श्री साईं बाबा की गणना बीसवीं शताब्दी में भारत के अग्रणी गरुओं रहस्यवादी संतों और देव-परुषों में की जाती है। उनके अनुयायी उन्हें ईश्वर का अवतार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और सर्वव्यापी मानते हैं। वे अपने जीवन काल में ही गाथा-पुरूष बन गये थे तथा आज भी समुचे विश्व में उनके अनुयायियों और उपासकों की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि होती जा रही है। समुचे भारत में उनके मंदिर स्थापित हुए हैं तथा वे देश के उन विरले देव परुषों , गरुओं और संतों की कोटि में आते हैं, जिनकी उपासना सभी जातियों और धर्मों के लोग भक्ति-भावपूर्वक करते हैं। साईं बाबा की उपासना त्राता के रूप में होती है तथा जीवन और मृत्यु सांसारिक इच्छाओं तथा उपलब्धियों के बंधन से मुक्ति प्राप्त करने के इच्छुक साधक और संपत्ति, स्वास्थ्य, संतान और सत्ता सरीखी सांसारिक वस्तुओं की कामना करने वाले लोग समान रूप से साईं बाबा के सम्मुख आशीर्वाद की याचना करते हैं। विदेशों में भी उनके मंदिर तेजी के साथ बन रहे हैं।
साईं बाबा प्रकट हुए
साईं बाबा की जन्मतिथि तथा उनका जन्म-स्थान अभी तक रहस्य बने हुए हैं। उनके माता-पिता अथवा बचपन के बारे में कोई कुछ नहीं जानता। पहले-पहल उनके दर्शन शिरडी में एक नीम के पेड़ के नीचे 6 वर्ष के युवक के रूप में सन् 1854 में हुए थे। उस समय शिरडी महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के अंतर्गत राहाटा तालुका का एक छोटा-सा गांव था। उस छोटी-सी उम्र में भी बाबा संसार की ओर से विरक्त और सिद्ध पुरुष प्रतीत होते थे। सबसे पहले उनके दर्शन शिरडी की एक वृद्धा, नाना चोपदार की माताजी को हए थे। वे वृद्धा देवी कहा करती थीं कि “उस समय बाबा बहुत सुंदर किशोर थे। वे नीम के पेड़ के नीचें यौगिक मुद्रा में विराजमान थे। वे गर्मी और सर्दी की परवाह किये बिना पेड़ के नीचे ही रहते थे। न वे किसी से घुलते-मिलते, न अंधेरी रात में डरते। वे तीन वर्ष तक वहीं रहे। इस बीच वे भिक्षाटन के लिए एक बार भी शिरडी गांव के भीतर नहीं गये। गांव के सभी लोग उन पर मोहित थे तथा वे उनके भोजन और वस्त्र आदि का प्रबंध स्वयं करते थे। जब भी उनसे कोई ग्रामवासी उनका परिचय पूछता तो वे चुप हो जाया करते थे। एक बार भगवान खंडोबा के एक भक्त में उनका भावावेश हो गया। उस समय ग्रामवासियों ने उनसे पूछा कि नीम के पेड़ के नीचे जो युवक बैठा है, वह कौन है? भगवान खंडोबा ने कहा कि “नीम के वृक्ष के नीचे खुदायी करो। उस स्थान पर उस युवक ने 12 वर्ष तक तपस्या की है। खुदायी से एक
चपटा पत्थर निकल आया, जिसे हटाते ही एक गलियारा दिखायी पड़ा, जिसमें चार दीपक जलं रहे थे। गलियारे के उस पार एक विशाल कक्ष था, जिसमें लकड़ी आदि से अनेक ढांचे बनाये गये थे। यह जानकारी प्राप्त होने पर शिरडी वासियों ने बाबा से उनके अतीत तथा पिता आदि के बारे में अनेक प्रश्न किये, परंतु बाबा ने कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने केवल उन्हें इतना ही बताया कि ग्रामवासियों ने नीम वृक्ष के नीचे जहां खुदायी की थी, वह उनके गुरु का स्थान था। बाबा की सलाह के अनुसार उस गलियारे को वापस बंद कर दिया गया। शिरडी में यह धारणा प्रचलित है कि वह साईं बाबा के गुरु की समाधि है।

सन् 1857 में युवा बाबा शिरडी से लुप्त हो गये तथा अगले तीन वर्ष तक उनका कुछ पता नहीं लगा। सन 1857 में औरंगाबाद के गांव धुप के मुखिया चांद पाटिल को उनके दर्शन हुए। उस समय वह क्षेत्र निजाम के राज्य का अंग था। हुआ यह कि चांद पाटिल का घोड़ा खो गया और वह उसकी खोज में निकल पड़ा, तभी आम के एक पेड़ के नीचे उसे एक फकीर दिखायी पड़ा, जिसने सिर पर टोपी और शरीर पर कफनी पहन रखी थी तथा उसकी बगल में एक छोटा-सा डंडा था। फकीर मिट्टी की चिलम सुलगाने की तैयारी कर रहा था। फकीर ने चांद पाटिल को देख लिया, उसे आवाज दी तथा उससे कहा कि “आओ, चिलम पी लो और थोड़ी देर सुस्ता लो। चांद पाटिल ने फकीर को बताया कि उसका घोड़ा खो गया और वह उसकी तलाश में निकला है। फकीर ने उससे यों ही कह दिया, “उधर नाले में देखो, कहीं घास चर रहा होगा। और सचमुच घोड़ा वहीं था। चांद पाटिल यह देखकर भौंचक्का रह गया। उसे विश्वास हो गया कि यह फकीर अवश्य ही कोई पहुंचा हुआ साधु है। वह फकीर को अपने घर ले गया। कुछ समय बाद चांद पाटिल उस फकीर को लेकर अपने भतीजे की बारात में शामिल हुआ। बारात संयोग से शिरडी ही गयी थी।
इस प्रकार बाबा सन् 1858 में शिरडी में दोबारा प्रकट हो गये तथा उसके बाद से वे वहीं रह गये। वे बारात के साथ धुप नहीं लौटे। वे हमेशा के लिए शिरडी के हो गये। उस समय तक वे साईं बाबा नहीं कहलाते थे। बारात शिरडी पहुंची और खंडोवा मंदिर के पास ठहरी। जिस समय फकीर बैलगाडी से उतरने लगे तो शिरड़ी के एक निवासी महालसपति की दृष्टि फकीर पर जा पड़ी और उसके मुंह से अनायास निकला-”या साईं। ”’ उसी क्षण से बाबा का नाम हमेशा के लिए साईं बाबा हो गया।
द्वारिकामाई साईं बाबा का स्थान
शिरडी में दोबारा प्रकट होने पर उन्होंने अपनी पुरानी जगह नीम के वृक्ष के नीचे डेरा नहीं डाला। वे गांव की मस्जिद में रहने लगे। मस्जिद को बाबा द्वारिकामाई कहकर पुकारते थे। उस जमाने में शिरडी में कई संतों का निवास था। उनमें से एक देवीदास थे, जो मारुति मंदिर में रहते थे। दूसरे संत जानकीदास थे तथा तीसरे गंगागिर। साईं बाबा को इन संतों का सत्संग बहुत प्रिय था तथा उन चारों के बीच गहरी आत्मीयता थी। गांव में उपासनी महाराज नामक एक अन्य सिद्ध महात्मा भी खंडोबा मंदिर में रहते थे। उपासनी बाबा, साईं बाबा को बहुत आदर देते थे। सन् 1912 में उपासनी महाराज के मार्गदर्शन में साईं बाबा की पादुकाएं नीम के वृक्ष के नीचे प्रतिष्ठित की गई थीं। उस समय उपासनी महाराज ने संस्कृत के एक पद्म की रचना की भी थी, जो पादुकाओं के समीप एक शिला पर अंकित है।
सदा निबवृक्षस्य मूलाधिवासात।
सुधान्रविण॑तिक्तमप्यप्रियं तम्। ।
तरु कल्पवक्षाधिक सार्थयन्तम्।
नमामी श्वरं सदगरु साईनाथम।।
“मैं उन ईश्वर स्वरूप सदगरु साईनाथ के चरणों में नमन करता हूं
जिन्होंने कटु तथा अप्रिय किंतु अमृत की वर्षा करने वाले नीम के वृक्ष के के नीचे निरंतर निवास द्वारा उस वृक्ष को कल्पवृक्ष से भी अधिक महत्त्व प्रदान किया है।
साईं बाबा का व्यक्तित्व
साईं बाबा चमत्कार पूर्ण और रहस्य पूर्ण व्यक्तित्व के धनी थे। वे मस्जिद में रहते थे तथा हर बात पर अल्लाह मालिक’ कहा करते थे, तथापि वे संकीर्ण सांप्रदायिकता से परे थे। वे सच्चे अर्थ में देव-पुरुष थे-न हिन्दू, न मुसलमान। उन्होंने जहां मुसलमानों को मस्जिद से संदल का जूलुस निकालने की अनुमति प्रदान की, वहीं हिन्दुओं का रामनवमी उत्सव पुरी सजधज के साथ मनाया। गोकल अष्टमी के अवसर पर उन्होंने गोपालकला उत्सव का विधिवत आयोजन किया तथा ईद के अवसर पर मुसलमानों के साथ मस्जिद में नमाज में भाग लिया।
हिन्दू नाथ योगियों की भांति साईं बाबा कनफटे थे। वे मस्जिद में रहते थे तथापि अपने सामने पवित्र धुनी निरंतर प्रज्वलित रखते थे। उनके शिष्य मस्जिद में शंख बजाकर साईं बाबा आरती उतारते थे, अग्नि में आहुतियां देते थे तथा बाबा के चरण धोकर उनके चरणामृत का पान करते थे। बाबा के अंतरंग शिरडी वासी शिष्य महालसपति का दावा है कि बाबा ने उन्हें बताया था कि वे पथरी के ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। उनके माता-पिता ने उनके शैशवकाल में ही उन्हें एक फकीर की झोली में डाल दिया था। पुणे की प्रख्यात थियॉसॉफिस्ट विदुपी श्रीमती काशीबाई काणेटकर ने बताया कि बाबा ने उनसे एक बार अपनी ओर संकेत करके कहा था, यह ब्राह्मण है, शुद्ध ब्राह्मण।
श्रीमती काणेटकर ने बाबा से तो कुछ नहीं कहा था परंतु उनके मन में यह संघर्ष चल रहा था कि थियॉसॉफिस्ट धारणा के अनुसार बाबा को श्वेत लॉज की श्रेणी में रखा जाये अथवा अश्वेत लॉज की श्रेणी में। साईं बाबा ने श्रीमती काणेटकर के मन की बात पहचान ली और उनसे कहा कि काले जादू के साथ उनका भी संबंध नहीं है। अपनी ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, यह ब्राह्मण लाखों लोगों को प्रकाश के मार्ग पर ला सकता है तथा उन्हें उनके लक्ष्य की ओर ले जा सकता है! यह ब्राह्मण की मस्जिद है और मैं किसी भी काले-जादुगर की परछाईं यहां नहीं पड़ने दूंगा। साईं बाबा वेदांत-दर्शन के महान पंडित थे तथा वे सदा उसका उपदेश दिया करते थे। वे अल्लाह के भक्त थे और उन्होंने शिरडी के समस्त मंदिरों-शनि, गणपति, शंकर-पार्वती और मारुति मंदिर की मरम्मत करायी तथा उनके प्रबंध में सुधार कराया। वे महान योगी थे तथा स्वयं क्रिया-योग-नौली, धोति आदि का अभ्यास करते थे। वे पंढरपुर के भगवान विठोबा की स्तुति में भजन गाया करते थे।
साईं बाबा कहा करते थे कि उनका जन्म हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की खाई पाटने के लिए हुआ। एक बार उन्होंने कहा था कि वे कबीर के अननुयायी हैं। उन्होंने श्रोताओं से कहा, राम और रहीम दोनों एक ही हैं। उनके बीच कुछ भी अंतर नहीं है। ऐसी स्थिति में उनके अनुयायियों के बीच संघर्ष का कोई कारण ही नहीं रह जाता। अबोध लोगो! बालकों! तुम मिलकर दोनों संप्रदायों को एक-दूसरे के समीप लाओ। सज्जनतापूर्ण आचरण करोगे तो एकता का लक्ष्य सिद्ध कर पाओगे। झगड़ा और बहस करना अच्छा नहीं है। अतः बहस मत करो। ईश्वर तुम्हारी रक्षा करेगा। योग, आत्म-बलिदान, तपस्या- तथा ज्ञान के द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
बाबा जीवनमुक्त पुरुष थे। वे अविवाहित थे तथा उन्होंने औपचारिक रूप से जगत का त्याग भी नहीं किया था। वे एक नैष्ठिक संन्यासी, संत, दृष्टा और फकीर थे। वे शिरडी में घूम-घूमकर भिक्षाटन किया करते थे। वे अपने एक हाथ में टीन का एक डिब्बा लिए रहते थे तथा दूसरे हाथ में झोली। वे गीले पदार्थ टिन के डिब्बे में लेते और सूखे पदार्थ झोली में। भिक्षाटन के पश्चात वे मस्जिद में लौटकर भोजन के सूखे गीले सभी पदार्थ मिट॒टी की कंडी में डाल देते। वे जब भोजन करने बैठते तो कुत्ते, बिल्लियां और कौवे भी उनके साथ शामिल हो जाते तथा कंडी में से खाने लगते थे। मस्जिद में झाडू लगाने वाली महिला भी बेझिझक कंडी में से भोजन ले लेती थी। आधुनिकता वासियों की दृष्टि से इसे पागलपन ही माना जायेगा, परंतु वास्तव में साईं बाबा पागल नहीं अवधूत थे। वे सिद्ध पुरुष थे। उनकी दृष्टि में मनुष्य और अन्य जीवों के बीच किसी प्रकार का भेद न था। उन्होंने जिह्वा के स्वाद पर विजय प्राप्त कर ली थी तथा वे अपनी वस्तुओं को उदारतापूर्वक दूसरों में बांट देते थे।
एक समय वह था जब साईं बाबा शिरडी के आसपास के जंगल में घूमते रहते थे। उस समय एक श्रद्धालु देवी बायजा बाई बाबा के लिए भोजन तैयार करतीं और उसे एक टोकरी में भरकर टोकरी को सिर पर धरे-धरे बाबा की खोज में जंगल में भटकती रहती थीं। उन्हें खोज लेने पर वे बाबा के चरणों में गिर पड़ती और उन्हें जबरदस्ती भोजन कराती। बाबा ने शिरडी आने के बाद जीवन भर उत्तर में निमगांव और दक्षिण में राहाटा के परे पांव नहीं निकाला। शिरडी आने के बाद जीवन भर वे उसी सीमा-क्षेत्र में संन्यास की अवस्था में रहे। न उन्होंने कभी रेलगाड़ी देखी, न वे उस पर चढ़े।
सीमोउल्लंघन
सन 1916 की विजयदशमी को बाबा आंवेश में आ गये। शाम के समय जब उनके भक्त सीमोल्लंघन समारोह से लौटकर उनके पास इकट्ठा हुए तो उन्होंने कोपीन समेत अपने सभी कपड़े उतार डालें और उन सब को फाड़कर धुनी में होम कर दिया। धुनी में से उठती लपटों में साईं बाबा दैदीप्थमान हो उठे। वे अपने भक्तों पर बरस पड़े, तुम लोग अब अपनी आंखों से देख लो और स्वयं फैसला कर लो कि मैं हिन्दू हूं या मुसलमान। उनके भक्त उनके इस आवेशपूर्ण कार्य से सन्न रह गये और डर गये। उनमें से एक भोगोजी शिन्दे-कोढ़ी भक्त- ने हिम्मत करके बाबा की कमर में कोपीन बांध दी और बाबा को प्रेमपूर्वक झिड़कते हुए कहा, “बाबा! यह सब क्या है? आज सीमोल्लंघन दिवस है। बाबा ने अपना सटका (छोटा सा डंडा) हाथ में उठाया और उसे जमीन पर पटकते हुए कहा– “आज मेरा भी सीमोल्लंघन (सीमा लांघने का) दिवस है। यह इस बात का संकेत था कि बाबा विजयदशमी के दिन शरीर छोड़ सकते हैं। उनके भक्त यह देखकर चकित रह गये कि वे मस्जिद में रहते थे और ईश्वर को अल्लाह कहकर पुकारते थे किंतु उनका खतना नहीं हुआ था।
इस घटना के दो वर्ष बाद 28 सितंबर, 1918 को बाबा को ज्वर हुआ, जो दो-तीन दिन रहकर उतर गया। इसके सत्रहवें दिन 15 अक्तूबर, 1918 मंगलवार को दोपहर में लगभग अढ़ाई बजे साईं बाबा ने अपना नश्वर शरीर छोड़ दिया। उस दिन विजयदशमी का पर्व था। उन्होंने इस जगत की सीमा लांघने के लिए वही दिन चुना। शरीर त्याग ने से कुछ दिन पहले बाबा ने अपने भक्त श्री वाजे के मुख से राम विजय का पाठ दो बार सुना-पहले ग्यारह दिन और दूसरी बार तीन दिन। देह छोड़ने से पहले ही उन्होंने अपने समाधि-स्थल के बारे में संकेत कर दिया था। उन्होंने लक्ष्मीबाई शिन्दे से कहा था कि ”मुझे मस्जिद में अच्छा नहीं लग रहा है। मुझे बूटी के वाड़ा में ले जाना। बूटी बाबा के परम भक्त थे और उन्होंने वह वाड़ा (घर) अपने रहने के लिए बनाया था। बे नागपुर के रहने वाले थे और बाबा की समीपता प्राप्त करने के लिए शिरडी में वाड़ा (घर) बनाकर रहने लगे थे।
बाबा के मुस्लिम भक्तों का यह आग्रह बहुत स्वाभाविक था कि उनका अंतिम संस्कार मुस्लिम परंपरा के अनुसार किया जाये, परंतु बावा के अन्य शिष्य बाबा की अंतिम आज्ञा का पालन करने का आग्रह कर रहे थे। वे चाहते थे कि उनको बूटी के घर में समाधि दी जाये। 36 घंटे तक इस बारे में कोई फैसला नहीं हो सका, किंतु अंत में बाबा के सभी हिन्दू और मुसलमान भक्तों ने सर्वसम्मति से वाया के आदेश अनुसार उन्हें बूटी-वाड़ा में समाधि देने का निश्चय कर लिया। उस समय तक उपासनी महाराज भी शिरडी पहुंच गये थे, उनके निर्देशन में साईं बाबा को पूरे धार्मिक विधि-विधान के साथ महासमाधि दी गयी।
शिरडी में साईं बाबा की समाधि प्रतिदिन दूर-दूर से आने वाले साईं भक्तों के लिए एक पवित्र तीर्थ बन गयी है। बाबा ने अपने भक्तों को वचन दिया था कि शरीर छोड़ने के बाद भी वे उनका मार्गदर्शन और उनके दुखों का निवारण करते रहेंगे। उन्होंने कहा था, मुझ पर विश्वास करो, मैं भले ही शरीर छोड दूं, मेरी समाधि में मेरी अस्थियां मेरे प्रति पूरी तरह समर्पित लोगों के साथ बात करेंगी उनके लिए हलचल करेंगी तथा उनके साथ संपर्क बनाये रखेंगी। यह सोचकर परेशान मत होना कि मैं तुमसे अलग हो जाऊंगा। तुम मेरी अस्थियों को तुम्हारे कल्याण के निमित्त बोलते और चर्चा करते हुए सुनोगे, लेकिन मझे हमेशा याद रखना, मुझ पर अपने पूरे हृदय और आत्मा से विश्वास रखना, तुम्हें तभी पूरा लाभ प्राप्त होगा। साईं बाबा अपने भक्तों से सदा कहा करते थे कि वे शरीर नहीं हैं, शरीर तो साधन मात्र है। वास्तव में बाबा आत्मा हैं— परिपूर्ण, अमर और शाश्वत आत्मा।
उडी की महिमा
साईं बाबा के भक्त उनके दर्शन करने के बाद जब शिरडी से जाने लगते तो बाबा उन्हें अपनी धूनी में से राख बांटा करते थे, जिसे वे उडी कहते थे। राख प्रतीक स्वरूप थी, जिसके द्वारा बाबा अपने भक्तों को आध्यात्मिकता का यह मूल पाठ पढ़ाते थे कि समुचा भौतिक विश्व ऐसा क्षणभंगुर है, जैसी कि उडी। वे ब्रह्म अर्थात परम सत्य की उपासना पर बल दिया करते थे। दूसरी ओर भक्तों की आस्था और बाबा की चमत्कारी तथा रहस्यमय शक्ति के द्वारा वह उडी (भस्मी) अनेक शारीरिक और मानसिक रोगियों को स्वास्थ्य भी प्रदान करती थी, लेकिन बाबा इस ओर से प्रायः उदासीन रहते थे। वे चाहते थे कि उनके भक्त शाश्वत ब्रह्म और क्षणभंगुर जगत का अंतर समझें।
में कौन हूं?
एक बार बाबा ने अपने एक भक्त से कहा था, यह मेरी विशेषता है कि जो व्यक्ति मेरे प्रति परी तरह आत्मसमर्पण कर देता है तथा पूरी निष्ठा से मेरी पूजा मेरा स्मरण और निरंतर मेरा ध्यान करता है, मैं उसे सांसारिक बंधनों से मुक्त कर देता हूं। मैं अपने भक्तों को मौत के पंजे से निकाल लाऊंगा। मेरे भक्तों का घमंड और अहंकार समाप्त हो जायेगा और वे सर्वोच्च चेतना के साथ एकाकार हो जायेंगे। ‘साईं साईं’ अर्थात् मेरे नाम के जप मात्र से वाणी और श्रवण के दोष नष्ट हो जायेंगे। यहां यह प्रश्न उठता है कि साईं बाबा अपने आपको क्या मानते थे? उनके ही शब्दों में, “मैं समस्त प्राणियों के अंत्तर्मन का स्वामी हूं और उनके हृदयों में विराजमान हूं। मैं समस्त चर-अचर जीवों को ढांपे हुए हूं। मैं विश्व के नाटक का नियंता हूं। मैं समस्त प्राणियों की मां, तीनों गुणों (सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण) का समन्वय, समस्त इन्द्रियों का संचालक, सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और नाशकर्ता हूं। माया उस पर ही चोट करेगी, जो मुझे भुला देगा। समस्त कीड़े, चींटियां दृश्य-अदश्य और चर-अचर सृष्टि मेरा ही रूप है, मेरी ही काया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बाबा मिथ्या अहंवादी नहीं हैं। वे सिद्ध पुरुष तथा आत्मा के सच्चे प्रतिनिधि थे। बाबा महान योगी थे। वे कहते थे, आत्म-साक्षात्कार के लिए ध्यान अनिवार्य है। उस परब्रह्म का ध्यान करो, जो समस्त प्राणियों में निवास करता है।
हमेशा मेरे निराकार स्वरूप का ध्यान करो, जो साक्षात ज्ञान, चेतना और शाश्वत आनंद है। यह ध्याता, ध्यान और ध्येय का भेद समाप्त कर देगा और ध्याता (ध्यान करने वाला साधक) शाश्वत चेतना के साथ एकाकार होकर ब्रह्म में विलीन हो जायेगा। इससे स्पष्ट है कि साईं बाबा ब्रह्मविद्या के परम गुरु थे। वे उच्च कोटि के ब्रह्मज्ञानी थे।
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