सूर्य मंदिर कालपी – कालपी सूर्य मंदिर का इतिहास

सूर्य मंदिर कालपी

सूर्य मंदिरजालौन जिले में कालपी के पूर्व की ओर स्थित ग्राम गुलौली में विद्यमान था। आज उसके भग्नावशेष रह गये हैं। यह गुलौली ग्राम यमुना के दक्षिणी किनारे पर बसा हुआ है। विश्व के सभी देशों में सूर्य की मान्यता आदि काल से चली आ रही है।आदि मानव ने भी किसी न किसी रूप में सूर्य के प्रति अपना मस्तक झुकाया है। सूर्य की मान्यता को देखते हुए अनेकानेक भारतीय राजाओं ने अपनी मुद्राओं पर सूर्य अंकित किया है। 300-400 वर्ष ईसा पूर्व के आहत सिक्के जिनमें सूर्य चक्र के रूप में अंकित है, इस बात के स्पष्ट उदाहरण है कि प्राचीनकाल से ही मानव समाज सूर्य के प्रति नमस्तक रहा है।

सूर्य मंदिर कालपी का इतिहास

प्रसिद्ध पुरात्तवेता प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयी के अनुसार, पूर्व
प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में सूर्य के महत्व का बहुसंख्यक उल्लेख है । इस प्रकार अन्य वैदिक साहित्य रामायण, महाभारत, पुराण, ग्रन्थ तथा परवर्ती संस्कृत प्राकृत आदि के साहित्य में सूर्य के प्रति सम्मान की महती भावना दृष्टव्य है। सूर्य की विविध संज्ञाये सविता आदित्य, विवस्वानू, भानु, प्रभाकर, काल प्रियनाथ आदि प्रसिद्ध है। सूर्योदय के पहले से लेकर सूर्यास्त के बाद तक भानु के जो विविध रूप होते हैं उनके रोचक वर्णन कवियों, नाटककारों , कथाकारों आदि ने किये।

सूर्य मंदिर कालपी
सूर्य मंदिर कालपी

सूर्य मंदिर की स्थापना के संदर्भ में यह वर्णन मिलता है कि द्वापर युग में नारद मुनि के भड़काये जाने पर श्रीकृष्ण ने अपने पुत्र शाम्ब को कोढी होने का श्राप दे डाला। शाम्ब की प्रार्थना पर नारद मुनि ने शाम्ब को सूर्योपासना के माध्यम से सूर्यदेव को प्रसन्न कर अपने कोढ़ के कारण हुईं कुरूपता समाप्त करने का उपाय बतलाया। शाम्ब ने मुनि के बताये अनुसार सूर्य की उपासना द्वारा सूर्य देव को प्रसन्न कर लिया तब सूर्यदेव ने शाम्ब से कहा कि तुम्हें शीघ्र ही नदी में तैरती एक प्रतिमा मिलेगी जिसे तुम मूल स्थान (आजकल का मुल्तान पाकिस्तान ) में स्थापित कर देना। शाम्ब को स्नान करते समय चन्द्रभागा नदी में सूर्य की प्रतिमा मिली, जिसके विषय में सूर्यदेव ने बतलाया कि प्रतिमा का निर्माण कल्पवृक्ष और विश्वकर्मा ने किया है। सूर्यदेव ने शाम्ब से कहा कि

सानिध्यं मम पूवनि सुतीरे द्रक्ष्यते जनः।
कालप्रिये च मध्याने अपराहने चात्र नित्यशः॥

अर्थात्‌ लोग मेरी उपस्थिति पूर्वान में सुतीर में , मध्यार्न में कालप्रिय में तथा अपरान्ह में इस स्थान में अर्थात मूलः स्थान में देखेगे। उपर्युक्त तीनों स्थानों की स्थिति इस प्रकार बतलाई गई है।

“साम्ब॑ सूर्य प्रतिष्ठां च कारयामास तत्ववित्‌ ।
उदयाचले च सांश्रित्य यमुनायाश्व दक्षिणे
मध्ये कालप्रियं देव मध्यान्हे स्थाप्य चोत्तमम्‌ ॥
मूलस्थान ततः पश्चाद्‌ अस्तमानाचले रविम्‌ ।
स्थाप्य त्रिमूर्ति साम्बस्तु प्रातमध्यापरान्हेकम ॥

अस्तु शाम्ब ने सूर्यदेव की प्रतिमा तीन स्थानों पर स्थापित की। पूर्वीय पर्वत, यमुना नदी के दक्षिणी तट कालप्रिय में तथा पश्चिमी पर्वत मूलस्थान में (मुल्तान पाकिस्तान)। इस प्रकार हम पाते है कि मध्यान्ह में भगवान भास्कर की उपस्थिति हमें कालप्रिय में प्राप्त होगी। अब जिज्ञासा यह है कि यह कालप्रिय स्थान कहाँ है

“अन्र खक्तु भगवतः कालप्रियनाथस्य यात्रायामार्य
मिश्रान्‌ विश्रापपामि । (उत्तर रामचरित
सनिपतितश्व॒ भगवतः कालप्रियानाथस्य यात्रा
प्रसगेन नाना दिगन्त वास्तव्यो जनः ॥ मालती माधव॥
भगवतः कालप्रियानाथस्थयात्राकामार्य मिश्राः समदिशान्ति ।
(महावीर चरित )

काल प्रियनाथ के सम्बन्ध में मनीषियों में मतैक्य नहीं है। काणे आदि विद्वान कालप्रिय से उज्जयिनी के भगवान शंकर के महाकाल मंदिर को मानते हैं। नवीन अन्वेषणों के आधार पर काल प्रियनाथ स्थान कालपी को ही माना जाता है। हँस सुता के पावन पुलिन पर बसी कालपी में ही उक्त कालप्रिय प्रांगण था।तथा यहाँ ही शाम्ब द्वारा यमुना के दक्षिणी तट पर कालप्रिय नाथ में सूर्य की मूर्ति स्थापित की गई।

आज भी कालपी से 2-3 मील पूर्व यमुना के पावन पुलिन पर जोधा कुण्ड के समीप सूर्य यतन का प्रसिद्ध मेला लगता है। यह सूर्य मंदिर कालपी में ही था। इसका वर्णन भविष्य पुराण में भी हमें इस प्रकार मिलता है। चन्द्र भागा नदी के समीप मित्रवन (मुल्तान) में साम्ब ने सूर्य प्रतिमा स्थापित की। साम्ब ने सूर्य प्रतिमा से जब यह प्रश्न किया कि इस प्रतिमा का निर्माण किसने किया तब सूर्य प्रतिमा ने अपने उत्तर में यह बतलाया कि प्रतिमा निर्माण का कार्य विश्वकर्मा द्वारा किया गया। साथ ही साथ यह भी बतलाया कि प्रातः मनुष्य गण इस चन्द्र भागा के तट पर मेरा सानिध्य प्राप्त करेंगे। मध्यान्ह में काल प्रिय (कालपी) में अनन्तर यहां प्रतिदिन मेरा दर्शन करेंगे।

काल प्रियनाथ के समीप कन्नौज के राजा यशो वर्मा का वार्षिकोत्सव एवं मेला मनाया जाता है। कालपी कन्नौज के राजा यशोवर्मा के राज्य का भाग था। अतः यहाँ राज्य का प्रसिद्ध उत्सव होना तथा उसी अवसर पर भवभूति विरचित नाटकों का अभिनय होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। भवभूति ने तीन नाटकों का प्रणयन किया है। अतः तीन उत्सवों पर उनका अभिनय किया गया होगा। उक्त प्रमाणों के आधार पर मैं काल प्रिय को कालपी में ही मानने के पक्ष में हूँ।

सूर्य मंदिर कालपी का वास्तुशिल्प

यद्यपि वास्तुशिल्प की दृष्टि से सूर्य मंदिर के आज केवल भग्नावशेष ही देखने को मिलते हैं। यहां पर कभी सौ मठिया थी जिनमें से अब केवल कुछ ही शेष रह गई है। परन्तु यह मंदिर अपने समय में अत्यन्त भव्य था। कालपी के इस सूर्य मंदिर का वर्णमहाकवि भवभूति के सभी नाटकों में हैं। जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भवभूति नाटकों का प्रथम मंचन कालपी में काल प्रिय मंदिर के प्रागण में ही हुआ है। भवभूति शत द्वारा रचित महावीर चरित्र की प्रस्तावना में सूत्रधार कहता है।

“भगवत : कालप्रियानाथस्य यात्रामार्यमिश्रा ; समदिशान्ति।

अर्थात्‌ भगवान काल प्रियनाथ के मेले में एकत्रित सम्मानित जनों को उसने ऐसा आदेश दिया है। महाकवि अपने दूसरे नाटक मालती माधव की प्रस्तावना में इन नाटकों की प्रथम अभिव्यक्ति के संबंध में इस प्रकार वर्णन दिया है

है मारिष सु विहितानि, रंगमगलानि संनिपातितश्य भगवत

कालप्रियनाथस्य यात्रा प्रसंग न॒ नाना दिगन्तवास्तव्यो महाजन स-
माजः । आदिष्टश्वास्मि विदज्ञन परिषदा यथा केन चिद्‌ पूर्व प्रकरेणम्‌ वर विनोदमित्वया ईति”

अर्थात्‌ मारिष रंगमंच की मांगलिक क्रिया विधिवत्‌ सम्पन्न हो चुकी है भगवान काल प्रियनाथ के मेले के संदर्भ में अनेक दिशाओं से सज्जन समाज यहां एकत्रित हुआ है। विद्वसमाज द्वारा मुझे आज्ञा दी गयी है कि नवीन नाटक के अभिनय से उनका मनः प्रसादन किया जाये। सूर्य मंदिर अत्यन्त भव्य तथा इस मंदिर की भव्यता के संदर्भ में राष्ट्रकूट राजा इन्द्र तृतीय की यात्रा विवरण के कैम्बे प्लेट में भी इस प्रकार प्राप्त होता है

“यन्माथद्द्विपदन्तधातविषम कालप्रिय प्रागंण ।
तीर्णा यत्तुरगैरगाध यमुना सिन्धु प्रति स्पार्धिनी
येनेद हि. महोदयारि नगर निर्मूल मुन्मूलित॑
नान्माद्यापि जनेः कुंशस्थल भिति ख्याति परां नीयते ॥

अर्थात्‌ भगवान काल प्रियनाथ के प्रांगण उद्धत हाथियों के दंत प्रहार से ऊँचा नीचा कर दिया गया उसके घोड़ों ने विस्तार में समुद्र की प्रतिसपर्धा करने वाली अर्थात यमुना नदी को पार किया जिसने अपने शत्रु के नगर महोदय को समूल ध्वस्त कर दिया इसी स्थान से एक पाषाण खण्ड भी प्राप्त हुआ है। जो कि लम्बे आकार का है तथा जिस पर एक ओर बेल बूटे अंकित है। दूसरी ओर ध्यानस्थ्य तपस्वियों की मूर्तियों का अंकन है। इसी क्षेत्र में एक टीला और भी है जो कि काफी विशाल एवं विस्तृत है। इसे यहाँ पर मोदी टीला के नाम से जाना जाता है। इस मोदी टीला से अभिप्राय है कि ऐसा मुहल्ला जहाँ पर वैश्व वर्ग या व्यापारी वर्ग रहता हो अथवा व्यापार करता हो। इस क्षेत्र में मिट्टी के पात्र तथा उनके अवशेष प्राप्त हुए हैं जो कि बुन्देलखण्ड संग्रहालय भरत चौक उरई में सुरक्षित है। इसके संदर्भ में राष्ट्रीय संग्रहालय झाँसी के वीधिका सहायक श्री रूद्र किशोर पाण्डेय का कथन है कि ये पात्र कुषाण काल तथा गुप्त काल के पात्रों से मिलते जुलते हैं। इन मृणपात्रों की उपलब्धता से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि काल प्रियनाथ के मंदिर का अस्तित्व कुषाण-गुप्त काल में था।

डा० मिराशी का विचार है कि – कालपी में आज भी काल्पदेव के नाम मे प्रसिद्ध टीला है जो काल प्रियनाथ के मंदिर का स्थल प्रतीक होता है। काल प्रियनाथ (सूर्य) का यह मंदिर प्राचीन काल में उतना ही प्रसिद्ध था जितना आजकल कोर्णाक और उसे उतना‌ ही भव्य होना चाहिये जितना कि कोर्णाक मंदिर। अतएव यह बडी बात होगी यदि उस टीले का उतखन्न हो जाये और कालपी का सूर्य मंदिर प्रकाश में आ जाये। आशा है इस पुराताविक महत्व के खण्डहरों व टीले की खुदाई में महाभारत कालीन व कुषाण कालीन युग की सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक व शिल्पगत विशेषतायें प्रकाश में आ सकेंगी। काल के गर्त में दबी यह अक्षय धरोहर , हमें अपने अतीत के वैभव से सामना व दर्शन करायेगी।

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