सती उर्मिला अजमेर के राजा धर्मगज देव की धर्मपत्नी थी। वह बड़ी चतुर और सुशील स्त्री थी। वह राज्य कार्य को भली प्रकार समझती थी। यद्यपि धर्मगज देव की और बहुत सी रानियां थी, परंतु राजा सबसे ज्यादा इन्हीं को चाहते थे। यह उनके इतनी सिर चढ़ी थी कि राजकार्यों में हाथ बंटाने के अतिरिक्त, कभी कभी उनके साथ शिकार को भी चली जाती थी।
जिस समय महाराज धर्मगज देव अजमेर पर राज करते थे, उसी समय गजनी के शाह महमूद गजनवी ने हिन्दुस्तान पर चढाई की थी। पहले उसने सोमनाथ गुजरात के मंदिर को लूटा, फिर मुल्तान जीता। राजपूत पृथक पृथक अपने अपने राज्य रक्षार्थ लड़ते रहे, केवल इसी कारण सदा उनकी हार हुई। राजा चिंताग्रस्त तो अवश्य थे। अजमेर के अधीन सदा से कई राजा रहे है। धर्मगजदेव ने युद्ध का समाचार राज्य भर में भेज दिया औरराजपूतों से कहलवा भेजा — जिसे जिसे अपना कर्तव्य निभाना हो, वे इस समय आकर शत्रु से युद्ध करे।
यह सत्य है, हिन्दू लोग बिगड़ चुके थे। उनका जात्याभिमान, देशाभिमान और ऐक्याभिमान आदि सब शुभ गुण बिल्कुल नष्ट हो चुके थे, तथापि धार्मिक जोश तो कुछ थोड़ा सा था ही। राजा का संदेश सुनकर माताओं ने अपने सपूतों को बुलाकर कहा– पूत्रों! आज वह समय आ गया है, जिसके लिए क्षत्राणियां पुत्र उत्पन्न करती है। बहनें हर्षित प्रतीत होती थी, क्योंकि आज उन्हें ऐसा अवसर मिलने वाला था कि जब वह अपने भाइयों की कमर में कटार बांधकर कहती है। वीर आज रणक्षेत्र में जाकर धर्म युद्ध करो। धर्म के लिए प्राण तक गंवा दो। स्त्रियों को इस बात का अभिमान था कि हमारा पति धर्म की रक्षा में किसी से भी पीछे न रहेगा।
राजपूत सती उर्मिला के सतीत्व की कहानी
धर्मगजदेव ने अजमेर पर चढाई की खबर सुनी। उन्होंने अपनी सेना को तैयार होने की आज्ञा दी। इससे पहले एक बार वह महमूद को हरा चुके थे, यवन बादशाह को उनका लोहा मानना पड़ा था, परंतु इधर तो घर में ही फूट थी, इसी फूट के कारण महमूद की विजय हुई और अभागे हिंदुओं की पराजय हुई। अजमेर पर महमूद की चढाई केवल धर्मगजदेव से बदला लेने के लिए हुई थी। पहले तो उसके पास बहुत सेना थी, परंतु यवनों के साथ युद्ध करने में सब नष्ट हो चुकी थी और कुछ वीर ही शेष रह गए थे। किसी से भी सहायता की आशा न थी, क्योंकि फूट के कारण हिंदू राजा कभी भी मिलकर शत्रुओं से लड़े ही नहीं।
ऐसे अवसर पर स्त्रियां जिन शब्दों से पुरूषों को उत्साहित कर धर्म युध्द के लिए भेजती थीं, माता बेटे से कहती थीं- ” पुत्र ! जा , आज मेरे दूध की पवित्रता दिखा दे कग देखने वाले सब आश्चर्ययुक्त होकर कहने लगें कि यह असल क्षत्रिय है। पवित्र कोख से उत्पन्न हुआ है। जानता है कि प्राण किस कर्य मे लगाने चाहिए । पुत्र! जा और राजा के झंडे के नीचे तेरा घोड़ा हिनहिनाता निकले , तू सबसे आगे रहे और तेरी कटार से शत्रु भयभीत हों । पुत्र !जा , धर्म की, राज्य की , देश कि रकशा कर। जिस घर में एक भी वीर पैदा हो जाता है, उसकी सात पीढ़ी तर जाती हैं। पुत्र! जा, या तो रणक्षेत्र में शत्रुओं को परास्त कर अथवा स्वयं रणभूमि से सीधे स्वर्गलोक को गमन करना , परंतु शत्रुओं को पीठ न दिखाना । मैं बलि जाऊंगी , जब सुनूंगी कि मेरे पुत्र ने क्षत्रिय धर्म का पालन किया । तभी मेरे ह्रदय ठंडा होगा।”
बहनें भाई को कवच पहना और कटार कमर से बांधकर कहती थीं_ ” वीर ! पवित्र माता -पिता की संतान ! सभी का ध्यान छोड़कर तू धर्मयुद्ध करने जाता है। देख बहन की बात याद रखना, तेरे शरीर पर चाहे सहस्त्रों घाव हो जाएं, तथापि पीछे मुख न करना, सौ को मारकर मरना। जब मुझसे कोई कहेगा कि तेरे भाई के सीने पर तो घाव है, पर पीठ पर एक भी नहीं, तो मै अति हर्षित होऊंगी। तेरे सिर पर मोती न्यौछावर करूंगी। घर आना तो शत्रुंजय होकर आना, नही तो रणक्षेत्र से ही शत्रुओं के मृतक शरीरों को सीढी बनाकर सीधे स्वर्गधाम को चले जाना।
स्त्री अपने पति से कहती थी– मेरे सिर के मुकुट! ऐसे सुअवसर सदा नहीं आते। क्षत्रिय का सुख संग्राम में है, घोड़े ओर वीर केवल रणभूमि में ही जागते हैं। अब तक आप सो रहे थे, अब जागने का समय आ गया है। जाओ, संसार भर को दिखा दो सिंह जाग उठे हैं।या तो शत्रुओं को अद्योमुख करके आओ या स्वर्गलोक मे जाओ और आनंद करो। प्राणनाथ कोई मुझ से यह न कहें कि तेरा पति संग्राम में अपना कार्य न कर सका। मेरी लाज आपके ही हाथ हैं। संसार में कोई सुख नहीं सबसे महान सुख वहीं हैं, जो स्वर्ग धाम में मिलता है।
ऐसे अवसरों पर क्षत्रियों मे इस प्रकार की बातें होती थी। इससे प्रकट हैं कि उनके कैसे उच्च भाव थे। धर्मगजदेव का संदेश सुनकर सहस्त्रों राजपूत वीर इकठ्ठे हो गये। राजा ने उन सबको अपनी छावनी में टिकाया। यद्यपि ये सब नवयुवक थे, जोकि कभी लडाई मे नहीं गये थे। परंतु इनमें से कोई ऐसा न था जो राजा के लिए प्राण देने से मुख मोड़ सके।
सती उर्मिलामहारानी सती उर्मिला भी अचेत न थी, हर बात को जानती थी और सब काम उनकी सलाह से होता था। उन्होंने सेना को तैयार करनें मे भी बहुत सहायता की। जिस दिन सुबह को लडाई होने वाली थी, उसी रात्रि को राजा एक प्रहर रात्रि से उठा और शौच संध्यादि कर्मो से निवृत्त होकर सेना की छावनी में जाने लगा। उसी समय महारानी उर्मिला देवी कहने लगी — प्राणनाथ! यदि आप आज्ञा दे तो मै भी आपके के साथ रण मैं चलू। मेरे लिए महल अब वास नही है। मेरा स्थान तो आपके बाई ओर है। सुख दुख में हर समय आपके संग रहने का मुझे अधिकार है। मेरी इच्छा है, यदि आप आज्ञा दे तो मैभी युद्ध के वस्त्र धारण करके आपके साथ चलू और इस देह को आप पर न्यौछावर करके अपना जन्म सफल करूं ऐसा अवसर मुझे कब मिलेगा?।
राजा भी महारानी सती उर्मिला की बाते सुनकर अति प्रसन्न हुए और हंसकर कहने लगे— धन्य हो महारानी, धन्य हो! मुझे आपको साथ ले जाने में कोई हर्ज नहीं, मुझे दृढ़ विश्वास है कि जिस समय मेरी कटार रणक्षेत्र में चमकेगी, शत्रु लोग भयभीत होकर भाग जायेगें। परंतु कई बाते ऐसी है, जिन पर विचार करना तुम्हारा काम है। पहली तो यह कि तुम्हारे संग होने के कारण मुझे तुम्हारी ही रक्षा की चिंता रहेंगी और ऐसा भी संभव है कि चिंता के कारण मै अपना कार्य पूरा न कर सकूं। दूसरी यह कि आजकल वर्षा के दिन है, काली काली घटाएं छा रही है, दामिनी चमक रही है। जब वर्षा होगी तो तुम्हारा क्या हाल होगा? उस समय मुझे तुम्हारी अवस्था देखकर तरस आएगा और मै अपने को भूलकर तुम्हारी रक्षा की चिंता में पड़ जाऊंगा। तीसरी मैं अजमेर में एक ऐसे आदमी को छोड़ना चाहता हूँ, जो राज व्यवस्था ठीक ठाक चला सके। जब मुझे अधिक सेना की आवश्यकता हो तब समय पर भेज सके। तुम यह सब कुछ कर सकती हो? अब जो कुछ तुम उचित जानों वह करो।
रानी सती उर्मिला ने यह सब बातें ध्यानपूर्वक सुनी और फिर हंसकर उनके कंधे पर हाथ रखकर कहने लगी — आपकी आज्ञा सिर आखों पर। ईश्वर आपकी रक्षा करें और आप कुशलतापूर्वक शत्रुओं को जीतकर आएं। यदि और समय भी आ गया तो भी कुछ शौक नहीं, आप सदा उर्मिला को अपने संग पाएंगे। अब आप प्रसन्नता पूर्वक जाकर अपना कार्य आरंभ कीजिए।
दोनों स्त्री पुरूष अंतिम बार एक दूसरे से मिले। राजा छावनी में आया। कूच के नगाडे बजने लगे। राजपूत सजे सजाएं बैठे थे, आज्ञा पाते ही सब अपने अपने घोडों पर सवार होकर रण को चल दिए। ऐसा घमासान युद्ध हुआ कि आकाश मानो अग्नि देवता का ही निवास स्थान बन गया था। राजपूत ऐसी विरता से लडे कि शत्रुओं के छक्के छूट गये। परंतु राजपूतों के नाश का समय आ गया था। एक यवन के तीर ने राजा को बेकाम कर दिया। वह संभलना चाहता था कि दूसरे तीर ने उसे पृथ्वी पर गिरा दिया। राजपूतों को राजा के परलोक गमन से अत्यंत शोक हुआ, परंतु वे और भी दिल तोड़कर लड़े। सांयकाल वे राजा के शव को किले में लाए और उस पर पुष्प वर्षा की। जब रानी ने सुना कि राजा स्वर्ग को सिधार गए तो वह बाहर आयी शव को शोक विहल आखों से देखकर इर्दगिर्द की स्त्रियों और पुरुषों से कहा — अभी चिता तैयार करो।
बहुत सी स्त्रियों ने उनके चारों तरफ इकठ्ठी होकर उन्हें सती होने से रोकना चाहा पुरुषों ने कहा— माता जी आप हमें युद्ध की आज्ञा दें और हम पर राज्य करें। यह समय सती होने का नहीं है।
सती उर्मिला हंसकर कहने लगी — राजपूतों का वह समय आ गया, जिस समय के लिए राजपूतानिया पुत्र जनती है। राजा ने अपने धर्म का पालन किया, कल तुम भी अपने धर्म का पालन करोगें।
फिर स्त्रियों से कहने लगी— जिस काम के लिए राजपूतानिया कन्या जनती है, उससे मुझे मत रोको , तुम स्वयं भी उसी कार्य को करो और अपने अपने धर्म पर दृढ रहो। तब फिर वृद्ध स्त्रियां उसे धर्म समझाने लगी— पुत्री, तू धैर्य धर, जल्दी न कर।
सती उर्मिला ने कहा — माताजी! सुख दुख का संगी तो संसार से उठ गया, जब जीव शरीर से निकल जाता है तो मूर्ख ही उसे घर में रखते है। मै अब जीवित नहीं, बल्कि मर चूकी हूँ, आप ही बता दे संसार में मेरा क्या है? जिस सिर से मुकुट उतर गया, यदि वह अपने राज्य में रहे, तो उसके समान निर्लज्ज संसार में और कौन होगा! जिसकी लाज जाती रही, उसकी मृत्यु ही अच्छी। जिसका कोई भी मित्र नहीं रहे, उसकी जीने की आशा व्यर्थ है। इसी प्रकार जिस स्त्री का पति नहीं, उसका जीना संसार में बिल्कुल व्यर्थ है। मैने राजा से कह दिया था कि मै भी आपके पीछे आऊंगी। मेरी आत्मा अब भी राजा के संग है। यहां तो केवल यह पिंजरा पड़ा है। इसलिए आप कोई भी मुझे न रोकिए।
सती उर्मिला की दृढ़ प्रतिज्ञा को देखकर उनके लिए उसी समय चीता तैयार कर दी गई। वह राजा के शव को लेकर चिता पर बैठ गई, फिर चिता में आग लगा दी गई। जब अग्नि खुब प्रचंड हुई और ज्वाला निकलने लगी तो सब राजपूत और राजपूतानिया अंतिम दर्शन को आगे बढ़े। रानी ने उन सब से कहा — राजपूतों! देश और राज्य की लाज तुम्हारे ही हाथ है। कल ही तुम अपने राजा का अनुकरण करके संसार को दिखा दो कि राजपूत लोग कभी मृत्यु से भय नहीं खाते। वे केवल अपने अपमान को ही बुरा समझते है। अपने देश के कारण प्राण त्याग करना, धर्म और नाम समझते है। यदि जिओ तो राजपूतों की तरह, यदि मरो तो राजपूतों की तरह। कभी भी राजपूतों के नाम को कलंकित न करना। यह भूमि तुम्हारी माता है और तुम उसके पुत्र हो, माता की रक्षा करना तुम्हारा धर्म है।
राजपूतानीयो ! शत्रु सामने है स्त्रियां सारे कुटुंब कि लाज है। मां, बहने, स्त्रियां अपने अपने संबंधियों को सुमार्ग पर ले चले, सब अपना धर्म पालन करें। यदि राज है तो स्वतंत्रता है, धर्म है, नहीं तो जो मार्ग तुम्हारी रानी ने ग्रहण किया है, उसी पर तुम्हें चलना चाहिए।
वे यह कह ही रही थी कि ज्वाला भभक उठी। उनके वस्त्रों और बालो में आग लग गई, हाथ जलने लगे, सीना जलने लगा, परंतु सती वैसे ही धैर्यपूर्वक पति को गोद में लिए बैठी रही। थोड़ी देर में जलकर भष्म हो गई। जिन्होंने इस दृश्य को देखा वे कभी इसे भूल न सके और सती उर्मिला का बलिदान इतिहास में दर्ज हो गया।
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