीवन परिचय
हम्फ्री डेवी का जन्म 1778 के दिसम्बर महीने में एक गरीब नक्काश के घरब्रिटेन के एक समुद्र तटीय नगर में हुआ। डेवी की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा पेन्जान्स के तथा पड़ोस में ट्रूरो के स्कूलों में ही हुई। बालक की विज्ञान में कोई अभिरुचि नहीं थी। प्राथमिक शिक्षा समाप्त करके हम्फ्री एक औषध-निर्माता के यहां एप्रेंटिस लग गया। किन्तु इस पनसारी के एक खासा निजी पुस्तकालय था, और डेवी फालतू समय में इसका खूब इस्तेमाल करने लगा।
हर विषय पर डेवी ने खूब पढा। विलियम निकोलसन के परीक्षणो के बारे मे भी, कि किस प्रकार बिजली के जरिये उसने पानी को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विभक्त कर दिखाया था, और प्रसिद्ध फ्रांसीसी रसायन शास्त्री लैवॉयज़िए के बारे में भी। और इस अध्ययन के परिणाम स्वरूप रसायन विज्ञान को डेवी ने अपने जीवन का ध्येय निश्चित कर लिया। परीक्षण करते-करते वह प्रसिद्ध इंजीनियर वाट के पुत्र वाट-जूनियर के सम्पर्क में आया, और वाट ने उसका परिचय रॉयल सोसाइटी के अध्यक्ष डाक्टर गिल्बर्ट से करा दिया । गिल्बर्ट ने डेवी की प्रतिभा से प्रभावित होकर हाल ही में स्थापित मेडिकल न्यूमेटिक इन्स्टीट्यूशन के संस्थापक से उसकी सिफारिश की। इस वैज्ञानिक संस्था की स्थापना विविध गैसों की चिकित्सा शास्त्रीय उपयोगिताओं के अनुसंधान के लिए हुई थी। बीस बरस का होते-होते डेवी इस संस्था का अध्यक्ष बन चुका था।

1799 के अप्रैल में इसी फूहड, बदसूरत नौजवान ने, जिसने विज्ञान में कोई नियमित शिक्षा कही नही पाई थी, एक ऐसी खोज कर दिखाई कि वह रातों-रात इंग्लैंड भर में मशहुर हो गया। कुछ नाइट्रस आक्साइड बनाकर उसे, सूंघ ही नही, पी गया और एक अजीब ही दुनिया में पहुच गया। खुशी का ठिकाना नही, पी के मस्त किन्तु इन दोनों चीजों से भी बढकर यह कि उसे अब जिस्म में कही कुछ दर्द महसूस न हो। लेकिन 1844 से पहले नाइट्रस आक्साइड का प्रयोग चिकित्सकों ने नही किया। एक अमेरीकी दांतों के डाक्टर ने ही पहली बार अपना एक दांत निकलवाते हुए इसका इस्तेमाल किया था। डेवी पर जो असर इसका हुआ हिस्टीरिया के मरीज की भांति अकारण ही हसने लग जाना, और अकारण ही रोने लग जाना, उससे नाइट्रस आक्साइड का नाम ही जन-साधारण में हंसाने वाली गैस पड गया।
काउंट रूमफोर्ड खुद अमेरीकी था, और वह उन दिनों लन्दन में रॉयल इंस्टीट्यूशन की स्थापना में लगा हुआ था। उसने डेवी को रसायन शास्त्र के सम्बन्ध में कुछ व्याख्यान देने को कहा। इतना लोकप्रिय व्याख्याता तब तक इन्स्टीट्यूशन को सुनने को नही मिला था। किन्तु नियमित रूप से विज्ञान में कुछ भी शिक्षा-दीक्षा उसने पाई न थी, कोई बात नही, फिर भी उसे पूरे मान और अधिकारों सहित ही प्रोफेसर नियुक्त कर दिया गया। चमडा कमाने के आधारभूत रासायनिक सिद्धान्तो पर उसकी व्याख्यान माला इतनी सफल सिद्ध हुई कि रॉयल इन्स्टीट्यूशन के बोर्ड ऑफ एग्रिकल्चर ने उससे प्रार्थना की कि वह कृषि की समस्याओं पर ही अपनी बुद्धि एक बारगी लगा दे।
परिणामत: अगले दस साल उसके व्याख्यानों का एकमात्र विषय कृषि-सम्बन्धी रसायन ही रहा जिसका नतीजा यह हुआ कि रासायनिक खादों में कितनी ही तरक्की खेतीबाडी में इस तरह अनायास ही सिद्ध हो गई। क्रिसमस सप्ताह में बच्चो के लिए
सालाना विज्ञान-परक व्याख्यानों की प्रसिद्ध योजना का प्रवर्तन भी डेवी ने ही किया था। विद्युत द्वारा पानी का द्वि-भाजन तो निकोलसन और उसके साथी कर चुके थे, किन्तु विद्युत-रसायन का एक नियमित वैज्ञानिक प्रक्रिया के रूप में प्रयोग डेवी की बदौलत ही क्रियात्मक विज्ञान का अंग बन सका है। थोडे से ही सालो में उसने जो परीक्षण किए वही उसका स्थान महान वैज्ञानिकों मे मूर्धन्य स्थिर कर देने के लिए पर्याप्त है।
हम्फ्री डेवी ने गीले सोडियम हाइड्रॉक्साइड (आम बोलचाल में इसका नाम हैं कास्टिक सोडा अथवा लाई) के एक टुकड़े को प्लेटिनम कप में रखा। अब उसने एक बडे विद्युत सेल के एक सिरे को तो कप के साथ लगा दिया और दूसरे को सोडियम हाइड्रॉक्साइड से स्पर्श कर रहे प्लेटिनम तार के साथ। सोडियम हाइड्रॉक्साइड पिघल गया। डेवी स्पष्ट देख सकता था कि किस प्रकार पिघलती धातु के बुलबुले उठ-उठकर ऊपर की ओर आ रहे हैं और वहां पहुंचकर एकदम उड़ जाते है। आज भी सोडियम का निर्माण एक विद्युत-विधि के द्वारा ही किया जाता है, किन्तु अब उसे सोडियम क्लोराइड से अलग करके निकाला जाता है। सोडियम में चांदी की सी सफेद चमक होती है किन्तु एक-दो मिनट ही हवा में खुला पडा रहने पर वह काला पडने लगता है। और यह इतना मुलायम होता है और इतना हलका कि उठकर पानी पर तैरने लगेगा। सोडियम को तल में दबाकर सुरक्षित करना पडता है, वरना हवा की नमी में मिल जाने से इससे कुछ भयंकर रासायनिक प्रतिक्रिया उत्पन्न होने की संभावना रहती है। हाई टेस्ट गैसोलीन के लिए इथाइल द्रव के निर्माण में भी यह उपयोगी होता है। कुछ राजमार्गों पर प्रकाश की व्यवस्था पीले रंग के लेम्पों द्वारा की जाती है, इन लैम्पों में भी सोडियम के वाष्प ही भरे होते हैं।
हम्फ्री डेवी ने विद्युत-रसायन की वही प्रक्रिया पोटेशियम को तत्त्ववत पृथक करने में प्रयुक्त की। सच तो यह हैं कि किसी भी रसायनविद ने इतने अधिक भौतिक तत्त्व मुर्तरूप मे पृथक निर्धारित नही किए जितने डेवी ने। उसी विद्युत-रसायन विधि का प्रयोग उसने सोडियम, पोटेशियम, मेग्नीशियम, स्ट्रोनियम, कैल्सियम, क्लोरियम, और वेरियम को पृथक करने में भी किया। लेकिन एल्यूमीनियम को रसायनशाला में उत्पन्न कर सकने में उसे सफलता नही मिली डेवी की ही प्रवर्तित विधि का प्रयोग करते हुए चार्ल्स मार्टिन हॉल ने कही 1886 में एल्यूमीनियम को एल्यूमीनियम ऑक्साइड से विद्युत विश्लेषण द्वारा पृथक किया था।
सोडियम तया पोटेशियम की खोज के लिए सम्राट नेपोलियन ने हम्फ्री डेवी को फ्रेंच इन्स्टीट्यूट का मेडल उपहार में दिया, हालांकि उन दिनों फ्रांस और इग्लैंड में लडाई ठनी हुई थी। यह पदक वैज्ञानिक शिरोमणि को पेरिस में पूर्ण समारोह के साथ ही प्रदान किया गया। डेवी की उम्र उस वक्त केवल 30 वर्ष की थी। विद्युत रसायन में अपने इन्ही परीक्षणों के परतर परिणामस्वरूप डेवी ने आर्क लाइट का आविष्कार किया जिसका मृत प्रदर्शन उसने रॉयल इन्स्टीट्यूशन के सम्मुख 1809 में कर दिखाया। कोयले के दो टुकडों को उसने अपनी भारी बैटरी के सिरों से जोड़ दिया। और दोनो को अब उसमे मिला दिया, और मिलाए रखा कि वे एक अगार-बिन्दु बतकर चमकने लगे। और तब उसने दोनों को अलग करना शुरू किया और लो, दोनो के बीच मे एक चमकती हुई ‘चाप-दीप’ सी उठ आईं। तब तक मनृष्य-निर्मित इतनी भास्वर ज्योति किसी ने नहीं देखीं थी। किन्तु अभी विज्ञान और उद्योग की दुनिया इस तरह की रोशनी को घर-घर पहुंचाने, आम कर सकने की स्थिति में नहीं थी। आर्क लैम्पों को जब तक चाहें प्रज्वलित देदीप्यमान रखने के लिए इलेक्ट्रिक जेनरेटर भी तो अभी तक ईजाद नहीं हुए थे। बरसों बाद भी तो कार्ब की इस आर्क-लाइट का प्रयोग प्रकाश के लिए कुछ विशेष अवसरों पर ही–मिलिट्री सर्च-लाइटों में, चल-चित्रों के प्रोजेक्टरों में, और सड़कों की रोशनी के लिए सुलभ हो सका।
सन् 1812 में 21 साल का एक नौजवानमाइकल फैराडे हाथ में कागज़ों का एक पुलिन्दा लिए डेवी के दरवाज़े पर दस्तक देने आया। इन कागज़ों पर हम्फ्री डेवी के कुछ लैक्चरों के नोट्स लिए हुए थे, कभी-कभी फैराडे भी उन्हें सुनने आ जाता था। डेवी ने इस नौजवान को अपने साथ काम करने के लिए भाड़े पर रख लिया। और यह भी आगे चल कर विज्ञान का एक और दिग्गज बन गया। उस वर्ष बादशाह ने हम्फ्री डेवी को नाइट का खिताब दे दिया। और उससे अगले साल उसने एक सम्पन्न विधवा के साथ शादी कर ली। डेवी नई बहू और सेक्रेटरी फैराडे अब दुनिया की वैज्ञानिक राजधानियों की यात्रा करने निकल पड़े। पेरिस में उसे फ्रेंच इन्स्टीयूट का सदस्य मनोनीत कर लिया गया। जेनोवा (इटली) में डेवी ने टार्पीडों मछली द्वारा उत्पादित विद्युत की परीक्षा की। इटली के ही फ्लोरिन्स शहर में उसने अपनी विद्युत-चाप का प्रयोग हीरे को जलाने के लिए किया। यह सिद्ध करने के लिए कि हीरा भी तो आखिर शुद्ध कार्बन ही है। स्वीडन में यह रसायनविद वेर्जीलियस से मिला और दोनों में क्लोरीन के सम्बन्ध में कुछ विवेचन भी हुआ।
हम्फ्री डेवी का कहना था कि क्लोरीन एक तत्व है, यौगिक नहीं, जैसा कि उन दिनों आम तौर पर यह समझा जाता था। वेर्जीलियस का विचार भी अब तक यही था कि क्लोरीन एक यौगिक ही है किन्तु कुछ ही क्षणों मे उसे विश्वास हो गया कि डेवी ही ठीक है। किन्तु डेवी का शऊर वेर्जीलियस को जरा नही जंचा, एकदम उजड्ड और गर्व का पुतला। वेर्जीलियस एक नाजुक मिजाज वैज्ञानिक था, दोनो मे बनती कैसे ? डेवी ने अन्त में जर्मनी का एक दौरा किया, और उसकी यह यात्रा समाप्त हो गई।
1915 में इंग्लैंड वापस लौटने पर उसके सम्मुख एक नई समस्या पेश की गई। न्यूकैसल की कोयले की खानो से बडे धमाकों और तबाहियों की शिकायते सुनने में आई, और सब उन खानो में काम करने वालो के लैम्पों की वजह से। लेम्प क्या थे–खुली टार्चे, सो आग लग जाना या कुछ फट जाना आए दिन की घटनाएं हो गई थी। प्रश्न यह था कि एक ऐसा लैम्प ईजाद किया जाए जिससे ये धमाके नामुमकिन हो जाए। यह सब बिजली के लैंपों से पहले की बाते हैं।
हम्फ्री डेवी ने जो समाधान प्रस्तुत किया वह जहां बुद्धिमत्तापूर्ण था, वही उतना ही सरल भी था। उसने और कुछ नही किया, फकत एक लोहे की जाली लैप की लपट के गिर्दे टिका दी। विस्फोटक गैसे अब जाली के अन्दर नहीं पहुच सकती थी, और न लपट की गरमी के संपर्क में आ सकती थी। उधर जाली खुद इतनी गरम किसी भी हालत में नही हो पाती थी कि इन गैसों मे धमाका ला सके। कुछ गैस अगर जाली में से अन्दर पहुच भी जाए तो वही अन्दर ही जलकर खत्म हो जाए। अब खानो मे लैप सुरक्षित हो गए और वहा की दुर्घटनाओं की संभावना बहुत ही कम रह गई। डेवी ने इस नई ईजाद के लिए कोई पेटेंट नही कराया, उलटे बगैर एक भी पैसा लिए उसे खान मे काम करने वालो को ही दे दिया। किन्तु खानों के मालिक कृतज्ञता प्रकाशित कैसे न करते ? उन्होंने एक पूरा का पूरा चांदी का डिनर सर्विस सेट डेवी को भेंट में दिया। मरने के बाद उसकी वसीयत में अभिव्यक्त इच्छा के अनुसार सेट को पिघलाकर बेच दिया गया जिसकी वसूली से हर साल यूरोप और अमेरीका में रसायनशास्त्र
की सबसे बडी खोज पर एक डेवी मेडल देने की व्यवस्था की जाती है।
सन् 1818 मे डेवी को बेरोनेट बना दिया गया, और उसके दो साल बाद रॉयल सोसाइटी का प्रेसिडेंट भी चुन लिया गया। वह सनकी मिजाज का वैज्ञानिक था, अध्यक्ष पद पर उसे उतनी सफलता नही मिली। शालीनता न उसकी रग मे थी न शिक्षा-दीक्षा मे, हुआ यह कि सोसाइटी के सदस्य उससे तंग आने लगे और अंतत दुश्मन बनते गए। हम्फ्री डेवी कभी-कभी कुछ कविता भी कर लेता था। सौकिया तौर पर। सेमुएल टेलर कॉलरिज जो कि डेवी का एक समकालीन था और ‘राइम आफ द एन्शेंट मैरिनर’ का कवि था, डेवी के बारे मे कहता है, “भाग्य से यदि अपने युग का वह प्रथम रसायन शास्त्री न होता, तो अवश्य हमारा ही अन्यतम कवि होता।
हम्फ्री डेवी की मृत्यु 1826 मे 50 साल की आयु में हुई, और 50 भी कोई आयु होती है ” एक गरीब लडका था जिसे कुछ भी नियमित शिक्षा हासिल नही हुई थी किन्तु इग्लैंड का बेरोनेट बनकर ही वह मरा। उसका जीवन एक वाक्य मे—खान मे काम करने वालो के अधिरक्षक का, छ भौतिक तत्त्वों के आविष्कार का, और इलेक्ट्रो-कैमिस्ट्री के जनक का जीवन है।