भारत में ऐसे कई परम-कीर्तिशाली नृपति हो गये है जिन्होंने मनुष्य-जाति के ज्ञान के विकास में-विविध प्रकार के विज्ञान के अभ्युदय में-बड़ी सहायता पहुँचाई है। इन्होंने न केवल युद्ध-क्षेत्रों और राजनैतिक-क्षेत्रों ही में अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया था, वरन विश्व के अगाध ज्ञान समुद्र में-प्रकृति की विविध सूक्ष्मताओं में-गहरा गोता लगाया था। ऐसे नृपतियों की सम्माननीय पंक्ति में जयपुर के महाराज सवाई जयसिंह जी का आसन बहुत ऊँचा है। जब तक इस पृथ्वीतल पर ज्योतिर्विज्ञान की महिमा बखानी जायगी; जब तक मानव-हृदय में अनन्त आकाश सण्डल के विषय में ज्ञान प्राप्त करने की लालसा बनी रहेगी, तब तक जयपुर के महाराज सवाई जयसिंह जी का नाम अजर और अमर रहेगा। ज्योर्तिविज्ञान(Astronomy) में महाराज सवाई जयसिंह जी ने जो आविष्कार किये हैं, वे ही वास्तव में उनके अमर कीर्ति-स्तम्भ हैं। पत्थरों के बने हुए बड़े बड़े कीर्ति-स्तम्भ समय के प्रभाव से नेस्तानाबूद हो सकते हैं, पर ज्ञान का कीर्ति-स्तम्भ तब तक अजर और अमर रहेगा जब तक मनुष्य जाति में ज्ञान की तनिक भी पिपासा रहेगी और उसके हृदय में सभ्यता और संस्कृति ( Civilization and Culture) का थोड़ा सा भी अंकुर रहेगा। एक प्रख्यात पाश्चात्य इतिहास वेत्ता महाराज सवाई जयसिंह जी के ज्योर्तिविज्ञान सम्बन्धी आविष्कारों के विषय में लिखते हैं:– “इस विशाल इतिहास कल्पद्रम में पाठकों ने जिन राजाओं के चरित्रों को पढ़ा है, उन्होंने उन सब को जातीय क्षत्रिय धर्म पालन और तलवार के बल से चिरस्थायी कीर्ति को स्थापित करते देखा है, पर सवाई जयसिंह जी ने न केवल जाति धर्म और बाहुबल ही का प्रकाश किया, वरन् शास्त्रीय उत्कर्ष में भी अपना अनुपम योग देकर ज्ञान के विकास के इतिहास में अपनी चिरस्थायी कीर्ति छोड़ी है। वे अपने समय के ज्योतिष- शास्त्र की प्रगति के जीवन थे। ज्योतिष-शास्त्र की उन्नति के हेतु उन्होंने जिन मंथों, वैधशालाओं तथा यंत्रों की सृष्टि की, वे उनकी अक्षय कीर्ति के योग्य स्मारक हैं। इस बात को ज्योतिष-शास्त्र वैत्ता मुक्तकंठ से स्वीकार करते हैं। ज्योतिष- शास्त्र सम्बन्धी आविष्कारों के कारण सवाई जयसिंह जी के यश का सूर्य इतना ऊँचा हो गया था कि उसने दूर दूर तक अपनी किरण-जाल का उज्ज्वल प्रकाश फैलाया था। सचमुच राजपूताने के इतिहास में महाराज सवाई जय सिंह जी ने विज्ञान की प्रगति में जो बहुमूल्य सहायता पहुँचाई, वह अपूर्व है।
ग्रहों का वैध लेने के लिये उन्होंने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, बनारस,
मथुरा प्रभृति बड़े बड़े नगरों में मान मन्दिर ( Observatories ) बनवाये। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि संसार के कितने ही प्रख्यात ज्योतिषियों ने यहां आकर इन मान मन्दिरों के द्वारा ग्रहों के वेध लिये थे। इनके अतिरिक्त महाराज सवाई जयसिंह जी ने ग्रहों की सूक्ष्म गतियों को जानने के लिये कई यंत्र भी बनवाये थे। इन यंत्रों द्वारा ग्रहों की गति का अनुमान निकालने में वे इतने सिद्ध-हस्त हो गये थे कि बड़े बड़े ज्योतिषी भी दाँतों अंगुली दबाते थे। जिस समय सवाई जयसिंह जी इस वैज्ञानिक आलोचना में प्रवृत्त थे, उस समय पुर्तगाल से इमानुएल नामक एक पादरी भारत में आये थे और ये जयसिंह जी से मिले थे। परस्पर में बातचीत होते होते पुर्तगाल की ज्योतिविद्या सम्बन्धी बातचीत हुईं । महाराज जयसिंहजी तो ज्ञान के बड़े पिपासु थे। उन्होंने अपने कुछ विश्वसनीय सेवकों को उक्त पादरी साहब के साथ पुर्तगाल भेजा था। इस पर पुर्तगाल के सम्राट ने अपने यहां के सुप्रख्यात ज्योतिषी जेवियर डिसिलवान को जयपुर नरेश की सेवा में भेज दिया था। उन्होंने, पुर्तगाल के ज्योतिषियों द्वारा निर्मित कितने ही यंत्र महाराज सवाई जयसिंह जी को भेंट किये थे। महाराज जय सिंह जी ने उन यंत्रों की परीक्षा कर उन्हें सर्वो में सन्तोष जनक नहीं पाया, क्योंकि उनके द्वारा उपलब्ध ग्रहपति की गणना में कुछ न कुछ फर्क रह जाता था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महाराज सवाई जयसिंह जी ने अपने समय में ज्योतिष-शास्र का पुनरुद्धार किया–नहीं, उसे नया जीवन दिया। वे केवल प्राचीन ज्योतिष- शास्त्र का संग्रह करके ही सन्तुष्ट नहीं हुए, उन्होंने विदेशों से भी इस सम्बन्ध के अनेक ग्रंथ मंगवाये थे। उन्होंने रेखा गणित की त्रिकोशमिति का ओर नेपियर की बनाई हुईं गणित की पुस्तकों का संस्कृत में अनुवाद किया था:— इनके अतिरिक्त महाराज सवाई जयसिंह जी के प्रोत्साहन से निम्न लिखित ग्रंथों की सृष्टि हुई थी :– जयसिंह कल्पद्रम, सम्राट सिद्धान्त, सिद्धान्तसार कौस्तुभ । ( यह टॉलमी के अलमजेस्ट्री ग्रंथ का संस्कृत अनुवाद है ), रेखागणित ( यह यूक्लिड के अरबी ग्रंथ का अनुवाद है ), जयविनोद सारिणी, दृकपक्ष सारिणी, दृकपक्ष ग्रंथ, उकर, मिथ्या जीव छाया सारिणी, विभाग सारिणी, तारा सारिणी ( यह जीच उलुकबेगी नमक तैमूरलंग के पौत्र उलुकबेग़ के तारा गणित ग्रंथ का अंकों में कालान्तर संस्कार दिया हुआ अनुवाद है।), जयसिंह कारिका ( महाराज सवाई जयसिंह जी रचित यंत्र राज की रचना करने का प्रकार और उपयोग इस विषय पर स्वयं सवाई जयसिंह जी का बनाया हुआ यह छोटा सा पर स्वाग पूरा ग्रंथ है ), जयसिंह कल्पलता,इन सब बातों से पाठकों को महाराज सवाई जयसिंह जी के उत्कृष्ट विद्या और कला-प्रेम का परिचय हो गया होगा।
सवाई जयसिंह जी के प्रशंसनीय कार्य
महाराज सवाई जयसिंह जी हिन्दू-धर्म के बढ़े अभिमानी और
हिन्दू जाति के बड़े हितेषी थे। सम्राट मोहम्मद शाह के राज्य-काल में कुछ अनुकूल अवसर देख कर हिन्दुओं ने जजिया कर के खिलाफ आवाज उठाई ओर उन्होंने अपनी दुकानें बन्द कर दीं। इस कार्य में महाराज जयसिंह जी ने हिन्दुओं की पूरी सहायता की । उन्होंने बड़ी राजनीतिज्ञता और बुद्धिमानी के साथ यह प्रश्न सम्राट की सेवा में उपस्थित किया और कहा कि हिन्दू इस देश के प्राचीन निवासी हैं और श्रीमान् हिन्दुओं ही के बादशाह हैं। श्रीमान् के प्रति हिन्दू और मुसलमान दोनों एक सी राज-भक्ति रखते हैं, बल्कि यों कहिये कि आप के प्रति हिन्दुओं की विशेष राज-भक्ति है। क्योंकि वे आपके सहधर्मियों से अपनी रक्षा आप ही के द्वारा करवाना चाहते हैं। जब आपके खिलाफ अब्दुल्लाखाँ ने बलवे का झंडा उठाया था, तब हिन्दुओं ने इकट्ठा होकर आपकी विजय के लिये इश्वर से प्राथना की थी। ऐसी दशा में हिन्दुओं की प्रार्थना पर ध्यान देकर जजिया कर उठा देना आपका कर्तव्य है। अवध के सूबेदार राजा गिरधर बहादुर ने भी सवाई जयसिंह जी का समर्थन करते हुए कहा था “मेरे दादा चबेलराम ने भी इसी प्रकार की प्रार्थना स्वर्गीय सम्राट फरुखसियार से की थी। और उन्होंने उसे मंजूर कर जजिया कर उठा दिया था। सम्राट ने महाराज जयसिंह जी की बात मंजूर कर जजिया कर उठा दिया और फिर यह कभी लगाया नहीं गया, यद्यपि इसके लगाने के लिये निजाम-उल-मुल्क ने पुन: कोशिश की थी। सम्राट फरुखसियार के जमाने में राजा जयसिंह जी मालवा के सूबेदार बनाये गये। और उन्हें यह आज्ञा हुईं कि वे बाला बाला अपनी राजधानी से मालवा जाकर मुबरीज खाँ से सूबेदारी का चार्ज ले लें।
सुप्रख्यात जाट नेता
जब बहादुरशाह और उनके भाई आजमशाह में परस्पर धोलपुर
ओर आगरे में युद्ध ठना था, तब सुप्रख्यात जाट-नेता चूढ़ामणि ने
बहुत से आदमियों को इकट्ठा कर यह निश्चय किया था कि इन दोनों में से जो हारे उसकी जायदाद लूट ली जाय। लड़ाई खतम होने के बाद इसने ऐसा ही किया और इसके हाथ बहुत सा माल लगा। अब इसने अपनी खासी धाक जमा ली। पर जब बहादुर शाह आगरा में था तब यह उनके पास आया और अपने किये कर्म का पश्चाताप करने लगा। इस पर वह 1500 जाट और 500 घोड़ों पर सरदार बनाया गया। सन् 1708 में इसने बादशाही फौजदार राजा बहादुर को कामा के जमींदार अजित सिंह पर हमला करने में सहायता दी। इसने बादशाही फौज के साथ कई हमलों में बड़ी बड़ी बहादुरी के काम किये थे पर आखिर में किसी कारणवश सम्राट इस पर नाराज़ हो गए।
महाराज सवाई जयसिंह जीइसके कब्जे में जो मुल्क था, वह जरूरत से ज्यादा समझा जाने लगा। जागीरदारों को इससे जो तकलीफ होती थी वह सम्राट को अच्छी न लगी। इसके जिम्मे बहुत सा बकाया निकाला गया। इसे समझाने बुझाने की कोशिश की गई, पर कोई फल नहीं हुआ। अब इस बात की आवश्यकता प्रतीत होने लगी कि इसके मुकाबले पर भेजने के लिये कोई जोरदार आदमी ढूँढ़ा जाये। इसने इस समय रक्षा के लिये एक मजबूत किला भी बना लिया था। सन् 1716 में राजा सवाई जयसिंह जी मालवा से लौट कर दरबार में पधारे। जब उन्हें यह मालूम हुआ कि बादशाह फरुखसियार चूड़ामणि के होश-हवास ठीक करना चाहते हैं, तब उन्होंने यह कार्य अपने ऊपर लिया। सन 1716 के सितम्बर मास से उन्हें चढ़ाई करने की आज्ञा मिल गई और 20 सितंबर को थे रवाना हो गये, इसी दिन दशहरा था। इस समय कोटा के महाराज भीमसिंह, नरवारी के राजा गजसिंह, बूँदी के महाराव बुद्धसिंह हाड़ा भी जयसिंहजी की अधीनता में उक्त सेना में थे।
राजा सवाई जयसिंह जी सैनिक चतुराई में बड़े सिद्ध-हस्त थे। उन्होंने इस समय सैनिक हालचाल और व्यवस्था में बड़ी चतुराई का परिचय दिया। चाल करते करते सन् 1716 में किले पर घेरा डाला गया। इस किले की बड़ी बड़ी दीवारें थीं और इसके आप पास गहरी खाइयाँ खुदी हुईं थीं, चारों तरफ भयानक जंगल थे। इस किले में इतना सामान था कि वह 20 वर्ष के लिये काफी था। जब चूड़ामणि ने घेरे की सम्भावना देखी, तब उसने तमाम व्यापारियों को नगर छोड़कर चले जाने के लिये बाध्य किया और उनकी जायदाद की जिम्मेदारी अपने सर पर ले ली।
चूड़ामणि के लड़के मोकमसिंह और उसके भतीजे रूपसिंह ने किले से निकल कर खुले मैदान में लड़ने के लिये जयसिंह जी को आह्वान किया। लड़ाई हुई और 21 दिसम्बर सन् 1716 में जयसिंह जी न जो रिपोर्ट भेजी, उसमें उन्होंने अपनी विजय का प्रदर्शन किया। इसके बाद सवाई जयसिंह जी को और भी सैनिक सहायता मिल गई। उनके पास एक तोप जो एक मन गोला फेंकती थी, तीन सौ मन बारूद, पचास मन शीसा और 5 सौ छोटी तोपें भेजी गईं। यह घेरा लगातार 20 मास तक रहा। अन्त में उसने किसी तरह सम्राट को बहुत सा द्रव्य देकर सुलह कर ली।
ज्ञान और कला के विकास में महाराज सवाई जयसिंह जी ने जो कुछ किया, उसका दिग्दर्शन हम ऊपर करा चुके हैं। एक पाश्चात्य विद्वान का कथन है कि तत्वज्ञान ओर शास्त्र ( Philosophy and Science ) का विकास उसी समय में होता है, जब राष्ट्र में शान्ति का साम्राज्य होता है और लोगों के श्रन्तःकरण प्राय: निर्व्याकुल रहते हैं। साधारणतया यह बात ठीक है पर इसमें कभी कभी आश्चर्य कारक अपवाद ( Exception ) भी मिलते हैं। महाराज सवाई जयसिंह जी इस बात के बडे अपवादी थे। महामति टॉड अपने ‘राजस्थान’ में लिखते है “जिस समय भारत में अविश्रान्त युद्ध की अग्नि प्रज्वलित हो रही थी, जिस समय मुगल सम्राट की सभा में भयंकर षड़यंत्र का विस्तार हो रहा था, जिस समय महाराष्ट्र जाति ने प्रबलता से उदय होकर देश में घोर अराजकता फैला दी थी, उस समय महाराजा सवाई जयसिंह जी ने विज्ञान-शास्त्र की उन्नति में समुचित योग देकर तथा अपने राज्य की सम्पूर्ण रूप से रक्षा और वृद्धि कर यह प्रकट किया था कि वे एक असाधारण मनुष्य थे।
सवाई जयसिंह जी और समाज सुधार
महाराज सवाई जयसिंह जी न केवल प्रथम श्रेणी के वैज्ञानिक और राजनीति-निपुण नरेश थे, वरन् वे समाज सुधारक भी थे। पाठक जानते हैं कि रजवाड़े में कन्या के विवाह के समय में और श्राद्ध आदि कार्यों में बहुत सा धन खर्च होता था। कई धनहीन अभागे इस अधिक धन-व्यय के भय से छोटी छोटी कन्याओं को स्रूतिकागार ही में मार डालते थे। बहुत सी स्त्रियाँ इसी लिये आत्म हत्या कर लेती थीं। जब महाराज जय सिंह जी ने देखा कि इस कुरीति के कारण समाज का बड़ा अनिष्ट हो रहा है, तब उन्होंने राज्यघरानों के लिये तथा समस्त राजपूत जाति के लिये नियम बना दिये। और उन नियमों को अपने राज्य में प्रचलित कर दिया, जिनसे विवाह ओर श्राद्ध के समय में कम खर्च हो। इस कार्य से महाराज जय सिंह जी ने अनुकरणीय आदर्श उपस्थित कर राजपूत जाति की जो भलाई की, वह अवर्णनीय है। टॉड साहब लिखते हैं “इस महापुरुष ने समाज सम्बन्धी जो संस्कार किये, उनका अनुष्ठान करना अत्यन्त आवश्यक है। महाराज सवाई जय सिंह जी सभी जातियों पर एक से दयावान थे। क्या ब्राह्मण क्या मुसलमान, क्या जैन सभी को समान दृष्टि से देखते थे। जैनियों को ज्ञान शिक्षा में श्रेष्ठ जानकर जयसिंहजी उन पर अत्यन्त अनुग्रह रखते थे। ऐसा भरी प्रकट होता है कि उन्होंने जैनियों के इतिहास और धर्म के सम्बन्ध में स्वयं शिक्षा प्राप्त की थी। उनके
वैज्ञानिक तत्व की आलोचना में विद्याधर नामक जो पंडित सबसे अग्रगण्य था, और जिसके प्रभा-बल से जयपुर नगर की सृष्टि हुईं, वह जैन- धर्मावलम्बी विख्यात है।
सवाई जयसिंह जी का कला-प्रेम
महाराज सवाई जयसिंह जी कला-कौशल्य के बड़े प्रेमी थे। उन्होंने इसे बड़ा उत्तेजन दिया। वे इसके रहस्य को भी भली प्रकार जानते थे। वर्तमान जयपुर नगर जो भारत में सब से अधिक सुन्दर है, इन्हीं महाराजा के कला-प्रेम का फल है। इसमें नगर निर्माण कला (Town Planning) का उच्च आदर्श प्रगट होता है। विश्व प्रसिद्ध नगर निर्माण विद प्रो० गिडिज महोदय तो इस नगर को देखकर विमोहित हो गये थे। उन्होंने अपने ( Town Planning in India) नामक ग्रंथ में लिखा है “जयपुर न केवल नगर निर्माण
कला के उच्चध्येय को प्रगट करता है, पर नागरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी वह अनुपम है।
सवाई जयसिंह जी का राजनितिक जीवन
अभी तक हमने महाराज सवाई जयसिंहजी के जीवन की विविध गतिविधियों पर प्रकाश डालने की चेष्टा की है। अब हम उनके राजनीतिक जीवन पर दो शब्द लिखना उचित समझते हैं। राज्य गद्दी पर बैठने के समय महाराजा सवाई जय सिंह जी की अवस्था केवल ग्यारह वर्ष की थी। आपने दक्षिण में बादशाह औरंगजेब के साथ कई युद्धों में रहकर अच्छी ख्याति प्राप्त की थी। इसी से आपको “सवाई” की सम्मान-सूचक उपाधि मिली थी। जब बादशाह औरंगजेब ने राजकुमार आज़मशाह के पुत्र बेदारबख्त को गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया था, उस समय उसने महाराज सवाई जयसिंह जी को उसके साथ भेजा था। ये दोनों हम उम्र थे इसलिये इनमें प्रगाढ़ प्रीति हो गई थी। संवत् 1764 में औरंगजेब के मरने पर जब उसके पुत्रों में राज-सिंहासन के लिये बखेड़ा हुआ तब जयसिंह जी ने बेदारबख्त और उसके पिता आजम शाह का पक्ष ग्रहण किया था।
आजमशाह और बेदारबख्त ने राज्य-सिंहासन पाने की आशा से जब सेना सहित दिल्ली की ओर कूच किया था तब महाराज जय सिंह जी भी उनके साथ थे। उस ओर काबुल से औरंगजेब का बड़ा बेटा बहादुरशाह भी अपनी फौज के साथ दिल्ली जा रहा था। रास्ते में दोनों फौजों में मुठभेड़ हो गई। घसासान युद्ध हुआ। इसमें आज़मशाह और बेदारबख्त दोनों मारे गये और सवाई जयसिंह जी भी घायल हुए। फिर कया था, विजयी बहादुरशाह बे खटके होकर दिल्ली के सिंहासन पर बैठ गया। उसने बादशाही खिताब धारण करते ही सवाई जयसिंह जी से बदला लेने की ठानी। उसने आमेर के राज्य को खालसा करने के लिये सेना भेजी, पर जय सिंह जी ने इस सेना के दाँत खट्टे कर इसे अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। इसके थोड़े ही दिन बाद जब बादशाह बहादुरशाह कासबरूश पर चढ़ाई करने के लिये दक्षिण की ओर जा रहा था तब रास्ते में आमेर पहुँच कर उसने उस पर खालसा बैठाना चाहा । कई कारणों से इस वक्त सवाई जयसिंह जी ने बादशाह का मुकाबला करना उचित नहीं समझा। वे खुद अपनी सेना सहित बादशाही फौज के साथ दक्षिण की ओर रवाना हो गये। मार्ग में बादशाह ने धोखा देकर जोधपुर पर खालसा बैठा दिया और उसने वहाँ के तत्कालीन महाराज अजित सिंह जी को सेना सहित अपने साथ ले लिया।
महाराज सवाई जयसिंह जी और महाराज अजित सिंह जी नर्मदा नदी तक बहादुरशाह के साथ साथ गये। अभी तक इन दोनों को यह आशा थी कि हम किसी तरह बादशाह को प्रसन्न कर लेंगे। पर जब उनकी इस आशा के फलवती होने के कुछ भी चिन्ह दिखलाई न देने लगे, तब वे बादशाह की अनुमति लिये बिना ही वहां से लौट पड़े और उदयपुर आ गये। उदयपुर में महाराणा अमर सिंह जी ने इन दोनों नृपतियों का बड़ा सत्कार किया। अब इन तीनों ने मिलकर अपना सुसंगठित गुट बनाना चाहा। इन तीनों नृपतियों ने अपने सम्बन्ध को और भी सुदृढ़ करना चाहा। राणाजी न जयसिंह जी के साथ अपनी पुत्री का और अजित सिंह जी के साथ अपनी बहिन का विवाह-सम्बन्ध स्थिर किया। इसके अतिरिक्त तीनों ने मिलकर यह निश्चय किया कि अगर किसी एक पर दिल्ली के बादशाह का दबाब पड़ेगा तो शेष दोनों उसकी मदद करेंगे। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस एकता का प्रभाव बहादुरशाह पर बहुत ही पड़ा। महाराणा अमर सिंह जी ने दोनों महाराजाओं को अपना अपना राज्य वापस प्राप्त कर लेन के लिये सहायता दी और इसमें सफलता भी हुई। महाराज सवाई जयसिंह जी ने आमेर और महाराज अजित सिंह जी ने जोधपुर पर फिर से अपना अधिकार कर लिया।
यह ख़बर सुनकर बादशाह बहादुरशाह बहुत क्रोधित हुआ और वह एक बड़ी सेना के साथ राजपूताने पर चढ़ आया। पर ज्योंही वह अजमेर पहुँचा त्योंही उसे यह खबर लगी कि उदयपुर, जयपुर और जोधपुर के राजा आपस में मिल गये हैं। इनकी संयुक्त शक्ति का मुकाबला करना जरा टेढ्रीखीर है। बस, बहादुरशाह ने जयपुर और जोधपुर पर चढ़ाई करने के विचार को त्याग दिया। इसी बीच में बादशाह को खबर लगी कि पंजाब में सिक्खों ने सर उठाया है, तब तो उसकी स्थिति और भी बेढब हो गई। अब तो उसे जयपुर और जोधपुर के महाराजाओं को प्रसन्न करने की आवश्यकता प्रतीत हुईं । सम्वत् 1767 में उसने दोनों महाराजाओं को अजमेर के डेरे पर बुलाये और उनकी बड़ी खातिर की।
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