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हजरत निजामुद्दीन दरगाह

हजरत निजामुद्दीन दरगाह – हजरत निजामुद्दीन औलिया दरगाह का उर्स

भारत शुरू ही से सूफी, संतों, ऋषियों और दरवेशों का देश रहा है। इन साधु संतों ने धर्म के कट्टरपन से हट कर मानवता और भाईचारे और हर संप्रदाय को एक दूसरे के साथ अमन से जिंदा रहने का प्रचार किया। ख्वाजा हजरत निजामुद्दीन भारत के एक ऐसे ही प्रसिद्ध सूफी थे जिन्होंने बादशाहों के बदले गरीबों को सदा पसंद किया। और दुनिया के ऐश और आराम त्याग कर सादगी से जीवन व्यतीत किया। हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाहदिल्ली के निजामुद्दीन में स्थित है।

हजरत निजामुद्दीन दरगाह की जानकारी हिन्दी में

ख्वाजा निजामुद्दीन का पैदाइशी नाम सैय्यद मोहम्मद था। आपका हजरत मुहम्मद (सल्लाहो अलैहे व सल्‍लम) के वंश से संबंध था। आप के पिता, नाना, दादा सभी फकीर थे। आप का जन्म 238 ई. में गुलाम वंश के शासन काल में बदायूं में हुआ था। आप के वंशज अरब से बुख़ारा होते हुए भारत में आए थे। दिल्ली नगर को बाइस ख्वाजाओं का चौखट कहा जाता है। आप को “सुल्तानुल औलिया” अर्थात ‘वलियों का राजा” कहा जाता है। इसलिए कुछ लोग आप की दरगाह के क्षेत्र को सुल्तानजी भी कहते हैं, वैसे इस बस्ती को ग्यासुद्दीन तुगलक ने बसाया था, इसलिए उसका पुराना नाम “ग्यासपुरा” है।

ख्वाजा निजामुद्दीन, बादशाह नसीरूद्दीन के काल में ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए दिल्‍ली आ गए थे। आप अधिकतर पैबंद लगे हुए कपड़े पहनते थे और बारह महीने रोज़े रखते थे। एक बार उनकी बहन ने अपने पति की पगड़ी में से कपड़ा काट कर ख्वाजा निजामुद्दीन के कपड़ों में पैबंद लगाया था। आप अपनी खानकाह में हर छोटे-बड़े, हिन्दू-मुसलमान, गरीब, अमीर सभी से हर समय मिलते थे। आप बदनाम और बुरे लोगों को भी अपना मुरीद कर लिया करते थे। इस आशा पर कि शायद उनके उपदेश से बुराई करने वाले अच्छे रास्ते पर आ जाए।

हजरत निजामुद्दीन दरगाह
हजरत निजामुद्दीन दरगाह

हजरत निजामुद्दीन के खानकाह में हर समय लंगर जारी रहता था। चूंकि हजरत सामान एकत्र करने के खिलाफ थे, इसलिए खानकाह में मुरीदों का दिया हुआ जो भी मौजूद होता, शुक्रवार के दिन सब बांट दिया करते थे। आप का खानकाह हमायूं के मकबरे के पास चिल्ला के स्थान पर स्थित है। हजरत निजामुद्दीन देश के जनता के बीच इतने लोकप्रिय हो गए थे कि उनसे अधिकतर बादशाह भयभीत रहते थे। आप घमंडी बादशाहों से मिलना पसंद न करते थे और न उनसे किसी प्रकार की सहायता लेना चाहते थे।

एक बार बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने हजरत निजामुद्दीन से मिलने का प्रयास किया, लेकिन आपने मना कर दिया। उस जमाने के प्रसिद्ध सूफी कवि अमीर खुसरो, ख्वाजा के प्रिय शिष्य थे। अमीर खुसरो ने राग अविष्कार किए थे। जब ख्वाजा निजामुद्दीन के सगे भांजे का निधन हुआ तो उनको बहुत सदमा पहुंचा। यहां तक कि छः महीने तक खानकाह (फकीरों को रहने की जगह) में बंद होकर इबादत करते रहे। अमीर खुसरो तक से मिलना छोड़ दिया। एक दिन हिंदू लोग कालका जी मंदिर, सरसों के फूल चढ़ाने जा रहे थे। तो हजरत अमीर खुसरो ने सरसों के फूल उठा लिए, पीले कपड़े पहने और ढोलक लेकर खानकाह के दरवाजे पर राग वसंती का गीत गाने लगे। ख्वाज़ा ने पूछा “क्या बात है?” जवाब दिया कि “आज के दिन हिंदू अपने पिया को मनाने जा रहे हैं, मैं भी अपने प्यारे को मनाने आया हूं।” ख्वाजा यह सुन कर ‘मुस्करा” पड़े। उस दिन से दिल्ली के मुसलमान भी वसंत मनाने लगे।

पहले खानकाह में वसंत का मेला लगता था, फिर सारे नगर पर वसंत छा जाती थी। आप 324 ई. में रबी औव्वल महीने की सत्तरह तारीख को इस दुनिया से गुजर गए। साल इसी तारीख को हजरत निजामुद्दीन का उर्स मनाया जाता है। आप को कव्वाली सुनने का बहुत शौक था, इसलिए इस अवसर पर उर्दू, फारसी, पंजाबी और अवधी भाषा की कव्वालियां खूब होती हैं। आप सूफियों के चिश्तीया पंथ से संबंध रखते थे। आप के मजार पर हिन्दू-मुसलमान श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है और लोग दूसरे देशों से भी मिन्‍नत मानने यहां आते हैं।

हजरत निजामुद्दीन की दरगाह से कुछ दूरी पर एक बावली है, जिसमें खानकाह तक सुरंग थी। यहीं पर यारों का चबूतरा है, जहां ख्वाजा के संबंधियों के मजार हैं। उर्स के दिनों में पांच रोज तक कुल (पीरों के जल्से में पढ़ा जाने वाला फातिहा) होता है और कव्वालियां होती हैं, हर समय लंगर लगा रहता है। सत्ररहवीं तारीख को सुबह “चिल्ल-ए-खाबकाह” (खानकाह का वह स्थान जहां-वहां बुजुर्ग ने चालीस दिनों तक वजीफा पढ़ा हो) में फातेहा होती है और रात को रौजे यानी गुंबद वाले मकबरे में फातेहा होती है।

श्रद्धालु जो सामान लाते हैं सब बांट दिया जाता हैं। दरगाह की तरफ से शक्कर का तबर्रुक (फातिहा पढ़ी मिठाइयां) बांटा जाता है। हजरत निजामुद्दीन ने मानवता का पाठ दिया था, इसीलिए आज भी लाखों हिन्दू-मुसलमान उनके अनुयायी हैं।

हजरत निजामुद्दीन दरगाह का इतिहास

तुग़लक़ काल में हजरत निजामुद्दीन एक बड़े साधु या महात्मा या वली थे। यह दरगाह उन्हीं के स्मृति में बनाई गई है। वली का पूरा नाम हजरत शेख निज़ामउद्दीन चिश्ती है। निजाम- उद्दीन की दरगाह के समीप एक सरोवर बना हुआ हैं। निज़ाम उद्दीन ने स्वयं इस सरोवर को बनबाया था। इस सरोवर के बनवाने में निजामउद्दीन का सम्राट ग्यासउद्दीन से झगड़ा हो गया था। कहते हैं कि जब ग्याउद्दीन बादशाह ने तुग़लक़ाबाद बनवाना आरम्भ किया तो उसे नगर की बड़ी दीवार बनाने के लिये मज़दूरों की बड़ी आवश्यकता थी इसलिये बादशाह ने आज्ञा निकाली कि मजदूर दीवार निर्माण कार्य में लगा दिये जाये। उसी समय हजरत निजामुउद्दीन अपना सरोवर बनवा रहे थे। सरोवर के बनाने में जो लोग काम कर रहे थे वह अपना काम छोड़ कर दीवार बनाने के काम में नहीं जाना चाहते थे इसलिये उन्होंने राजाज्ञा का उलंघन किया। उस समय ग्यासउद्दीन बादशाह बंगाल में था जब उसने अपनी आज्ञा के उलंघन का समाचार सुना तो उसने शपथ ली कि दिल्‍ली लौट कर वह निजामुउद्दीन को सज़ा देगा। हजरत निज़ामुउद्दीन के मित्रों ने उन्हें सलाह दी कि बादशाह के लौटने के पहले वह दिल्ली छोड़ कर भाग जावें पर आपने ने भागने से इन्कार कर दिया ओर कहा “देहली दनोज दूर अस्त” अर्थात्‌ दिल्‍ली अरब भी बहुत दूर हैे। आखिरकार बादशाह अफ़ग़नापुर बंगाल से लौटकर आ गया। यह स्थान दिल्‍ली के समीप है। यहीं पर ग्यासुद्दीन जिस घर में टिका था उसकी छत गिर गई और बादशाह उसी में दबकर मर गया। इस प्रकार हजरत निजामुउद्दीन बादशाह द्वारा सजा पाने से बच गये।

हजरत निजामुउद्दीन की दरगाह के समीप सरोवर भी बना है।
सरोवर से आगे बढ़ कर एक मैदान है जहां पर यह दरगाह बनी है । संत की मत्यु होने पर यह दरगाह बनाई गई थी पर शेष बिल्डिग बाद में बनाई गई थी। क़ब्र के चारों ओर संगमरमर के जो मेहराब बने हैं उन्हें शाहजहां ने बनवाया था। यह मेहराब बड़े सुन्दर हैं। अकबर द्वितीय ने गुम्बद बनवाया था दरगाह के ओर एक बड़ी ही सुन्दर मस्जिद बनी है। इसको जमात-खाना कहते हैँ। यह मस्जिद अलाउद्दीन खिलजी ने बनवाई थी शायद इसी मसजिद के कारण निजामुउद्दीन ने अपनी दरगाह और सरोवर के लिये यह स्थान चुना था। दरगाह के मैदान के चारों ओर जाली का परदा बना है इसे शाहजहां ने बनवाया था। यह जाली संगमरमर की बनी हुई
है। जाली का काम बहुत अच्छा तथा सुन्दर है। उसकी कारीगरी दिल्‍ली के महल तथा आगरा के शाहजहां के महल की भांति ही ह

हज़रत निजामुउद्दीन की दरगाह के चारों ओर इतनी अधिक कब्रे बनी हुई हैं कि उन सबको देखने में प्रायः दिन भर लग जाता है। उनमें से कुछ प्रसिद्ध तथा अच्छी समाधियों का वर्णन यहां पर किया जाता है।
जहानारा की कब्र— निजामुद्दीन की दरगाह के मैदान में एक ओर एक छोटे घेरे में शाहजादी जहांनारा की समाधि है। समाधि के सिर पर एक संगमरमर का पत्थर गड़ा हुआ है शेष उसकी कब्र पर हरी हरी घास है। वह मुगल शाहजादियों में सर्वोत्तम शाहज़ादी थी, उसकी कब्र सबसे अधिक सादी तथा सुन्दर बनी है। कई वर्षो’ तक वह शाहजहां के दरबार में बादशाह बेगम के स्थान पर आसीन थी जब औरंगजेब ने अपने पिता के साथ आठ वर्ष तक कैद में रह कर उसकी सेवा करना स्वीकार किया। उसने अपनी मृत्यु के पूर्व अपनी समाधि के स्मृति चिन्ह पर अंकित करा दिया था कि जहांनारा की कब्र को हरी घासों के अतिरिक्त और किसी से मत ढको क्योंकि सबसे छोटे के लिये यही सर्वोत्तम ढक्कन है। जैसे कि शहज़ादी ने लिखा था वैसा ही हुआ और अब भी उसकी क़ब्र पर हरी घास उगती है।

अमीर खुसरो की समाधि :– अमीर खुसरो दिल्‍ली के समस्त कवियों में सब से बड़ा कवि माना जाता है। वह अलाउद्दीन के समय में था। वह अलाउद्दीन के पुत्र खिज्रखां का बड़ा मित्र था ओर खिज्रखां की वीरता के सम्बन्ध में उसने लिखा थाअलाउद्दीन को अपने पुत्र से द्वेष-भाव उत्पन्न हो गया था आखिरकार उसने अपने पुत्र को कैद कर दिया था। कुछ समय के पश्चात्‌ वह मर गया ओर उसका नालायक लड़का मुबारक मार डाला गया। उसके पश्चात्‌ खिलजी वंश का नाश हो गया। जहांनारा की समाधि के आगे खुसरो की समाधि है। यह एक घेरे में है। इसके चारों ओर राजकुमारों तथा अमीरों की समाधियां हैं।

गालिब की समाधि :– हजरत निजामुद्दीन की दरगाह के बाहर एक छोटा क़ब्रस्तान जिसमें कुछ सादी कब्रे बनी हैं। उनमें से एक क़ब्र ग़ालिब की है। गालिब उन्नीसवीं शताब्दी के उर्दू कवियों में सबसे बड़े कवि थे। वह बहादुरशाह के मित्र और दरबार की कवि ज़ौक़ के विरोधी थे। ग़ालिब की कब्र पर फारसी में स्मृति शब्द अंकित है। कब्र के सामने लोग कवि के आदर में सिर झुकाकर खड़े होते हैं।

अतगाह खां की कब्र:– ग़ालिब की समाधि के समीप अतगाह खां की समाधि है। यह लाल पत्थर की बनी है और इसका गुम्बद संगमरमर का बना है। अतगाह खां ने अकबर का पालन-पोषण किया था। वह अकबर का बड़ा मित्र था पर आदम खां उसका विरोधी हो गया था। आदम खां अकबर का पालन-पोषण करने वाली मां महम अंका का पुत्र था। उसने अकबर के लड़कपन में साम्राज्य का शासन भार संभालना था। एक दिन अतगाह और आदम खां में लड़ाई हो गई और अतगाह मारा गया। अपने हाथों को खून से रंगे हुये अकबर के निजी कमरे में आदम खां घुस गया। अकबर क्रोध से उछल पड़ा और आदम खां को पकड़ लिया और चबुतरे पर घसीट कर ले गया और ढकेल दिया। उसी दिन से महम अंका को अकबर ने निकाल दिया और स्वयं शासन करने लगा।

चौसठ खंभा :– यह संगमरमर का एक बड़ा कमरा या बरामदा है। इसमें चौसठ स्तम्भ हैं। यह मथुरा सड़क के समीप स्थित हैं। यहां अतगाह खां के पुत्र मिर्जा अज़ीज़ कोकलताश की समाधि है। यह बड़ा सुन्दर तथा देखने योग्य है। पाठकों यदि तुम दिल्‍ली जाओ तो हजरत निजामउद्दीन की दरगाह को अवश्य देखो। वहां पर मेला लगता है। समाधि के समीप ही खां हसन निजामी खां नामक व्यक्ति रहते थे वह अपने को शेख निजामुउद्दीन के वंशज बतलाते हैं। निजामुद्दीन की दरगाह के पास ही बहुत सी दूसरी समाधियां भी हैं। प्रत्येक समाधि पर पत्थरों पर उनके नाम आदि अंकित हैं उन्हें पढ़ो और उस समय की शिल्पकला का अध्ययन करो। झंझरियां ( जालियां ) तथा मेहराब आदि शाहजहां के समय के ओर छोटे गुम्बद आदि और पीछे काल के बने हुये हैं। देखने से तुम्हें पता लगेगा कि जैसे जैसे समय व्यतीत होता गया और मुगल साम्राज्य की अऔनति होती गई वैसे वैसे शिल्प कला में भी कमी होती गई और त्रूटि आती गई। यदि समय मिले तो हजरत निजामुद्दीन ग्राम में जाकर खान-जहां की दरगाह का अवलोकन करो। खान-जहां फिरोजशाह तुगलक का प्रधान मंत्री था। वहीं पर खान-जहां की बनवाई हुई एक मस्जिद भी है।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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