दिल्ली के ऐतिहासिक स्मारकों में सफदरजंग का मकबरा या सफदरजंग की समाधि अपना एक अलग महत्व रखता है।
मुगलकालीन स्मारकों में सफदरजंग का मकबरा सबसे अंतिम
काल का बना हुआ है। यह हुमायूं की समाधि की भांति ही बड़ा है पर उतना सुन्दर नहीं है इसके दो कारण हैं एक तो यह कि इसमें हुमायूं के मकबरे की अपेक्षा मध्यम श्रेणी का सामान लगाया गया है। इसके निर्माण में लाल बहुमूल्य पत्थर की अपेक्षा कारीगरों ने हल्के भूरे रंग के पत्थर का प्रयोग किया है। यह भूरे रंग का पत्थर वैसे दिखाई पड़ता है जैसे कि मुर्झाए हुये पुष्प का रंग प्रतीत होता है। यदि गुम्बद की ओर ध्यान दिया जावे ती मालूम होगा कि उसमें गंदे पीले धब्बे से मालूम होते हैं। इसका कारण यह है कि इसका संगमरमर हुमायूं के स्मारक की अपेक्षा निकृष्ट श्रेणी का है। उस काल के निर्माण करता कम धनी थे। दूसरा कारण यह है कि इसकी आकृति हुमायूं स्मारक की अपेक्षा कम सुन्दर है। इसके अतिरिक्त उस समय के कारीगर हुमायूं के समय के कारीगरों से कम चतुर शिल्पकार थे। उस समय बहुत कम लोग अच्छे भवन तैयार करा सकते थे इस कारण कारीगर भी निर्माण-कार्य में कम कुशल होते थे। सफदरजंग सबसे अंतिम अमीर सरदार था जिसने इस बड़े स्मारक को बनवाया था।
सफदरजंग का मकबरा और इतिहास
सफदरजंग अवध का दूसरा नवाब था और अपने चचा सआदत खां के पश्चात् 1739 ई० में गद्दी पर आसीन हुआ था। जब नादिर शाह ने दिल्ली पर अपना अधिकार जमाया तो उसने सआदत अली का बड़ा निरादर किया था इस कारण वह विष खाकर मर गया था। कई वर्षो तक सफदरजंग साम्राज्य का वजीर रहा। 1742 ई० में अहमदशाह ने उसे निकाल दिया ओर उसके स्थान पर ग़ाज़ीउद्दीन इमादुल मुल्क को वज़ीर बनाया था। छः: महीने तक दिल्ली में सफदरजंग ओर इमादुल मुल्क के बीच गृह युद्ध होता रहा। सम्राट अहमदशाह के साथ इमादुलमुल्क ने शाहजहानाबाद पर अधिकार कर रखा था और सफदर जंग ने पुराना किला और फीरोज़ाबाद तथा उनके मध्यवर्ती भूमि पर अधिकार प्राप्त कर रखा था। उस समय यह स्थान प्राचीन दिल्ली ओर शाहजहानाबाद नवीन दिल्ली के नाम से प्रसिद्ध था। सफदरजंग अच्छा सैनिक नहीं था। अंत में हार खाकर वह अवध के सूबे में भाग गया। उसके पुत्र शुजाउद्दौला ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध किया था और क्लाइव के साथ संधि की थी। उसने अवध की रियासत की नींव डाली थी जिसे डलहौज़ी ने ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया था। विप्लव काल तक इस स्मारक पर अवध के नवाबों का अधिकार रहा। इस स्मारक के तीनों तरफ वाटिका में गुम्बदाकार भवन बने हुये हैं। जब कभी नवाब घराने के लोग दिल्ली आया करते थे तब वह उन्हीं भवनों में रहा करते थे। एक बार फिर सफदरजंग का मकबरा पुन: प्रसिद्ध हो गया था। क्योंकि यह स्थान दिल्ली आने वाले वायुयानों का चिन्ह स्थान था। प्रत्येक रात्रि को सफदरजंग के मकबरे पर गुम्बद में लाल बत्ती जला करती थी। जिससे वायुयान निर्भयता पूर्वक सुरक्षित स्थान में उतर सकें।
सफदरजंग का मकबराकुतुब सड़क पर बाई’ ओर एक नीचा पत्थर का चबुतरा है। यह मिरज़ा नजाफ खां का स्मारक है। 10 वर्ष ( 1772-1782) तब नज़ाफ खां शाह आलम का प्रधान मंत्री था। वह एक वीर सैनिक और कूटनीतिज्ञ व्यक्ति था। उसकी मृत्यु के समय उसके अधिकार में 60 हज़ार सैनिक थे। उसकी मृत्यु के पश्चात् शाह आलम मराठा माधोराव सिंधिया के अधीन हो गया था। नज़ाफखाँ की जागीर की राजधानी नजाफगढ़ थी इसी से उसका नाम भी उसी के नाम पर प्रसिद्ध है ।
इसके आगे विलिंगडन हवाई अड्डा है। यहां पर चारों ओर एक बड़ा समतल मैदान था। इसी मैदान में तैमूर जंग और दिल्ली सम्राट मोहम्मद तुगलक़ से युद्ध हुआ था। मोहम्मद तुगलक़ के सेनापति का नाम मल्लू खां था। नादिर शाह की भांति तैमूर भी निर्विरोध दिल्ली पर चढ़ आया। दिल्ली के सरदार उस समय आपस में लड़-झंगड़ रहे थे। तैमूर ने लोनी ( शाहदरा ) के समीप एक लाख कैदियों के साथ अपना डेरा डाला ओर मेटकाफ़ भवन के समीप यमुना को पार किया ओर पहाड़ी चट्टान की ओर बढ़ा। वहां मोहम्मद ने उस पर आक्रमण किया पर पीछे हटा दिया गया। जब आक्रमण का समाचार ,कैदियों को मिला तो वे बड़े प्रसन्न हुये। उनकी प्रसन्नता देखकर तैमूर ने उन्हें कत्ल करवा दिया। इसके पश्चात् तैमूर अपनी समस्त सेना के साथ यमुना नदी पार किया ओर वर्तमान नगर होकर वह इसी हवाई अडडा का भूमि पर पहुँचा। मोहम्मद तुगलक़ ने कंपनी सेना जहांपनाह ( महरौली के समीप ) से एकत्रित की ओर तैमूर का सामना करने के लिये आगे बढ़ा मोहम्मद की सेना में हाथी थे जिनसे मुग़ल भयभीत थे पर तैमूर के पास अच्छे घुड़सवार थे। मुग़लों ने तुगलक ,सेना पर आक्रमण करके उसे परास्त कर दिया सेना के हाथी अपनी सेना पर ही पीछे की ओर भागे ओर सेना को कुचल डाला। तैमूर 14 दिन तक- दिल्ली में रहा उसके पश्चात् यमुना को पार कर मेरठ की ओर बढ़ा। इस मैदान को तैमूर ने इस कारण युद्ध-क्षेत्र चुना था कि यह मैदान समतल था ओर यहां पहाड़ी अथवा मकान आदि नहीं थे।
यह बात याद रखने योग्य है कि तैमूर के समय के मुगल बाबर के समय वाले मुग़लों की अपेक्षा बहुत क्रूर निर्दयी ओर असभ्य थें। इसी कारण तैमूर ने एक लाख कैदियों की हत्या एक साथ करा दी थी साथ ही साथ जिस से मार्ग होकर उसकी सेना गई हिन्दू तथा मुसलमान दोनों को समान रूप से कत्ल करती गई। पर बाबर ओर उसके मुग़ल बड़े सभ्य थे।
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