महिला संत सहजोबाई जीराजपूताना के एक प्रतिष्ठित ढूसर कुल की स्त्री थी जो परम भक्त हुई और संत मत के अनुसार साध गति को प्राप्त हुई। संत सहजोबाई का जीवन परिचय हमने भक्तमाल और उस प्रकार की कई पुस्तकों में ढूंढ़ा परन्तु कहीं कुछ प्रमाणिक वृत्तांत नहीं मिलता है। सहजोबाई की वाणी से इतना निश्चय होता है कि वह सम्वत् 1800 में वर्तमान थीं और प्रसिद्ध महात्मा संत चरणदास जी की गुरुमुख शिष्य थी। आप भी मेवात के एक ढूसर कुल में प्रगट हुई थी और आपके अनुयायी भारतवर्ष के देश देशान्तर में अब तक हजारों हैं, यद्यपि उन में शब्द अभ्यासी और भेदी विरले देख पड़ते हें। संत सहजोबाई जी की वाणी से संत चरणदास जी के जन्म का समय भादों सुदी 2 मंगलवार संवत् 1760 विक्रमी प्रमाण होता है।
संत सहजोबाई जीसंत सहजोबाई जी के विषय में कोई कोई चमत्कार के कौतुक प्रसिद्ध हैं परन्तु चूंकि उनका कहीं प्रमाण नहीं मिलता यहां लिखना उचित नहीं है। उनकी गहरी गुरुभक्ति ओर गति उनको अति कोमल, मधुर और ह्रदयवर्धक वाणी से जानी जा सकती है। दयाबाई ( जिन की कोमल और मधुर वाणी अलग छपी है ) सहजोबाई की सजाती और गुरु बहन थी।
संत सहजोबाई की वाणी के कुछ प्रसिद्ध रचनाएं दोहा चौपाई
।।दोहा।।
कर जोरू परनास करि, धरूँ चरन पर सीस।
दादा गुरु सुकदेव जी, पूरन बिश्वा बीस॥
परमहंस तारन तरन, गुरु देवन गुरु देव।
अनुभै बानी दीजिये, सहजो पावै भैव॥
।। चौपाई।।
नसो नमो शुरु देवन देवा। नमो नमो गुरु अगम अभेवा॥
नमो नमो निरलम्भ निराला। नमो नमो परमातस बासा ॥
नमो नमो त्रिभुवन के स्वामी। नमो नमो शुरु अंतरजामी ॥
नमो नमो गुरु पातक हरता । नमो नमो पारायन करता ॥
गति मति छाके आनंद रूपा। नमो नमो गुरु ब्रह्म सरूपा॥
नमो नमो मम प्रान पियारे। नमो नमो तिर्गुत तेँ न्यारे ॥
भक्ती ज्ञान जोग के राजा। सहजो के पुरवो सब काजा ॥
जै कोइ सरन तुम्हारी आयौ। तुरियातीत बिज्ञान बसायौ॥
।।दोहा।।
निर्मल आनंद देत हो, ब्रह्म रूप करि देत।
जीव रूप की आपदा, व्याधा सब हरि लेत॥
।। चौपाई।।
नमो नमो सुकदेव गुंसाई। प्रगट करी भक्ती जग माहीं॥
श्रीमतभागवत् भानु प्रकासा। पढ़ सुनि कटै तिमिर की फाँसा॥
ज्ञान जोेग की नौका कीन्ही। चरणदास केवट को दीन्ही॥
बहुतक पापी जीव चढ़ाये। भवसागर सूं पार लंघाये॥
किरपा बल्ली हाथ में राखै। काहू ते दुरवचन न भाखै॥
अमृत वचन बोलि बैठावै। नर नारी लौं पतित तिरावै।
कलिजुग में सतजुग विस्तारा। राम भक्ति का खोल दुबारा ॥
सुनि सुनि के जिज्ञासू आवै। उनहूं के सन्देह मिटावै॥
।। दोहा।।
गुरु हैं चार प्रकार के, अपने अपने अंग।
गुरु पारस दीपक गुरू, मलयागीरि गुरु भृंग॥
चरणदास समरथ गुरू, सर्व अंग तेहि माहि।
जेसै कू तैसा मिलै, रीत छोड़ै नाहि॥
।। चौपाई।।
लेहे कू पारस होय लागै। कंचन करे बैर नहिं ताकै॥
सिष पलास चन्दन करि डारै। सलयागिरि हे कारज सारै॥
सिष समान कीट के आवै। भृंगी ह्वेकर ताहि बनावै॥
करै भिरिंगी ढील न कोई। पलटै रूप पाछलौ सोई॥
बिना लौय दीपक सिष परसे। हें दीपक तिनहूँ कूं दरसै॥
बकसैं अपनी जौति उजारा। होइ चॉदना भवन मझारा॥
चरणदास गुरु समरथ ऐसे। सहजोबाई भाखत जैसे॥
सब गति सब अँग है उन माही। उनते भैद छिपयो कोइ नाहीं॥
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