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संथाल जनजाति

संथाल जनजाति का इतिहास रिति रिवाज व खानपान

टाटा नगर तथा रांची के समीप के क्षेत्र को हीं संथाल प्रदेश कहते हैं, वैसे यह इलाका वीर-भूमि के नाम से विख्यात है। पर्वतों के आंचल में मचलता हुआ यह प्रदेश भी न जाने कब के आदिवासियों से भरा पड़ा है, जो कि संथाल जनजाति के नाम से प्रसिद्ध हैं। रांची तथा टाटा नगर जैसे भारत के प्रसिद्ध नगरों में इन्हें परिश्रम करते हुए बहुत से भारतवासियों ने देखा होगा, जो कि दिन रात अथक परिश्रम कर के पापी पेट को अपने गाढ़े पसीने की कमाई से भरते हैं।

दिन भर जी तोड़ कर मेहनत करने के पश्चात संध्या समय ये लोग माथे का पसीना पोंछते हुए अपने डेरों की ओर मुस्कराते हुए लौटते हैं तो इनकी सुहृदयता को देख कर कलेजा शान्त हो उठता है। आज के सभ्य कहलाने वाले सुस्त मानव की तरह इनके चेहरों पर जरा सी भी परेशानी की रेखा दिखाई नहीं पड़ती। ऐसा प्रतीत होता है, मानो सुख, शान्ति, तथा प्रसन्नता के सम्पूर्ण खज़ाने भगवान ने केवल इन्हीं के लिये बनाये हों। चोट खा कर भी हर समय मुस्कराते रहना संथाल जनजाति का स्वभाव है। इसका यह अर्थ नहीं कि शायद वह धनवान हैं। अपितु बिना मुस्कराये उन से रहा नहीं जाता। वे ग़रीब हैं, दिन भर मेहनत मज़दूरी करने के पश्चात्‌ ही रात को इन्हें रोटी मिल पाती है।

संथाल जनजाति का इतिहास देखने और इनके कथनानुसार तथा ऐतिहासिक सूत्रों से ऐसा जान पड़ता है, कि वास्तव में ये लोग इस प्रदेश के रहने वाले नहीं, अपितु रामगढ़ क्षेत्र ही पहले संथाल जनजाति का अपना क्षेत्र था। इतिहासकारों का ऐसा मत है, कि अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रामगढ़ क्षेत्र में एक बार वर्षा न होने के कारण इतना भयानक अकाल पड़ा कि जनता भूखों मरने लगी। हज़ारों घर उजड़ गये। चारों ओर हा हा कार मच गया, और लोग भूख से बिलख बिलख कर प्राण देने लगे। ऐसी अवस्था में वहां के लोग इस प्रदेश को छोड़ पेट की आग बुझाने की खोज में वहां से निकलने लगे। इन आदिवासियों को भी वह प्रदेश छोड़ना पड़ा, और जीवन के लोभ में ये अभागे घूमते घूमते यहां चले आये, ओर पहाड़ों के आंचल में बस गये।

पेट के लिये रोटी उपलब्ध करने की चिन्ता ने इन्हें महान परिश्रमी बना दिया। आलस्थ को इन लोगों ने बिल्कुल त्याग दिया और अपनी आने वाली नस्लों को भी काम की ओर प्रवृत्त किया। यही कारण है, कि संथाली लोग सदा परिश्रम से ही अपना जीवन पालने के अभ्यासी हो गये है। ठीक तौर से नहीं कहा जा सकता, कि संथाली लोग वास्तव में किन प्राचीन लोगों के वंशज हैं। क्‍योंकि इनके प्रति इतिहासकारों के भिन्‍न भिन्‍न मत हैं । परन्तु इन के मुखों को देख कर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे शायद ये लोग भारत की उन द्रविड़-जाति के लोगों की संताने हैं, जो आर्य काल से भी पहले इस भारत-भूमि पर निवास करती थी।

संथाल जनजाति की वेशभूषा

संथाल जनजाति के लोग अधिकतर पक्के रंग के होते हैं। आर्य वंशजों की भांति इनका शरीर गोरा नहीं होता। इसके अतिरिक्त संसार की अन्य आदिम-जातियों के लोगों की तरह ये लोग भी अधिकतर वस्त्रों का उपयोग नाम मात्र को ही करते हैं। परन्तु नगरों के समीप रह कर तथा वहां के लोगों के रहन-सहन से प्रभावित हो कर अब ये लोग वस्त्रों का कुछ उपयोग करने लगे है। किन्तु फिर भी शरीर का अधिक भाग नग्न रखने की ही इन्हें आदत सी है। पुरुष केवल एक धोती ही पहनते हैं, जो कि घुटनों से ऊपर जंघाओं तक ही बंधी होती है। शुभ अवसरों अथवा मेले दशहरों पर कभी ये लोग पगड़ी तथा कुर्ते का उपयोग भी कर लेते हैं। अन्यथा अधिकतर शरीर पर धोती के सिवाय अन्यय वस्त्र पहनना इन्हें नहीं-सुहाता। इसी प्रकार स्त्रियां भी केवल एक धोती ही पहनती हैं, जो कि पांवों से काफ़ी ऊंची बंधी होती है। चोली अथवा ब्लाऊज़ पहनने में इन्हें आलस प्रतीत होता है, इस लिये शरीर के इस भाग पर यह कोई वस्त्र नहीं पहनती। हाँ, वक्ष:स्थल को ढकने के लिये उसी धोती के एक आंचल को छाती पर लपेट लेती हैं। अधिक आभूषण पहनने का चाव इन्हें नहीं होता। फिर भी दो चार पुरातन फैशन के जेवर इन में प्रचलित हैं।

संथाल जनजाति
संथाल जनजाति

संथाल जनजाति का नृत्य व रिति रिवाज

बांसुरी बजाने का जितना चाव इन संथाली लोगों को है उतना
सम्भवतः संसार की किसी अन्य जाति को नहीं है । बंशी का महत्व यह अपने लिये तो कम से कम इतना अधिक समझते हैं, कि हर समय बाँसुरी इन के हाथ में ही दिखाई पड़ती है। अपने ढोरों को चराने के लिये जब ये लोग जंगल की ओर बांसुरी की घुन छेड़ते हुए चलते हें, तो सारा वातावरण झूम उठता है। इसके अतिरिक्त नाचने गाने का भी इन्हें बडा शौक है। खुशी के अवसरों पर स्त्री तथा पुरुष दोनों साथ साथ मिलकर नाचते हैं, नाचते समय संथाली गीत गाने का भी प्रचलन है। बांसुरी, ढोलक तथा नगाड़े आदि ही इनके प्रमुख वाद्य-यन्त्र है। बसन्त के त्यौहार को जिसे कि संथाली भाषा में ‘बाहा’ कहा जाता है, ये लोग बड़े बाजे गाजे तथा नाच रंग का आयोजन करते हैं। वास्तव में नाच तथा संगीत का इनके जीवन में इतना अधिक महत्व है, कि कोई भी काम ये लोग बिना संगीत के करना अधूरा समझते हैं। ओर यही हाल नृत्य का भी है। राह में चलते हुए खेतों में काम करते हुये तथा दिन रात गीतों की ही मधुर ध्वनि इनके मुख से फूटती रहती है।

संथाल जनजाति का विवाह

इन लोगों की सामाजिक रीतियां भी बड़ी अनोखी है। विवाह आदि सम्बन्धों का ढंग इन लोगों में कुछ कुछ पाश्चात्य देशों के लोगों की तरह ही निश्चित किया गया प्रतीत होता है। जब लड़की वाले को कोई योग्य वर अपनी पुत्री हेतु दिखाई पड़ता है, तो वह अपनी लड़की की सगाई के लिये लड़के वाले से प्रार्थना करता है। किन्तु वर की खोज यू ही नहीं की जाती, और न ही माँ बाप ही इस के लिये मारे मारे फिरते हैं। बल्कि जब कन्या विवाह योग्य हो जाती है, और पिता को उसकी शादी की चिन्ता होती है तो लड़की का पिता अपने कुटुम्ब के ‘बिचोली’ अथवा अगुआ के पास जाता है। विवाह आदि सम्बन्ध की बात चीत करने तथा वर चुनने का काम अगुआ पर ही निर्धारित होता है। तथा उससे अपनी पुत्री के लिये कोई योग्य वर तलाश करने के लिये कहता है। क्योंकि यह सब कार्य उसी पर निर्भर रहते हैं। जब वर की तलाश हो जाती है, और दोनों पक्षों के माता पिता उनका सम्बन्ध जोडने के लिये राजी हो जाते हैं, तब लड़के को लड़की से मिलने के लिये बाजार में कोई स्थान निश्चित किया जाता है। लड़की को सजा धजा कर उसी स्थान पर किसी शुभ मूहूर्त में ले जाया जाता है। लड़का भी वहां पहुँच जाता है। सभी लोग उन्हें अकेला छोड़ कर चले जाते हैं। और एकान्त में वे एक दूसरे को पसन्द करते है।

जब वे दोनों परस्पर राज़ी हो जाते हैं तब विवाह की तैयारियां
प्रारम्भ की जाती हैं पर इस से प्रथम भी कुछ आवश्यक रीति रिवाज पालन की जाती हैं। जैसे जब वर तथा कन्या की परस्पर अनुमति हो जाती है, तब दोनों पक्षों की ओर से माँ बाप एक दूसरे को ‘मूढी’ तथा ‘चिउड़ा’ खरीद कर भेंट करते हैं। इस प्रकार सगाई हो जाती है। और विवाह की बात पक्की समझी जाने लगती है। इस के बाद लड़के के घर वाले लड़की वालों को श्रद्धा अनुसार रुपये भेंट करते हैं। जिन में लड़की की माता, पिता तथा नानी का हिस्सा होता है। इतना हो जाने पर ही शादी का दिन नियत किया जाता है। फिर निश्चित किये हुए दिन ही लड़का अपनी बारात के साथ लड़की के घर पहुंचता है।

जब बारात लड़की वाले के द्वार पर पहुँच जाती है, तो प्रसिद्ध संथाली लोकनृत्य पेंकी होता है, इसमें केवल वर पक्ष के लाग ही भाग लेते हैं। नृत्य क्‍या है, अच्छा खासा हू-हल्लड़ मचाया जाता है। हाथों में बड़े बड़े लट्ठ लिये हुये हा-हू कर के ही ये लोग नृत्य करते हैं। ऐसा जान पड़ता है, जैसे किसी दल में बड़े-जोर शोर की लड़ाई हो रही हो। यह है संथाली लोगों के यहां की बारात आने पर मनाई जाने वाली सब से पहली रीति। इसके पश्चात लड़की वाले के यहां स्त्रियों के नृत्य होते हैं। यह नृत्य भी बड़े उल्टे सीधे होते है। संथाली भाषा में इस प्रकार के नृत्य को ‘दोंग’ के नाम से याद किया जाता है । इस नृत्य में भी काफ़ी हू-हल्लड़ मचाया जाता है।

इसके बाद समस्त उपस्थित-गणों के समक्ष वर तथा वधू को सजा धजा कर दो टोकरों में बिठाया जाता है। इस प्रदेश में विवाह के समय वधू लोगों अथवा अपने पति से परदा नहीं करती, अपितु खुले मुंह रहती है। टोकरों में वर वधू जब बिठा दिये जाते हैं, तभी सिन्दूर-दान की विधि सम्पन्न की जाती है। इसके बाद वर तथा वधू को नहला घुला कर दोनों के हाथ में धान तथा हल्दी आदि का कंगन बाँध दिया जाता है। और यह तब तक बंधा रहता है, जब तक कि यही कंगन के धान कुल्ले नहीं छोड़ने लगते। कारण यह है, कि बाँधते समय इन धानों को पानी में डाल कर खूब भिगो लिया जाता है। भीगेपन की वजह से यह धान दो चार दिन बाद ही अंकुर छोड़ने लगते हैं। अंकुर फूट आने पर किसी भी शुभ दिन अथवा शुभ मुहूर्त में कंगन खोल दिया जाता है। तभी वर तथा कन्या का मेल होता है। जब तक कंगन न खुले, तब तक एक दूसरे से इन्हें मिलने नहीं दिया जाता। कंगन खुलने के पश्चात ही, उन दोनों का पारस्परिक मेल उचित समझा जाता है। विवाह से पूर्व तथा कंगन खुलने से पहले यह कर्म महा पाप समझा जाता है। उत्तर-प्रदेश, पंजाब, बिहार, बंगाल, मध्य भारत आदि प्रान्तो के हिन्दुओं में भी ऐसी ही कुछ एक भिन्न प्रथाएं प्रचलित हैं।

संथाल जनजाति में 24 वर्ष से कम आयु के वर तथा 20 वर्ष से कम आयु की कन्या का विवाह नहीं हो सकता। ऐसा इनका सामाजिक नियम है। जिसे यह अन्य भारतीय जातियों की तरह नहीं तोड़ते अपितु हर प्रकार उसका अनुकरण करते हैं। विवाह को संथाली भाषा में ‘बपला’ कहते है। विवाह होने के पश्चात संतान की आस लगाई जाती है। ओर फिर एक शुभ दिन भगवान उनकी इस आशा को भी कभी न कभी पूरा कर ही देता है। उस समय नाच गाने आदि का विशेष कार्यक्रम नियत किया जाता है। संतान उत्पन्न होने पर जो कुछ रीतियां अदा की जाती हैं, उन्हें संथाली भाषी ‘नार्था’ कहते हैं। कन्या के जन्म पर यह उत्सव कम से कम 3 दिन तक मनाया जाता है। परंतु पुत्र होने पर नार्था का यह उत्सव अधिक दिन तक भी मनाया जाता है। पिता आदी शिशु के सभी पूज्य जन उसे आशीर्वाद देते हैं। ऐसे अवसर पर डट कर ताड़ी-पान किया जाता है। और केवल पुरुष ही नहीं, अपितु स्त्रियां भी इसे पीने में कोई कसर उठा नहीं रखतीं। फिर पुत्र बड़ा होने लगता है। तो कुछ दिन पश्चात उसका मुण्डन संस्कार सम्पन्न कराने की रसम अदा की जाती है। इस रस्म पर भी राग-रंग की गोष्ठिया जुड़ जाती हैं। तथा जी खोल कर नृत्य तथा दावतें की जाती हैं।

मृत्यु संस्कार आदि

मृत्यु आदि संस्कार भी इन के बड़े अनोखे प्रकार से होते हैं। पर दाह संस्कार इनका हिन्दू जाति की भांति ही किया जाता है। तीन दिन के पश्चात फूल चुने जाते है। मरने वाले का ज्येष्ठ पुत्र ही फूलों को लेकर दामोदर नदी में छोड़ आता है। इन फूलों में मरने वाले की खोपड़ी की ही दो चार हड्डियां होती हैं। फूल छोड़ने का भी बड़ा विचित्र ढंग है। जो पुत्र भी इन फूलों को छोड़ने जाता है, वह नदी में खड़ा हो कर, उन फूलों को अपने सिर पर रख लेता है, तथा मरने वाले के लिये विधाता से स्वर्ग की याचना करता हुआ नदी में डुबकी लगा देता है, फूल सिर पर से पानी में छूट पड़ते हैं, और वह डुबकी लगाने वाला तुरन्त पानी से ऊपर उठ जाता है। फिर भली-भाँति स्नान कर के घर को लौट आता है।

संथाली लोगों के लिये दामोदर नदी ही सब से पवित्र नदी है। यह लोग इसे पाप-नाशिनी तथा पवित्र तीर्थं-स्थान मानते हैं। इनका विश्वास है कि इसमें समान करने के पश्चात उनके सम्पूर्ण पाप धुल जाते हैं। मृतकों के फूल छोड़ने पर भी ऐसा ही विचार जिया जाता है, कि उसके सम्पूर्ण पाप दामोदर नदी में स्नान करके नष्ट हो चुके हैं, इस लिये उन्हें अवश्य ही स्वर्ग प्राप्त होता है।

बरसी आदि मनाने का भी इस संथाल जाति में प्रचलन है। इस अवसर पर मृतक के समस्त प्रेमी-जन, सगे-सम्बन्धी, तथा अन्य लोग उसके घर एकत्रित होते हैं। तथा उनको भोज दिया जाता है। इस अवसर पर धर्म की कथा की जाती है। वैसे यह कथा हिन्दू धर्म से अपना सम्बन्ध नहीं रखती। परन्तु इसका आधार हिन्दू-धर्म ही है।

संथालियों की लोक-कथाओ से पता चलता है, कि मानव की उत्पत्ति अण्डे से हुई है। परन्तु सत्य क्‍या है, यह तो वही जाने, जिसने मानव की रचना की। ऐसे अनुमान तो अनेक मानव जातियों के विद्वानों ने लगाये हैं। वैज्ञानिकों ने भी इस की बड़ी खोज की है। परन्तु विश्वास से कुछ भी कहना कठिन है। क्योंकि बहुत से विद्वानों ने वैज्ञानिकों की थाह का भी सप्रमाण खण्डन किया है।

संथाल लोग गायों को बड़े आदर की दृष्टी से देखते हैं। तथा इनके यहां गौ-पूजन का एक त्योहार भी होता है, जिसे यह लोग बड़ी धूमधामसे मनाते हैं। संथाली लोग अपनी भाषा में इस त्योहार को ‘सोहाराम’ के नाम से याद करते हैं। यही इन लोगों का एक श्रेष्ठ त्योहार है। इस अवसर पर गांव का धर्म-नायक अथवा पण्डित लोगों की इच्छानुसार गौ-पूजन के लिये कोई शुभ दिन निश्वित करता है। तथा उस दिन सारी रात उसे जागरण करना पड़ता है तथा वह व्रत भी रखता है। और अगली सुबह नदी या तालाब में जा कर सारे गांव वासियों के साथ स्नान करता है। इसके पश्चात वहीं किनारे पर एक स्थान को लीप पोत कर, स्वच्छ बना कर आटे तथा सिन्दूर की वेदी बनाई जाती है और उसमें चावल डाल कर उस पर एक अण्डा रख दिया जाता है फिर इसी स्थान पर एक मुर्गे की भेंट चढ़ाई जाती है। एक एक करके गायों को वेदि के समीप ले जाया जाता है। जो गाये अपने पगों से उस वेदि को रौंद कर चली जाती है।

उसी के पांवों को जल से धोकर उसके सींगों को तेल से चुपड़़ दिया जाता है, तथा तमाम शरीर पर सिन्दूरी ठप्पे लगा दिये जाते हैं। और उस गाय का पूजन किया जाता है। केवल यही नहीं, अपितु साथ साथ गांव के चरवाहे की पूजा भी की जाती है। यह कम सारा दिन रहता है। शाम होने पर ढोल, नगाड़े तथा बांसुरी बजाते हुये यह संथाली जन गांव के हर घर के सामने बारी बारी जाते हैं, तथा खूब नृत्य करते हैं। जिस घर के आगे भी जाकर इन की मण्डली नृत्य करती है। उसके लिये यह आवश्यक है, कि वह गुड़ अथवा मिठाई आदि उन में बांट कर उनका सत्कार करे। रात्रि के समय स्त्रियों की रयन-फेरी होती है। इस समय वह थालियों में धूप, दीप, रखकर आदि गायों का पूजन करती और नाचती गाती फिरती हैं। यह उत्सव तीन दिन तक मनाया जाता है।

यह है इन संथाल जनजाति का सरल जीवन। यह लोग अभी तक पूर्ण अशिक्षित ही रहे है। पर यदि ये लोग शिक्षित हो जायें, तो अवश्य ही भारत के उच्च नागरिकों में गिने जायें। क्योंकि यह लोग बड़े परिश्रमी तथा समय का उपयोग करने वाले हैं। चाहे भले ही यह आर्यवंशजों से संबन्धित न हों, फिर भी जब ये हमारे बीच रहते हैं, तथा भारत भूमि की सेवा कर अन्न खाते हैं तो ये हमारे ही भाई हैं। क्योंकि हम भी तो इसी भूमि के अन्न से पल रहे हैं। यही सोच करभारत सरकार ने अब इस ओर अपनी आंख उठाई है। आशा है, कि ये लोग शीघ्र ही शिक्षित होकर देश के भविष्य निर्माण के लिये जुट जायेंगे।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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