राजस्थान की चंद्रमहल जयपुर के राज-परिवार का निजी मंदिर सीतारामद्वारा या सीताराम मंदिर कहलाता है, जोजय निवास मे के उत्तरी- पूर्वी पार्श्व में स्थित है। कछवाहा अपने को भगवान राम के दूसरे पुत्र कुश की सन्तति मानते आये है और सीताराम का अत्यन्त प्राचीनकाल से इष्ट रखा है। उनका पारस्परिक अभिवादन का प्राचीन तरीका भी “जय सीताराम जी की रहा है। पुराने पट्टा-परवानो के शीर्ष पर भी “श्री सीतारामों जर्यात” अथवा ”श्री सीताराम जी सहाय लिखा मिलता है। बाद मे राधाकृष्ण की भक्ति के अधिक लोकप्रिय हो जाने पर जयपुर में गोविन्द देव जी सीताराम जी से बाजी मार गये और यहां के राजा अपने ऐश्वर्य को गोविन्द का प्रसाद मानकर अपने को ‘गोविन्द- दीवाण’ कहने लगे। किन्तु, गलता का तीर्थ और राजा के खास महल की बगल मे ही सीताराम मंदिर यही जताते है कि यहां के राज-परिवार की भगवान राम में गहरी आस्था ओर प्रगाढ़ भक्ति रही है।
सीताराम मंदिर जयपुर
सीताराम मंदिर के प्रधान ठाकुरजी “बडा सीताराम जी’ हैं। कहते है कि यह मूर्ति मुगल बादशाह बाबर के समकालीन आमेर के राजा पृथ्वीराज और उसकी रानी बाला बाई को महात्मा कृष्ण- दास पयहारी ने दी थी। पयहारी जी ही गलता पीठ के संस्थापक माने जाते है। इन मूर्तियों के साथ शालिग्राम रूप मे नृसिंह की प्रतिमा भी इन महात्मा से पृथ्वीराज दम्पत्ति को मिली थी और पयहारी जी के निर्देशा अनुसार उस मूर्ति की सेवा-पूजा आज तक आमेर के उस पुराने महल मे ही होती है जहा बाला बाई की साल” है। चमत्कारों मे विश्वास की बात नही है, किन्तु जयपुर मे यह जनश्रुति सभी पुराने लोगो ने सुनी होगी और याद भी होगी कि ”जद तक नृसिंह देली मे, जद तक राज हथेली मे ”। आमेर में विराजमान वह नृसिंह-मूर्ति राजस्थान मे जयपुर रियासत के विलय के कुछ ही समय पहले चोरी चली गई थी और बाद मे सरगमी के साथ किसी कुएं से बरामद भी कर ली गई थी। नृसिंह के अपने देहरी से बाहर निकल जाने की इस घटना ने तब सारे जयपुर मे बडा हंगामा खडा कर दिया था। मूर्ति तो बरामद हो गई, लेकिन तब “राज सवाई जयपुर ‘ नही रहा था, राजस्थान बन गया था।
सीताराम मंदिर जयपुरसीताराम जी के लिये भी महात्मा पयहारी जी का यह निर्देश बताया जाता है कि ‘यद्धादि की सवारी में सीताराम जी का रथ आगे रहेगा तो तुम्हारा जय होगा। जयपुर में कहावत रही है “गोला खावा में सीतारामजी, अर लाड़ खाबा मैं गोविन्दजी। जयपुर के राजाओं ने अपना राज चलाने तक बराबर इस नियम का पालन किया था और दशहरे की सवारी मे अब भी सीताराम जी का रथ ही आगे जाता है।
बडे सीताराम जी के साथ ‘सीताराम जी हुजूरी भी सीताराम मंदिर मे विराजमान हैं। जब सीतारामजी की बडी मूर्ति बाहर जाती थी तो यह छोटी मूर्ति उन्हे “आफीशियेट” करने के लिये प्रतिष्ठित होती थी। जुलूसों मे बडे सीतारामजी के साथ मन्त्री या मिनिस्टर इन वेटिंग की हैसियत से सीता वल्लभ जी की मूर्ति भी जाती थी जिनका मंदिर सिरह ड्योढी के दरवाजे या कपाट कोट का के ठीक सामने है। इनके कार्यवाहक होते थे। “सीता वल्लभ जी हुजूरी जो सीताराम मंदिर मे ही विराजमान है। यह मूर्ति माधोसिंह प्रथम के साथ उदयपुर से आई बताई जाती है।
सीताराम मंदिर के प्रांगण मे बीचो-बीच एक यज्ञ-वेदी बनी है जहा पर्व-त्योहारों को हवन आदि किये जाते है। जयपुर के राजा अपनी वर्षगांठ पर यहां हवन करते और सबसे पहले सीताराम जी केभेट चढा कर फिर गोविन्ददेव जी के जाते है। यह परिपाटी आज भी निभाई जाती है।
एक दिलचस्प तथ्य यह है कि बडा सीतारामजी की सेवा-पूजा का अधिकार आज भी कृष्णदास पयहारी की गलता गादी के अधिकारियो को ही है। प्रधान ठाकुर जी और उनके एवजी ठाकुरजियो के मदिरों से मंडित सीताराम मंदिर वस्तृत चंद्रमहल के निवासियों का निजी देवद्वार रहा है।
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