सूर्य के भीतर ज्वालाओं की विकराल तरंगे उठती रहती हैं। सूर्य की किरणों की प्रखरता कभी-कभी विशेष रूप से बढ़ जाती है, जो उसकी बाहरी सतह पर उत्पन्न विक्षोभ का परिचय देती हैं। इसे सौर-सक्रियता की संज्ञा दी जाती है। वस्तुतः सौर-सक्रियता सूर्य दीप्ति की प्रबलता की नहीं बल्कि उस प्रबलता के आवर्त काल का बोध कराती है। सबसे पहले रूडोल्फ उल्फ ने अपने प्रेक्षणों के दौरान पता लगाया कि सूर्य की लपटों में जब कभी तेजी आती है, उसके धब्बों की संख्या में भी परिवर्तन पाया जाता है। सूर्य के धब्बों के परिवर्तन का औसत आवर्त काल (Sunspot cycle) लगभग 11 वर्ष होता है। हालांकि इस स्थिति में इस आवर्त काल का न्यूनतम मान 7.5 वर्ष और अधिकतम मान 16 वर्ष भी पाया जाता है।
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सौर वायुमंडल
सूर्य की अत्यधिक सक्रियता की स्थिति मे भीषण ज्वाला की लपटे उठती हैं और सौर-धब्बों की संख्या में अचानक परिवर्तन उत्पन्न होता है। इन परिस्थितियों का पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल पर सीधा प्रभाव पड़ता है, जिसके फलस्वरूप आवेशित कणों, मूलतः इलेक्ट्रॉन [और प्रोटॉनों की सख्या में वृद्धि हो जाती है। चूंकि सूर्य के धब्बे प्रबल चुम्बकीय क्षेत्र से आविष्ट होते हैं, अत: उनकी चुम्बकीय तरंगों के कारण आवेशित कणों का वेग काफी बढ जाता है। सूर्य से निकले आवेशित कणों के प्रवाह को सौर-वात कहा जाता है। ब्रिटिश भौतिकवेत्ता चैपमैन और फेरारो ने सौर-ज्वाला की उत्पत्ति और उसके कारण पृथ्वी पर उत्पन्न चुम्बकीय आंधी के बीच व्यतीत समय की माप द्वारा सौर-वात के वेग का परिकलन किया था। उनके अनुसार सौर-वात के कास्मिक कणों का औसत वेग 400 किमी, प्रति सैकंड होता है।
सूर्य से चलने वाला सौर-वात अत्यधिक ऊर्जा वाले आवेशित कणों (Charges particles) का समूह होता है, जो पृथ्वी के चुम्ब॒कीय क्षेत्र पर प्रभाव डालता है। उनकी पारम्परिक क्रिया के परिणामस्वरूप पृथ्वी के विद्युत क्षेत्र मे विरूपण एवं प्रसर्पण उत्पन्न होता है। पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र (Magnetic field) के उसी सपीडन के कारण चुम्बकीय आंधियां और अन्य वायुमंडलीय परिवर्तन देखने मे आते है। पृथ्वी के दिवस-पार्श्व की ओर विशेष क्षेत्र मे विरूपण और रात्रि-पार्श्व मे क्षेत्र रेखाओ का प्रसर्पंण होता है, जिसके चलते उस पार्श्व में एक चुम्बकीय
पुच्छ बन जाता है, जो कई पृथ्वी त्रिज्याओ (Radeis) की दूरी तक फैल जाता है। उच्चतर खगोलीय अक्षांशों पर उन क्षेत्ररेखाओं की आपसी अभिक्रिया द्वारा कभी-कभी उनकी ऊर्जा विनष्ट हो जाती है और एक उदासीन बिंदु की सृष्टि होती है।
ऐसे प्रदेश में सारी चुम्बकीय ऊर्जा आवेशित कणों में समाहित हो जाती हैं। इसमें आवेशित कणों से त्वरण (Acceleration) उत्पन्न होता है और इन त्वरित कणों के कारण पृथ्वी के रात्रि-पार्श्व में फ्लक्स (Flux) की वृद्धि पाई जाती है।
पृथ्वी का जो हिस्सा सूर्य के सामने पड़ता है उसे दिवस-पार्श्व और जो हिस्सा सूर्य के छाया प्रदेश में पडता है, उसे पृथ्वी का रात्रि-पार्श्र कहा जाता है। सूर्य के घूर्णन (Rotation) के कारण उसकी सतह से चलने वाले आवेशित कणों का प्रवाह वक्रीय रूप धारण कर लेता है। सामान्यतः इन कणों की बौछार पृथ्वी पर उसके रात्रि-पार्श्व से प्रवेश करती है और उनके चुम्बकीय क्षेत्र का दबाव पृथ्वी के चुम्बकीय मंडल पर पडता है। ऐसी स्थिति में पृथ्वी के सामने पड़ने वाली विद्युत संवाही धारा की ओर विद्युत तरंगों का प्रेरण संभव है। आवेशित कणों के समूह और पृथ्वी के मध्यवर्ती क्षेत्र मे दोनो के चुम्बकीय क्षेत्र परस्पर सयुक्त होकर और अधिक प्रभावशाली हो जाते हैं। इसके विपरीत कणों के प्रवाह के भीतर चुम्बकीय क्षेत्र अपेक्षाकृत दुर्बल हो जाता जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी का निजी चुम्बकीय क्षेत्र संपीडित हो जाता है।

पृथ्वी का चुम्बकीय मंडल
वैज्ञानिक धारणा के अनुसार पृथ्वी केवल ठोस एवं तरल पदार्थों का समन्वित रूप ही नहीं बल्कि वायुमंडल के अनेक गैसीय स्तरो का भी समुदाय है। स्थल-मंडल और जल-मंडल की ही तरह वायुमंडल भी पृथ्वी का अभिन्न अंग है। क्योंकि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर संपूर्ण वायुमंडल के साथ चक्कर काटती है। इन तीनो की ही तरह चुम्बकीय मंडल (Magnetosphere) भी पृथ्वी से 500 किमी. से आरंभ होकर कई पृथ्वी त्रिज्याओं तक फैला है। इस प्रदेश के आवेशित कणों की गतियो के बीच पारस्परिक क्रियायें घटित होती हैं। ये घटनायें एक तरह की विकिरण पट॒टी की रचना करती हैं। इससे पृथ्वी के चुम्बकीय मंडल के विस्तार का पता चलता है। इसके संबंध मे कोई निश्चित आंकलन नही दिया जा सका है, लेकिन अंतरिक्ष वैज्ञानिको का अनुमान है कि पृथ्वी के दिवस-पार्श्व में इसे 8-13 पृथ्वी-त्रिज्याओं (एक 8 का मान 6370 किमी. होता है) और रात्रि-पार्श्व में इसका करीब 22 पृथ्वी-त्रिज्याओं के बराबर होता है। पृथ्वी के इस चुम्बकीय क्षेत्र में दीर्घकाल तक निवद्ध सभी कणों को पृथ्वी का ही अंग माना जा सकता है क्योंकि ऊपर पड़ने वाले सभी खगोलीय प्रभावों का पृथ्वी के जीवों एवं वनस्पतियों पर भी प्रभाव पड़ता है।
सौर मंडल के अनेक अज्ञात रहस्य
अभी तक यह पता नहीं चल पाया है कि सौर-विकिरण के न्यून ऊर्जा वाले कण पृथ्वी के चुम्बकीय मंडल में आकर अधिक ऊर्जा कैसे प्राप्त कर लेते हैं। हालांकि इस संदर्भ में अनेक वैज्ञानिक व्याख्याएं प्रस्तुत की गई हैं। फिर भी इतना स्पष्ट है कि एक बार धरती के चुम्बकीय मंडल में फंस जाने के बाद वे पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में विचलन प्रभावों से वंचित नहीं रह पाते। यदि किसी कण की गति की दिशा बल रेखा की सपाती हो, तो कण आसानी से उस पर गति के साथ घूमने लगता है। सर्पिलता कणों के द्रव्यमान की अनुपाती और पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता
की व्युत्क्रमानुपाती (Inversely propertional ) होती है। अतः यह भी संभव है। एक दिशा में लूप बनाएं, तो प्रोटॉन दसरी दिशा में और प्रत्येक द्वारा जलन चुम्बकीय क्षेत्र सर्पिली रेखा के भीतर पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र को नगण्य बना दे।
चुम्बकीय धुवों की ओर बढ़ने पर चुम्बकीय क्षेत्र में वृद्धि होती जाती है। इस प्रकार आगंतुक कणों द्वारा उत्पन्न सर्पिल (spiral) गति की त्रिज्या घट जाती है। साथ ही कणों की गति की दिशा और बल रेखा के बीच का कोण बढ़ता जाता है। अन्तत: कण बल रेखा के लंबवत् परिक्रमा करने लगते हैं। इस प्रकार कण पृथ्वी के दूसरे छोर तक एक ही बल रेखा पर सर्पिल गति से चक्कर काटने लगता है। लेकिन जब सूर्य से आने वाले ये कण पृथ्वी के वायुमंडल के कणों से टकराते हैं, तो उनकी ऊर्जा घट जाती है और वे आवेशहीन कणों को अपना आवेश प्रदान करके वायुमंडल मे एकत्र होते जाते हैं। इस प्रकार निबद्ध कण वलयाकार स्रोत से बाहर निकल कर वायुमंडल की ऊपरी सतह में पृथ्वी के सुदूर उत्तरीय और दक्षिणी हिस्से में बिखर जाते हैं। कभी-कभी उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बर्फीले भू-प्रांत में इन्हीं कणों में विकीर्ण दीप्ति ‘मोहक धुवीय ज्योति’ के रूप में देखी जाती है।
सौर-वायुमंडल द्वारा जब पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का संपीडन होता है, तब उस समय कुछ जगहों पर आवेशित कणों की गति ऊर्जा के बराबर होती हैं। अतः उस क्षेत्र में निबद्ध कुछ कणों में घृर्णन आरंभ हो जाता है और वे क्षेत्र की बल रेखाओं पर आगे-पीछे परावर्तित होने लगते हैं। एक विशेष स्थिति में जब घूर्णन की तीव्रता का कोण एक क्रान्तिक कोण (Critical angle) से कम होता है, तब वे कण अवलक्षेपित हो जाते हैं। इन अत्यधिक ऊर्जा वाले आवेशित कणों के अवक्षेपण की वजह से उच्चतर सगोलीय अक्षांशों पर वायुमडल और आयनिक मंडल के कणों में उत्तेजन उत्पन्न होता है। यह चुम्बकीय ज्योति की आकर्षण छवि के रूप में परिणत हो जाता है। उच्चतर और विपुवीय अक्षांशों पर तीव्र धाराओं की पट्टियां बन जाती हैं, जिन्हें इलेक्ट्रों जेट कहा जाता है। इन इलेक्ट्रो जेटो का पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र पर विशेष प्रभाव पड़ता है, जिसके फलस्वरूप पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार की घटनाएं घटित होती हैं। विभिन्न प्रकार के अतिशय ऊर्जा वाले आवेशित कणों जैसे-इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन आदि द्वारा पृथ्वी के चारों ओर एक तीव्र विद्युत धारा की पट्टी बन जाती है, जिसे वान-एलेन पट्टी की संज्ञा दी जाती है।
पृथ्वी का चुंबकीय मंडल
पृथ्वी काचुम्बकीय मंडल अत्यंत रहस्यपूर्ण है। वस्तुतः सूर्य या सुदूर तारों के संकेत पृथ्वी के इसी प्रदेश में अंकित होते हैं। इस मंडल का सूक्ष्म अध्ययन पृथ्वी के धरातल से संभव नहीं है। इसलिए अमेरिका, रूस और यूरोपीय देशों के अनेक उपग्रह, वैज्ञानिक-उपकरणों के साथ इस चुम्बकीय मंडल में उड़ान भरते रहते हैं और उनसे प्राप्त आंकड़ों के आधार पर अनेक निष्कर्ष निकाले जाते हैं। इन उपग्रहों मे मुख्य हैं-अमेरिका का बेंगार्ड, पायोनियर एक्सप्लोरर, आई.एम.पी., जी.ई.ओ.एस. और रूस के इलेक्ट्रॉन-स्पुतनिक आदि।
पृथ्वी सूर्य की पुत्री है। दोनों के बीच अनिवार्य और अविच्छिन्न संबंध है। सूर्य के प्रत्येक कम्पन का पृथ्वी के जीवों और वनस्पतियों के जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः सूर्य के अभाव में पृथ्वी या पार्थिव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा
सकती। सूर्य की सारी क्रियाएं-उत्ताप, ऊर्जा-विकिरण एवं विद्यत चुम्बकीय तरंगो के संकेत पृथ्वी के चुम्बकीय मंडल पर अंकित होते रहते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक इन संकेतों की भाषा को सामान्य व्यक्ति के लिए बोधगम्य बनाने का प्रयास करते हैं। गेहूं की पैदावार से लेकर मानव मात्र के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य एवं विश्वयुद्ध की संभावना तक के चिह्न इन चुम्बकीय मंडलों से ग्रहण किए जा रहे हैं। इसीलिए पृथ्वी के इस ऊपरी प्रदेश का सूक्ष्म अध्ययन न केवल ज्ञान के नवीन आयामो के उद्घाटन के लिए आवश्यक है, वल्कि लोक जीवन को सुखमय और समृद्धिशाली बनाने के लिए भी आवश्यक है।