हमीरपुर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक प्रमुख जिला है।
हमीरपुर जिले की कृत्रिम एवं सुनिश्चित ऐतिहासिक सामग्री सहज उपलब्ध नहीं है। किन्तु प्रचलित रीति रिवाजों एंव प्राचीन अभिलेखों आदि के आधार पर ही कुछ ऐतिहासिक तत्व प्राप्त होते हैं। प्राचीन काल में हमीरपुर जिले में अधिकाश जंगल थे तथा यहां कोल भील और गोंड निवास करते थे। ईसा की प्रथम तीन शताब्दियों में यहां गुप्त वंश का शासन रहा। हमीरपुर का प्रथम ऐतिहासिक उल्लेख चीनी यात्री ह्वेनसांग का है, जो यहां सातवीं शताब्दी में आया था। उसने यहां सन् 641 या 42 में यात्रा की थी।
हमीरपुर का इतिहास
उस समय बुन्देलखण्ड का नाम जैजाक भूवित था। ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा के दौरान लिखा कि हमीरपुर की भूमि उपजाऊ है, फसल अच्छी होती है, मुख्य उपज गेहूँ तथा दाले हैं, बौद्ध धर्म के मानने वाले कम हैं। यहां का राजा एक ब्राम्हण है, जो कि बौद्ध धर्म पर विश्वास रखता है। हमीरपुर का ब्राह्मण शासक संभवतः हर्षवर्धन के अधीन थे, जिसकी राजधानी थानेश्वर थी।
चन्देलों के पूर्व महोबा गहरवार राजपूतों के अधिकार में बताया जाता है। ऐसा लगता है कि यह क्षेत्र हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद गहरवारों के हाथ लाग। गहरवारों ने यहां बड़े बड़े तालाब बनवाएं। बीजानगर, कण्डोराताल, जो थाना पसवारा के पास है, कण्डौर सिंह के द्वारा बनवाया हुआ है। जो कि गहरवार राजाओं का एक अधिकारी था। इसके अतिरिक्त 8-9 तालाब हमीरपुर जिले में गहरवारों के द्वारा बनवाए हुए हैं।
गहरवारों के बाद यहां पर परिहारों का राज्य रहा, जिन्हें संवत 677 में प्रथम चंदेल सरदार चंद्रवर्मा ने परास्त किया। बिलहरी में लक्ष्मण सागर नामक तालाब लक्ष्मण सेन परिहार द्वारा बनवाया हुआ बताया जाता है। पनवाड़ी का पुराना नाम परिहारपुर था। जिसे सन् 903 में परिहार राजपूतों ने बसाया था। इसी तरह जैतपुर के निकट ग्राम मुदारी सन् 1080 में राजा उदयकरन परिहार द्वारा बसाया गया था।
इब्नबतूता तथा अलबैरूनी जिसने अपना लेखन कार्य सन् 1031 में पूरा किया था, के समय भी बुंदेलखंड जिझौती कहलाता था। और इसकी राजधानी उस समय खुजराहों थी। इस समय तक चंदेल शासन सत्ता सशक्त हो गई थी। चंदेलों का वंश चंद्रब्रह्म से प्रारंभ हुआ, जिसने काशी को जीता तथा महोबा और कालिंजर नगर बसाए। महोबा में चंद्रब्रह्म के उत्तराधिकारियों ने 20 पीढ़ियों तक राज्य किया। अंतिम शासक परमाल को पृथ्वीराज चौहान ने पराजित किया।

सन् 648 में हर्षवर्धन की मृत्यु के उपरान्त 9वी शताब्दी में यहां के सर्वाधिक सशक्त शासक के रूप में छा गये। महोबा के दक्षिण में तीन मील की दूरी पर रहेलिया ग्राम में एक तालाब है, जो राहिल नाम के एक चंदेल राजा द्वारा बनवाया हुआ है। जाहिल का अभिषेक काल 900 ईस्वी के लगभग था। महमूद गजनवी ने भारत पर अनेक बार आक्रमण किए। उसने सन् 1008 या 9 में जो आक्रमण भारत पर किया था। उसके विरोध में कालिंजर का राजा भी लड़ा था। उस समय कालिंजर का राजा गैंडा था, जो बाद में महमूद गजनवी द्वारा पराजित हुआ।
हमीरपुर हिस्ट्री इन हिन्दी
महोबा में कीरत सागर कीर्ति वर्मा चंदेल का बनवाया हुआ है। तथा मदन सागर मदनवर्मा का बनवाया हुआ बताया जाता है। ऐसी जनश्रुति है कि चंदेलों के अधिकार में आठ किले थे। कालिंजर, अजयगढ़, मनियागढ़, मड़फा, बारीगढ़, मौदहा, गढ़ा और मेहर। कुछ लोग मेहर के बदलें कालपी मानते हैं। मदनवर्मा का उत्तराधिकारी पर्मादि या परमाल हुआ। आल्हा ऊदल इसी के सेनापति थे। परमाल की पराजय सन् 1182 में हुई। इस पराजय के बाद चंदेल महोबा से कालिंजर चले गए और उसी को अपनी राजधानी बनाया। सन् 1202 ईस्वी में परमाल पर शहाबुद्दीन गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने आक्रमण किया। उसके आगे परमाल को समर्पण करना पड़ा। यह घटना सन् 1203 में हुई। और इसी समय से उत्तर भारत के सर्वाधिक सशक्त चंदेल शासन की समाप्ति हुई। चंदेल वंश में अंतिम स्मृति विरांगना के रूप में रानी दुर्गावती की है। जो अकबर नामा के लेखक अबुल फजल के अनुसार राठ के चंदेल राजा शालिवाहन की बेटी थी। दुर्गावती अकबर के सरदार आसफ खां से लड़ती हुई सन् 1564 में मारी गई।
तेरहवीं शताब्दी से सोहलवी शताब्दी तक हमीरपुर जिले का इतिहास लगभग शून्य ही रहा। तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी में महोबा और गढ़कुंडार के बीच के क्षेत्र में खंगारों का राज्य रहा है। यह राज्य 1340 ईस्वी के लगभग सोहनपाल बुंदेला द्वारा समाप्त किया गया। चौदहवीं शताब्दी के मध्य काल में ही हमीरपुर जिले में मौहार, बैंस तथा गौर राजपूतों तथा लोधियों का प्रवेश हुआ। हमीरपुर तथा सुमेरपुर परगने में चंदेलों के कोई चिन्ह नहीं मिलते हैं। जो इस बात के सूचक हैं कि यह क्षेत्र संभवतः चंदेल काल में जंगलों से आच्छादित रहा होगा।
अकबर के शासन काल में हमीरपुर जिला दो सूबों में बंटा हुआ था। उस समय आज के महोबा, मुस्करा, मौदहा, सुमेरपुर और चरखारी संभवतः तीन महालो में बंटे हुए थे। मौदहा, खंडेला तथा महोबा। ये कालिंजर तथा इलाहाबाद सूबे के अंतर्गत थे। हमीरपुर जिले का शेष भाग राठ, खंडोत, खरेला तथा हमीरपुर महालो में बंटा हुआ था। ये महाल कालपी सरकार तथा सूबा आगरा से संबंधित थे। कालपी तथा कालिंजर सरकार के बीच की सीमा इस जिले में मोटे तौर पर वर्मा नदी थी। मुग़ल काल में सबसे बड़ा महाल (सबडिवीजन) राठ था। इस मसाले में कुलपहाड़ तहसील का भी बड़ा हिस्सा सम्मिलित था। इसका क्षेत्र 510910 बीघा तथा मालगुजारी 9270894 दाम थी। यह महाल शाही फौज के लिए 3000 पैदल, 70 घोड़े तथा 9 हाथी देता था। उस समय हमीरपुर जिला अच्छी उपज और जनसंख्या का क्षेत्र रहा होगा। राठ के बाद हमीरपुर महाल आता था। उन दिनों बांदा एक साधारण गांव था।
इसके बाद हमीरपुर जिले में छत्रसाल का राज्य शासन हुआ। छत्रसाल बड़ा ही पराक्रमी और कुशल शासक तथा वीर पुरुष था छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौस, वाली पंक्तियों में वास्तव में उनकी विरता का अद्वितीय प्रमाण मिलता है। 13 भी 1781 को मौदहा के निकट दलेर खां और छत्रसाल का युद्ध हुआ। जिसमें छत्रसाल विजय हुआ और दलेर खां मारा गया। इसके बाद जैतपुर के आसपास मुहम्मद खां बंगस से भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें हताश होकर छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा को सहायता के लिए पत्र लिखा था। पेशवा की सहायता से छत्रसाल की विजय हुई। इस सहायता के उपलक्ष्य में छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा का अपने राज्य का एक तिहाई हिस्सा दिया था। पेशवा को दिए गए क्षेत्र में कालपी, हाटा, सागर, झांसी, सिरौज, गुना, गढ़ाकोटा, हरदीनगर तथा महोबा सम्मिलित थे। इनकी वार्षिक आय 31 लाख रुपए थी। शेष राज्य दो भागों में बांट कर छत्रसाल के पुत्र ह्रदयशाह तथा जगतराज को दिया गया। हमीरपुर जिले का अधिकांश भाग जगतराज के अधिकार में रहा और यह सम्पूर्ण भाग जैतपुर राज्य कहलाता था।
जैतपुर राज्य में बांदा अजयगढ़ तथा चरखारी के हिस्से सम्मिलित थे। जगतराज की मृत्यु 27 वर्ष राज्य करने के उपरांत 1758 में हुई। जगतराज के पश्चात उनके वंश में संघर्ष प्रारंभ हुआ। जगतराज के सबसे बड़े पुत्र का नाम कीरत सिंह था। कीरत सिंह के दो पुत्र थे। सुमान सिंह तथा गुमान सिंह। जगतराज के दूसरे पुत्र का नाम पहाड़ सिंह था। राज्य के लिए पहाड़ सिंह तथा उनके भतिजो में युद्ध हुआ। कीरत सिंह जगतराज के सामने ही मर चुके थे। अंत में समझौता होने पर गुमान सिंह को बांदा का राज्य दिया गया और खुमान सिंह को चरखारी का। पहाड सिंह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र गजसिंह जैतपुर का राजा बना। पहाड़ सिंह के दूसरे पुत्र मानसिंह को सरीला की जागीर मिली। इस प्रकार परगना महोबा को छोड़कर पुरा हमीरपुर जिला बुंदेलो के अधिकार में रहा। बुंदेलो के जमाने में पूरा राज्य छोटे छोटे परगनो में बंटा हुआ था। हमीरपुर जिले में ये परगने पनवाड़ी, जैतपुर, जलालपुर, खरका, मुस्करा, मटौंध और सुमेरपुर थे। प्रत्येक परगने के मुख्यवास पर किले थे।
31 दिसंबर 1802 को बसीन की संधि हुई। जिसमें पेशवा अपने राज्य की व्यवस्था के लिए अंग्रेजी फौजें रखने को तैयार हो गया। इस जिले में हिम्मत बहादुर अनूपगिर गुसाईं को अंग्रेजों का साथ देने के उपलक्ष्य में एक जागीर मिली। जिसमें पनवाड़ी, राठ मौदहा और सुमेरपुर के परगने सम्मिलित थे। सन् 1842 में जब अंग्रेजों का अफगानों के साथ युद्ध हुआ था। जैतपुर में राजा परिक्षित ने अंग्रेजों से विद्रोह किया। किंतु चरखारी नरेश रतनसिंह के विश्वास घात के कारण वे पराजित हुए और अंग्रेजों ने उन्हें जोरन के जंगलों में गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद उन्हें कानपुर लेजाकर हातासवाई सिंह पर रखा गया। जैतपुर राज्य वहां के दीवान खेतसिंह को दिया गया। परिक्षत की मृत्यु कानपुर में ही हुई। उसकी विधवा रानी को अंग्रेजों की ओर से 1200 रूपए मासिक पेंशन मिलती थी। सन् 1857 में रानी ने भी विद्रोह किया। रानी के साथ जैतपुर के पड़ोस के कुछ जमींदार तथा देशपत नाम का एक सहासी युवक था। अंग्रेजों ने उन्हें दबाने के लिए चरखारी की सेना भेजी। आठ दिन के छुटपुट युद्ध के बाद रानी को पराजित होना पड़ा। और उन्होंने टिहरी में जाकर शरण ली।
सब्दल दऊवा नाम के एक सरदार ने सन् 1857 में क्रांतिकारियों का साथ दिया था जो की चरखारी का था। इसे चरखारी नरेश ने अंग्रेजों के प्रति अपनी स्वामी भक्ति दिखाने के लिए मृत्यु दंड दे दिया था। हमीरपुर और रमेडी में भी कुछ जमींदारों तथा देशी सिपाहियों ने अंग्रेजों का विरोध किया और उनको मार डाला था। सन् 1858 में जनवरी के अंत में तात्या टोपे ने 900 सैनिक 200 घुड़सवार तथा 4 तोपें लेकर चरखारी पर आक्रमण किया। जहां उसकी सहायता देशपत दौलत सिंह तथा बानपुर और शाहगढ़ के राजाओं ने की थी। ठीक ग्यारह दिन के भयंकर युद्ध के बाद चरखारी पर तात्या टोपे का अधिकार हो गया था। जहां उसे 24 तोपें और तीन लाख रुपए मिले थे।
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