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सिद्धिविनायक व्रत कथा

सिद्धिविनायक व्रत कथा – सिद्धिविनायक का व्रत कैसे करते है तथा व्रत का महत्व

गणेशजी के सम्पूर्ण व्रतों में सिद्धिविनायक व्रत प्रधान है। सिद्धिविनायक व्रत भाद्र-शुक्ला चतुर्थी को किया जाता है। पूजन के आरम्भ में संकल्प करने के बाद गणेशजी की स्थापना, प्रतिष्ठा और ध्यान करना चाहिये। ध्यान के पश्चात आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ, मधुपर्क, आचमन, पंचामृत, स्नान, शुद्धोदक स्नान, वस्र, यज्ञोपवीत सिंदूर भूषण और चन्दन आदि से पूजनकर पुनः अन्न-पूजन करे। तत्पश्चात गूगुल, धूप, दीप, नैवेद्य आचमन, फूल, ताम्बूल, भूषण और दूवां आदि अर्पण करके नमस्कार करे और 21 पुवा बनाकर गणेश-प्रतिमा के पास रखे। उनमे से 10 पुआ ब्राह्मण को दे। एक गणेश प्रतिमा के पास रहने दे ओर 10 आप भोजन करे।

सिद्धिविनायक व्रत कैसे करते है

वैसे तो प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को गणेश व्रत होता है। परन्तु माघ, श्रावण, मार्गशीष और भाद्रपद इन महीनों में सिद्धिविनायक व्रत करने का विशेष माहात्म्य है। उक्त चार महीनों में कभी भी जब हृदय मे गणेशजी की भक्ति उत्पन्न हो, तब शुक्ला चतुर्थी को प्रातःकाल सफेद तिलों के उबटन से स्नान करके सध्यान्ह में गणेश-पूजन करना चाहिये। पहले एकदन्त, शपूर्कर्ण, गजसुख, चतुर्भुज, पाशांकुश धारण करने वाले गणेशजी का ध्यान करे। तदनन्तर पंचामृत, गन्ध, आवाहन और पाद्यादि करके दो लाल वत्रों का दान करना चाहिये। पुनः ताम्बूल पर्यन्‍त पूजन समाप्त करके 21 दूर्वाओं को 2-2 दूर्वाओं से गणेश के एक-एक नाम का उच्चारण करे। घी के पके हुए 29 मादक गणेशजी के पास रखे। पूजन की समाप्ति पर 10 मादक ब्राह्मण को दे, 10 अपने लिये रखे और एक प्रतिमा के पास रहने दे। गणेश-प्रतिमा को दक्षिणा समेत ब्राह्मण को दान करे। नेमित्तिक पूजन करने के दाद नित्य पूजन भी करे और तत्पश्चात्‌ ब्राह्मण को भोजन कराकर आप भाजन करे।

इसी भादों मास की शुक्ला चतुर्थी मे चन्द्र-दर्शन का निषेध है। लोक प्रसिद्ध है कि चौथ का चाँद देखने से भूठा कलंक लगता है। यदि देवात्‌ चौथ का चाँद देख ले, तो नोचे लिखी कथा कहने से इसका दोष दूर होता है :—-

सिद्धिविनायक व्रत कथा – सिद्धिविनायक व्रत की कहानी

एक समय सनत्कुमारों से नन्दिकेश्वर ने कहा–“किसी समय चौथ के चन्द्रमा के दर्शन करने से भगवानश्रीकृष्ण जी पर लाछन लग गया था। वह इसी सिद्धिविनायक व्रत को करने से नष्ठ हुआ था।” नन्दिकेश्वर के ऐसे वचन सुनकर सनत्कुमारों ने अत्यन्त आख्य मे होकर पूछा। “पूर्णब्रह्मा पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को कब और कैसे कलंक लगा? कृपया इस इतिहास का वर्णन कर हमारा सन्देह दूर कोजिये।

सिद्धिविनायक व्रत कथा
सिद्धिविनायक व्रत कथा

यह सुनकर नंदिकेश्वर बोले–“राजा जरासन्ध के डर से श्रीकृष्ण भगवान्‌ समुद्र के बीच में पुरी बसाकर रहने लगे। इसी पुरी का नाम द्वारिकापुरी है। द्वारिकापुरी के निवासी सत्राजित यादव ने श्री सूर्य भगवान्‌ की आराधना की। जिससे प्रसन्न होकर सूर्य भगवान्‌ ने उसके नित्य आठ भार स्वर्ण देने वाली स्यामन्तक नाम की एक मणि अपने गले से उतारकर दे दी। उस मणि को पाकर जब सत्राजित यादव समाज मे गया तो श्री भगवान श्रीकृष्ण ने उस मणि को प्राप्त करने की इच्छा की। परन्तु सत्राजित ने मणि को श्रीकृष्ण को न देकर उसे अपने भाई प्रसेनजित को पहना दिया।

एक दिन प्रसेनजित घोड़े पर सवार होकर वन मे शिकार खेलने चला गया। वहाँ एक सिंह ने उसे मारकर वह मणि उससे छीन ली, परन्तु जाम्बवान नामक रीछराज ने उस सिंह को मार कर वह मणि छीन ली और मणि को लेकर वह अपने विवर मे घुस गया।

जब कई दिन तक प्रसेनजित शिकार से वापस नही आया, तब सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। उसने सम्पूर्ण द्वारकापुरी मे यह बात प्रसिद्ध कर दी कि श्रीकृष्ण ने मेरे भाई के मारकर मणि ले ली है। इस लोकापवाद का मिटाने के लिए श्रीकृष्णजी बहुत से आदमियो सहित वन मे जाकर प्रसेनजित का खोजने लगे। उनको वन मे इस घटना के स्पष्ट चिह्न मिले कि प्रसेनजित को एक सिंह ने मारा है और सिह को एक रीछ ने मार डाला है। रीछ के पद चिन्हों का अनुसरण करते हुए श्रीकृष्णजी एक गुफा के द्वार पर जा पहुँचे। वे उसी गुफा को रीछ के रहने का घर समझ कर उसमें घुस पड़े। गुफा के भीतर जाकर उन्हेंने देखा कि जाम्बवान्‌ का एक पुत्र और कन्या उस मणि से खेल रहे हैं।

श्रीकृष्ण को देखते ही जाम्बवान ताल ठोककर उठ खड़ा हुआ श्रीकृष्ण ने भी उसको युद्ध के लिये ललकारा। दोनों में घोर युद्ध होने लगा। इधर गुफा के बाहर कृष्ण के साथियों ने सात दिन तक उनकी राह देखी। जब वह न लौटे, तब वे लोग उनको मारा गया समझकर अत्यन्त दुःख और पश्चाताप करते हुए द्वारकापुरी को वापस चले आये।

इक्कीस दिन तक युद्ध करने के पश्चात्‌ जब जाम्बवान्‌ श्रीकृष्ण जी को परास्त न कर सका तो उसके मन मे यह धारणा उत्पन्न हुईं कि हो न हो यही वह अवतार है जिसके लिये मुझको श्रीराम चन्द्रजी का वरदान हुआ था। ऐसा निश्चय करके जाम्बवान ने अपनी कन्या जाम्बवती श्रीकृष्ण जी को व्याह दी ओर वह मणि भी दहेज में दे दी। श्रीकृष्ण भगवान ने द्वारका मे आकर स्यामन्तक मणि सत्राजित को दे दी, जिससे लज्जित होकर सत्राजित ने अपनी पुत्री सत्यमामा श्रीकृष्ण जी को व्याह दी और जब वह मणि भी श्रीकृष्णजी को देने लगा तो उन्होने उसको लेने से इन्कार कर दिया और कहा—“आप सन्‍तान रहित हैं, इस कारण आपकी जो सम्पत्ति है, वह सब मेरी है। परन्तु इस समय आप मणि को अपने हो पास रखिये।कालान्तर से किसी आवश्यक कार्यवश श्रीकृष्णजी तो इन्द्रप्रस्थ को चले गये। इधर अक्रूर तथा ऋतुवमा की सलाह से शतधन्वा नामक यादव ने सत्राजित को मारकर स्यामन्‍तक मणि ले ली।

सत्राजित के मारे जाने का समाचार पाकर श्रीकृष्ण जी तुरन्त ही इन्द्रप्रस्थ से द्वारका चले आये, ओर शतधन्वा को मारकर उससे मणि छीन लेने को तैयार हुए। उनके इस काम में बलराम जी भी भाग देने पर सन्नद्ध हुये। यह समाचार पाकर शतधन्वा अक्रूर को मणि देकर द्वारका से भागा। परन्तु थोड़ी ही दूर पर कृष्ण ने उसको जा पकड़ा ओर मार डाला। फिर भी मणि उनके हाथ न लगी। इतने मे बलराम जी वहाँ पहुँच गये। श्रीकृष्णजी ने कहा “भैया! मणि तो इसके पास नहीं मिली। यह सुनकर बलरामजी अत्यन्त क्रोधपूर्वक बोले– कृष्ण, तू सदैव का कपटी तथा लोभी है। अब मै तेरे पास न रहूँगा।

यह कहकर वह विदर्भ देश को चले गये। द्वारका मे लौटकर आने पर लोगों ने श्रीकृष्ण का बड़ा अपमान किया। सब साधारण में यह अफवाह फैल गई कि श्रीकृष्ण ने लालच वश अपने भाई को भी त्याग दिया।

श्रीकृष्ण एक दिन इसी चिन्ता से व्यस्त थे कि आखिर यह झूठा कलंक मुझको क्‍यों लगा। उसी समय देवात्‌ नारदजी वहाँ आ गये और वह श्रीकृष्णजी से बोले– आप ने भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी के चन्द्रमा के दर्शन किये थे। इसी कारण यह लांछन आपको लगा है।

श्रीकृष्ण जी ने पूछा— चौथ के चन्द्रमा को ऐसा क्या हो गया ? जिसके कारण उसके दर्शन-मात्र से मनुष्य को कलंक लगता है। नारदजी बोले–एक समय ब्रह्मा जी ने चौथ को सिद्धिविनायक व्रत किया था, जिससे गणेशजी प्रकट हो गये। ब्राह्म जी ने गणेशजी से यह वरदान माँगा कि मुझको सृष्टि की रचना करने मे माह न हो। जब गणेशजी “एवमस्तु” कहकर जाने लगे, तब उनके विकट रूप को देखकर चन्द्रमा उनका उपहास करने लगा। इससे अप्रसन्न होकर गणेशजी ने चन्द्रमा को शाप दिया कि आज से तुम्हारे मुख को कोई कभी नहीं देखेगा। यह कहकर गणेशजी तो अपने धाम को चले गये और शाप के कारण चन्द्रमा मानसरोवर की छुमुदिनियो मे जाकर छिप गया। चन्द्रमा के बिना लोगों को कष्ट मे देखकर तथा ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर सब देवताओं ने चन्द्रमा के निमित्त सिद्धिविनायक व्रत किया। देवताओ के सिद्धिविनायक व्रत से प्रसन्न होकर गणेशजी ने वरदान दिया कि अब चन्द्रमा शाप मुक्त हो जायेगा। परन्तु फिर भी वर्ष मे एक दिन भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को जो कोई भी मनुष्य चन्द्रमा का दर्शन करेगा, उसको चोरी आदि का झूठा कलंक अवश्य लगेगा। हाँ, परन्तु जो मनुष्य प्रत्येक द्वितीया के चन्द्रमा के दर्शन करता रहेगा, उसको लाछन नही लगेगा। कदाचित्‌ नियमित दर्शन न करने वाला पुरुष चौथ के चन्द्रमा को देख भी ले, तो उसको मेरा चतुर्थी का सिद्धिविनायक व्रत करना चाहिए। उससे उसके दोष की निवृत्ति हो जायगी।

यह सुनकर सब देवता अपने-अपने स्थान को चले गये और चन्द्रमा भी मानसरोवर से चन्द्रलोक आ गया। अतः इसी चन्द्रमा के दर्शन के कारण आप पर यह व्यर्थ आरोप हुआ है।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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