सांची स्तूप किसने बनवाया, इतिहास और महत्व Naeem Ahmad, May 21, 2023 सांची विदिशा के सांस्कृतिक, कलात्मक व धार्मिक अस्तित्व का मेरूदण्ड है, जहां लगभग 1500 वर्षो तक बौद्ध धर्म की पताका फहराती रही। सांची स्तूप संसार के प्रसिद्ध स्तूपों में से एक है, भारतवर्ष के प्राचीनतम स्मारकों का अद्वितीय अक्षुण्य उदाहरण है। बौद्ध धर्म की जातक कथाओं के चित्रण के अतिरिक्त, समसामयिक जीवन की झांकी व राजनैतिक परिवर्तनों का प्रभाव जितना सुस्पष्ट यहां दर्शनीय है, अन्यंत्र कही नही है। सांची सम्बन्धित इतने ग्रंथ, लेख प्रकाशित हो चुके है कि संभवत: कुछ भी कहना शेष नही रह जाता। किन्तु गत कुछ वर्षो में अनेक बार सांची स्मारकों का अध्ययन करने पर भी प्रत्येक बार ऐसा अनुभव हुआ हैं कि जो तथ्य प्रकाश में आये है, वे यहां के निधिसागर की एक बूंद तुल्य ही हैं। सच भी है, लेखनी में इतनी क्षमता कहां है कि वह, नेत्रों के माध्यम से हृदयंगम की गई भावनाओं और सम्पूर्ण अनुभूतियों को व्यक्त कर सके। फिर भी इस अपार अक्षुण्य निधि का संक्षिप्त विवरण यहां वांछनीय है। सांची स्तूप का निर्माण किसने करवाया था मध्य प्रदेश के विदिशा के दक्षिण पश्चिम में दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित सांची की पहाड़ी वर्तमान रायसेन जिले के अंतर्गत है। लगभग 100 मीटर ऊंची इस पहाड़ी पर, 400 गज उत्तर- दक्षिण 220 गज पूर्व-पश्चिम क्षेत्र में अनेक छोटे बड़े स्मारक सितारों सदृश जडित हैं, जिनमें स्तूप 1, अटल ध्रुवतारे के समान दूर से ही दृष्टिगोचर होता है। इस पहाड़ी की प्राकृतिक स्थिति ने आदि काल से ही मानव को अपनी ओर आकर्षित किया था। प्रागैतिहासिक युग के कुछ रंगीन चित्र यहां की प्राकृतिक शैल गुहाओं में विद्यमान हैं। यहां के एकांत व शांतिपूर्ण वातावरण तथा धनधान्य पूर्ण विदिशा नगर सान्निध्य से बौद्ध संघ की स्थापना को आदर्श परिस्थिति उपलब्ध न हो गई। तथागत ने स्वयं भी ऐसे स्थान को, जो नगर से अधिक दूर न हो, किंतु निकट भी न हो, बौद्ध संस्थापन के लिये उपयुक्त कहा है। सांची स्तूप प्राचीन काल में इस पहाड़ी को वेदिसगिरि अथवा चेतियगिरि कहते थे। पांचवीं शताब्दी ई० सन के अभिलेखों में इसे काकसाय का काकनाब तथा काकनाद वोट कहा गया हैं। सातवी शताब्दी के एक लेख के अनुसार इसका वर्णन वोट-श्री-पर्वत के नाम से हुआ है। वर्तमान गांव को कानाखेड़ा कहते है जो प्राचीन नाम का अर्षद्य प्रतीत होता है। यहां पर पचास स्मारक हैं, जिनके चारों ओर ग्यारहवीं शताब्दी में बनाया गया एक परकोटा हैं। इनमें एक अशोक स्तम्भ, तीन स्तूप, एक विहार तथा चार मंदिर विशेष रूप से उल्लेखनीय है। स्मारकों के विवरण के पूर्व यह भी कहना उपयुक्त प्रतीत होता है कि कब और किसने यहां पर क्या कार्य किया। लगभग 12 वीं शताब्दी में यह स्थल निर्जन हो गया था क्योंकि इसके उपरान्त के कोई अवशेष यहां से उपलब्ध नहीं हुये हैं। सांची स्तूप के प्रमुख तथ्य उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में (1918 ई० स०) जनरल टेलर ने पिंडारियों के विरुद्ध अभियान के सम्बन्ध में यहां पर पड़ाव किया था। उस समय सांची के मुख्य स्तूप के तीन तोरणद्वार वेदिका तथा अड, स्तूप दो व तीन और आठ छोटे स्तूप अक्षुण्य थे। डा० येल्ड ने अनुमाप से एक रेखाचित्र बनाया गया था जिस पर रोबक, 1918 के हस्ताक्षर है। केप्टन ई० फैल ने प्रथम बार सांची का विवरण 1819 में लिखकर बर्किघम के कलकत्ता जर्नल में (11 जुलाई) प्रकाशित किया था। जेम्स प्रिंसेज ने उपर्युक्त विवरण को 1834 में पुन: प्रकाशित किया। हर्बर्ट मड्डोक ने जो भोपाल राज्य के पोलिटिकल एजेन्ट थे, सन् 1922 में सांची में उत्खनन करने की अनुमति ली थी। कैप्टन जोन्सन ने महा स्तूप का एक भाग ऊपर से नीचे तक खोदा था जिसके परिणाम स्वरूप पश्चिमी तोरण द्वार तथा वेदिका का कुछ भाग गिर गये थे ओर स्तूप में एक वृहत दरार पड गई थी। इसी प्रकार स्तृप 2 भी अंशतः विनष्ट हो गया था। डॉ० स्पिल्सवरी ने दिसंबर 1822 में स्तूपो को उपयुक्त अवस्था में पाया था। उन्होंने 1835 में प्रिंसेज को एक नक्शा भी भेजा था। वियान एच० होग्सन ने दो अभिलेखों की प्रतिलिपि 1824 में की थी। कैप्टन एडर्वड स्मिथ ने 25 अभिलेखो की प्रतिलिपियां प्रिंसेज को भेजी थी। कौप्टेन डब्ल्यू मुरे ने भी उन्हे अनेक नक्शे भेजे थे। कैप्टेन जे० डी० कर्निघम ते 1841 में एक लेख प्रस्तुत किया था। क्लेक्जेंडर कर्निघम तथा लेफ्टिनेंट फ्रेड सी मैसी ने 1851 ई० में स्तूप 2 व 3 का उत्खनन किया था, जिसमे उन्हें अवशेष मजूपा उपलब्ध हुई थी। मेजर ड्यूरेण्ड (सर हेनरी) ने सन् 1850-53 में अत्यन्त ध्यान पूर्वक अनेक मूर्तियों के रेखाचित्र बनाये थे। वाटर हाउस ने सन् 1862 में स्तूप के फोटो किये थे। फर्ग्यूसन ने 1886 में ‘ट्री एण्ड सर्पेण्ट वारशिप” प्रकाशित की थी। मेजर जनरल कोल ने सन् 1869 में “संरक्षण की तृतीय रिपोर्ट” लिखी थी तथा उत्तरी तोरणद्वार के प्रकार भी बनाये थे। इन्होंने गिरे हुए पश्चिमी तथा दक्षिणी तोरण द्वारों को खड़ा किया, तथा दरार को भी भर दिया था। स्तूप 3 के तोरण द्वार तथा वेदिका को भी जीर्णोद्घार किया था। प्रोफे० ई० वाशवोर्न होप्किंग्स ने 1897-99 में यहां का निरीक्षण करते समय, ग्रामीण लड़कों को मूर्तियों पर पत्थर फेक कर प्रसन्न होते देखा था। बर्गेंस ने 1889 ई० में यहां के अभिलेखों के छापे तैयार किये थे। डॉ० फारेर ने मार्च 1893 में और अधिक प्रतिलिपियां बनाई थी। हेनरी कजिन्स द्वारा 1901 में यहां का फोटो कार्य सौंपा गया था। सर जोन मार्शल ने सन् 1912-19 में अपने संरक्षण कार्य से स्मारकों को वर्तमान रूप दिया। मुहम्मद हमीद कुरेशी ने 1936 में सांची के विहार को अनावृत किया था। सन् 1952 में प्राचीन स्मारकों के पार्श्व में नवीन बौद्ध विहार श्रीलंका की महाबोधि सोसायटी द्वारा बनवाया गया तदुपरान्त वेनरेबिल एच० पन्नतिस्स नायक थेरो ने सांची निर्देशन पुस्तिका प्रकाशित की। श्रीमती देवरा मित्रा ने ‘सांची” निर्देशक पुस्तिका 1957 में लिखी। केन्द्रीय पुरातत्व के अन्तर्गत आने पर स्तूप एक को पतले सीमेंट का मसाला मिला कर दृढ़ किया गया, प्राचीन मार्ग का जो स्तूप एक से तीन को जाता है, जीर्णोद्धार किया गया, संग्रहालय पहाड़ी के नीचे बना दिया गया, तथा स्मारकों के चारों ओर कंटकीय तार लगाकर उन्हें सुरक्षित करने की व्यवस्था की गई। 1953 में श्रीलंका के बौद्ध संघ द्वारा निर्मित नवीन बौद्ध मन्दिर में सारिपुत्र व महामोग्गलायन की मंजूपायें रखी हुई हैं। प्रति वर्ष नवंबर दिसंबर के अन्तिम दिनों मे इन अवशेषों को स्तूप के चारों ओर प्रदक्षिणा करके पुनः रख दिया जाता है। इस अवसर पर देश विदेश से विशिष्ट अतिथिगण तथा अनेक बौद्ध उपासक यहां एकत्र होते हैं। सांची के प्राचीनतम स्मारकों में अशोक स्तम्भ तथा स्तूप 1 के भीतर ईंट का बना हुआ स्तूप है। यह स्तम्भ (स्तम्भ क्रम संख्या 10) स्तूप एक के दक्षिण तोरण द्वार के निकट है जिसका ठूंठ यथा स्थान है तथा दो भाग एक चबूतरे पर रखे हुए हैं। इसका शीर्ष भाग सांची संग्रहालय में प्रदर्शित है। सम्पूर्ण स्तम्भ अशोक के अन्य स्तम्भों के सदृश चुनार पत्थर का बना शुण्डाकार है तथा इस पर ओपदार पालिश है। समग्र स्तम्भ एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया है। इस पर उत्कीर्ण अशोक का एक आदेश लेख है, जिसमें संघ विच्छेदन करने वालों को श्वेत वस्त्र पहिनाकर संघ से निष्कासित किया जानेका आदेश उत्कीर्ण है। यप्टि और शीर्ष में लघुसामंजस्य हैं। इस दोनों को एक बेलनाकार कील से जोड़ा गया था। यप्टि के शीर्ष पर घण्टा की आकृति है, जिसके ऊपर गोल अलंकृत पट्टी है। सर्वोपरि स्तम्भ को मंडित करने वाले चार सिंह हैं, जिनकी पीठ से पीठ लगी है। इसके फलके पर हंसों के चार जोड़े हैं। सम्राट अशोक के समय का स्तूप वर्तमान स्तूप से आधे माप का था। इस स्तृप में मौर्यकालीन इंटों का प्रयोग हुआ है तथा मौर्य स्तंभ व स्तूप के फर्श का स्तर भी एक है। यहां से अशोक कालीन छत्र के जो चुनार पत्थर का ही है तथा जिस पर मौर्यकालीन पालिश भी है, कुछ अंश उपलब्ध हुए थे। द्वितीय शताब्दी ई० पू० सांची स्तूप के क्षत्र विक्षत कर दिये जाने पर, इसका सम्पूर्ण रूप ही परिवर्तित कर दिया गया। इस समय इसके चारों ओर पत्थर का आवरण नीचे तथा उपर के सोपान, वेदिका, प्रदक्षिणा पथ, हर्मिका, छत्रावलि आदि बनाये गये थे। ऊपर की वेदिका तथा सोपान के ब्राह्य भाग अलंकृत हैं। नीचे की वेदिका में चार दिशाओं में चार द्वार बने हुये। वेदिका की निर्माण विधि को देखने से स्पष्ट है कि काष्ठ-निर्माण कला की प्रतिलिपि है। वेदिका तथा फर्श के पत्थरों पर अनेक दानियों के नाम उत्कीर्ण है। प्रथम शताब्दी ई० पू० में सांची स्तूप के चारों तोरण द्वार बनाये गये थे। गुप्त काल में (450 ई० सन् के पूर्व) इन चारों द्वारों के भीतर बैठी हुई चार बुद्ध प्रतिमाएं स्थापित की गई थी, प्रत्येक्ष प्रतिमा के दोनों ओर एक-एक परिचारक है। इनके आभा मण्डल अतीय परिष्कृत है, जो बड़ी कुशलता से उत्कीर्ण किये गये थे। सांची स्तूप का व्यास 120 फीट, ऊंचाई 54 फीट तथा तोरणद्वारों की ऊँचाई 28 फीट है। सर्वप्रथम दक्षिण द्वार का निर्माण किया गया होगा, जैसा कि अशोक स्तम्भ तथा ऊपर जाने के लिए सोपन से विदित होता है तदोपरांत क्रमश उत्तरी, पूर्वी तथा पश्चिमी द्वार बनाये गये। इन सब द्वार में उत्तरी द्वार का अधिकांश भाग मौलिक रूप में सुरक्षित है। दक्षिण द्वार पर एक छेख से ज्ञात होता है कि उसे विदिशा के हाथीदांत का काम करने वालों ने बनाया था। प्रत्येक तोरण द्वार के दोनों वर्गाकार स्तम्भ जिनके शीर्ष पर गज तथा यक्ष मूर्तियां है, तीन पादांगों से सम्बद्ध है, जिनके दोनों सिरों मे मारगोल है। पादांगों के मध्य चार खड़े पाषाण-खण्ड लगे हैं। उसके मध्य की रिक्तता अश्वरोहियों तथा गजराोहियों की आकृतियों द्वारा भर दी गई है। सर्वोपरि चित्रता, धमचक्र, यक्ष हैं। सबसे नीचे के पादागों तथा स्तंभ शीर्षो के मध्य मे लावण्य पूर्ण शाल मंजिकाये हैं । पूर्वी द्वार पर बनी शाल मंजिका की मनोहर आकृति, उन्ता उरोज, अलंकृत तन तथा कटी हुई घुंघराली करके अति आकर्षक है। तोरण द्वारो पर दैनिक जीवन के अतिरिक्त बुद्ध जीवन से सम्बद्ध कहानियां, मानुषी बुद्ध तथा जातक कथाओं के दृश्य हैं, जिनमें पंड़दत, महाकवि, विश्वन्तर, सामजातक विशेष उल्लेखनीय है। इनकी आकृतियों में स्तूप दो की अपेक्षा, जो स्तूप एक के पूर्व निर्मित किया गया था, परिष्कृतता दृष्टिगोचर है। पूर्वा आाकृतियों में केवल सामने का रूप ही बन पड़ा है, जब कि इन मूर्तियों में सुनम्यता के अतिरिक्त, उनकी विभिन्न मुद्राओं में स्वातंत्र्य का आभास होता है। स्तूप तीन, मुख्य स्तूप के उत्तर पूर्व में लगभग 50 फीट की दूरी पर है। इसका व्यास 49 फुट 6 इंच तथा ऊंचाई 27 फुट है । इसमें एक ही तोरण द्वार है। मुख्य स्तूप के सदृश्य ही इसके सोपान, वेदिका, हृर्सिका तथा छत्र भी द्वितीय शताब्दी ई० पूर्व निर्मित किये गये थे। तदुपरान्त नीचे की वेदिका तथा प्रथम शताब्दी ई० सन् में 17 फुट ऊंचा द्वार बनाया गया। यह कहा जाता है कि इस स्तूप के मध्य से कर्निघम को सारिपुत्स तथा मौदगलायन के अवशेष पत्थर के दो बक्सों में रखे हुये प्राप्त हुये थे। प्रत्येक बक्से के ढक्कन पर क्रमशः सारिपुत्स तथा महा मोदगलायन उत्कीर्ण है। वास्तव में इन दोनों की धातु मंजूपायें सतघारा के स्तूप दो से उपलब्ध हुई थीं। स्तूप दो पहाड़ी के उत्तरी ढलान पर प्राचीन मार्ग के निकट लगभग 350 फीट की दूरी पर है। यह स्तूप, स्तूप तीन के माप का है किन्तु इसमें कोई तोरण द्वार नहीं है। इसकी नीचे की सोपान वेदिका तथा उसमें बने चार द्वार ही सुरक्षित हैं। ऊपरी भाग विनष्ट हो चुके है। वेदिका पर उत्कीर्ण लेखों तथा निम्न अद्भुत मूर्तियों के ढंग से इस स्तूप का निर्माण काल ईसा पूर्व की द्वितीय शत्ताब्दी के अंतिम चतुर्थाश का अनुमाना गया है। इस पर फुलकारी के अतिरिक्त, यक्ष, यक्षी, किन्नर तथा अश्वमुखी यक्षी, नाग, गजलक्ष्मी, मनुषाकृति सिंह, मत्स्य, पक्षी आदि भी विभिन्न आकृतियां हैं। अश्र्वारोहियों के पैर रकाबों में डले हुये दिखलाये गये हैं। रकाबों का प्रयोग, इतने प्राचीन समय में विश्व में कहीं नहीं देखा गया है। इस प्रकार की एक रकाब मुख्य स्तूप के उत्तरी द्वार के पृष्ठ भाग से भी देखी जा सकती है। इस स्तूप में बुद्ध के जीवन सम्बन्धी घटनाओं का सांकेतिक चित्रण है। मुख्य स्तूप की अपेक्षा इस स्तूप में लोककला का विशुद्ध चित्रण है, जिसमें सरलता अक्रविमता, निष्ठा तथा अलंकृत सौन्दर्य स्पष्ट है। समकालीन कला में यहाँ की फुलकारी अद्वितीय है। मनुषा आकृर्तियों में स्मृति चित्र” का आशय लिया गया है जिसके कारण उनमें शरीरीय यथार्थता का अभाव है। किन्तु कुछ आकृर्तियाँ जो मुख्य स्तूप के समकालीन हैं, अधिक परिष्कृत हैं। इस स्तूप से भी कर्निघम को धातु मंजूषा प्राप्त हुई थी, जिसमें “अर्हत कश्यप गोत्र तथा आचार्य वात्सी सुविजयत के साथ सभी आचार्यों के धातु अवशेष” पाये गये। जिस बक्से के ढक्कन पर यह लेख उत्कीर्ण था, उसके भीतर तीन छोटी धातु मंजूपायें प्राप्त हुई थीं, जिन पर दस संतों के नाम लिखे हैं तथा: जिनमें भीतर संतों के जले हुए अस्थि अवशेष थे। मंदिर 18, मुख्य स्तूप के दक्षिण द्वार के सम्मुख एक ऊँचे चबूतरे पर शुंग कालीन गज पृष्ठाकार मंडप की नींव पर निर्मित किया गया है। इसके आठ ऊचे-ऊंचे स्तम्भ, एक कुड्य-स्तम्भ तथा एक पादांग अभी तक अक्षत है जो सातवीं शताब्दी ई० सन् में बनाये गये थे। मध्य वीथी के यह वर्गाकार स्तम्भ 7 फुट ऊँचे हैं तथा ऊपर की ओर क्रमशः पतले होते जाते हैं। लगभग दसवीं- ग्यारहवी शताब्दी में इसके गजपृष्ठ के फर्श को ऊँचा किया गया तथा मुक्तहस्त से अलंकृत द्वार स्तम्भ लगाये गये थे। मंदिर 17, उपर्युक्त मंदिर के निकट उत्तर-पूर्व में है। नीचे आधार पर, जिसमें गढ़े हुये पत्थर लगे है, एक वर्गाकार गर्भगृह तथा चार स्तम्भों का मण्डप है। गर्भग्रह की छत सपाट है। इस मंदिर में गत शैली के अनुकूल मंडप-स्तम्भ नीचे वर्गाकार से प्रारम्भ होकर अष्ट तथा सोडप भुजी हो जाते है तथा घण्टाकार कमल के ऊपर फल का खंण्ड चार सिंह आकृर्तियों से सुसज्जित है। इन चार सिंहों के आठ शरीर हैं। गर्भगृह के द्वार स्तंभों पर फुलकारी सुशोभित है। इस समय इसमें कोई प्रतिमा नहीं है, यद्यपि 1851 ई० सन् में बुद्ध प्रतिमा का अधोभाग देखा गया था। इस मंदिर का अपना ही वैशिष्ट्य है, जिसमें संरचनात्मक औचित्य, संतुलन, अलंकार नियंत्रण आदि प्रशंसनीय है। मंदिर 31, स्तूप पांच के निकट पूर्व की ओर है। ऊंचे चबूतरे पर बने स्तम्भों वाले इस आयताकार मन्दिर की छत भी सपाट है तथा इसमें दो कमलों पर आसीन बुद्ध की प्रतिमा है जिसका आभा मण्डल अत्यन्त परिष्कृत है। मौलिक रूप में यह मंदिर छठी-सातवी शताब्दी ई० सन् में निर्मित हुआ था, किन्तु कमलासन दो अर्ध स्तम्भों तथा दो मध्यस्थ स्तम्भों के अतिरिक्त शेष भाग दसवीं- ग्यारहवीं शताब्दी में बनाया गया था। ऊंचे चबूतरे पर पहुंचने के लिये दक्षिण की ओर सीढ़ियाँ बनी हैं। इन्हीं सीढ़ियों के समीप चौथी-पाँचवी शताब्दी ई० सन् की एक नागी प्रतिमा है जो कहीं अन्य स्थान से यहां लाई गई है। मंदिर तथा विहार 45 पहाड़ी के पूर्वी क्षेत्र में हैं। यह विशाल मंदिर दो कालो में निर्मित हुआ था। सातवी-आठवी शताब्दी के बने चबूतरे का एक भाग तथा उत्तर, दक्षिण व पश्चिमी कोष्ठ, आँगन का फर्श, बरामदे के किनारे के पत्थर आदि मौलिक मंदिर के अवशेष हैं। एक अग्निकांड के पश्चात दसवीं-ग्यारहवी शती में आँगन के फर्श का स्तर तथा मौलिक प्रकोष्ठों की दीवारों को ऊंचा किया गया। आँगन से तीन फीट की ऊँचाई पर नया बरामदा बनाया गया। बाद में बनाये गये मंदिर में वर्गाकार गर्भगृह है, जिसका शिखर खोखला है। इसकी दीवारों के बाहय भाग पर मूर्तियों के लिये आले हैं। द्वार स्तम्भ तथा देहली पशु और फ़ुलकारी से अलंकृत है। यहाँ पर गगा-यमुना की आकृर्तियों को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि बौद्ध धर्म ने ब्राह्मण अभिप्रयो की अपनाया है। गर्भगृह में पद्मासीन बुद्ध भूमि स्पर्श॑मुद्रा में हैं। विहार 51, मुख्य स्तूप के पश्चिमी द्वार के सम्मुख 24 फुट नीचे के शिला फलक पर बना हैं। यह 109 फीट× 107 फुट 3 इंच है, जिसके आँगन के चारों ओर प्रकोष्ठ है तथा पूर्व की ओर मुख्य द्वार व पश्चिम की ओर छोटा द्वार है। इसी विहार में महेन्द्र ने श्रीलंका जाने के पूर्व कुछ समय व्यतीत किया था। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े :—- महाराजा भूपेन्द्र सिंह का जीवन परिचय और इतिहास महाराजा महेन्द्र सिंह और महाराजा राजेन्द्र सिंह पटियाला रियासत महाराजा नरेंद्र सिंह पटियाला परिचय और इतिहास महाराजा करम सिंह पटियाला का परिचय और इतिहास महाराजा साहिब सिंह पटियाला जीवन परिचय और इतिहास महाराजा अमरसिंह पटियाला का परिचय और इतिहास राजा आला सिंह का जीवन परिचय और इतिहास भारत के पर्यटन स्थल मध्य प्रदेश पर्यटन