स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय और आजादी में योगदान

स्वामी दयानंद सरस्वती

उन्नीसवीं शताब्दी मेंभारत के पुनर्जागरण के लिए जो विविध आंदोलन प्रारंभ हुए, उनमें आर्य समाज का स्थान सर्वोपरि है।इसके संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती पुनर्जागरण की उस प्रवृत्ति के प्रतिनिधि थे जिसने अपनी प्रेरणा पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान से ग्रहण न कर प्राचीन शास्त्रों से प्राप्त की थी। वस्तुतः स्वाधीनता प्राप्ति का राष्ट्रीय आंदोलन शुरू ही एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण से हुआ। भारत में सदियों के विदेशी शासन के कारण भारतीय संस्कृति और धर्म को बड़ा धक्का लगा। सांस्कृतिक मूल्यों की ओजस्विता जाती रही और उनका ह्रास होने लगा। लोगों में हीनत्व भावना बढ़ने लगी। सांस्कृतिक पुनर्जागरण ही इस दुर्दशा का उपचार था। राजनैतिक आंदोलन से पहले उसे आना ही था, क्योंकि उसी के आधार पर किसी ऐसे राजनैतिक आंदोलन की इमारत खड़ी की जा सकती थी, जिसके लिए निष्ठा, साहस तथा आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। इस महान सांस्कृतिक आंदोलन का प्रवर्तन करने वाले नेताओं में स्वामी दयानंद सरस्वती प्रमुख थे। अपने प्रचंड आंदोलन के फलस्वरूप वे एकविवादास्पद व्यक्ति बन गए थे। लोग उन्हें एक महान समाज सुधारक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का पथ प्रदर्शक मानते है। परंतु वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सूत्रधार भी थे, इसे हमे कदापि नहीं भूलना चाहिए।

महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने प्रमुख ग्रंथ सत्याये प्रकाश में जिस प्रकार राजनीति की चर्चा, देश के लिए स्वराज्य, साम्राज्य और अखंड सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य को प्रस्तुत किया है, उसे पढ़कर स्तंभित होना पडता है। उनका धर्म कोरा कर्मकांडी संप्रदाय नही था। वे राजधर्म के उपासक थे। उनका धर्म व्यक्त के लिए है और व्यक्तियों की इकाई के बाद जब समिष्ट का प्रश्न उपस्थित होता है तब वे उस राजधर्म का प्रतिपादन करते हैं, जिसकी पहली संख्या स्वराज्य है और उससे अगली है अखंड सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य। उनकी यह कल्पना और भावना उनके समस्त साहित्य और जीवन में ओत-प्रोत है। साम्राज्यवाद की प्रथम सीढ़ी राष्ट्रवाद है। इसी से ऋषि दयानंद सरस्वती ने अपने देश के लिए अखंड सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य की कल्पना की थी। उनकी स्वराज्य कल्पना कितनी सुंदर, उत्कृष्ट और विशुद्ध है, यह स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों और लेखों से स्पष्ट है।

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के नेताओं ने देश का आह्वान करते समय अपने समाज की जिन समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है और समाज के जिन क्षेत्रों में रचनात्मक कार्य के द्वारा गति प्रदान करने की चेप्टा की है, उन सभी समस्याओं को स्वामी दयानंद ने बहुत बल देकर सामने रखा था और सभी क्षेत्रों में कार्य करना आरंभ कर दिया था। वे कार्य-समानता, अस्पृश्यता निवारण, नारी उत्थान, स्वदेशीयता और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रबल समर्थक थे। उत्तर भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के प्रारंभिक दशकों के दौरान हिंदुओ की अधिकांश संख्या स्वामी जी औरआर्यसमाज की बड़ी ही प्रशंसक थी। इसका कारण वह महान सांस्कृतिक और समाज-सुधार आंदोलन ही था जिसे स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने आरंभ किया था। उनके जीवन के इस पहलू ने उन्हें एक महान राष्ट्रीय विभूति का रूप दिया। अतएव वे स्वराज्य के पथगामियों में सर्वेग्रमुख स्थान के अधिकारी हैं।

स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय

ऐसे महान ऋषि एवं राष्ट्र-निर्माता स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म सन्‌ 1824 ई० में काठियावाड प्रांत मे मौरवी राज्य के अंतर्गत टकारा नगर में राजमहल के निकट जीवापुर मुहल्ले में हुआ था। स्वामी दयानंद सरस्वती को समस्त बाल्यावस्था-संबंधी सूचना का मूलाधार स्वकथित वृत्त ही है। आर्य समाज के इतिहास लेखक पं० इंद्र विद्यावाचस्पति लिखते है, “दयानंद के चित्त में जो-जो विचार-तरंगें उत्पन्न हुईं, जो-जो क्रांतियां खड़ी हुईं, वे आकस्मिक नहीं थी, परंतु हमे यह मान लेना चाहिए कि उनके कारणों पर पूरा प्रकाश डालने के साधनों का अभाव है। हम नही जानते कि मूलशंकर के प्रारंभिक गुरु कौन थे और न हमें निश्चय पूर्वक यही ज्ञात है कि उसके खेल के साथी किस श्रेणी के थे। यह जानने का कोई उपाय नही है कि दयानंद में जो दृढ़ता और निर्भयता थी, वह माता की ओर से प्राप्त हुई थी या पिता की ओर से।

स्वामी दयानंद सरस्वती का मूल का नाम मूलशंकर पिता के धार्मिक विचारों को देखते हुए सर्वथा उचित था, क्योंकि स्वामी दयानंद सरस्वती के पिता कर्षन जी शैव मतानुयायी और शंकर के विशेष भक्त थे। ‘मूलशंकर” भी शिव की अगाध भक्त का प्रदर्शक है। श्री कर्षन जी संस्कृतविद्या-प्रिय थे तथा उनके परिवार में वेदपाठ बहुत होता था। यही कारण था कि उन्होंने अपने पुत्र मूलशंकर को भी वैदपाठ कराया था। बालक मूलशंकर की स्मरण शक्ति बहुत तीव्र थी, अतः पांच वर्ष की अवस्था से पूर्व ही उसने अक्षरबोध प्राप्त कर लिया और उसे अनेक वेदमत्र कंठस्थ हो गए थे। आठवें वर्ष उनका उपनयन संस्कार हुआ और वह नियमानुसार वेद पढ़ने लगा। 14 वर्ष की अवस्था तक वह व्याकरण ओर संपूर्णयजुर्वेद पढ़ चुका था। पिता की यह हार्दिक अभिलाषा थी कि उसका पुत्र भी उनके समान शिव का भक्त बने। इसीलिए उनका सर्वदा यही अनुरोध रहा करता था कि मूलशंकर को नियमानुसार शिव-पूजन, शिव व्रत तथा शिव-कथा-श्रावण का अभ्यास करना चाहिए। अतः उसके अंतःकरण में भी इन्ही संस्कारों का बीजारोपण किया गया।

स्वामी दयानंद सरस्वती
स्वामी दयानंद सरस्वती

शिवोपासक कर्षन जी प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि के अवसर पर मंदिर में शिव जी की पूजा और उपासना बड़ी श्रद्धा से करते थे। वे एक दृढ़ तपस्वी ब्राह्मण, पूर्णतः शास्त्रानुगामी और अपने धार्मिक विश्वासो और व्यवहारों में विख्यात थे। वे गहन आस्था, दृढ़संकल्प और कर्कश प्रकृति के मनुष्य थे। वे व्रत, उपवास, पूजा, उपासना आदि धार्मिक कृत्यों का पालन स्वयं कठोरता से करते थे तथा दूसरों से भी करवाते थे। बालक मूलशंकर की अनिच्छा तथा माता के विरोध करने पर भी 14 वर्ष की अवस्था प्राप्त होने पर पिता ने उसे शिवरात्रि का व्रत रखने के लिए तैयार कर लिया। इस व्रत मेंशिवरात्रि की रात्रि की उपवास रखकर जागरण करके शिव जी का गुणगान करना पडता है। पूजा के पश्चात्‌ अर्धरात्रि के समय जब सब सो गए तो भी मूलशंकर जागता रहा। कुछ समय पश्चात्‌ उसने एक चूहें को शिव जी की मूर्ति पर चढ़ते और भक्तजनों द्वारा चढाए गए नैवेद्य आदि का भकक्षण करते हुए देखा। यह विशेष घटना उसके बाल मस्तिष्क पर अपूर्व प्रभावोत्पादन कर भविष्य जीवन की मार्ग-निर्धारिणी सिद्ध हुई। मूलशंकर ने सोचा कि जो महादेव बड़े-बडे दानवों के व्यतिक्रम को नहीं सह सकता और त्रिशुल लेकर उनका संहार करता है, क्या वह इस साधारण चूहे को अपने ऊपर से नहीं हटा सकता ? परंतु उसने आश्चर्य और विस्मय से देखा कि वह शिव निश्चल ही रहा। तब क्या यह प्रतिमा ही वह शिव है जोकैलाश पर निवास करता है, जिसमें संसार का संहार करने की शक्ति है, जिसके त्रिशूल की ज्योति से दानवों के कलेजे कांप जाते है ? वह कोई और ही शिव होगा, इसमें और उसमे अवश्य भेद है।

तुरत लहर इक मन महँ आई । पावन परम पुनीत सुहाई॥
लगा विचार करन मन माही । लहा उत्तर ‘सो शिव” यह नाहीं ॥
चलते फिरते रमते रहते । नित त्रिशूल वह घारण करते॥
अरू डमरू सुंदर कर धरही । वृषभारूढ़ सदा वह रहही॥

इस प्रश्न ने बालक के मस्तिष्क में भ्रांति उत्पन्न कर दी और उसने बडी अशांति का अनुभव किया। उसके शंकाकुल मन को उसका पिता शांत न कर सका। फलस्वरूप उसकी प्रतिमा-पुजा से आस्था उठ गयी। उपर्युक्त घटना के लगभग दो वर्ष पश्चात्‌ उनकी 14 वर्षीय बहन की मृत्यु हुई। तीन वर्ष पश्चात्‌ उनसे अत्यंत प्रेम करने वाले चाचा जी की विशूचिका से मृत्यु हो गई। मूलशंकर का हृदय बहिन की मृत्यु के दृश्य से पहले ही नरम हो चुका था, इस दूसरी चोट ने उसे पूरी तरह वैराग्योन्मुख कर दिया। इन घटनाओं से उनके कोमल हृदय पर असाधारण प्रभाव पड़ा और वह निरंतर मुक्ति के उपाय सोचने में निमग्न रहने लगे। वे सोचने लगे कि “मुझे भी कभी मरना पडे़गा। क्या इनसे किसी प्रकार बच सकता हूं ?” वे विद्वानों और वृद्धों से अमर होने का उपाय पूछने लगे।

स्वामी दयानंद सरस्वती का गृह त्याग और ज्ञान प्राप्ति

मूलशंकर की अन्यमनस्कता और चित्तनशीलता को देखकर माता-पिता ने उसको विवाह-बंधन में बांधना चाहा। पाणिग्रहण का पूर्ण प्रबंध हो चुका था। उधर माता-पिता तो प्रसन्‍न हो रहे थे और इधर मूलशंकर ने गृह त्याग का प्रण कर लिया था। अंत में वे एक संध्या को अमरत्व और सच्चे शिव की खोज में घर से निकल पड़े। अमरत्व के पिपासु मूलशंकर ने प्रेममय घर को लात मारकर 22 वर्ष की आयु में वन का रास्ता लिया। 15 वर्ष पर्यंत वे लगभग समस्त भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में ज्ञान और सत्य की खोज में भटकते फिरे। मूलशंकर को एक ही धुन थी कि मृत्यु से छूटने का उपाय जाना जाय। उन्हें बताया गया कि उसका उपाय योग है। वे सच्चे योगी की खोज में वनों और पर्वतों आदि में भ्रमण करने लगे। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए उन्होंने पर्वत श्रृंगो एवं गिरिगुहाओं में प्रवेश कर ओर घाटियां पार करके एक सच्चे जिज्ञासु होने का परिचय दिया। परंतु उन्हें सच्चा ज्ञान कोई प्रदान नही कर सका। उन्होंने संन्यासियों से संन्यास लेने का यत्न किया परंतु अल्पायु देखकर वे लोग संकोच करते रहे। अंत में पूर्णानंद सरस्वती से संन्यास लेकर वे शुद्ध चेतन्य स्वामी दयानंद सरस्वती बने गए। उन्होंने सत्य, योग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए अनेक कष्ट सहे और तपश्चर्या की तथा हरिद्वार, बदरीनारायण और प्रयाग आदि अनेक स्थानों का भ्रमण किया। परंतु न हिमालय की सर्दी मे हृदय की पिपासा शांत हुई और न गंगा और नर्मदा के जलों ने मानसिक दाह का शमन किया। भ्रमण करते हुए उन्होंने मथुरा के दण्डी स्वामी विरजानंद का यश सुना। यह समाचार सुनते ही उन्होंने मथुरा की ओर प्रस्थान किया ओर 14 नवंबर, सन्‌ 1860 के दिन मथुरा में स्वामी विरजानंद का द्वार खटखटाया।

प्रज्ञाचक्षु होने पर भी दण्डी स्वामी को स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रतिभा को पहचानने में कोई कठिनाई नही हुई। दयानंद ने अपार श्रद्धा के साथ उनसे तीन वर्ष तक विद्या ग्रहण की। इन तीन वर्षों में दण्डी स्वामी विरजानंद के चरणों में बैठकर निरंतर गंभीर अध्ययन द्वारा उन्होंने उस सत्य ज्ञान की प्राप्ति की, जो कि निरंतर भ्रमण से उन्हें उपलब्ध न हुआ था। दण्डी जी से उन्होंने अष्टाध्यायी, महभाष्य आदि व्याकरण ग्रंथों के अतिरिक्त अन्य आर्य ग्रंथों का भी अध्ययन किया। मूर्ति पूजन का विरोध, अनार्थ ग्रंथो की उपेक्षा आदि के लिए दयानंद गुरु विरजानंद का आभारी था। वैदिक साहित्य के अध्ययन में उन्हें मूर्ति पूजन, अवतारवाद आदि बातें मिथ्या प्रतीत हुई। विद्याध्ययन समाप्त होने पर उनके पास गुरु- दक्षिणा देने के लिए कुछ नहीं था। कही से कुछ लौंग लेकर वे गुरु के चरणों में उपस्थित हुए। उस समय दण्डी जी ने कहा, “देश का उपकार करो। सत शास्त्रों का उद्धार करो। मत मतांतरो की अविद्या को मिटाओ और वैदिक धर्म फैलाओ।” स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने गुरू के इस आदेश को अंगीकार किया। इस अमूल्य उपदेश को शिरोधाय करके दयानंद गुरु के द्वार से विदा हुए।

गुरु का उपदेश शिरोधार्य करके स्वामी दयानंद सरस्वती ने तत्कालीन भारत में फैले पाखंड, अविद्या और अंधविश्वासों पर प्रबल आक्रमण किया। उस समय हिंदू धर्म अत्यंत विकृत हो चुका था। सैकड़ो मत-मतांतर चल रहे थे। प्राचीन चार वर्णो का स्थान दूषित जात-पात ने ले रखा था। नारी, शूद्र और अछूत, ये मानो मनुष्य ही नही थे। ईसाई ओर इस्लाम धरम जीर्ण-शीर्ण हिंदू धर्म पर नवोन्मेप के साथ आक्रमण कर रहे थे। डॉ० गोकुलचंद नारंग के शब्दो में, “वह समय ऐसा था जब कि ईसाई और मुसलमान हिंदुओं पर निरंतर घृणित आक्रमण करके हिंदुओं के देवी-देवताओं आदि की भरपेट निंदा करते थे।” ऐसी स्थिति में स्वामी दयानंद धर्म-प्रचारार्थ निकले। उन्होंने सदियों से प्रचलित अंधविश्वासो और रूढ़ि़यो के खण्डन का बीड़ा उठाया जिसके लिए उन्हें चहुंमुखी लडाई लड़नी पड़ी। गुरु के आदेशानुसार उन्हें अविद्या ग्रस्त मत-मतातंरों को हटाना, मूर्ति-पूजा खंडन,मनुष्यकृत ग्रंथो के स्थान पर आर्य ग्रंथों का प्रचार, सत्य विद्याओं की आदि पुस्तक वेद की स्थापना करना और समाज में प्रचलित बुराइयों ओर धर्म के नाम पर होने वाले अत्याचारों का नाश करना था।

1857 की क्रांति में स्वामी दयानंद सरस्वती का योगदान

1857 की क्रांति के समय स्वामी दयानंद सरस्वती की आयु 33 वर्ष के लगभग थी। विदेशियों द्वारा किए जा रहे सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक आक्रमण को निरस्त करने के लिए, दयानंद रणक्षेत्र मे कूद पड़े। 1855 मे हरिद्वार में विशाल कुंभ मेला लगा। संन्यासी-गृहस्थी, राजा-रंक सभी इस मेले में सम्मिलित होने के लिए हरिद्वार पहुंच रहे थे। अग्रेजों के अत्याचार के कारण निर्धनों की जीर्ण-शीर्ण कुटियों से लेकर राजमहलों तक अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह की चिंगारी सुलग रही थी। स्वामी दयानंद सरस्वती इस चिंगारी को दावानल में बदल देने का कार्यक्रम बनाकर पैदल ही आबू पर्वत से दिल्ली होते हुए हरिद्वार जा पहुंचे और गंगा पार चंडी पहाड़ के एकांत स्थल में अपना डेरा जमाया। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के सेनानी नाना साहब, बाला साहब, अजीमुल्लाखां, तात्या टोपे, कुंवर सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई तथा अनेक प्रमुख नेता वही पर स्वामी दयानंद सरस्वती से मिले। ऋषि दयानंद सरस्वती ने इन सभी को क्रांति का विचार, प्रेरणा तथा कार्यक्रम दिया।

स्वामी दयानंद सरस्वती साधु संन्यासियों तथा आम जनता में स्वदेश व स्वधर्म की रक्षा का प्रचार करने लगे। वे साधु संन्यासियों के सभी सम्प्रदायों के मठाधीशों से मिले और उनसे भावी युद्ध में अपने योगदान की प्रार्थना की। परंतु उन्हें अत्यंत निराशा हाथ लगी। जब विलासिता में डूबे मठाधीशों ने कहा कि हमें देश की स्वतंत्रता से कुछ लेना देना नहीं। समाज और राष्ट्र के विषय में सोचना भी हमारे लिए पाप है। हमने तो गृह संसार का त्याग अपनी मुक्ति के लिए किया है। स्वामी दयानंद सरस्वती समझ गए कि इनकी मुक्ति की साधना विलासी जीवन का ही एक प्रकार है। वे प्रच्छन्न रूप से संन्यासियों के दल का गठन करने लगे और उन सब को सैनिक छावनियों में जाकर स्वाधीनता संग्राम का प्रचार करने का परामर्श दिया। इस संगठन का गुप्त केंद्र दिल्ली के महरौली में स्थित योगमाया मंदिर को बनाया। इसी मंदिर से समस्त देश की गुप्त सूचनाएं प्राप्त की जाती थी और उचित निर्देश दिए जाते थे।

1857 की क्रांति से पूर्व एक रोटी भारत के गांव गांव में घूमती दृष्टिगोचर होती थी। जिस गांव में यह रोटी पहुंचती उस गांव का मुखिया रोटी का कुछ अंश स्वयं खाकर शेष ग्रामवासियों में बांट देता था। और एक दूसरी रोटी बनाकर अन्य गांव में भेज दी जाती थी। इसी प्रकार एक लाल कमल हर सैनिक छावनी में घूम रहा था। यह लाल कमल जिस सैन्यवास में जाता वहां स्वतंत्रता संग्राम की तिथि घोषित हो जाती। और कमल चुपचाप बिना किसी के एक शब्द बोले ही एक सैनिक के साथ से दूसरे सैनिक के साथ में पहुंचता चला जाता। अंतिम सैनिक के साथ में पहुंचते ही वह सैनिक देखते ही देखते आंखों से ओझल हो जाता और दूसरी छावनी में लाल कमल पहुंचा देता। इस तरह उस युग में जब आधुनिक काल की तरह , सुचना और प्रचार की आधुनिक सुविधाओं का एकदम अभाव था। रोटी और लाल कमल ने भारत के जन-जन में क्रांति का मंत्र फूक दिया था। यह जानकर आश्चर्य है कि रोटी और लाल कमल द्वारा क्रांति का प्रचार करने का विचार स्वामी दयानंद ने ही हरिद्वार के कुंभ मेले में स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियो को दिया था। इस रोटी और लाल कमल वाली क्रांति की भनक अंग्रेजों को तनिक भी न लगी।

मंगल पांड़े भी अन्य स्वतंत्रता-सेनानियों की भांति स्वामी दयानंद सरस्वती से ही प्रेरित थे। मेरठ छावनी के कतिपय सैनिक नगर में गए तो भारतीय ललनाओं ने उनकी कायरता के लिए उन्हें धिककारा। फलतः 10 मई को मेरठ में क्रांति की घोषणा हो गई और भारतीय सैनिको ने दिल्ली की ओर कूच कर दिया। अब क्रांति के इस धधकते लावा को कौन रोक सकता था। सारे देश में एक आग-सी लग गई। दिल्‍ली, कानपुर, झांसी, लखनऊ, इलाहाबाद, मुरादाबाद, कलकत्ता, पटना आदि सभी स्थानों में भारतीय जनता और सैनिक पराधीन भारत माता की मुक्ति के लिए अंग्रेजों से जूझने लगे। स्वामी दयानंद सरस्वती की अज्ञात जीवनी योगी का आत्मचरित्र’ नाम से प्रकाशित होने पर स्वामी दयानंद के जीवन ओर तत्कालीन इतिहास पर से रहस्य का पर्दा उठा है और यह सच्चाई सामने आ गई है। नाना साहब, तात्या टोपे, वीरांगना लक्ष्मीबाई, वीर कुंवरसिह, अजीमुल्लाखां और मुगल बादशाहबहादुर शाह जफर आदि के नेतृत्व में भारतीय सेना ने अद्भुत पराक्रम दिखाया। अंग्रेजों के छक्के छूट गए।

परतु भारत माता को अभी ओर बुरे दिन देखने थे। हमारी विजय पराजय मे परिवर्तित हो गई। अंग्रेजों ने क्रांति के दमन के लिए बडी क्रूरता से प्रतिशोध लिया। महारानी लक्ष्मीबाई और वीर कुंवरसिंह ने अग्रेजों से लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त की। बादशाह बहादुर शाह जफर को देश निर्वासन का दंड मिला। नाना साहब कहा गये ? पेशवा नाना साहब ओर तात्या टोपे अंग्रेजों की आंखो से ओझल हो गये और नेपाल मे शरण लेने को चल पड़े। लेकिन नेपाल के राजा जंगबहादुर ने विद्रोहियों को आश्रय नही दिया। नाना साहब ने अंग्रेजों की आंखों में धूल झोकने के लिए यह अफवाह फैला दी कि पेशवा और उनके साथियों को नेपाल के जंगलों में जंगली जानवर खा गये, परंतु उपर्युक्त अज्ञात जीवनी के अनुसार नाना साहब तात्या टोपे, दुर्जय राव के साथ साधु वेश में दिल्ली के योगमाया मंदिर में स्वामी दयानंद सरस्वती का पता मालूम करके भारत के धुर दक्षिण में कन्या कुमारी जा पहुंचे। स्वामी ने नाना साहब को संग्राम में मिली असफलता से निराश होकर आत्माहत्या करने से रोका और उन्हे पुनः भारत माता की सेवा करने की प्रेरणा दी। नाना साहब स्वामी दयानंद सरस्वती से संन्यास की दीक्षा लेकर दयानंद योगेन्द्र के नाम से ऋषि की जन्मस्थली टंकारा में जनता की सेवा करने लगे। यही पर नाना साहब पेशवा की समाधि भी बनी हुईं है।

1857 की क्रांति को कुचलने पश्चात्‌ अंग्रेज समझने लगा था कि अब भारत में संभवतः फिर सरलता से कोई स्वतंत्रता का नाम नही ले सकेगा। कुछ सीमा तक उसका सोचना सम्यक ही था। अपने अत्याचारों में उन दिनों कोई कसर अंग्रेजों ने उठाकर नही रखी। जितना रक्त इस क्रांति में बहा वह अपना उदाहरण नही रखता। खोज-खोजकर अंग्रेज़ो ने उन सबको फांसी के घाट उतारा, जिसमें स्वतंत्रता की कुछ भी तड़प शेष रह गई थी। दिल्ली, कानपुर, झांसी, इलाहाबाद और ग्वालियर के निवासी तो आज भी उन दृश्यों की कल्पना करके कांप उठते है। फिर जिन पर यह सब बीती होगी उनका भला क्या हाल रहा होगा ? क्रांति उस समय किसी भांति दब तो गई, पर अंग्रेज़ बराबर आशंकित बना रहा। उसने पग-पग पर अपने गुप्तचर बिठा दिये। कलम बंद कर दी और जबानों पर भी ताले डाल दिये। न कोई कुछ लिख सकता था और न कुछ बोल सकता था। ऐसी अवस्था में स्वतंत्रता की आवाज उठाना कोई सरल काम नही था।

कुछ अधकचरे इतिहासकारों ने 1857 की क्रांति के बाद 1885 तक के काल को भारतीय स्वराज्य आंदोलन की दृष्टि से अंधकार का समय माना है। उनकी दृष्टि में इन 28 वर्षो में स्व॒राज्य की आवाज उठाने वाला ही कोई देश में नहीं रह गया था। बहुत कम लोग है जो इस तथ्य से भी परिचित है कि इसी अंधकार के समय भारतीय आकाश में स्वतंत्रता का एक प्रकाशमय नक्षत्र उभरकर सामने आया। वह था गुजरात निवासी स्वामी दयानंद सरस्वती। उनका कार्य-क्षेत्र कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारा देश था। स्वामी जी ने जब अपनी आंखों से सैकड़ो स्वतंत्रता-प्रेमियों को तोपों के मुंह से बांधकर उड़ाये जाते देखा और हज़ारों को चौराहे के पेड़ों पर लटकाकर फांसी लगते देखा तो आपका खून खौल पड़ा। अंग्रेज़ों की इन ज़ालिमाना हरकतों से वे तिलमिला उठे। पहले उन्होंने क्रांति के मूल में जाकर उसकी असफलता के कारणों का पता लगाया। उनका विचार था–देशी रियासतों ने भी यदि उस समय स्वाधीनता संग्राम में अपना कंधा लगा दिया होता तो भारत नब्बे साल पहले ही स्वतंत्र हो जाता। पर कुछ देशी रियासतों ने क्रांति का साथ देना तो दूर उल्टे अंग्रेज़ों का ही साथ देकर अपने मुंह पर ही कालिख पोत ली। एकाध छावनियों में क्रांति की चिंगारियां उठी, पर अधिकांश छावनियों में क्रांति की वह हवा पहुंच नहीं सकी। इन दोनो बातो को स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने गांठ बांध लिया।

कुछ समय आगरा, अजमेर आदि मे प्रचार करके स्वामी जी ने सन्‌ 1867 ई० के अप्रैल मास मे कुंभ के अवसर पर हरिद्वार और ऋषिकेश के मध्य अपनी पाखंड खंडिनी पताका स्थापित की। यह प्रथम अवसर था जब स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने एक विशाल जनसमूह के सम्मुख हिंदू समाज में प्रचलित अनाचारों और बुराइयों का खंडन करके वैदिक धर्म का प्रतिपादन किया। उसके पश्चात्‌ स्वामी जी ने विभिन्‍न संप्रदायों के विद्वानों से काशी, प्रयाग, अजमेर आदि अनेक स्थानों पर शास्त्रार्थ किये, जिनसे उनका यश चतुदिक्‌ व्याप्त हो गया। सर्वत्र उनके गंभीर पांडित्य, स्पष्ट विचारों, निर्भीक उक्तियों तथा हिंदू धर्म की नूतन व्याख्याओं ने देश के अनेक लोगों को उनके उपदेश सुनने के लिए आकर्षित किया। शिक्षित वर्ग स्वामी जी के मुख से गुण-कर्म द्वारा वर्णाश्रम की मान्यता, बाल-विवाह खंडन, विधवा-विवाह की आवश्यकता और एकेश्वरवाद का प्रचार आदि सामग्रिक सर्वग्राह्म सिद्धातों का प्रतिपादन सुनकर आकर्षित हुआ। उन्होंने निर्भीक स्वर में मू्र्ति-पूजा, बहुदेवोपासना आदि को मूत्र भारतीय धर्म के विरूद्ध घोषित करते हुए समाज से प्रचलित अंधविश्वासों पर एक सच्चे संस्कारक की तरह जोरों से प्रहार किया और जातिगत ऊंच नीच संबंधी भावनाओं की जड़ से उखाडने के सत्कार्य से लेकर शिक्षा-प्रसार, बाल-विवाह निषेध, स्त्रियों के पुनरुद्धार आदि विविध राष्ट्रहित मूलक सुधारों की ओर खुलकर अपना हाथ बढ़ाया। इस प्रकार भारतीय समाज को एक ही सूत्र मे संगठित करने के महान अनुष्ठान में इस प्रखर संन्यासी ने अपने ढंग से अभूतपूर्व योग दिया। विरोधियों के लाख हाथ-पैर पटकने पर भी उसका दुरद्धेष तेज किसी के दबाएं न दबाया जा सका। उसने इस
देश के धर्म-आंगन में एक व्यापक क्रांति का सूत्रणात कर दिया, जिसने कालांतर में हमारे जीवन के अन्य अंगों को भी हिलाने में परोक्ष अथवा अपरोक्ष भाव से अमूल्य सहायता दी। निश्चय ही स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे नेताओं द्वारा प्रज्वलित चिंगारियों ही ने आगे चलकर उस प्रचंड सर्वव्यापी क्रांति की लपट को जन्म दिया, जिसने आधुनिक भारत के कलेबर में फिर से एक विद्युत चेतना का संचार कर दिया।

प्रचार कार्य करते-करते सन्‌ 1872 ई० के दिसंबर मास में स्वामीजी भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता पहुंचे। वहां के लाट पादरी ने महर्षि दयानंद सरस्वती की भेंट भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड नार्थब्रुक से करवाई। लार्ड नार्थब्रुक ने स्वामी दयानंद से वार्तालाप के समय यह पस्ताव रखा कि आप अपने प्रवचनों मे अखंड अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के लिए प्रार्थना किया करें। स्वामी जी ने निर्भयता से लार्ड को दो टूक उत्तर दिया कि अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के लिए प्रार्थना करना तो दूर रहा, मैं तो सदैव ही भारत की स्वतंत्रता और अंग्रेजी राज्य के नाश के लिए प्रार्थना करता रहता हूं। वह वार्ता वही भंग हो गई।

आर्यसमाज की स्थापना

लार्ड नार्थब्रुक ने यह घटना अपनी एक साप्ताहिक डायरी में इंडिया आफिस लंदन भेजी और महारानी विक्टोरिया की सरकार के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को लिखा कि उसने इस बागी फ़कीर की कड़ी निगरानी करने के लिए गुप्तचर नियुक्त करने के आदेश दे दिए हैं। देखते-देखते स्वामी दयानंद सरस्वती अंग्रेजों की सूची में शत्रु नंबर एक का स्थान पा गये। अतएवं यह सत्य है कि पूर्ण स्वतंत्रता का नारा सर्वप्रथम ‘सत्यार्थ प्रकाश के रचयिता मे वायसराय नार्थब्रुक के घर पर 1872 ई० में लगाया था और उसका स्थिर बीजारोपण ‘सत्यार्थ प्रकाश में किया था, जिसे इस घटना के बाद शीघ्रतिशीघ्र मुद्रित करवाने की योजना बनाई गयी। कलकत्ता में स्वामी जी ने अपने युग के धर्म के क्षेत्र के अन्य तीन प्रमुख भारतीय महापुरुषो– रामकृष्ण परमहंस, देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचंद्र सेन से भेंट की। केशवचंद्र सेन के नेतृत्व मे ब्रह्मसमाज ने उनका हृदय से स्वागत किया और अपने कार्य में सहयोग की आशा से उनकी ओर भ्रातृत्व का हाथ बढाया। किंतु स्वामी दयानंद सरस्वती की उनके साथ पटना मुश्किल था। वह स्वयं पाश्चात्यीकरण के घोर विरोधी और वेदों की भित्ति पर प्रस्थापित विशुद्ध आर्य धर्म ही के प्रबल उपासक थे, जबकि केशवचंद्र सेन के नेतृत्व में ब्रह्मसमाज अधिकाधिक ईसाईयत
और पाश्चात्य विचारों की ओर ही झुकता चला जा रहा था। हां, श्री केशव चंद्र सेन के परामर्श से आपने जनता में संस्कृत के स्थान पर हिंदी में भाषण देना आरंभ कर दिया।

ब्रह्मसमाज का संगठन देखने के पश्चात्‌ स्वामी दयानंद सरस्वती के मस्तिष्क में विचार उठा कि कोई ऐसा संगठन बना दिया जाये जो उनके द्वारा प्रतिपादित वेदिक सिद्धातों का प्रचार करे और उनके पश्चात्‌ भी कार्य सुचारु रूप से चलता रहे। वस्तुतः उन्हें अब दिन पर दिन देश मे बढते चले जा रहे पश्चिम के प्रभाव और ईसाई मत की ओर कुछ शिक्षित लोगों के खतरनाक झुकाव को राष्ट्रीय हित की दृष्टि से रोकने के लिए एक निश्चित-सुसंगठित प्रयास करने की आवश्यकता दिखाई देने लगी थी। वह स्वय एक ऐसी धर्मवेदी की संस्थापना करने के लिए उत्कंठित थे जो वेदो की नीव पर पुनः आर्यसमाज का झंडा खड़ा कर सारे देश को क्रमणः एक ही धर्मसूत्र में बांध दे। उनका यह विचार उनके अंतस्तल मे से बाहर आकर अब स्थूल रूप में मूर्तिमान होने के लिए अवसर दूढ़ रहा था। अंत में वह सुअवसर भी आ पहुँचा और दो वर्ष बाद बंबई में 10 अप्रैल, सन्‌ 1875 ई० के दिन अपने सबसे महान स्मारक ‘आर्यसमाज’ नीव डालकर उन्होंने उस धर्मवेदी की स्थापना कर दी, जिससे कि आज के दिन सब कोई परिचित है। यह प्रथम अवसर था कि स्वामी जी के विचारों में दृढ़ आस्था रखने वाले स्वसंगठन बनाने के लिए एकत्र हुए। स्वामी जी के अनुयायियों की संख्या अब तक सहस्रो से अधिक हो चुकी थी। वे लोग विकीर्ण पुष्पों की भांति इधर-उधर बिखरे पडे थे, उनकी माला तैयार नही थी। संगठित न होने से उनकी शक्तियां बहुत फैली हुई थी, परंतु उनका कोई केंद्र नही था। इस अभाव को स्वामी जी के शिष्य वर्षों से अनुभव कर रहे थे। एक ऐसी संस्था की आवश्यकता थी, जो अंधविश्वास, रूढ़िवाद, आडबर एवं प्रचलित धार्मिक अनाचारों से मुक्त हो, जो राष्ट्र को एक सूत्र में बांध सके और वैदिक सिद्धांतों का प्रचार कर सके। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने आर्यसमाज की स्थापना कर इस कमी को पूरा कर दिया।

आर्यसमाज का स्वतंत्रता में योगदान

उपर्युक्त संगठन कार्य के पश्चात्‌ स्वामी जी ने अपना कार्यक्षेत्र देशी
रियासतों और सैनिक छावनियों वाले नगरो को ही चुना। जितनी भी आर्य समाज की शाखायें अपने जीवनकाल मे उन्होने खोली वे भी प्रायः उन्ही नगरो में प्रारंभ हुई जहा सैनिक छावनियां थी।बंबई, पूना, कलकत्ता, पेशावर, लाहौर, लखनऊ, कानपुर,रुडकी, देहरादून, मेरठ और मऊ आदि नगर उन्ही मे से थे। अपने भ्रमण का भी कार्यक्रम ऐसे ही अधिकाश नगरो में स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने रखा जहां अच्छी सख्या में भारतीय सैनिको की टुकडियां रहती थी। उन दिनों आर्यसमाज के धार्मिक सत्संगों मे सैनिक अधिकारी भी प्रत्येक स्थान पर अच्छी सख्या में आने लगे थे। स्वामी जी के भाषणों में सम्मिलित होने के अतिरिक्त उनके ग्रंथों के स्वाध्याय की प्रवृत्ति भी सैनिकों में अच्छी चल पड़ी थी। स्वामी जी द्वारा लिखित प्रमुख ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश और वेद की व्याख्या में भी स्थान-स्थान पर पराधीनता के जुएं को उतार फेकने की चर्चाएं लिखी मिलती है। ‘प्रभो, हमारे देश मे कभी विदेशी राजा का राज न रहे! इस तरह की प्रार्थनाएं भी उपासना मत्रों में स्वामी जीने सम्मिलित की। “कोई कितना ही करे, परंतु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है।***प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय एवं दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नही है।” स्वामी जी ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ मे यह शखनांद उस समय किया था, जब भारत मे ब्रिटिश साम्राज्यशाही की जडें पाताल तक पहुँच चुकी थी, जब स्व॒तंत्रता की बात करना राजद्रोह समझा जाता था, जब भारत को स्व॒राज्य दिलाने का श्रेय लेने वाली “भारतीय राष्ट्रीय काग्रेस” बनी भी नहीं थी, जब स्वतंत्रता आदोलन का सबसे बड़े नेता कहलाने वाले महात्मा गांधी अभी 5-6 वर्ष के बच्चे थे और जब विदेशों में जाकर “आजाद हिंद फौज बनाकर अंग्रेजों को भारत को स्वराज्य देने पर बाध्य करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस का अभी जन्म नही हुआ था। डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी के शब्दों में, “महर्षि दयानंद ने ‘सत्यार्थ प्रकाश” मे एक स्वतंत्र भारत की कल्पना की थी जिसमें संस्कृति तथा सभ्यता की अमूल्य परंपराएं अक्षुण्ण रहे।” लोकमान्य गंगाधर तिलक ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के रचयिता को “स्वराज्य का सर्वप्रथम संदेश वाहक कहा था और वीर सावरकर ने ‘स्वाधीनता संग्राम का सर्वप्रथम योद्धा।

सत्यार्थ प्रकाश” की निर्माण-योजना सन्‌ 1863 में आरंभ हो चुकी थी। सत्यार्थ प्रकाश’ के दूरद्रष्टा लेखक ने भारत के कोने कोने में भ्रमण कर व्याख्यानों एवं शास्त्रार्थों द्वारा जहां ‘स्वधर्म, स्वदेशी, स्वभाषा, स्व-सस्कृति’ का प्रचार किया, वहां उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश लिखकर इन उदात्त भावनाओं के स्थिरीकरण की योजना बनाई। इन सबके मूल में था ‘स्वराज्य’ का तीव्र स्वर, उनका दृढ़ मत था कि देश में अपना राज्य हुए बिना न ठीक प्रकार से ईश्वर की भक्ति हो सकती है, न धर्म का प्रचार, न राष्ट्र में सम्पन्नता आ सकती है, न समाज-सुधार किया जा सकता है। भारत को स्वतंत्र करने के लिए धधकती ज्वाला हृदय में रखने वाले युगपुरुष ने अपने अमर ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश में आर्यो के चक्रवर्ती राज्य की याद देशवासियों को दिलाई और उनमें नई चेतना भरने के लिए लिखा, “सृष्टि से लेकर महाभारत पर्यन्त चक्रवर्ती, सर्वभौम राजा आर्यकुल में ही हुए थे, अब इनके संतानों का अभाग्योदय होने से राजभ्रष्ठ होकर विदेशियों के पदाक्रांत हो रहे है ।”

‘सत्यार्थ प्रकाश का एक पूरा समुल्लास ही उन्होंने राजधर्म की व्याख्या में लिखा है। उन दिनों सरकारी कार्यालयों में देशी जूते पहनकर जाने पर प्रतिबंध था। स्वामी दयानंद सरस्वती जी को यह बात चुभी। उन्होंने इस ग्रंथ मे एक स्थान पर लिखा, “जब इन लोगों को हमारे देश के बने हुए जूतों से भी इतनी घृणा है, तब हमारे देश के मनुष्यों से तो पता नही कितनी घृणा इन्हे होगी।” दोनों हाथो से अंग्रेजों द्वारा भारतीय संपदा की लूट का वर्णन करते हुए इसी ग्रंथ में उन्होंने एक स्थान पर लिखा है, “हमने सुना है, पारस पत्थर नाम का कोई ऐसा पत्थर होता है जिसके स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है परंतु आज तक यह पत्थर किसी के देखने में नही आया। हमारा तो अनुमान यह है कि भारत देश ही वह पारस पत्थर है जिसमे बाहर से जो भी दरिद्र विदेशी लोहा बनकर आए वे यहां से सोना बनकर ही गए।” इस प्रकार जिन परिस्थितियों मे स्वामी दयानंद सरस्वती जी देश मे आजादी की अलख जगाते फिर रहे थे उसकी कल्पना भी आज आसानी से नही हो सकती।

वस्तुत: स्वराज्य और स्वदेशी की ऐसी लहर महर्पि दयानंद ने चलाई जिससे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के निर्माण को पृष्ठभूमि तैयार हो गई। कांग्रेस आंदोलन में तीव्रता तब आई जब ‘सत्यार्थ प्रकाश की ‘स्वराज्य-भावना से प्रेरणा पाने वाले श्री गोविन्द रानाडे, श्री गोपालकृष्ण गोखले, पं० श्यामजी कृष्ण वर्मा, स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपत राय, भाई परमानंद, प० राम प्रसाद बिस्मिल, अमर शहीद भगत सिंह जैसे धीर-वीर महापुरुष स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। मौलाना हसरत मोहानी तक के मुंह से निकला था, “लगभग नब्बे प्रतिशत आर्यसमाजी स्वराज्य के कार्यों में भाग लेने वाले लीडर थे, जबकि अन्य सोसाइटियों के मुश्किल से 2-3 प्रतिशत आदमी ही स्वराज्य का काम करते थे।” सत्यार्थ प्रकाश’ से प्रेरणा प्राप्त कर गुरुकुल कांगड़ी और डी० ए० बी० के रूप में चले राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलनों के युवकों ने अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी। क्रांतिकारियों में अग्रणी सरदार भगतसिंह डी० ए० वी० कालेज, लाहौर के ही छात्र थे।

गाय का प्रश्न भी 1857 के विद्रोह में एक प्रमुख आधार बना। उस समय जो कारतूस बंदूकों में लगते थे, उनमें गाय की चर्बी का भी प्रयोग होता था। बंदूक भरने के पूर्व सिपाहियों को कारतूस का खोल मुंह से तोडना पडता था। जब सिपाहियों को यह पता लगा कि इसमे गाय की चर्बी लगती है तो उनकी धार्मिक भावना का भड़क उठना स्वाभाविक था। कई स्थानों पर तो सिपाहियों ने इसका स्पष्ट विरोध भी किया पर उन्हे अपेक्षित सफलता नहीं मिली। सिपाहियों को हथियार उठाने में गाय के प्रति श्रद्धाभाव ने भी उस समय आग में घी का काम किया। स्वामी दयानंद सरस्वती जी की दृष्टि भी उस ओर गयी। नीति के नाते और नैतिक दृष्टि से भी उन्होंने उस महत्त्वपूर्ण प्रश्न को खूब उभारा। स्वामी जी ने 1857 के बाद गाय की उपयोगिता पर ही एक पुस्तक गोकरुणानिधि’ लिखी। इसमें एक स्थान पर तो यहां तक स्वामी जी ने लिख दिया, “जो गाय के रक्षक नहीं है, भक्षक हैं, वे म्लेच्छ हैं। भारत की पुण्यभूमि मे एक क्षण भी म्लेच्छों को रहने का अधिकार नही है।” महारानी विक्टोरिया को गौवध बंद कराने के लिए एक स्मृति-पत्र भी उन्होंने उन्हीं दिनो भिजवाया था। संपूर्ण देश से दो करोड़ हस्ताक्षर इस पर कराने का अभियान चलाया गया। इस तरह स्वतंत्रता की तड़प उत्पन्न करने में जो भी कारण सहायक बन सकते थे, उन सबका ही स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने प्रयोग किया।

गुजरात में उत्पन्न होने के कारण महर्षि की मातृभाषा गुजराती थी । उनकी शिक्षा-दीक्षा सारी संस्कृत में हुई पर उन्होंने अपने भाषणों और ग्रंथों का माध्यम हिंदी को बनाया। उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की आवश्यकता पर बल दिया और हिंदी भाषा का प्रचार करने को कहा। साथ ही ज्ञान-वृद्धि के लिए किसी भी भारतीय मूल की आंचलिक भाषा के सीखने के वे विरुद्ध नही थे । किंतु जब उनका पर्दापण भारतीय सार्वजनिक रंगमंच पर हुआ तो भारत में राजनीति एवं राष्ट्रीय एकता को बांधने वाला कोई सूत्र नही था। तब उन्होंने साहस के साथ एक निर्णय लिया कि आरंभ में बोल-चाल के लिए टूटी-फूटी हिंदी हो चलेगी, किंतु देवनागरी में हिंदी भारती (आर्य भाषा) में ही अपने ग्रंथ लिखूगा। हिंदी के लिए उनका यह संकल्प एक नीव का पत्थर सिद्ध हुआ आर्य समाज ने उस स्वप्न को साकार कर दिखाया। विकृत-विखंडित समाज को एक दिशा सूत्र प्रदान करने में ऋषि दयानंद सरस्वती एवं आर्य समाज अग्रणी रहे।

एक सज्जन ने स्वामी जो के सम्मुख यह सुझाव रखा कि आप अपने ग्रंथों को विदेशी भाषाओं में विशेषत: फारसी में अनुवाद करवायें तो उन्होंने कहा, “अनुवाद प्रायः विदेशी लोगों के लिए ही होना चाहिए।” अपने देशवासियों में स्वयं अपनी राष्ट्रीय भाषाओं के माध्यम से साहित्य-सृजन होगा तो एकता एवं संगठन भी इसके संपर्क से निश्चय ही आ जायेगा। मुसलमान मित्र भारतवासी होकर यदि अपने देश की भाषा को भी न अपनाये तो और उनसे क्या आशा की जा सकती है ? राष्ट्र ऋर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने व्याख्यानों में यह उत्कट इच्छा प्रकट की कि मैं तो वह दिन देखना चाहता हूं कि जब हिमालय से लेकर सागर तक एवं सारे ब्रह्मवर्त, आर्यावर्त में देवनागरी लिपि में ही सभी आर्य भाषाओं को अपनायें। क्योंकि देवनागरी अक्षरों को ही देवनागरी कुहलवाने का सौभाग्य प्राप्त हैं और आगे जहा उसके व्याकरण का प्रश्न है उसकी सक्षमता, श्रेष्ठता को संसार के सभी भाषाविदों एवं अन्य विद्वानों ने निविवाद रूप से स्वीकार कर लिया है।

वस्तुतः स्वामी जी भली भांति जानते थे कि हिंदी के द्वारा देश को जगाने में सरलता रहेगी। एक बार स्वामी दयानंद सरस्वती जी की अंग्रेजी से अनभिज्ञता पर खेद प्रकट करते हुए ब्रह्मममाज के नेता श्री केशवचंद्र सेन ने कहा, “महाराज, आपने एक बहुत बड़ी भूल की जो अंग्रेजी नही पढ़ी। यदि आप अंग्रेज़ी जानते तो वेदों का संदेश अमेरिका , इंग्लैंड और जर्मनी में भी जाकर देते।” इस पर स्वामी जी ने हंसकर कहा, “केशव बाबू, एक भूल आपसे भी हुई । आपने संस्कृत नही पढ़ी यदि आप संस्कृत जानते तो एक ओर एक ग्यारह पहले हम दोनों मिलकर अपने घर का सुधार करते, बाद में समय रहता तो बाहर भी चलते।” स्वामीजी का विचार था, पराधीन देश के रहने वाले क्या संसार की आंखें खोलेंगे। उदयपुर के तो अपने एक भाषण में उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए समग्र देश में एक भाषा का होना भी बहुत आवश्यक बताया था।

स्पष्ट है कि प्रथम स्वाधीनता संग्राम की असफलता के बावजूद स्वतंत्रता का संघर्ष रुका नही। स्वामी दयानंद सरस्वती देश की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक क्रांति के लिए वेद प्रचार के माध्यम से नवीन उत्साह व साहस से पुन: जुट गये। उन्होंने स्वयं श्यामजी कृष्ण वर्मा को विदेश भेजकर क्रांति की अग्नि शिखा को प्रज्वलित रखने की प्रेरणा दी। प्रसिद्ध क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में एक स्थान पर लिखा है, “मैंने आर्यसमाज, शाहजहांपुर के उत्सव से एक आर्य संन्यासी के मुख से यह सुना कि भाई परमानंद को फांसी दी जायेगी । मैंने उसी समय अपने मन में फेसला कर लिया– जब तक मैं भी उसके बदले मे दस अंग्रेजों को मौत के घाट नही उतार दूंगा तब तक चैन से नही बैठूगा।” श्री बिस्मिल ने वहां लिखा है कि मेरे क्रांतिकारी जीवन के प्रारंभ की यही से बुनियाद पडी। उसके बाद ही मैने रिवाल्वर चलाने और निशाना लगाने की ट्रेनिंग ली। क्रांतिकारी वीर सावरकर ने स्वामीजी को विदेशीपन में देश को सावधान करने के कारण मानसिक दासता से मुक्त करने वाले कायाकल्प का जनक कहा है।

अंग्रेज गुप्तचर स्वामी दयानंद सरस्वती के पीछे लगे हुए थे। गुप्तचरों से पता लगा कि यह साधु धर्म-प्रचार की आड में फिर से देश को एक नई क्रांति के लिए तैयार कर रहा है। अंग्रेजों ने जोधपुर दरबार से इसके लिए कुछ गुप्त पत्र-व्यवहार भी उन्ही दिनों किया। अभी तक वे सब बातें तो पूरी तरह सामने नही आ सकी पर स्वामी दयानंद सरस्वती जी की असामयिक मृत्यु में अंग्रेजो का भी निश्चित हाथ बताया जाता है। जोधपुर में उनको विष देने के बाद जब आबू में वे अपनी चिकित्सा करवा रहे थे तब ही कुछ डाक्टरों के माध्यम से यह सब षडयंत्र किया गया। फलस्वरूप 30 अक्तूबर, सन्‌ 1883 ई० को आधुनिक जाग्रत भारत के अग्रदूत स्वामी दयानंद सरस्वती का देहावसान हो गया। कवि नाथूराम शंकर ‘महर्षि-महिमा’ कविता मे लिखते है:

हारे प्रतियोगी पड़ी मत पन्‍थों पर गाज ।
धार दया आनन्द से, उभगा आर्यसमाज ॥
प्यारे वैदिक धर्म से, कर हमको संयुक्त ।
त्याग देह को हो गये, दयानंद ऋषि मुक्त ॥

महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा, “आधुनिक भारत के मार्ग दर्शक स्वामी दयानंद सरस्वती को मैं सादर श्रद्धांजलि समर्पित करता हूं ।” पाल रिचार्ड ने लिखा, “स्वामी दयानंद नि.संदेह एक ऋषि थे। उनका प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त करने और जाति बंधन तोडने के लिए हुआ था।”

महर्षि दयानंद सरस्वती की मृत्यु

स्वामी दयानंद सरस्वती जी की मृत्यु के पश्चात्‌ आर्यसमाज को भी अंग्रेजों ने संशकित दृष्टि से देखना प्रारंभ कर दिया। आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संगो में गुप्तचर भेजे जाने लगे। वहां क्‍या उपदेश होते हैं और क्या चर्चाएं होती है इसकी रिपोर्ट जाने लगी। उधर आर्यसमाज के नेताओं ने खुलकर अंग्रेज़ों को भारत से बाहर निकालते के लिए बीड़ा उठा लिया। लाला लाजपतराय को जब काले पानी की सजा हुई और उन्हे मांडले जेल भेजा जाने लगा तब सरकार ने आर्यसमाज के साथ लाहौर डी० ए० वी० कालेज कमेटी के सदस्यों पर भी कडी दृष्टि रखनी प्रारंभ कर दी। स्वामी श्रद्धानंद द्वारा स्थापित गुरुकुल कांगडी को भी अंग्रेज मुक्ति संग्राम का प्रशिक्षण केंद्र मानने लगे।

स्वामी दयानंद सरस्वती की मृत्यु के पश्चात्‌ अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपत राय, रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद भगत सिंह आदि ऋषि के मानस-पुत्र स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुतियां देते रहे। महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़ी गई लड़ाई में भी स्वामी दयानंद सरस्वती के शिष्यों की संख्या कम नहीं थी। ऋषि द्वारा प्रज्वलित यह क्रांति की ज्वाला बुझी नही और उनकी भविष्यवाणी के अनुसार ठीक नब्बे वर्ष पश्चात्‌ 15 अगस्त, 1947 को एक लम्बे व अनथक संघर्ष के बाद शताब्दियों की पराधीनता से देश स्वतंत्र हुआ।

इस प्रकार स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने देश के स्वतंत्रता संग्राम में प्रारंभ से ही अपनी क्रांतिकारी भूमिका निभायी। गांधी जी और लोकमान्य तिलक के साथ तो बहुत बड़ी संख्या में आर्यसमाजी रहे ही, परंतु अंग्रेजों को भारत से निष्कासित करने मे जिन क्रांतिकारियों ने हथियार
उठाये, उनकी भी एक अच्छी संख्या आर्यसमाज से गई। उत्तर प्रदेश, पंजाब और सीमा प्रांत में तो उन दिनों आर्यसमाज राष्ट्रीय संगठन का पर्यायवाची-सा बनगया था। यहां के अनेक देशभक्त स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुयायियों में से ही निकले। कांग्रेस के प्रायः सभी प्रमुख नेता कई बार जब जेलों मे बंद कर दिये गये, तब आर्यसमाज का ही ऐसा मंच था जिसमे राष्ट्रीयता की मशाल जलाये रखी। वस्तुतः स्वामी दयानंद सरस्वती मे अपने उपदेशों, लेखों और निजी आदर्श एवं श्रेष्ठ चरित्र द्वारा देश में जो जागृति उत्पन्न कर दी थी, उससे भावी राजनीतिक नेताओं का कार्य बहुत सुगम हो गया। अतः नि.संदेश वे एक महान राष्ट्र निर्माता हैं।

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