ईश्वर की प्राप्ति गुरु के बिना असंभव है। ज्ञान के प्रकाश से आलोकित गुरु परब्रह्म का अवतार होता है। ऐसे गुरु की दिव्य कृपा प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए। जब तक गुरु-कृपा से कुंडलिनी शक्ति जागृत नहीं होती तब तक हमारे हृदय में प्रकाश नहीं हो सकता, दिव्य-ज्ञान प्रदान करने वाला अंतर्चक्षु नहीं खुल पाता और हमारे बंधन समाप्त नहीं हो सकते। आंतरिक विकास, दिव्यत्व की प्राप्ति और परा-शिव की अवस्था तक पहुंचने के लिए एक मार्गदर्शक अर्थात् ऐसे सदगुरु की परम आवश्यकता है, जो आध्यात्मिक-शक्ति संपन्न हो। जिस प्रकार प्राण के बिना जीवन असंभव है, उसी प्रकार गुरु के बिना ज्ञान, शक्ति का उदय और विकास, अंधकार का विनाश तथा तीसरे नेत्र का खुलना असंभव हैं। गुरु की महिमा रहस्यमय और सबसे अधिक दिव्य होती है। सच्चा गुरु अपने शिष्य की आंतरिक शक्ति को जगा देता है तथा उसे आध्यात्मिक आनंद प्रदान करता है। वह शक्तिपात के द्वारा भीतर की शक्ति अर्थात् कुंडलिनी को जागृत कर देता है। वह सब के लिए पूजा के योग्य है। नि:संदेह प्रत्येक जिज्ञासु और विद्यार्थी विशेषतः सत्य और परमेश्वर के साधकों और उपासकों के जीवन में गुरु अर्थात् शिक्षक का स्थान बहुत ऊंचा होता है। शक्तिपात में विश्वास रखने वाले साधकों के जीवन में तो गुरु का स्थान सबसे ऊपर होता है। शक्तिपात की परंपरा में बीसवीं शताब्दी के अग्रिम पंक्ति के गुरुओं में गणेशपुरी के स्वामी मुक्तानंद का एक प्रमुख स्थान है।
स्वामी मुक्तानंद का प्रारंभिक जीवन
स्वामी मुक्तानंद का जन्म सन 1908 में भगवान बुद्ध के जन्मदिन अर्थात् बैशाख पूर्णिमा–16 मई को हुआ था। उनके माता-पिता कर्नाटक के दक्षिण कनारा जिले में धर्मस्थल के भगवान मंजूनाथ, भगवान शिव के भक्त थे। उनके पिता धनी जमींदार थे और मंगलूर शहर के पास नेत्रवती नदी के तट पर बसे एक गांव में रहते थे। उनका बचपन का नाम कृष्णा था।
बालक कृष्णा को स्कूल में भेजा गया परंतु उसके प्रारब्ध में तो वैदिक वांगमय तथा मानवीय-चेतना को जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्रदान करने वाली विद्या प्राप्त करना लिखा था। जब वे कोई पंद्रह बरस के ही रहे होंगे, तभी उनकी भेंट एक महान योगी रहस्यवादी और सिद्ध पुरुष स्वामी नित्यानंद के साथ हुई। स्वामी नित्यानंद दिव्य पुरुष थे। वे जातपात और धर्म के आधार पर मनुष्यों में भेद नहीं करते थे तथा सभी धर्मो और मतों के लोग उनका आदर और उनकी सेवा करते थे। एक बार एक धनी मुसलमान भक्त ने बाबा नित्यानंद के सम्मान में मंगलूर के समीप एक बड़ा भोज दिया। कृष्णा और बाबा नित्यानंद की भेंट उसी दावत के अवसर पर हुई। सिद्ध संत बाबा नित्यानंद ने कृष्णा को सीने से चिपका लिया और उसके गालों को थपथपाया। इससे कृष्णा को एक विलक्षण अनुभूति प्राप्त हुई और ऐसा लगा जैसे कोई चुंबकीय शक्ति उसे समाधि की अवस्था में खींच रही हो। यह शक्तिपात था। स्वामी नित्यानंद की दिव्य-शक्ति कृष्णा के अस्तित्व में भीतर तक उतर गयी और उसे उसी क्षण दिव्य व्यक्तित्व प्राप्त हो गया।
स्वामी मुक्तानंदकृष्णा के घर का वातावरण बहुत आध्यात्मिक और पवित्र था। उसने कृष्णा के मन में स्वामी नित्यानंद द्वारा बोये गये बीज को पोषण प्रदान किया और कृष्णा उस महान गुरु के साथ भेंट के छः महीने के भीतर ही घर छोड़कर निकल पड़ा। इधर-उधर भटकने के बाद वह एक महान योगी तथा वेदांत और योग के परम विद्वान सिद्धारूढ़ स्वामी के आश्रम में जा पहुंचा। कृष्णा को आश्रम में प्रवेश मिल गया और वह शीघ्र ही स्वामी जी का प्रिय शिष्य बन गया। वहां उसे संस्कृत तथा योग और वेदांत के प्रारंभिक सूत्र सिखाये गये। सिद्धारूढ़़ स्वामी ने कृष्णा को संन्यास की दीक्षा प्रदान कर दी और अब वे कृष्णा से स्वामी मुक्तानंद हो गये।
सिद्धारूढ़़ स्वामी ने सन् 1929 में शरीर छोड़ दिया। इसके बाद स्वामी मुक्तानंद कुछ समय तक सिद्धारूढ़़ स्वामी के योग्य शिष्य मुप्पिनार्य स्वामी के साथ धारवाड़ जिले में उनके मठ में रहे। यहां भी उन्होंने धर्म-ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। इसके बाद कुछ समय तक वे देवनगिरि में स्वामी शिवानंद के आश्रम में वेदांत के ग्रंथों का अध्ययन करते रहे। वहां से स्वामीजी ने वाराणसी जाकर शैवमत का अध्ययन किया। कुछ समय तक महाराष्ट्र में रहकर उन्होंने संत ज्ञानेश्वर महाराज, संत नामदेव, संत एकनाथ, संत तुकाराम और समर्थ रामदास सरीखे संतों और महात्माओं की शिक्षाओं से परिचय प्राप्त किया। वे योग तथा आयुर्वेद का भी अभ्यास करने लगे।
इस अवधि में उन्हें कठोर साधना तथा जीवन-साधनों के अभाव की कठिनाइयों में से गुजरना पड़ा। काफी समय बाद वे महाराष्ट्र के नासिक जिले में येवला नामक स्थान पर जा पहुंचे और वहां कुटी बनाकर रहने लगे। वहीं से वे इधर-उधर घूमते भी रहे। येवला में वे लोगों के संपर्क में आये तथा नाम-संकीर्तन और धार्मिक प्रवृत्तियों में संलग्न हुए। स्वामी मुक्तानंद जी का जीवन तपस्यामय था तथा वे हिमालय से कन्याकुमारी तक यात्राएं भी करते रहे। इन यात्राओं के दौरान वे अनेक साधु-संतों से मिले। उनमें से जलगांव जिले में नसीराबाद के अवधूत संत जिप्रु अन्ना एवं औरंगाबाद जिले में बिजापुर के संत हरिगिरि बाबा के प्रति वे सबसे अधिक आकर्षित रहे। जिप्रु अन्ना एक महान अवधूत और ब्रह्मज्ञानी थे। हरिगिरि बाबा तो विलक्षण ही थे, वे राजाओं जैसे वस्त्र पहनते और मस्त रहते। उन्होंने स्वामी मुक्तानंद को आशीर्वाद दिया कि वे भी राजाओं की तरह वैभव भोगेंगे। स्वामी मुक्तानंद सकोरी के उपासनी बाबा केडगांव के नारायन महाराज और रमण महर्षि से भी मिले थे।
एक बार स्वामी मुक्तानंद गणेशपुरी जा पहुंचे, जहां स्वामी नित्यानंद का स्थान था। स्वामी नित्यानंद की दृष्टि जैसे ही स्वामी मुक्तानंद पर पड़ी, वे हठात् कह उठे, “अच्छा तो तुम आ गये!” इन शब्दों ने स्वामी मुक्तानंद के चित्त में दशाब्दियों पहले की उस भेंट की स्मृति को जगा दिया, जब वे पहले-पहल बाबा नित्यानंद से मंगलूर में मिले थे। जुलाई, 1947 से स्वामी मुक्तानंद व्रजेश्वरी मंदिर के समीप रहने लगे, जहां से वे स्वामी नित्यानंद के दर्शनों के लिए आसानी से जा सकते थे। कुछ समय बाद वे येवला लौट गये, परंतु समय-समय पर वहां से गणेशपुरी जाते रहे। शीघ्र ही उन्हें स्वामी नित्यानंद से शक्तिपात-दीक्षा प्राप्त हो गयी और वे स्वयं सिद्धयोग के गुरु बन गये।
स्वामी नित्यानंद के आदेश पर 16 नवंबर, 1956 के दिन स्वामी मुक्तानंद को गणेशपुरी आश्रम में गुरु के स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया और वे गणेशपुरी आश्रम में गुरु की छत्रछाया में रहने लगे। तब गणेशपुरी आश्रम का निर्माण शुरू ही हुआ था। 3 अगस्त, 1961 को स्वामी नित्यानंद ने पंचतत्त्व का चोला छोड़ दिया और स्वामी मुक्तानंद ने आश्रम में उनका स्थान ग्रहण कर लिया। धीरे-धीरे स्वामी मुक्तानंद की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी और आश्रम का विकास होने लगा।
पश्चिम-विजय
बाबा मुक्तानंद सन् 1970 में युरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और हवाई गये तथा लगभग साढ़े तीन महीने वहां बिताकर स्वदेश लौटे। उन्होंने पश्चिमी जगत से कहा, ध्यान कोई धर्म नहीं है, न वह किसी धर्म अथवा देश की बपौती है। वह तो शांत का मार्ग है और यह मार्ग सब के लिए खुला है। ईश्वर समान रूप से सब का है। वह तुम्हारे भीतर है। तुम स्वयं ही ईश्वर हो। बाबा मुक्तानंद की दूसरी विदेशी यात्रा 26 फरवरी, 1974 को आरंभ हुई तथा वे तीन महाद्वीपों-आस्ट्रेलिया, अमेरीका और युरोप के देशों में गये। वे लगभग अढ़ाई वर्ष वहां रहे। इस बीच अमरीका में उनके संदेश के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक आश्रम स्थापित हुए। मई, 1975 में उनके जन्मदिन के अवसर पर प्रसिद्ध योग-धाम ऑफ अमेरीका नामक संस्थान का गठन किया गया। उन्होंने 2 अक्तूबर, 1982 को महासमाधि ले ली।
स्वामी मुक्तानंद की शिक्षाएं
स्वामी मुक्तानंद ने घोषणा की कि मनुष्य मूलतः शुद्ध और दैवी है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य के हृदय में ईश्वर का निवास है। बाबा आत्म-चेतना अथवा आत्म-साक्षात्कार पर अधिक बल देते थे। जहां तक चमत्कारों का संबंध है, वे तो चेतना के निम्नतर स्तरों की उपज होते हैं। बाबा मानवीय चेतना को उन उच्च स्तरों तक उठाना चाहते थे, जहां पहुंच कर वह सर्वोच्च-चेतना के साथ एकाकार हो जाती है। वे अपने शिष्यों को निर्देश देते हैं कि “स्वयं को जानो। “स्वयं का ज्ञान-आत्मज्ञान ही मनुष्य को सच्ची प्रसन्नता अर्थात् आनंद प्रदान कर सकता है। उन्होंने शक्तिपात द्वारा साधकों की दिव्य-चेतना जगाने को ही अपना लक्ष्य माना।
बाबा ने अपने गुरु की कृपा से दिव्य-शक्ति प्राप्त की थी तथा वे स्वयं यह दिव्य-चेतना अथवा दिव्य-शक्ति अपनी कृपा के बल पर अपने शिष्यों को देने की चेष्टा करते रहे। वे ऐसा मानते थे कि शिष्य को सर्वोच्च चेतना की प्राप्ति केवल गुरुकृपा से ही हो सकती है। गुरु से शिष्य में दिव्य-शक्ति का अवतरण एक सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रक्रिया है। एक दीपक को दूसरे दीपक से प्रज्वलित करने के समान। स्वामी मुक्तानंद के अनुसार शक्तिपात साधक की कुंडलिनी शक्ति को जगा देता है। कुंडलिनी के जागरण से ही साधक को आत्मदर्शन प्राप्त होता है। यही सिद्ध योग है। इसके दो प्रमुख लक्षण हैं->सहजता और त्वरा। शिष्य में दिव्य-ज्ञान का अवतरण गुरुकृपा से ही होता है। यह दिव्य-चेतना के अवतरण की प्रक्रिया है। यह अवतरण गुरुकृपा से ही संभव है। शिष्य को गुरुभक्ति के द्वारा गुरूकृपा प्राप्त करनी होती है। इस संकीर्ण अर्थ में स्वामी मुक्तानंद की पद्धति और उनके दर्शन को गुरु-संस्कृति माना जा सकता है।
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