सकराय माता मंदिर या शाकंभरी माता मंदिर सीकर राजस्थान हिस्ट्री इन हिंदी Naeem Ahmad, May 3, 2020March 16, 2024 राजस्थान के सीकर जिले में सीकर के पास सकराय माता जी का स्थान राजस्थान के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक है। मालकेत नामक पर्वतमाला यहां आकर मंडलाकार हो गई है। जिसके बीच बडे बडे आम के पेडों की शीतल छाया है और उनके बीच से शक्रगंगा की पतली धारा बह रही है। जो कही कही पर छोटे छोटे कुंडो में आकर विस्तृत भी हो जाती है। यही पर शक्रगंगा के दाहिने तट पर सकराय माता का मंदिर भव्य रूप में स्थित है। सकराय माता मंदिर का निर्माण वि.संवत् 1972-80 में हुआ था। इससे पहले जो प्राचीन मंदिर यहां था वह सन् 1053 ईसवीं के लगभग बना हुआ था। यह शेखावटी का प्राचीनतम तीर्थ स्थल है। यहां वर्ष में तीन मेले लगते है। चैत्र व आसोज के माह के नवरात्रि मे नौ दिन का और भाद्रपद में चार दिन का। यह एक सिद्धपीठ भी है। वर्षभर में यहां लाखों की संख्या में श्रृदालु यात्री आते है। सकराय माता मंदिर का इतिहाससकराय माता मंदिर का पौराणिक इतिहास बताता है कि यहाँ शक्र यानी इंद्र ने तपस्या की थी। जिसके फलस्वरूप यहां बहने वाली धारा शक्रगंगा के नाम से विख्यात हुई, और यहां स्थापित जगदंबा की प्रतिमाएं शक्रमाता के नाम से जानी गई। बाद में शक्रमाता से सकराय माता शब्द बन गया। इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने शंकरा माता शब्द से सकराय माता होना बताया है। जिससे इसे शाकंभरी माता मंदिर भी कहा जाता है। ऐसा भी बताते है कि इधर से पांडव गुजरे थे। ऐसी और भी कई कतिपय दंतकथाएं प्रचलित है। यह स्थान बहुत पुराना है। जिसके प्रमाण स्वरूप यहां से प्राप्त मंदिर के जीर्णोद्धार संबंधी तीन शिलालेखों का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है।गोपीजन वल्लभ जी मंदिर जयपुर राजस्थानयह अनुवाद 1953 ईसवीं में इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा जब यहां आये थे तब उन्होंने किया था। सबसे पुराना शिलालेख संवत् 749 द्वितीय आषाढ़ सुदी 2 का है। इस शिलालेख के शुरुआत में सकराय देवी की स्तुति है। फिर इस मंदिर का मंडप बनाने वालों का परिचय है। मंदिर का मंडप बनाने वालों में सबसे पहले धेसरवंश के सेठ यशोवर्दन उसके पुत्र राम, उसके पुत्र मंडन तथा धरकरवंश के सेठ मंण्डन, उसके पुत्र यशोवर्दन उसके पुत्र गर्ग अनन्तर, किसी दूसरे वंश के भट्टीयक उसके पुत्र वर्धन, उसके पुत्र गणादित्य और देवल के साथ ही तीसरे धरकर वंशीय शिव उसके पुत्र शंकर, उसके पुत्र वैष्णवाक, उसके पुत्र आदित्य वर्धन आदि के नाम है। इन सेठो ने मिलकर भगवती शंकरा देवी (सकराय माता ) के सामने का मंडप बनवाया था।ब्रजराज बिहारी जी मन्दिर जयपुर राजस्थानदूसरा शिलालेख इस मंदिर के उत्तरी भाग के बाहर लगा हुआ है। इस लेख के बीच का आंशिक भाग बिगड़ गया है। जिससे पूरा आशय नहीं मिलता है। यह विग्रराज चौहान के समय का प्रतीत होता है। इसमें वच्छराज तथा उसकी पत्नी दायिका के नाम पढ़े जाते है। वच्छराज विग्रराज का काका था। ऐसा हर्ष के शिलालेख में पाया जाता है। इसमें सकराय माता मंदिर के जीर्णोद्धार का वर्णन है। अंत में संवत् 55 माघ सुदी पंचमी लिखा हुआ है। अनुमान है कि इसमें शुरू के दो अंक 1 और 0 छोड दिए गए है। ठीक संवत् 1055 होना चाहिए।गोवर्धन नाथ जी मंदिर जयपुर राजस्थानतीसरा लेख 1057 का है। इस लेख का आशय इस प्रकार है — संवत् (105) 6 सावण वदी 1 के दिन महाराजधिराज दुर्लभ के राज्य के समय श्री शिवहरी के पुत्र तथा उसके भतीजे सिद्धराज ने शंकरा देवी का मंडप कराया। काम किया सींवट के पुत्र आहिल ने जो देवी के चरणों में नित्य प्रणाम करता है। प्रशस्ति खोदी बहुरू के पुत्र देव रूप ने।सकराय माता मंदिर के सुंदर दृश्यइस विवरण में दूसरे व तीसरे शिलालेखों के संवतों से अन्य अनुमान भी लगाया जा सकता है। जैसा कि दोनों संवतों में केवल एक वर्ष का अंतर है। जो जीर्णोद्धार के सम्बंध में ठीक नहीं जंचता। अतः अंतिम दिनों शिलालेखों में से किसी एक का संवत् काफी प्राचीन होना चाहिये।सिद्धपीठयहां प्रबंध हेतु नाथ पंथियों की गद्दी है। यहां के सर्वप्रथम नाथपंथी मठाधीश शिवनाथ जी महाराज थे। जिनके बारें में बताया जाता हैं कि वो कश्मीर के किसी महाराजा के पुत्र थे। और अपने अन्य तीन भाइयों सहित सन्यास ले चुके थे। जब शिवनाथ जी यहां आये तो सकराय माता की पूजा एक गुर्जर भोपा करता था। जिसका नाम जैला था। थोड़े दिनों में इन दोनों में मित्रता हो गई और शिवनाथ जी महाराज यहां पूजा करने लगे, क्योंकि जैला को पूजा के लिए दूसरे गांव से आना पड़ता था। एक दिन माता के दोनों भक्तों में एक दूसरे के चमत्कार की चर्चा चल पड़ी और इसी बात में शिवनाथ जी ने सिंह का रूप धारण किया, जब वे पूर्व स्थिति में आये तो उन्हें जीवन से पूर्ण विरक्ति हो गयी और उन्होंने जीवन समाधि लेने का निश्चय किया। साथ ही उनके दस चेलों ने भी यही निश्चय किया पर उनमें से एक को जो यादव था और पास ही के राजपुरा नामक ग्राम का निवासी था। माता जी के प्रबंध हेतु छोड़ दिया। इसी वंश में आज भी यहां मठाधिपति रहते है। शिवनाथ जी को यहां सिद्धि प्राप्त हुई थी इसलिए यह एक सिद्धपीठ भी कहलाता है। इन शिवनाथ जी के पद चिन्ह पर यहां देवालय बना हुआ है। साथ ही होथराज, राजपुरा, व पुष्कर में भी इनके देवालय बने हुए है।चंद्रमहल सिटी पैलेस जयपुर राजस्थानश्री शिवनाथ जी महाराज के बाद घूणीनाथ जी, दयानाथ जी, पृथ्वीनाथ जी, करणीनाथ जी, शिवनाथ जी (द्वितीय) के नाम मिलते है। जो सबसे महत्वपूर्ण नाम है वह मठाधीश श्री बालकनाथ जी के गुरू गुलाबनाथ जी का है। ये बड़े ही सरल स्वर ज्ञानी, बहुश्रुत और व्यवहार कुशल महात्मा थे। इस स्थान को विशेष रूप से पूजवाने का श्रेय इन्हीं को है। इन्हीं के समय में लाखों की लागत से नवीन मंदिर का निर्माण हुआ।बूंदी राजपूताना की वीर गाथा – बूंदी राजस्थान राजपूतानायहां श्री सकराय माता जी के मंदिर के अलावा शक्रगंगा के वामकूल पर जय शंकर का मंदिर है जो बहुत प्राचीन है। इसमें स्थित प्रतिमा गुप्त कालीन है। यही एक मदन मोहन जी का मंदिर है। जो लगभग 500 वर्ष पुराना है। यह और जय शंकर का मंदिर लगभग एक ही ढंग के बने है। यहां माता जी के स्थान के अतिरिक्त लगभग डेढ़ किलोमीटर पर खो कुंड नामक स्थान है। जहाँ ठंडे पानी का कुंड है। और आसपास में चारों ओर आमों की घनी छाया तथा लाल कनेरो की बहार है। ऐसी किंवदंती है कि यहाँ रावण ने भगवान शिव की तपस्या की थी और इसी नाम पर यहां रावणकेश्वर महादेव का मंदिर है। कहते है कि पहले यहां 84 मंदिर थे, पर अब केवल तीन शेष है। यही से थोड़ी दूर पर नाग कुंड है। जहाँ पर विशेष रूप से नाग प्रतिमाएं दर्शनीय है। इन स्थानों के अतिरिक्त थोडी थोड़ी दूर पर टपकेश्वर और वराही माता नामक स्थान है। जहाँ पर अच्छे रमणीय दृश्य है। इस तरह यह स्थान एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान होने के नाते धर्म केंद्र तो है ही साथ ही प्रकृति प्रेमियों का भी महत्वपूर्ण पर्यटन केंद्र है। राजस्थान पर्यटन पर आधारित हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—[post_grid id=”6053″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email 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