You are currently viewing स्वामी प्रभुपाद – श्री भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी
स्वामी प्रभुपाद

स्वामी प्रभुपाद – श्री भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी

हम सब लोगों ने यह अनुभव प्राप्त किया है कि श्री चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परंपरा में आध्यात्मिक गुरु किस प्रकार प्रकट होते हैं। हमारे गुरु ने हमें यह कहकर धोखा नहीं दिया कि मैं ईश्वर हूं, मैं भगवान हूं।” इसके विपरीत उन्होंने यह सिद्ध किया कि वे प्रभु के सेवक हैं और हमें यह पहचानना सिखलाया कि वास्तव में ईश्वर कौन है, हम कौन हैं और हम अपने घर अर्थात्‌ कृष्ण की ओर किस प्रकार लौट सकते हैं? श्री स्वामी प्रभुपाद ने हमें घर-वापसी का टिकट दे दिया है, इसके लिए हम उनके ऋणी हैं। ‘ श्री स्वामी प्रभुपाद यायावर तीर्थ-पुरुष हैं, वे स्वयं जहां-जहां गये, उन्होंने उस प्रत्येक स्थान को तीर्थ बना दिया। उन्होंने हमें कृष्ण के नाम और मूर्तियों, कृष्ण-प्रसाद और अपनी पुस्तकों के रूप में साक्षात्‌ कृष्ण ही प्रदान कर किये। उन्होंने अंधकार में प्रकाश फैलाया, उन्होंने हमें वह दृष्टि दी, जिसके द्वारा हम शुद्ध और अशुद्ध के बीच भेद करना सीख पाये। सच तो यह है कि उन्होंने हमें यह बताया कि “इस नश्वर जगत की प्रत्येक वस्तु असत्य है, केवल कृष्ण और उनसे जुड़ी हुई वस्तुयें ही सत्य हैं। तीनों लोकों में कृष्ण से अधिक श्रेष्ठ हो भी क्या सकता हैं।

स्विटजरलैंड में बसे गोकुल धाम के निवासी रोहिणी-सुत दास ने अपने गुरु आचार्य भक्तिवेदांत स्वामी को उपर्युक्त शब्दों में श्रद्धांजलि अर्पित की है। यह श्रद्धांजलि सहज ही हमारे मन में आचार्य भक्तिवेदांत स्वामी के जीवन और कार्य के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न करती है।

भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद का जन्म

श्री भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद का जन्म कलकत्ता में सितंबर, 1896 को हुआ था। उनका बचपन का नाम अभयचरण डे था। स्वामी प्रभुपाद के पिता गौरमोहन डे भावनाशील वैष्णव थे और ऐसी भावनाशील उनकी मां रजनी थीं। वे लोग अपने घर पर तथा
घर के सामने सड़क के उस पार राधा-गोविन्द मंदिर में भगवान श्री कृष्ण की उपासना करते थे। उनका घर 45, हरिसन रोड पर था। गौरमोहन डे आचार-विचार के मामले में कट्टर वैष्णव थे। वे शुद्ध शाकाहारी थे और चाय तथा कॉफी तक नहीं लेते थे। अंडे और मांस का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। वे जब तक स्नान और भगवान कृष्ण की पूजा न कर लेते, तब कुछ नहीं खाते थे। रात को सोने से पहले वे अपनी माला पर भगवान के नाम का स्मरण करके, भगवान की पूजा करके और श्रीमद्भागवत अथवा श्री चैत्तन्य चरित्रामृत में से कुछ श्लोकों का पाठ अवश्य करते थे।

स्वामी प्रभुपाद
स्वामी प्रभुपाद

उस जमाने में हिन्दुओं में यह एक आम रिवाज था कि बच्चे का जन्म होने पर किसी विद्वान ज्योतिषी से उसकी जन्म-कुंडली बनवाई जाती और ज्योतिषी जन्म-कुडली के साथ-साथ बालक के भविष्य के बारे में भविष्यवाणियां भी करता। अभय चरण डे के माता-पिता ने भी बालक के जन्म पर एक योग्य ज्योतिषी की सेवाएं प्राप्त की, जिसने अभय की जन्मपत्री बनायी और यह भविष्यवाणी की कि वह 70 वर्ष की आयु में विदेश जायेगा,कृष्ण भक्ति का प्रचार करेगा और संसार के भिन्‍न-भिन्‍न देशों में भगवान कृष्ण के’ 108 मंदिर स्थापित करेगा।

श्री भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की कृष्ण-भक्ति

अभय चरण डे को कृष्ण की पूजा की परंपरा उत्तराधिकार में प्राप्त हुई थी। बालक जैसे-जैसे बड़ा हुआ, वैसे-वैसे उसका चित्त कृष्ण-गाथाओं और कृष्ण-लीलाओं में डूबता चला गया और कृष्ण की मूर्ति की उपासना के फलस्वरूप वह भगवान कृष्ण के अत्यंत सुंदर रूप पर मोहित हो गया। छः वर्ष के अभय ने माता-पिता से अपने लिए कृष्ण की मूर्ति मांगी और उसके पिता ने राधा-कृष्ण का एक सुंदर-सा जोड़ा खरीदकर उसे भेंट कर दिया। अभय बचपन से ही घर में पिता को और राधा-गोविन्द मंदिर में पुजारी को मूर्तियों की पूजा करते हुए देखता था, जब उसे अपने दृष्ट देव की मूर्तियां प्राप्त हो गयी तो उसने भक्ति भाव और विधि-विधानपूर्वक उनकी पूजा आरंभ कर दी।

अभय की मां के मन में इच्छा थी कि उनका बेटा लंदन जाकर बैरिस्टर की डिग्री प्राप्त करे, लेकिन उसके पिता ने उनकी प्रार्थना यह कहकर अस्वीकार है दी कि अभय के लंदन जाने से उसके वैष्णव संस्कारों को धक्का लगेगा, क्योंकि वहां उसे पश्चिमी ढंग की पोशाक पहननी होगी और क्योंकि उसकी उम्र कच्ची है, इस कारण यह भी संभव है कि वह मांस खाने लगे, शराब पीना शुरू कर दे और स्त्रियों के पीछे चक्कर काटने लगे। अतः लंदन भेजने के बजाय अभय को एक स्थानीय कॉलेज में भर्ती करा दिया गया, जहां से उसने स्नातक की परीक्षा पास की। कॉलेज की पढ़ाई समाप्त होने के बाद उसके पिता ने डाक्टर कार्तिक चंद्र बोस से कहकर उसे कलकत्ता में ही उनकी बोस-प्रयोगशाला में काम दिला दिया।

भावी गुरु के साथ भेंट

सन्‌ 1922 में अभय की भेंट श्री भक्ति सिद्धांत सरस्वती के साथ हुई, जो बाद में अभय के गुरु बने। श्री भक्ति सिद्धांत सरस्वती ने पहली ही भेंट में अभय से कहा कि उसे भगवान चैतन्य महाप्रभु का संदेश समूचे विश्व में फैलाने का कार्य अपने कंधों पर उठा लेना चाहिए, परंतु उन दिनों अभय के मन में यह धारणा पक्की हो
चुकी थी कि जब तक भारत विदेशी शासन से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक दुनिया में कोई भी न तो उसकी आवाज सुनेगा, न महाप्रभु की शिक्षाओं और कृष्ण-भक्ति की ओर ध्यान देगा। स्वामी जी का चिंतन इसके विपरीत था, उनका विचार था कि कृष्ण-चेतना का प्रसार भारत की स्वाधीनता की प्रतीक्षा नहीं कर सकता।

समूचे विश्व को कृष्ण-चेतना अथवा कृष्ण-भावना से आप्लावित करने का विचार मूलतः श्री भक्ति विनोद ठाकुर के मन में उत्पन्न हुआ था। वे एक महान – कृष्ण-भक्त और आध्यात्मिक गुरु थे और उनकी इच्छा थी कि जिस दैवी चेतना की अभिव्यक्ति भगवान कृष्ण के व्यक्तित्व, श्रीमद्भागवत में वर्णित उनकी दिव्य लीलाओं और श्रीमद्भागवत में उनकी शिक्षाओं के रूप में हुई है, उसका समस्त विश्व में प्रचार-प्रसार होना चाहिए। श्री भक्ति विनोद ठाकुर की यह कल्पना उनके शिष्य श्री गौरकिशोर दास बाबा जी ने अपने शिष्य श्री भक्ति सिद्धांत गोस्वामी के मन में ठूंस-ठूंस कर भर दी थी। श्री भक्ति सिद्धांत गोस्वामी संस्कृत भाषा और वैदिक धर्मशास्त्रों के महान पंडित तथा श्री कृष्ण के महान भक्त थे। उनके मन में प्रबल इच्छा थी कि कृष्ण की लीलाओं और चेतना का समूचे विश्व में प्रसार हो, इस कार्य के लिए उन्होंने प्रथम भेंट में ही अभय चरण डे पर अपनी दृष्टि गड़ा दी।

अभय चरण डे व्यापार की दृष्टि से इलाहाबाद चले गये परंतु उन्होंने श्री भक्ति सिद्धांत सरस्वती के साथ संपर्क बनाये रखा और सन 1932 में उनसे मंत्र दीक्षा प्राप्त करके उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरुरु स्वीकार कर लिया। सन्‌ 1935 में अभय अपने गुरु के दर्शनों के लिए गोवर्धन गये, जहां राधा कुण्ड के किनारे हुई उन दोनों की भेंट अभय के जीवन की एक अत्यंत महत्त्वपर्ण घटना बन गयी और उस भेंट ने गुरु के मिशन के बारे में अभय के दृष्टिकोण में एक निर्णायक परिवर्तन कर दिया। इस भेंट में श्री भक्ति सिद्धांत सरस्वती ने अभय की आंखों में झांका और कहा, “मेरे मन में कुछ पुस्तकें प्रकाशित करने की इच्छा थी, यदि तुम्हारे पास कभी पैसा हो तो पुस्तकें छापना।

पुस्तकें छापना ‘ यह गुरु का आदेश था। नवंबर, 1936 में अभय ने गुरु से पूछा, मेरे योग्य कोई सेवा हो तो बताइयेगा, गुरु ने उत्तर दिया, मेरे मन में पक्का विश्वास है कि जो लोग हमारी भाषाएं नहीं जानते, उनके सामने तुम हमारे विचारों और तर्को की अंग्रेजी में व्याख्या कर सकते हो, इससे स्वयं तुम्हें और तुम्हारे श्रोताओं को बहुत लाभ होगा। मेरे मन में पूर्ण विश्वास है कि तुम एक बहुत बड़े अंग्रेजी-प्रचारक बन सकते हो। इसके एक मास बाद दिसंबर, 1936 में श्री भक्ति सिद्धांत सरस्वती ने शरीर छोड़ दिया और सचमुच मठ में आग लग गयी। उनके शिष्य मठ और मंदिर के स्वामित्व के लिए आपस में झगड़ने लगे, यही वह आग थी, जिसकी भविष्यवाणी स्वामीजी ने की थी। दूसरी ओर अभय अपने गुरु के आदेश के अनुसार अंग्रेजी में एक पत्रिका प्रकाशित करने के लिए जूझ रहे थे, उन्होंने पत्रिका नाम रखा-‘बैक टू गॉडहैड।

अभय आध्यात्मिक विषयों, प्रमुखतः गीता पर प्रवचन करने में अपना अधिक समय लगाते, परंतु उनकी धर्मपत्नी उनकी आध्यात्मिक गतिविधि की पूरी तरह उपेक्षा करती थीं। एक दिन उन्होंने अभय की श्रीमद्भागवत कबाड़ी के हाथों बेचकर उससे चाय और बिस्कुट खरीद लिये। अभय को इससे बहुत भारी सदमा लगा, जिसे वह सहन नहीं कर पाये और परिवार के साथ संबंध तोड़कर पूरी तरह आध्यात्मिक कार्य में लग गये।

पत्रिका का प्रकाशन

अब अभय कलकत्ता से दिल्ली जा पहुंचे, यहां उन्होंने कुछ लोगों से चंदा लेकर अपनी पत्रिका ‘बैक टू गॉडहैड’ का प्रकाशन शुरू किया। उसके लिए सब लेख और सम्पादकीय स्वयं उन्होंने लिखे और उसकी बिक्री की भी स्वयं ही कोशिश की। उन्होंने पत्रिका की कुछ प्रतियां भारत और विदेशों के कुछ प्रमुख लोगों को निःशुल्क भेजी। अभय के लिए यह बहुत कड़ा समय था। इसी बीच अभय ने वृंदावन में अपने लिए यमुना के तट पर बने एक मंदिर में एक छोटे-से कमरे की व्यवस्था कर ली और उसमें रहना शुरू कर दिया। एक रात स्वप्न में अभय को उनके गुरु ने दर्शन दिये और संन्यास लेने का आदेश दिया। अभय ने तुरंत संन्यास ले लिया, उनका नया नाम रखा गया अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी। वे वृंदावन से दिल्‍ली चले गये और चांदनी चौक के समीप राधाकृष्ण मंदिर में रहने लगे। वहां उन्होंने श्रीमद्भागवत का अंग्रेजी अनुवाद शुरू किया, जिसका पहला खंड सन्‌ 1962 में प्रकाशित हुआ। विद्वानों ने उनके इस कार्य की बहत प्रशंसा की।

स्वामी प्रभुपाद की अमरीका यात्रा

कठोर संघर्ष के बाद 13 अगस्त, 1965 को भक्तिवेदांत स्वामी पानी के जहाज सेअमेरिका के लिए रवाना हुए, जहां की भूमि उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। उनके गुरु श्री भक्ति सिद्धांत सरस्वती ने उन्हें पश्चिमी जगत में कृष्ण-भावना फैलाने का आदेश दिया था। अमेरीका पहुंचकर भी उन्होंने श्रीमदभागवत के अंग्रेजी अनुवाद का कार्य जारी रखा और पश्चिमी जगत के अपने श्रोताओं को श्रीमदभागवत गीता का दर्शन सिखाने लगे। भक्तिवेदांत स्वामी अपने प्रवचनों द्वारा अमरीका लोक-मानस में गहरे उतरते जा रहे थे। अंततः वे कृष्ण-भावना के प्रचार, संकीर्तन आंदोलन के प्रसार, भगवान कृष्ण के मंदिरों के निर्माण तथा कृष्ण-भावना के विस्तार की दृष्टि से साहित्य के प्रकाशन और वितरण के लिए इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्ण का – कॉन्शेससनेस (इस्कॉन) -अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना करने में सफल हो गये उनका असली कार्य यहां से शुरू होता है।

धीरे-धीरे अमेरीका की तरुण पीढ़ी उनकी ओर आकर्षित होनी शरू हुई। आचार्य भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने उन्हें महामंत्र का जप और जाप करते समय माला के मनके फेरना सिखलाया। अमरीका पहुंचने के एक वर्ष बाद 9 सितंबर, 1966 को उन्होंने प्रथम दीक्षा समारोह आयोजित किया, जिसमें 11 शिष्यों ने उनसे दीक्षा ग्रहण की। अब आंदोलन ने तेज गति पकड़ ली। उन्होंने अपने शिष्यों को मदिरा तंबाकू, अन्य मादक द्रव्यों, मांस, चाय, कॉफी और विवाहेतर यौन-संभोग के परित्याग की शपथ दिलायी। भक्तिवेदांत स्वामी सिद्धांतों के मामले में समझौता न करने वाले कठोर गुरु थे, वे अपने अनुशासन में तनिक ढील नहीं देते थे। आश्चर्य तो इस बात का है कि इतनी कड़ाई के बावजूद संसार के लगभग प्रत्येक भाग से हजारों युवक-युवतियां उनकी ओर आकर्षित हुए और उन्होंने उनको गुरु के रूप में स्वीकार करके जीवन में कठोर व्रत धारण किये। नियमित रूप से महामंत्र का जप और संकीर्तन करते हुए सड़कों तथा पार्कों में नाचना उनके शिष्यों के नियमित जीवन का अंग बन गया। अनेक कृष्ण मंदिरों की स्थापना की गयी और जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सवो का आयोजन किया गया।

इस सब गतिविधि के बीच रहकर भी भक्तिवेदांत स्वामी अपने गुरु को यह संदेश पल भर को भी नहीं भूले, “पुस्तकें छापना” व ‘बैक टू गॉडहैड’ के लिए नियमपूर्वक लिखते रहे तथा श्री मद्भागवत और अन्य धर्म-ग्रंथों का अंग्रेजी अनुवाद करते रहे। अब वे अपने पांवों पर खड़े हो चुके थे। सन्‌ 1967 के मध्य में वे अपने पाश्चात्य शिष्यों के साथ भारत पधारे। उनके गोरे शिष्यों के सिर मुंडे हुए थे, वे भारतीय वेशभूषा पहने थे, उनके गले में माला झोलियां लटकी हुई थीं और वे चिल्ला-चिल्लाकर महामंत्र का जप कर रहे थे। उन सब के नाम भी संस्कृत भाषा में थे। यह देखकर भारतीयों की आंखें फटी की फटी रह गयी। कुछ समय बाद भक्तिवेदांत स्वामी अमरीका लौट गये और अपने साहित्य तथा प्रवचनों के माध्यम से कृष्ण-चेतना अथवा कृष्ण भावनामृत का प्रसार करते रहे। वास्तव में वे अपने आपको भगवान कृष्ण के हाथों में उनके कार्य का उपकरण मात्र मानते थे और इसी दृष्टि से अंत तक कठिन परिश्रम करते रहे। उन्होंने 14 नवंबर, 1977 को 81 वर्ष की परिपक्व आयु में वृंदावन के कृष्ण बलराम मंदिर में अपनी नश्वर काया को छोड़ दिया।

इस समय तक अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ संसार के चारों महाद्वीपों पर फैल चुका था। भक्तिवेदांत स्वामी के जन्म पर ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि वे विश्वभर में 108 कृष्ण मंदिरों की स्थापना करेंगे। भक्तिवेदांत स्वामी के मार्ग-दर्शन में इस्कॉन द्वारा विश्वभर में स्थापित किये गये कृष्ण मंदिरों की संख्या आज उस संख्या के दोगुना से भी अधिक है। आचार्य भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद पश्चिमी लोक मानस पर यह विचार अंकित करने में सफल रहे कि मनुष्य जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है और सांसारिक गतिविधि तथा इन्द्रियों की वासना की पूर्ति के कार्यों में लिप्त रहना निरर्थक है। इस प्रसंग में एक उत्साहवर्धक बात यह है कि सोवियत रूस जैसे साम्यवादी देश ने भी इस्कॉन को अपने यहां केन्द्र स्थापित करने की अनुमति दी। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस्कॉन एक शुद्ध आध्यात्मिक आंदोलन है। इस्कॉन एक ऐसा मार्ग है, जो साधक को आध्यात्मिकता की दिशा में ले जाता है।

शाश्वत जीवन

आचार्य भक्तिवेदांत स्वामी ने घोर पदार्थवाद से ग्रस्त और त्रस्त पश्चिमी जगत में आध्यात्मिक ज्योति जगायी। आचार्य ने उसको प्रेम तथा पवित्रता, जीवन में उच्चतर ध्येयों की चेतना तथा पदार्थवाद और घोर स्वार्थ पूर्ण मूल्य व्यवस्था के नीचे दम तोड़ती हुई आत्मा की मूर्ति का संदेश दिया। उन्होंने पश्चिमी जगत को दिव्य कृष्ण भावनामृत से विभोर कर दिया। समूचे विश्व की युवा पीढ़ी को इस
आंदोलन में अपनी समस्याओं का सही, तर्कसंगत और संतोषजनक समाधान दिखायी पड़ा। आचार्य भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने संसार के सामने यथार्थवाद प्वार्थ प्रियता, संघर्ष, हिसा, इन्द्रिय लोलपता और अराजकता के दुष्चक्र में दम तोड़ती हुई सभ्यता का एक सही विकल्प पेश किया।

श्री भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने गुरु के आदेश-”पुस्तकें छापना का गंभीरता से पालन किया और उन्होंने 50 से अधिक पुस्तकें लिखीं। उनकी पुस्तकें करोड़ों की संख्या में बिकती हैं। पाश्चात्य विश्वविद्यालयों में वे पाठय-पुस्तकों के रूप में पढ़ाई जाती हैं। उनके जीवनकाल में ही उनकी पुस्तकों का 23 भाषाओं में अनुवाद हो चुका था, जिनमें रूसी भाषा भी शामिल है। उस समय तक उनकी पुस्तकों की अंग्रेजी भाषा में कुल 4 करोड़ 34 लाख 50 हजार प्रतियां तथा अन्य भाषाओं में 5 करोड़ 33 लाख 14 हजार प्रतियां प्रकाशित हो चुकी थीं, जिनमें से 90% पाठकों के हाथों में पहुंच चुकी थीं।

सही बात तो यह है कि भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के संपर्क में जो लोग आये और उनके शिष्य बने, वे गलत दिशा में जा रहे
आधुनिक जगत के भौतिकतावादी जीवन की यंत्रणा से उबर गये। आचार्य ने उन्हें कृष्ण भावनामृत अर्थात्‌ उस सर्वोच्च आध्यात्मिक सत्य की दिशा में मोड़ दिया, जो उन्हें शाश्वत अस्तित्व पूर्ण चेतना और दिव्य आनंद की ओर ले जाती है। उन्होंने इस क्षणभंगुर जीवन के संत्रास को पराजागतिक महोत्सव में रूपांतरित कर दिया। उन्होंने जगत को धर्म का मूल तत्त्व समझाया, “जीवन के प्रति सम्मान-केवल मनुष्य जीवन का नहीं समस्त प्राणियों के जीवन का सम्मान। उन्होंने पश्चिम के लोगों को ईसा की शिक्षाओं का स्मरण दिलाया, तुम हत्या नहीं करोगे। ” उन्होंने एक सुद॒ढ़ और वैज्ञानिक शाकाहार आंदोलन को जन्म दिया और अपने शिष्यों को पवित्र प्राणी गाय के प्रति माता के समान प्रेम और आदर देना सिखाया।

भक्तिवेदांत स्वामी ने साधकों को सलाह दी है कि वे गुरु के सामने समर्पण करें, परंतु दूसरे ही क्षण वे कह उठते हैं, समर्पण का यह अर्थ नहीं कि तुम कुछ पुछोगे ही नहीं कि तुम गुरु की हर आज्ञा का आंख मूंदकर पालन करने लगोगे। अर्जुन को भगवदगीता का उपदेश देने के बाद श्री कृष्ण उससे कहते हैं, मेरे प्रियअर्जुन, मैंने तुम्हारे सामने सबसे अधिक गोपनीय ज्ञान की व्याख्या कर दी है। मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, उस पर अपनी बुद्धि से विचार करो और जो तुम्हें ठीक लगे वही करो। आध्यात्मिक गुरु, वह कृष्ण का प्रतिनिधि हो या स्वयं दुष्ट ही क्यों न हो, अपनी बात मानने के लिए शिष्य को विवश नहीं करता। बल-प्रयोग का कोई प्रभाव नहीं होता, यदि बच्चे को भी विवश किया जाये तो वह आज्ञा का पालन नहीं करेगा। इस विद्या को अच्छी तरह समझने की कोशिश करनी चाहिए, अगर तुम्हें यह विश्वास है कि तुम्हारा गुरु सच्चे अर्थ में ज्ञानी है, तब उसके सामने समर्पण कर दो, फिर भी हर बात को विवेक और तर्क से समझने की कोशिश करो तब तुम्हें सचमुच दिव्य-ज्ञान मिल सकेगा।

एक बार भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की जन्मपत्री का बारीकी से अध्ययन करने के बाद एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी, यह व्यक्ति इतना बड़ा घर बनायेगा जिसमें सारी दुनिया रह सकेगी। वह ज्योतिषी ठीक ही कहता था, भक्तिवेदांत स्वामी एक ऐसा विशाल और मजबूत आध्यात्मिक घर बनाने में सफल रहे जिसमें समुची जीव-सृष्टि समा सकती है। इस्कॉन के रूप में उन्होंने एक दिव्य धरोहर छोड़ी है, जिसे किसी भी अर्थ में गुरु संस्कृति नहीं माना जा सकता। वह दैवी अथवा दिव्य संस्कृति है।

हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—–

कुम्भज ऋषि
उत्तर प्रदेश के जनपदजालौन की कालपी तहसील के अन्तर्गत उरई से उत्तर - पूर्व की ओर 32 किलोमीटर की दूरी Read more
श्री हंस जी महाराज
श्री हंस जी महाराज का जन्म 8 नवंबर, 1900 को पौढ़ी गढ़वाल जिले के तलाई परगने के गाढ़-की-सीढ़ियां गांव में Read more
संत बूटा सिंह जी
हिन्दू धर्म में परमात्मा के विषय में दो धारणाएं प्रचलित रही हैं- पहली तो यह कि परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म Read more
महर्षि महेश योगी जी
मैं एक ऐसी पद्धति लेकर हिमालय से उतरा, जो मनुष्य के मन और हृदय को उन, ऊंचाइयों तक ले जा Read more
ओशो
मैं देख रहा हूं कि मनुष्य पूर्णतया दिशा-भ्रष्ट हो गया है, वह एक ऐसी नौका की तरह है, जो मझदार Read more
स्वामी मुक्तानंद
ईश्वर की प्राप्ति गुरु के बिना असंभव है। ज्ञान के प्रकाश से आलोकित गुरु परब्रह्म का अवतार होता है। ऐसे Read more
श्री दीपनारायण महाप्रभु जी
भारत में राजस्थान की मिट्टी ने केवल वीर योद्धा और महान सम्राट ही उत्पन्न नहीं किये, उसने साधुओं, संतों, सिद्धों और गुरुओं Read more
मेहेर बाबा
में सनातन पुरुष हूं। मैं जब यह कहता हूं कि मैं भगवान हूं, तब इसका यह अर्थ नहीं है कि Read more
साईं बाबा
श्री साईं बाबा की गणना बीसवीं शताब्दी में भारत के अग्रणी गरुओं रहस्यवादी संतों और देव-परुषों में की जाती है। Read more
संत ज्ञानेश्वर जी महाराज
दुष्टों की कुटिलता जाकर उनकी सत्कर्मों में प्रीति उत्पन्न हो और समस्त जीवों में परस्पर मित्र भाव वृद्धिंगत हो। अखिल Read more
गुरु गोबिंद सिंह जी
साहिब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज सिखों के दसवें गुरु है। गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म पौष शुक्ल Read more
गुरु तेग बहादुर
हिन्दू धर्म के रक्षक, भारतवर्ष का स्वाभिमान, अमन शांति के अवतार, कुर्बानी के प्रतीक, सिक्खों के नौवें गुरु साहिब श्री Read more
गुरु हरकिशन जी
गुरु हरकिशन जी सिक्खों के दस गुरूओं में से आठवें गुरु है। श्री गुरु हरकिशन जी का जन्म सावन वदी Read more
गुरु हर राय जी
श्री गुरु हर राय जी सिखों के सातवें गुरु थे। श्री गुरू हर राय जी का जन्म कीरतपुर साहिब ज़िला Read more
गुरु हरगोबिंद साहिब जी
श्री गुरु अर्जुन देव जी की शहीदी के बाद आपने जब देखा कि मात्र शांति के साथ कठिन समय ठीक Read more
गुरु अर्जुन देव जी महाराज
गुरु अर्जुन देव जी महाराज सिक्खों के पांचवें गुरु है। गुरु अर्जुन देव जी का जन्म 19 बैसाख, वि.सं. 1620 Read more
गुरु रामदास जी
श्री गुरु रामदास जी सिक्खों के चौथे गुरु थे। श्री गुरू रामदास जी महाराज का जन्म कार्तिक कृष्णा दूज, वि.सं.1591वीरवार Read more
गुरु अमरदास जी
श्री गुरु अमरदास जी महाराज सिखों के तीसरे गुरु साहिब थे। गुरु अमरदास जी का जन्म अमृतसर जिले के ग्राम Read more
गुरु अंगद देव जी
श्री गुरु अंगद देव जी महाराज सिखों के दूसरे गुरु थे। गुरु नानक देव जी ने इन्हीं को अपना उत्तराधिकारी Read more
गुरु नानकदेव जी
साहिब श्री गुरु नानकदेव जी का जन्म कार्तिक पूर्णिमा वि.सं. 1526 (15 अप्रैल सन् 1469) में राय भोइ तलवंडी ग्राम Read more
संत नामदेव प्रतिमा
मानव में जब चेतना नहीं रहती तो परिक्रमा करती हुई कोई आवाज जागती है। धरा जब जगमगाने लगती है, तो Read more

Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

Leave a Reply